Monday, 28 January 2019

sanskar--march

वैसे तो चीकू पूरे वर्ष बाजार में उपलब्ध रहता है ...पर इस समय चीकू की बहार रहती है.... इसे सर्दी का मेवा भी कहा जाता है....चीकू मध्यम आकार का फलीय वृक्ष है.... गुजरात, महाराष्ट्र, कर्नाटक तथा तमिलनाडु राज्यों में इसकी बड़े क्षेत्रफल में खेती की जाती है....अब तो मध्यप्रदेश में भी इसकी बड़े स्तर पर खेती होने लगी है..… इस फल में दो से तीन काले रंग के बीच होते है...इसे बीज और ग्राफ्टिंग दोनो प्रकार से लगाया जा सकता है..इस पेड़ की ग्राफ्टिंग रायण(खिरनी) पर की जाती है.....इसे हम घर के आंगन या बाड़े में आसानी से लगा सकते हैं..।
चीकू में शर्करा पर्याप्त मात्रा में होती है...इसमे फास्फोरस,लोह तत्व और वसा प्रचुर मात्रा में पायी जाती है....इस कारण इसे सर्दी का मेवा भी कहा जाता है
चीकू पचने में थोडा भारी होता है... यह फ्रूक्टोज एवं सुक्रोज का एक अच्छा स्रोत है.... वैसे इस फल को आप कभी भी खा सकते हैं लेकिन भोजन ग्रहण करने के बाद चीकू खाने से इसका स्वास्थ्य लाभ एवं औषधीय गुण कई गुना बढ़ जाता है।
बालो का झड़ना हो या आंखों की बीमारी...त्वचा की सुंदरता हो या हड्डियों की मजबूती चीकू फल का सेवन समाधान है.....चीकू के बीज को पीसकर खाने से किडनी की #पथरी पैसाब के रास्ते बाहर निकल जाती है ।
इसमें पाए जाने वाला "टैनिन" हमे कब्ज दस्त और एनीमिया से बचाता है...
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झांसी के अंतिम संघर्ष में #महारानी_लक्ष्मीबाई की पीठ पर बंधा उनका बेटा #दामोदर_राव (असली नाम आनंद राव) सबको याद है. रानी की चिता जल जाने के बाद उस बेटे का क्या हुआ?
वो कोई कहानी का किरदार भर नहीं था, 1857 के विद्रोह की सबसे महत्वपूर्ण कहानी को जीने वाला राजकुमार था जिसने उसी गुलाम भारत में जिंदगी काटी, जहां उसे भुला कर उसकी मां के नाम की कसमें खाई जा रही थी.

अंग्रेजों ने दामोदर राव को कभी झांसी का वारिस नहीं माना था, सो उसे सरकारी दस्तावेजों में कोई जगह नहीं मिली थी. ज्यादातर हिंदुस्तानियों ने सुभद्रा कुमारी चौहान के कुछ सही, कुछ गलत आलंकारिक वर्णन को ही इतिहास मानकर इतिश्री कर ली.

1959 में छपी वाई एन केलकर की मराठी किताब ‘इतिहासाच्य सहली’ (इतिहास की सैर) में दामोदर राव का इकलौता वर्णन छपा.

महारानी की मृत्यु के बाद दामोदार राव ने एक तरह से अभिशप्त जीवन जिया. उनकी इस बदहाली के जिम्मेदार सिर्फ फिरंगी ही नहीं हिंदुस्तान के लोग भी बराबरी से थे.

आइये, दामोदर की कहानी दामोदर की जुबानी सुनते हैं –

15 नवंबर 1849 को नेवलकर राजपरिवार की एक शाखा में मैं पैदा हुआ. ज्योतिषी ने बताया कि मेरी कुंडली में राज योग है और मैं राजा बनूंगा. ये बात मेरी जिंदगी में सबसे दुर्भाग्यपूर्ण ढंग से सच हुई. तीन साल की उम्र में महाराज ने मुझे गोद ले लिया. गोद लेने की औपचारिक स्वीकृति आने से पहले ही पिताजी नहीं रहे.

