Thursday 15 November 2018

jan-sanskar


सुबह 4 बजे होती है दिन की शुरुआत,
करते हैं एक घंटा वर्कआउट,
योग और सूर्य नमस्कार है रुटीन में शामिल,
तली-भुनी चीजों को हाथ तक नहीं लगाते जॉन अब्राहम
जॉन अब्राहम  अपना 46वां बर्थडे सेलिब्रेट कर रहे हैं। उनका जन्म 17 दिसंबर, 1972 को कोच्चि में हुआ था। जॉन ने अपने करियर की शुरुआत मॉडलिंग से की थी। मॉडलिंग में किस्मत आजमाने के बाद 2003 में आई फिल्म 'जिस्म' से उन्होंने बॉलीवुड में एंट्री की। पिछले 15 साल से इंडस्ट्री में एक्टिव जॉन अपनी फिटनेस के लिए भी जाने जाते हैं। उनकी फिटनेस का राज रेग्युलर एक्सरसाइज और वर्कआउट है। ऐसे रखते है खुद को फिट...
- जॉन अपनी फिटनेस का खासा ध्यान रखते हैं। उनके मुताबिक, ''मैं रोज सुबह साढ़े 4 बजे उठ जाता हूं। इसके बाद 1 घंटा वर्कआउट करता हूं। इससे ज्यादा करने की जरूरत भी नहीं होती।''
- ''जिम में हैवी वेट उठाने के साथ-साथ फ्लेक्सिबिलिटी के लिए चक्रासन, वज्रासन और सूर्य नमस्कार करता हूं। जिम के अलावा योग करना भी शरीर को फिट रखने के लिए जरूरी है।''
- ''खाने में मैं तली-भुनी चीजें, डेयरी प्रोडक्ट्स, चॉकलेट्स और शुगर से दूर रहता हूं। मैं पिछले 20 साल से प्रॉपर डायट लेता हूं और इसके साथ बिल्कुल भी समझौता नहीं करता।
- उनका कहना है- ''मैंने चीनी पूरी तरह छोड़ चुका हूं। काजू-कतली मेरी फेवरेट है, जो मैंने 22 साल पहले खाई थी। उसके बाद मैंने मिठाई को हाथ तक नहीं लगाया। मैं साल में एक बार चावल खाता हूं। फिटनेस के लिए स्ट्रिक्ट होना बेहद जरूरी है।''
- जॉन का कहना है- ''फिटनेस मेरे लिए किसी मजहब की तरह है। मैं खुद से, अपनी पर्सनॉलिटी से बेहद प्यार करता हूं। यही कारण है कि किसी भी तरह के नशे से दूरी बनाकर रखता हूं।''
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 गांधीनगर रेलवे स्टेशन के ऊपर फाइव स्टार होटल, नीचे चलेगी ट्रेन
गांधीनगर देश का पहला रेलवे स्टेशन होगा जिसमें एयरपोर्ट जैसी सुविधाएं मिलेंगी. इसे विश्व स्तरीय रेलवे स्टेशन के रूप में विकसित किया जा रहा है और 2019 की शुरुआत में इसकी सौगत देश को मिलने वाली है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जनवरी 2017 में इसका भूमिपूजन किया था. इस स्टेशन के ऊपर एक फाइव स्टार होटल का निर्माण जारी है. इस पांच सितारा होटल में 300 कमरे होंगे. पूरे स्टेशन में तीन बिल्डिंग होंगी और यह फूल की पंखुड़ियों के आकार की होंगी. इस स्टेशन के नीचे से रेलगाड़ियां गुजरेंगी.
इसके अलावा, ट्रांजिट हॉल, कियोस्क, दुकानें, बुक स्टॉल, फूड स्टॉल्स, मॉड्यूलर क्लीन टॉयलेट्स होंगे. स्टेशन में यात्रियों के बैठने के लिए 600 सीटों का इंतजाम होगा. इस प्रोजेक्ट की अनुमानित लागत 250 करोड़ रुपए है. यह एसपीवी प्रोजेक्ट है जिसमें IRSDC और गुजरात सरकार की हिस्सेदारी है. होटल का ग्राउंड फ्लोर जमीन से 22 मीटर ऊपर होगा. इसके अलावा, स्टेशन में एक प्रार्थना स्थल, प्राथमिक चिकित्सा केंद्र होगा. स्टेशन में तीन लिफ्ट और 2 एस्कलेटर होंगे.
यात्रियों के सुविधा के लिए मल्टीप्लेक्स
इस रेलवे स्टेशन पर मल्टीप्लेक्स और ब्रांडेड रिटेल स्टोर्स खोलने की योजना है. इन मल्टीप्लेक्स में यात्री अपनी पसंद की मूवी और स्टोर्स पर शॉपिंग कर सकेंगे. इंडियन रेलवे स्टेशन डेवलपमेंट कॉरपोरेशन (आईआरएसडीसी) पीवीआर सिनेमा, बिग बाजार और शॉपर्स स्टॉप से बातचीत कर रहा है.
गांधीनगर की सबसे ऊंची बिल्डिंग होगा होटल
65 मीटर की ऊंचाई के साथ यह बिल्डिंग गांधीनगर में सबसे ऊंची होगी. होटल 21,000 वर्ग फीट में बन रहा है जिसमें 2900 वर्गमीटर में ऑफिस खोले जाएंगे. स्वीमिंग पूल की भी सुविधा इस होटल में होगी. इस प्रोजेक्ट के तहत तीन टॉवर होंगे.
