Thursday 16 March 2017

विकास के स्वदेशी संस्करण की परिकल्पना ...

"भारत की वास्तविकता पर आधारित विकास के स्वदेशी संस्करण की परिकल्पना हो सकता है विकास के नाम पर पाश्चात्य संस्कृति का आँख मूंदे अनुसरण करते इंडिया को नया लगे जिसे वह 'न्यू इंडिया' के रूप में देखता हो, पर ऐसा निष्कर्ष केवल भारत और इंडिया के सन्दर्भ में विकास की समझ और दृष्टिकोण के अंतर को ही स्पष्ट करता है।
भारत की वास्तविकता ही इसकी विशिष्टता है और इसलिए जब तक हम अपने जैसे बनने का प्रयास नहीं करते , एक राष्ट्र के रूप में हम अपने परम वैभव को प्राप्त कर ही नहीं सकते।
विश्व ने अब तक जितने भी विश्व युद्ध को यथार्थ में जीया है, वह उसी काल खंड में घटित हुए जब भारत पराधीनता की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था, अब इसे विश्व का दुर्भाग्य कहिये या भारत का, पर इतिहास साक्षी है की स्वाधीनता उपरान्त अपने उपस्थिति और विदेश नीति मात्र से ही गुटनिरपेक्ष आंदोलन द्वारा भारत ने संभावित तृत्य विश्व युद्ध को शीत युद्ध तक सीमित कर दिया ; वैश्विक व्यवस्था में क्या यह भारत के महत्व और प्रासंगिकता का पर्याप्त प्रमाण नहीं ?
तात्कालीन परिस्थितियां कुछ और थी, आज की परिस्थितियां कुछ और है, तब भारत को स्वाधीन हुए अधिक वर्ष नहीं हुए थे और आज भारत को स्वाधीनता प्राप्त हुए कई दशक बीत चुके हैं और आज यहाँ लोकतंत्र भी परिपक्व हो चूका है, ऐसे में, आज न केवल विश्व की अपेक्षाएं बल्कि वैश्विक व्यवस्था में भारत की भूमिका की संभावनाएं भी कई गुना बढ़ चुकी है।
आज जब संसार की विविधता ही विश्व शांति के लिए खतरा और घर्षण का कारन बन चुकी है, वैश्विक शांति, समृद्धि और सुरक्षा को सुनिश्चित करने की दृष्टि से भारत की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण है, ऐसे में, यह जानना महत्वपूर्ण है की उदाहरण की प्रस्तुति द्वारा ही किसी भी सिद्धांत को सबसे अच्छे तरिके से समझाया जा सकता है ; तो क्यों न नैतिक मूल्यों के मौखिक उपदेश देने के बदले हम अपने नैतिक सिद्धांतों को व्यवहार में अनुवाद कर यथार्थ में आदर्श का व्यावहारिक उदाहरण बनने का प्रयास करें, ऐसे करने से किसी तरह के संशय की कोई सम्भावना भी नहीं बचेगी।
हम जैसी वैश्विक व्यवस्था की अपेक्षा रखते हैं, हमें अपने प्रयास द्वारा उसका उदाहरण प्रस्तुत करना होगा, इसके लिए शुरुआत हमें अपने आप से करनी होगी।
एक ऐसी व्यवस्था जो धर्म , नीति और न्याय द्वारा शाषित हो, एक ऐसा समाज जहाँ तृष्णा और तृप्ति का अंतर स्पष्ट हो, एक ऐसा राष्ट्र जो अपने वैभव से विश्व के समक्ष आदर्श का उदाहरण हो , यही आज हमें अपने प्रयास से सुनिश्चित करने की आवश्यकता है।
प्रयास के पहले चरण में समाज को संगठित किया गया, दुसरे चरण में विचारधारा पर आधारित वैकल्पिक राजनीतिक व्यवस्था की आवश्यकता की पूर्ती की गयी और अंततः आज जब सत्ता के माध्यम से समस्त संवैधानिक शक्तियां के प्रयोग का अधिकार प्राप्त है, व्यवस्था परिवर्तन का यही समय है; क्योंकि यही समय की आवश्यकता है और परिस्थितियों की मांग; अगर अब नहीं तो कब ?"

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