मां साहेब (महारानी लक्ष्मीबाई) ने कलकत्ता में लॉर्ड डलहॉजी को संदेश भेजा कि मुझे वारिस मान लिया जाए. मगर ऐसा नहीं हुआ.

डलहॉजी ने आदेश दिया कि झांसी को ब्रिटिश राज में मिला लिया जाएगा. मां साहेब को 5,000 सालाना पेंशन दी जाएगी. इसके साथ ही महाराज की सारी सम्पत्ति भी मां साहेब के पास रहेगी. मां साहेब के बाद मेरा पूरा हक उनके खजाने पर होगा मगर मुझे झांसी का राज नहीं मिलेगा.

इसके अलावा अंग्रेजों के खजाने में पिताजी के सात लाख रुपए भी जमा थे. फिरंगियों ने कहा कि मेरे बालिग होने पर वो पैसा मुझे दे दिया जाएगा.

मां साहेब को ग्वालियर की लड़ाई में शहादत मिली. मेरे सेवकों (रामचंद्र राव देशमुख और काशी बाई) और बाकी लोगों ने बाद में मुझे बताया कि मां ने मुझे पूरी लड़ाई में अपनी पीठ पर बैठा रखा था. मुझे खुद ये ठीक से याद नहीं. इस लड़ाई के बाद हमारे कुल 60 विश्वासपात्र ही जिंदा बच पाए थे.

नन्हें खान रिसालेदार, गनपत राव, रघुनाथ सिंह और रामचंद्र राव देशमुख ने मेरी जिम्मेदारी उठाई. 22 घोड़े और 60 ऊंटों के साथ बुंदेलखंड के चंदेरी की तरफ चल पड़े. हमारे पास खाने, पकाने और रहने के लिए कुछ नहीं था. किसी भी गांव में हमें शरण नहीं मिली. मई-जून की गर्मी में हम पेड़ों तले खुले आसमान के नीचे रात बिताते रहे. शुक्र था कि जंगल के फलों के चलते कभी भूखे सोने की नौबत नहीं आई.

असल दिक्कत बारिश शुरू होने के साथ शुरू हुई. घने जंगल में तेज मानसून में रहना असंभव हो गया. किसी तरह एक गांव के मुखिया ने हमें खाना देने की बात मान ली. रघुनाथ राव की सलाह पर हम 10-10 की टुकड़ियों में बंटकर रहने लगे.

मुखिया ने एक महीने के राशन और ब्रिटिश सेना को खबर न करने की कीमत 500 रुपए, 9 घोड़े और चार ऊंट तय की. हम जिस जगह पर रहे वो किसी झरने के पास थी और खूबसूरत थी.

देखते-देखते दो साल निकल गए. ग्वालियर छोड़ते समय हमारे पास 60,000 रुपए थे, जो अब पूरी तरह खत्म हो गए थे. मेरी तबियत इतनी खराब हो गई कि सबको लगा कि मैं नहीं बचूंगा. मेरे लोग मुखिया से गिड़गिड़ाए कि वो किसी वैद्य का इंतजाम करें.

मेरा इलाज तो हो गया मगर हमें बिना पैसे के वहां रहने नहीं दिया गया. मेरे लोगों ने मुखिया को 200 रुपए दिए और जानवर वापस मांगे. उसने हमें सिर्फ 3 घोड़े वापस दिए. वहां से चलने के बाद हम 24 लोग साथ हो गए.

ग्वालियर के शिप्री में गांव वालों ने हमें बागी के तौर पर पहचान लिया. वहां तीन दिन उन्होंने हमें बंद रखा, फिर सिपाहियों के साथ झालरपाटन के पॉलिटिकल एजेंट के पास भेज दिया. मेरे लोगों ने मुझे पैदल नहीं चलने दिया. वो एक-एक कर मुझे अपनी पीठ पर बैठाते रहे.

हमारे ज्यादातर लोगों को पागलखाने में डाल दिया गया. मां साहेब के रिसालेदार नन्हें खान ने पॉलिटिकल एजेंट से बात की.

