आज सारी दुनिया में चार बड़ी हलचलें चर्चा में हैं ..
1.पूंजीवाद से निर्मित तथाकथित आर्थिक मंदी, बेरोजगारी और भुखमरी..
2..धर्म के नाम पर शोषण, उपनिवेशवाद और ईश्वर के तथा कथित फरमान के चलते घोर प्रताड़ना, हिंसा, और आतंकवाद ..
3..जीवन के विकृत सिद्धांतों को मान लेने और उन पर आचरण करने से प्राकृतिक असंतुलन, ग्लोबल वार्मिंग, बाढ़, भूकम्प और हर ओर प्रदूषण का बढना ..
4..हर व्यक्ति के लिये आदर्श आचार संहिता पर आम सहमती नही होने से उत्पन्न टकराव, परिवारों का बिखरना .. इसी प्रकार जीवन के मिथ्या सिद्धांतों को स्वीकार कर लेने क़ी वजह से स्वार्थ, भोग, छल-कपट, ईर्ष्या -द्वेष तथा अप्राकृतिक जीवन शैली का बढना. फल स्वरूप रोगों का विस्तार तथा कानून और व्यवस्था का नियन्त्रण से बाहर हो जाना ..
हर देश में.. सरकारों, सामाजिक संगठनों और कबीलों व जन पंचायतों पर निपट स्वार्थियों का कब्जा है.. ये सभी बोलते कुछ हैं और करते कुछ और हैं.. पहले के लोग.. भाट, चारण जैसे लोगों को रखा करते थे, आज के लोग, मीडिया को मैनेज करके अपनी-अपनी जयजयकार करवाते हैं.. जनता का मनोबल और आत्मविश्वास तब भी गिरा हुआ था, आज भी गिरा हुआ है..
दरिद्र ही नारायण -
उन्हें पीड़ा थी क़ी ईश्वर ने जब सारे मनुष्यों को एक जैसा ही बनाया है तब समाज के नेतृत्व कर्ता, पिछड़े या दरिद्र वर्ग से क्यों नही निकल रहे ?. उस पूरे वर्ग को, भूख, अशिक्षा और समस्त कमजोरियों से मुक्त करा कर विश्व व्यवस्था को सुधारना यही उनका लक्ष्य था..
वे भी जानते थे यह कार्य आसान नही है .. अज्ञान से लड़ने और कमजोरियों पर विजय पाने के लिये भी 'मैन पावर ' और साधनों क़ी जरूरत थी.. वेद और उपनिषद उनके लिये शक्ति प्रदाता थे.. गीता में वर्णित सांख्ययोग और कर्मयोग को उनके जीवन आचरण में प्रत्यक्ष देखा जा सकता है.. इसे ही उन्होंने औरों के लिये भी सुझाया था.. उनकी मान्यता थी क़ी हिंदुत्व को धारण किये अपने समाज में, लम्बे समय से सुधार नही किया गया तो अनेक विकृत मान्यताओं और परम्पराओं ने स्थान बना लिया है.. यही हमारी कमजोरी का कारण है..
वे भारत ही नही... विश्व रत्न थे.. जब उनहोंने अपने विचार विश्व मंच पर रखे, तो आम जनता ने उन्हें सर माथे पर लिया था .. लूट, हिंसा, शोषण तथा शक्तिवानों के हर तरह के निरंकुश भ्रष्टाचार से निपटने के लिये, उन्होंने जो विचार प्रकट किये वे सुधारवादी ही नही, सहज व्यावहारिक भी थे. उन्होंने एक माहौल बना दिया था, लोगों क़ी आँखे खोल दी थीं. लोगों ने उसे दीवानों क़ी तरह पसंद भी किया था ..
उनका रास्ता आम जनता को समझदार और सशक्त बना देने वाला था. बेहतर शिक्षा, बेहतर स्वास्थ्य और उच्चतर ज्ञान के अलावा ईश्वर से साझेदारी, जैसे विषय उनकी कार्य सूची में थे .. हम उनके हिसाब से चलते तो तथाकथित धार्मिक दुकानदारियाँ अब तक दिवालिया हो चुकीं होतीं. इसलिए न तो धर्म के ठेकेदारों नें, ना ही सरकारों ने उनके सुझावों पर कोई कार्य किया .. साम्राज्यवाद तो शोषक था ही समाजवाद और साम्यवाद को भी लोगों ने ठुकरा दिया है ... अब फिर से विवेकानन्द क़ी याद आ रही है ..