उन्होंने मिस्टर फ्लिंक से कहा कि झांसी रानी साहिबा का बच्चा अभी 9-10 साल का है. रानी साहिबा के बाद उसे जंगलों में जानवरों जैसी जिंदगी काटनी पड़ रही है. बच्चे से तो सरकार को कोई नुक्सान नहीं. इसे छोड़ दीजिए पूरा मुल्क आपको दुआएं देगा.

फ्लिंक एक दयालु आदमी थे, उन्होंने सरकार से हमारी पैरवी की. वहां से हम अपने विश्वस्तों के साथ इंदौर के कर्नल सर रिचर्ड शेक्सपियर से मिलने निकल गए. हमारे पास अब कोई पैसा बाकी नहीं था.

सफर का खर्च और खाने के जुगाड़ के लिए मां साहेब के 32 तोले के दो तोड़े हमें देने पड़े. मां साहेब से जुड़ी वही एक आखिरी चीज हमारे पास थी.

इसके बाद 5 मई 1860 को दामोदर राव को इंदौर में 10,000 सालाना की पेंशन अंग्रेजों ने बांध दी. उन्हें सिर्फ सात लोगों को अपने साथ रखने की इजाजत मिली. ब्रिटिश सरकार ने सात लाख रुपए लौटाने से भी इंकार कर दिया.

दामोदर राव के असली पिता की दूसरी पत्नी ने उनको बड़ा किया. 1879 में उनके एक लड़का लक्ष्मण राव हुआ.दामोदर राव के दिन बहुत गरीबी और गुमनामी में बीते। इसके बाद भी अंग्रेज उन पर कड़ी निगरानी रखते थे। दामोदर राव के साथ उनके बेटे लक्ष्मणराव को भी इंदौर से बाहर जाने की इजाजत नहीं थी।
इनके परिवार वाले आज भी इंदौर में ‘झांसीवाले’ सरनेम के साथ रहते हैं. रानी के एक सौतेला भाई चिंतामनराव तांबे भी था. तांबे परिवार इस समय पूना में रहता है. झाँसी के रानी के वंशज इंदौर के अलावा देश के कुछ अन्य भागों में रहते हैं। वे अपने नाम के साथ झाँसीवाले लिखा करते हैं। जब दामोदर राव नेवालकर 5 मई 1860 को इंदौर पहुँचे थे तब इंदौर में रहते हुए उनकी चाची जो दामोदर राव की असली माँ थी। बड़े होने पर दामोदर राव का विवाह करवा देती है लेकिन कुछ ही समय बाद दामोदर राव की पहली पत्नी का देहांत हो जाता है। दामोदर राव की दूसरी शादी से लक्ष्मण राव का जन्म हुआ। दामोदर राव का उदासीन तथा कठिनाई भरा जीवन 28 मई 1906 को इंदौर में समाप्त हो गया। अगली पीढ़ी में लक्ष्मण राव के बेटे कृष्ण राव और चंद्रकांत राव हुए। कृष्ण राव के दो पुत्र मनोहर राव, अरूण राव तथा चंद्रकांत के तीन पुत्र अक्षय चंद्रकांत राव, अतुल चंद्रकांत राव और शांति प्रमोद चंद्रकांत राव हुए।

दामोदर राव चित्रकार थे उन्होंने अपनी माँ के याद में उनके कई चित्र बनाये हैं जो झाँसी परिवार की अमूल्य धरोहर हैं।

उनके वंशज श्री लक्ष्मण राव तथा कृष्ण राव इंदौर न्यायालय में टाईपिस्ट का कार्य करते थे ! अरूण राव मध्यप्रदेश विद्युत मंडल से बतौर जूनियर इंजीनियर 2002 में सेवानिवृत्त हुए हैं। उनका बेटा योगेश राव सॅाफ्टवेयर इंजीनियर है। वंशजों में प्रपौत्र अरुणराव झाँसीवाला, उनकी धर्मपत्नी वैशाली, बेटे योगेश व बहू प्रीति का धन्वंतरिनगर इंदौर में सामान्य नागरिक की तरह माध्यम वर्ग परिवार हैं।

कांग्रेस के चाटुकारों ने तो सिर्फ नेहरू परिवार की ही गाथा गाई है इन लोगों को तो भुला ही दिया गया है जिन्होंने असली लड़ाई लड़ी थी अंग्रेजो के खिलाफ आइए इस को आगे पीछे बढ़ाएं और लोगों को सच्चाई से अवगत कराए !!
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चौरीचौरा उत्तरप्रदेश के गोरखपुर जिले में हैं जो ब्रिटिश शासन काल में कपड़ों और अन्य वस्तुओं की बड़ी मंडी हुआ करता था। अंग्रेजी शासन के समय गांधी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य अंग्रेजी शासन का विरोध करना था। इस आन्दोलन के दौरान देशवासी ब्रिटिश उपाधियों, सरकारी स्कूलों और अन्य वस्तुओं का त्याग कर रहे थे। इसी प्रकार #चौरीचौरा के स्थानीय बाजार में भी भयंकर विरोध हो रहा था। इस विरोध प्रदर्शन के चलते 2 फरवरी 1922 को पुलिस ने दो क्रांतिकारियों को गिरफ्तार कर लिया था। अपने साथियों की गिरफ़्तारी का विरोध करने के लिए करीब 4 हजार आन्दोलनकरियों ने थाने के सामने ब्रिटिश शासन के खिलाफ प्रदर्शन और नारेबाजी करने लगे। इस प्रदर्शन को रोकने के लिए पुलिस ने हवाई फायरिंग की। फिर भी जब प्रदर्शनकारी नहीं माने तो उन लोगों पर ओपन फायर किया गया जिसके कारण #3_प्रदर्शनकारियों_की_मौत हो गई और कई लोग घायल हो गए। पुलिसकर्मियों की गोलिया खत्म होने के बाद वे थाने में ही छिप गए। अपने साथी क्रांतिकारियों की मौत से आक्रोशित क्रांतिकारियों ने थाना घेरकर उसमे आग लगा दी। इस घटना में थानाध्यक्ष समेत 22 पुलिसकर्मी जिंदा जल गए।
#गांधी को यह घटना जब पता चली तो वो क्रांतिकरियो से बहुत नाराज हुए थे। उन्होंने उनके लिए कठोर शब्दों का उपयोग किया था और इतना ही नहीं, चौरीचौरा के क्रांतिकारियों को ही दोषी बताते हुए उन्होंने अपना #असहयोग_आंदोलन वापस ले लिया। इसी के चलते चौरीचौरा के वो बलिदानी समाज की नजर में उपेक्षित हो गये। उनको ऐसे देखा जाने लगा जैसे गांधी का कहा न मान कर उन्होंने देश का कोई बहुत बड़ा नुक्सान कर दिया हो।
इसके बाद 9 जनवरी 1923 के दिन चौरीचौरी कांड के लिए 172 लोगों को आरोपी बनाया गया था। अत्याचारी ब्रिटिश हुकूमत ने 19 को फांसी और 14 को काला पानी की सजा सुनाई थी।