पश्चिम क़ी जीवन शैली.. बचकाना प्रयोग ..
तलवार और दबाव के द्वारा, भोले-भाले लोगों को अपने धर्म में शामिल करना, उनको ज्ञान से वंचित करके उन्हें अपनी सत्ता का साधन बनाना यही पश्चिम क़ी रीत रही है. उन्होंने जिस प्रकार हिन्दुओं क़ी कुरीतियों को नकार दिया था, उसी प्रकार ईसा और मुहम्मद क़ी शिक्षाओं का अपने साम्राज्य के लिये दुरूपयोग करने वालों का भी उन्होंने जम कर विरोध किया था.. अपने से भिन्न धर्म वालों को स्वीकार नही करना, जो मूर्ती पूजा करता है, हमारे पैगम्बर और हमारे धर्म को नही मानता, उसे हमारा धर्म स्वीकार करना पड़ेगा या मरना पड़ेगा, ऐसी मान्यता के वे घोर विरोधी थे ..
आज पश्चिम क़ी जीवन शैली ने दुनिया में भयंकर संकट पैदा कर दिया है.. किन्तु उन्होंने तो आज से 130 वर्षो पूर्व ही इन यूरोपीय, अमेरिकी देशो क़ी व्यवस्था को नजदीक से देखा परखा और रिजेक्ट कर दिया था.. उन्होंने जो कारण और तर्क दिए थे, वे आज भी खरे प्रमाणित देखे जा सकते हैं, उनकी मान्यता थी क़ी उपस्थित विकृति के बावजूद भी हिन्दू समाज हजारों वर्षों से एक व्यवस्था बनाये हुए है, जबकि वहां वे जिस तरह समाज को स्थापित करने जा रहे हैं वह तो बनने के पहले ही बिखरते जा रहा है.. ऐसी अवस्था में हिंदुत्व क़ी स्थापित व्यवस्था को छोड़ देना कभी भी बुद्धिमानी क़ी बात नही हो सकती.. बल्कि यह तो सीधी सीधी मूर्खता ही है.. आवश्यकता है वेदों और उपनिषदों के वर्णित सिद्धांतों पर स्थापित अपने समाज में ही, अपेक्षित सुधार कर लिये जाएँ.. क्योंकि इस सिस्टम में आज विकार दिख रहे हैं फिर भी, अपनी इस विकृत अवस्था में भी यह समाज व्यवस्था पश्चिम से तो लाख दर्जे बेहतर है...
विवेकानन्द क़ी प्रासंगिकता --
पश्चिमी सोच रखने वाले और धार्मिक रूप से असहिष्णु लोगों का आज सभी ओर वर्चस्व दिख रहा है.. हिन्दुओं में भी पढ़ा -लिखा सम्भ्रांत वर्ग स्वयं भोगों में लिप्त और शक्तिहीन है.. ऐसे में उम्मीदें शेष भारत से ही हैं.. विशेष कर शेष भारत के युवाओं से.. शक्ति वहीं से खड़ी हो सकती है, उनके दिलों में आज भी हिंदुत्व के प्रति श्रद्धा विद्यमान है, उनमें कष्ट सहने का माद्दा भी है, लेकिन वे आर्थिक रूप से कमजोर हैं, दरिद्र हैं, हमें पहले उनकी सेवा करनी है....
आज क़ी स्थिति बड़ी विचित्र है.. आज साक्षात् विवेकानन्द भी दिल्ली के संसद भवन में खड़े होकर हिंदुत्व और वेदांत क़ी शिक्षाओं को जीवन में उतारने क़ी बात कहें.. तो मुझे इस बात में कोई शक नही है क़ी आज की संसद उन्हें भी साम्प्रदायिक करार दे.. आज तो उन पर भी प्रतिबन्ध लगाने के लिये हल्ला मच जाएगा.. ईसा को सूली पर चढ़ा देने वाली मानसिकता के ही लोगों का वर्चस्व है.. हमारी समस्त आशाओं का केंद्र तो वह हिदू समाज है जो हजारों वर्षों से पीड़ित, उपेक्षित पड़ा है... हमें उसे शक्ति सम्पन्न बनाना है.. इसके लिये लोग आगे आएं..
भारत फिर से शक्तिशाली बनें.. और विश्व को बेहतर दिशा दे .यही विवेकानन्द चाहते हैं...
-- विवेक गोविन्द सुरंगे
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