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 सोचिए - विज्ञान हमे कहाँ ले आया ?*
*पहले  वो कुँए का पानी पीकर भी 100 वर्ष जी लेते थे
*अब  RO का शुद्ध पानी पीकर 40 वर्ष में बुढे हो रहे है
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*पहले  वो घाणी का मैला सा तैल खाके बुढ़ापे में भी मेहनत कर लेते थे।
*अब  हम डबल-ट्रिपल फ़िल्टर तैल खा कर जवानी में भी हाँफ जाते है
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*पहले  वो डले वाला नमक खाके बीमार ना पड़ते थे।
*अब  हम आयोडीन युक्त खाके हाई-लो बीपी लिये पड़े है
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*पहले  वो नीम-बबूल कोयला नमक से दाँत चमकाते थे और 80 वर्ष तक भी चब्बा-चब्बा कर खाते थे
*अब  कॉलगेट सुरक्षा वाले रोज डेंटिस्ट के चक्कर लगाते है
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*पहले  वो नाड़ी पकड़ कर रोग बता देते थे
*अब  आज जाँचे -रिपोर्ट -कराने पर भी रोग नहीं जान पाते है
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*पहले  वो 7-8 बच्चे जन्मने वाली माँ 80 वर्ष की अवस्था में भी खेत का काम करती थी।
*अब  पहले महीने से डॉक्टर की देख-रेख में रहते है फिर भी बच्चे पेट फाड़ कर जन्मते है
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*पहले  काले गुड़ की मिठाइयां खूब खा जाते थे
*अब  खाने से पहले ही सुगर की बीमारी हो जाती है
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*पहले  बुजर्गो के भी घुटने नहीं दुखते थे
*अब  जवान भी घुटनो और कन्धों के दर्द से कहराता है
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*समझ नहीं आता ये विज्ञान का युग है या अज्ञान का ?*
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इतने दिग्गजों के बीच पद्मश्री पाने वाला एक नाम है एक चाय बनाने वाले कटक,ओडिसा के डी.प्रकाशराव का.इतने दिग्गजों के बीच एक चाय वाला???लेकिन चायवाला क्यो??क्योकि चायवाला जो काम कर रहा है वो देश और समाज के समक्ष मिसाल है.
वह रोज सुबह 4 बजे जगते हैं। कटक के बख्‍शीबाजार में उनकी एक छोटी सी चाय की दुकान है। 10 बजे दिन तक डी. प्रकाश राव आपको यही मिलेंगे। वह बीते 50 साल से चाय बेच रहे हैं। उनके पिता भी यही काम करते थे। लेकिन प्रकाश राव की असली जिंदगी दिन के 10 बजे के बाद शुरू होती है। वह गरीब बच्‍चों के लिए स्‍कूल चलाते हैं। अपनी कमाई का अध‍िकतर हिस्‍सा 80 बच्‍चों के लिए चलाए जा रहे स्‍कूल में लगा देते हैं। श‍िक्षा की अलख जगा रहे प्रकाश राव की जिंदगी एक मिसाल है
प्रकाश राव को चाय बेचकर जो भी पैसा मिलता है, उसका बड़ा हिस्सा वह समाज सेवा में लगा देते हैं। वह 1976 से बख्‍शीबाजार में चाय की दुकान चला रहे हैं। उनके पिताजी भी यही दु‍कान चलाते थे। पिता ने दूसरे विश्व युद्ध में भी हिस्सा लिया था। कहते हैं कि इंसान खुद जिस चीज के लिए तरसता है, दूसरों को उस दर्द में कभी नहीं देखना चाहता। यही बात डी. प्रकाश राव के साथ भी है। पढ़ने-लिखने का बहुत शौक था। लेकिन पिता चाहते थे कि प्रकाश राव काम में उनका हाथ बंटाए। लिहाजा, बचपन चाय की केतली के इर्द-गिर्द ही बीता।हालांकि, स्‍कूल में पढ़ाई का सिलसिला भी जारी रहा। जब डी. प्रकाश राव 11वीं कक्षा में थे, तब उनके पिता गंभीर रूप से बीमार हो गए। परिवार के पालन-पोषण की जिम्‍मेदारी प्रकाश राव पर आ गई। पढ़ाई छूट गई और दुकानदारी ही जिंदगी बन गई। लेकिन एक टीस थी, जो सीने में जलती रही। प्रकाश राव ने देखा कि उनके आसपास झुग्गी में रहने वाले बच्चे स्कूल नहीं जाते। उन बच्‍चों के माता-पिता नन्‍हें-मुन्‍नों से कमाई करवाना ज्‍यादा जरूरी मानते हैं। आसपास कोई स्कूल भी नहीं था।
डी. प्रकाश राव ने एक शुरुआत करने की ठानी। साल 2000 में एक छोटा सा स्कूल खोल दिया। आसपास रहने वाले लोगों से बात की और उन्‍हें बच्‍चों को स्‍कूल भेजने के लिए मनाया। कुछ शिक्षक भी नियुक्त किए और खुद भी थोड़ा बहुत पढ़ाने लगे। डी. प्रकाश राव का यह स्‍कूल अभी सिर्फ तीसरी क्‍लास तक है। इसके बाद प्रकाश राव बच्‍चों का सरकारी स्कूल में दाखिल करवा देते हैं। उनके स्कूल के बच्चे पढ़ाई में अव्‍वल आते हैं। खेल की दुनिया में इन बच्‍चों का नाम है। 2013 में गोवा में हुए नेशनल विंड सर्फिंग कंपीटिशन में डी. प्रकाश राव के स्कूल के महेश राव ने छह गोल्ड मेडल जीते थे।
प्रकाश राव शुरुआत में स्कूल चलाने का पूरा खर्चा खुद उठाते थे। लेकिन अब दूसरे लोग भी इसमें उनकी मदद करते हैं। स्कूल चलाने के अलावा प्रकाश राव निकट के एससीबी अस्पताल में सरकार की मदद से एक सहायता केंद्र भी चलाते हैं। इस सहायता केंद्र से वो मरीजों को दूध, गर्म पानी, आइस क्यूब और अन्य जरूरत की चीजें उपलब्ध करवाते हैं। बीते 40 साल से वह लगातार रक्तदान भी करते आ रहे हैं।
आज के युग मे जहां लोग जमीन जायदाद और थोड़े से पैसों के लालच में अपनो को मार रहे ऐसे युग मे चाय बेचकर दुसरो के गरीब बच्चो को पढ़ाना और दीं दुखियों की सेवा करने वाले प्रकाश राव असाधारण कार्य कर रहे है और ये प्रकाशराव का नही बल्कि पद्मश्री का सन्मान है.,
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गौरवशाली है हम लोग... हिन्दू धर्म मे जन्म मिला ....
भगवान शिव की नटराज स्वरुप प्रतिमा 2008 में जेनेवा मे यूरोपियन आर्गनाइजेशन फार न्यूकिलर रिसर्च ( सर्न ) की
महाप्रयोगशाला के बाहर स्थापित की गयी थी ।
भारत ने नटराज की ये मूर्ति भी भेंट की थी जो चोल काल की बताई जाती है। हिन्दु धर्मानुसार 33 कोटी के देवी देवताओं मे  से भगवान शिव ही सृष्ट्रि के रचियता और सँहारक है. 
 जेनेवा मे यूरोपियन आर्गनाइजेशन फार न्यूकिलर रिसर्च ( सर्न ) मे 2008 मे जब एक महाप्रयोग की शुरुआत की गयी तब भगवान शिव की नटराज स्वरुप प्रतिमा महाप्रयोगशाला के बाहर पूर्णत वैदिक मँत्रोच्चार के साथ स्थापित कर उनके आर्शिवाद के साथ इस महाप्रयोग को शुरु किया गया था। क्योकि ऐसी आशँका थी कि उस प्रयोग से ब्लैकहोल निर्मित हो सकते है जो दुनिया के विनाश का कारण बन सकते है ।

अपने ही देश मे हम हिन्दू व्यक्तिगत रूप के सिवा अन्यत्र कही ऐसा करने की सोच भी नहीं सकते, क्योंकि यहाँ तो हमपर सांप्रदायिक होने का ठप्पा लगा दिया जाता है । शर्म आनी चाहिए धर्मनिरपेक्षियों को जो सर्वधर्मसमभाव का नारा ले कर चलते है ।
इस बात को स्वीकार करे कि हम कितने अधिक भाग्यशाली और गौरवशाली है हम लोग, कि हमको इस महान हिन्दू धर्म मे जन्म मिला ...

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रामेश्वर मिश्र पंकज
मणिकर्णिका फिल्म से सीखने योग्य कुछ और बातें:
1.भारत के हिन्दू राजाओं रानियों के विराट पुस्तकालय होते थे और वे अत्यंत अध्ययन शील होते थे।
2 ईसाइयों को पुस्तकालय जलाने की घृणित आदत मुसलमानों जैसी ही थी।भारत में इसकी जानकारी नहीं है।युरप में यह तथ्य सर्वविदित हैं।किसी हिन्दू राजा ने कभी किसी के पुस्तकालय नहीं जलाए।
3ग्वालियर महाराजा के सैनिक और अधिकारियों के शरीर के आभूषण देखिए।वैसे आभूषण रानी विक्टोरिया के पास तब तक नहीं थे जब तक उन्हें भारत से उपहार नहीं मिले।
महाराजा के समान आभूषण तो किसी यरोपीय राजा के पास आजतक कभी नहीं रहे।
4कम्पनी की वह हैसियत स्वयं की नहीं थी।भारतीय राजाओं के सहयोग से शक्ति बनी पर ईसाइयत ने उन्हें राक्षस बना दिया।कोई हिन्दू राजा या हिन्दू कम्पनी या हिन्दू धनिक लोग वैसे बर्बर कभी नहीं हो सकते।
मणिकर्णिका फिल्म से कुछ और तथ्य
1 कंपनी के राक्षसों और कमीनों को कुचलने के लिए सैनिक दीन दीन ,,हर हर महादेव कहकर दौड़ते हैं जिससे स्पष्ट है कि यह ईसाइयत की नीचता और ढिठाई ,लूट और डाका जनी के विरुद्ध हिंदुओं और मुसलमानों का संयुक्त मोर्चा था।
अतः स्वाधीनता के बाद ईसाइयत को भारत में प्रचार की छूट देने वाले सभी नेता अपराधी हैं क्योंकि गांधी जी ने स्वयं कहा था कि स्वतंत्र भारत में 1 दिन के लिए भी पादरियों को धर्मांतरण की छूट नहीं दी जा सकेगी क्योंकि धर्मांतरण यानी कनवर्जन राष्ट्रद्रोह है और वह भयंकर जहर है ,,मानव जाति के लिए हलाहल विषहै।
उस हलाहल विष और राष्ट्रद्रोह को शब्दों के छल से वागाडमबर से ढककर सभी दल भारत में निरंतर फैलने दे रहे हैं अतः इस मोर्चे पर सभी नेता भारत द्रोह और हिंदू द्रोह के दोषी हैं।
2 15 August 19 47 के बाद मुसलमान नेताओं ने तो इस्लाम के लिए एक बड़ा हिस्सा हड़पने के बाद भी शेष भारतवर्ष में दीन और ईमान की पढ़ाई सरकारी खजाने से जारी रखवाई। अतः वे तो अपने दीनन के लिए वफादार निकले यद्यपि मानवता के लिए हानिकारक है।
परंतु हिंदू नेता हिंदू समाज के प्रति पूरी तरह कृतघ्न निकले और मानवता के प्रति भी।
क्योंकि उन्होंने इस महान युद्ध में हिंदुओं के द्वारा निरंतर लगाए जाने वाले हर हर महादेव और वंदे मातरम के उद्घोष ओं के अनुरूप भावना का सम्मान नहीं किया और हिंदू धर्म को शासन के द्वारा संरक्षण योग्य अधिकृत तथा विधिक रुप से संरक्षण योग्य धर्म नहीं घोषित किया यह स्वयं में महापाप है।
3 फिल्म दिखाती है कि भारत के राजा महाराजा संस्कृत की विद्या परंपरा और भारत की ज्ञान परंपरा के अच्छे खासे जानकार होते थे और श्रद्धा रखते थे ।
1947 ईस्वी के बाद भारत की किसी भी पार्टी का कोई भी शासन में गया हुआ नेता ऐसा नहीं है जो कालिदास, भारवि, माघ, दंडी आदि कवियों को या बाणभट्ट आदि को पढ़ चुका हो या भारत की ज्ञान परंपरा से परिचित हो।
यहां तक कि महाभारत तथा अर्थशास्त्र में प्रतिपादित राज्य के आदर्शों से परिचित हो और उनको शासन के स्तर पर प्रतिष्ठित करने के लिए जिसने कभी भी संकल्प तक दिखाया हो

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राजपूत_शब्द_का_मतलब_राजस्थान_से_नही_है ...राजपूत मतलब धरती पुत्र
अंग्रेजो की मेहरबानी से आज के क्षत्रियो को राजपूत शब्द का मतलब तक नही पता । राजपूत शब्द को " राजस्थान " से जोड़कर देखते है।
जबकि यह सत्य नही है -- राजपूत शब्द का राजस्थान से तो कोई लेना देना ही नही है , ओर ना ही राजपूताने का राजस्थान से कोई लेना देना है ।

#आप_स्वंय_सोंचे-----------
ना तो राठौड़ मूल रूप से राजस्थान के है,
ना कुशवाह
ना यदुवँशी राजस्थान् मूल के है,
ओर ना ही तंवर राजस्थान मूल के है
यहां तक कि जिन महाराणा प्रताप का नाम गर्व से सुनते है, उनका खुद का मूल राजस्थान से नही है ।
राम के वंशजो की पुरानी गद्दी अयोध्या से शुरू होती है, कृष्ण की गद्दी भी द्वारिका से, यह दोनों ही प्रदेश राजस्थान में नही है, पांडव दिल्ली से है, ओर परमार, प्रतिहारो का गढ़ भी पूर्व में राजस्थान् के बाहर ही रहा है ।
राजस्थान में राजपूतो का जमघड़ लगने का एक ही कारण था, बॉर्डर से दुश्मन को देश मे ना घुसने दिया जाए । इसी कारण विभिन्न भारतीय प्रदेशो के राजपूतो ने राजस्थान में आके डेरा डाल लिया ।
राजपूत का अर्थ इस तरह है --
रज = मिट्टी
पूत = पुत्र
मिट्टी का पुत्र, राजपूत -- धरती का पुत्र राजपूत ।
जो अपना अस्तित्व मिट्टी से जोड़े, वह राजपूत । इसमे राजस्थान, उत्तरप्रदेश, महाराष्ट्र आदि को बीच मे लाने की आवश्यकता क्या है ??
#राजपूतो का तो कोई एक प्रदेश कभी हो ही नही सकता।
राजपूत के घोड़े का मुख जिधर है, वहीं प्रदेश राजपूत का है , इस बात को भूलकर अगर आप प्रान्त के नाम पर लड़ते हो, ऊँचा या नीचा समझते हो, तो आपको अपने आप को ठीक कर लेना चाहिए ।
याद रखे --
ना कोई कश्मीर का
ना राजस्थान का
ना महाराष्ट्र का
ना हिमाचल का
सिंध से लेकर रामेश्वरम तक सभी राजपूत ---- राजपूत मतलब धरती पुत्र ।
क्षत्रिय केवल राजपूत --
राजपूत ओर क्षत्रिय में कोई भेद नही है ।
यह मराठा, राजपुताना, हिमाचली, पहाड़ी, यह सब आपस मे ऊंच नीच कर खुद को बर्बाद कर लेने के रास्ते है, इस रास्ते पर न चले।
जय शिवाजी
जय महाराणा ।।
#पूजासिंह क्षत्राणी
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जंगल_जलेबी
चित्र को देखते ही आप जंगल जलेबी को पहचान गए होंगे..…इस समय जंगल जलेबी पर फलियों की बहार हैं....हममे से अधिकतर लोगों की बचपन की यादे जो इससे जुड़ी हैं.....।
जंगल जलेबी को गंगा ईमली,चिचबिलाई,अंग्रेजी इमली और हमारे क्षेत्र में इसे कढ़ीग भी कहते है ....बच्चों की अतिप्रिय गंगा ईमली अब दुर्लभ होती जा रही है...इसके पेड़ अब कोई लगाना नही चाहता,,आज का बचपन इन्हें कम ही जानता है..।
#गंगा_ईमली के फल में प्रोटीन, वसा, कार्बोहैड्रेट, केल्शियम, फास्फोरस, लौह, थायामिन, रिबोफ्लेविन आदि तत्व भरपूर मात्र में पाए जाते हैं. इसके पेड की छाल के काढे से पेचिश का इलाज किया जाता है.... त्वचा रोगों, मधुमेह और आँख के जलन में भी इसका इस्तेमाल होता है. पत्तियों का रस दर्द निवारक का काम भी करती है और यौन संचारित रोगों में भी कारगर है ... इसके पेड की लकड़ी का उपयोग इमारती लकड़ी की तरह ही किया जा सकता है....।



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