हबीबगंज रेलवे स्टेशन भी होगा वर्ल्ड क्लास
हबीबगंज हबीबगंज रेलवे स्टेशन का पुनर्विकास किया जा रहा है. इसे वर्ल्ड क्लास लेवल का स्टेशन बनाया जा रहा है. यह भी जनवरी-फरवरी 2019 तक बनकर तैयार हो जाएगा. इसमें करीब 450 करोड़ रुपये खर्च होंगे. सौ करोड़ रुपये स्टेशन पर और 350 करोड़ रुपये कॉमर्शियल डेवलपमेंट पर खर्च किए जाएंगे. विश्वस्तरीय सुविधाओं की बात करें तो हबीबगंज में यात्रियों के लिए दुकानें, गेमिंग जोन और म्यूजियम आदि भी होंगे. आलीशान प्रतीक्षालय, फूड प्लाजा, कैफेटेरिया, साफ शौचालय आदि भी होंगे.,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
सुरण
ठंड के दिनों में सुरण की सब्जी सबको भाती है ...सुरण बहुत गर्म तासीर की सब्जी होती है,इसकी सब्जी को अधिकांशतः घी में ही बनाया जाता है....नही तो यह खाने पर गले में कांटे की तरह #चुभती है....सुरण की सब्जी खाने के बाद ठंडा पानी पीने से भी यह गले मे चुभती हैं, इसलिए कुनकुना पानी अधिक उचित होता हैं.. ।
सुरण को जिमीकंद ,सूरन, मराठी में गोडा सूरण, बांग्ला में ओल, कन्नड़ में सुवर्ण गडड़े, तेलुगु में कंडा डूम्पा और फारसी में जमीकंद और भी अनेकोनेक नामो से जाना जाता है,हाथी के पैरों के समान होने के कारण इसे जिमीकंद कहा जाता है..।
सुरण जमीन के नीचे उगती है.....यह एक से तीन वर्षो तक भी ज़मीन में रहे तो भी कुछ नही बिगड़ता बल्कि इसका आकार 1 से 30 किलो तक बड़ा होता जाता है......यह सब्जी ही नहीं बल्कि एक #जड़ी_बूटीभी है.......जो कि सभी को स्वस्थ एवं निरोगी रखने में मदद करती है.....सुरण की सब्जी में अच्छी मात्रा में ऊर्जा पाई जाती है.......सुरण प्रयाप्त मात्रा में फाइबर, विटामिन सी, विटामिन बी, फोलिक एसिड और नियासिन होता है। साथ ही मिनरल जैसे पोटाशियम, आयरन, मैगनीशियम, कैल्शियम और फासफोरस पाये जाते है..... प्याज-लहसुन की तरह ही सुरण भी कामुकता को बढ़ाने वाला होता है.जिस कारण कई धार्मिक लोग इससे परहेज करते है .।
सुरण में विटामिन ए व बी एवं विटामिन बी-6 का अच्छा स्रोत है जो रक्तचाप को नियंत्रित कर हृदय को स्वस्थ रखता है...।
सुरण में ओमेगा-3 काफी मात्रा में पाया जाता है....जो खून के थक्के को जमने से रोकता है....।
इसमें एंटीऑक्‍सीडेंट, विटामिन सी और बीटा कैरोटीन पाया जाता है, जो कैंसर पैदा करने वाले फ्री रेडिकलों से लड़ने में सहायक होता है... पोटैशियम पाचन को, तो तांबा लाल रक्त कोशिकाओं को बढ़ाकर शरीर में रक्त के बहाव को दुरुस्त करता है......।
खूनी बवासीर में सुरण की सब्जी दही के साथ लेने से अति लाभकारी सिद्ध होती हैं...।
इसमें मौजूद एंटी-इंफ्लेमेटरी गुण गठिया और अस्थमा रोग से बचाता है......इसे नियमित खाने से कब्ज़ और खराब कोलेस्‍ट्रॉल की समस्या दूर हो जाती है।
सुरण_की_सब्जी
सुरण बनाने से चार घण्टे पहले हाथो पर तेल लगाकर छिलके उतार लें फिर अच्छे से पानी में भाप ले...भाँपते समय उसके धुँए से दूर रहे....उसके बाद पानी से निकाल ले......पानी में ज्यादा देर हाथ ना डाले और शीघ्र हाथ धो ले...पानी से निकालने के बाद हाथो से बारीक़ गूँथ ले और अन्य सब्जियों की तरह बघार ले....तेल की जगह घी का उपयोग करे व मसाला तेज रखे ....फिर देखिये इतनी बढ़िया सुरण बनेगी की आप हर ठण्ड में इसे खाना चाहेंगे..।
सावधानियां :- आयुर्वेद के अनुसार सुरण उन लोगों को नहीं खाना चाहिए जिनको किसी भी प्रकार का चर्म या कुष्ठ रोग हो...।,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
बंगाल के त्रिबेनी में स्थित जफर खान गाजी मस्जिद प्राचीन विष्णु मंदिर था ..//
इस्लामी आक्रांताओं ने भारत के हर मंदिर को लूट कर उसे तॊड़ कर उसपर मस्जिद या दरगाह बनाया है। इन्हीं में से एक मंदिर है त्रिबॆनी(त्रिवेणी) में स्थित विष्णु मंदिर जिस पर जफर खान गाजी मस्जिद बनाया गया है। जिस तरह भारत में जगहों का इस्लामी नाम बदल कर उनके प्राचीन नाम से बुलाया जा रहा है उसी तरह मस्जिदों के नीचे दबे हिन्दू मंदिरों को भी खोई हुई पहचान मिलनी चाहिए।
बंगाल में त्रिबेनी में जफर खान गाजी मस्जिद को 1298 CE में एक विस्थापित प्राचीन विष्णु मंदिर पर बनाया गया था। त्रिबेनी कोलकाता के पास एक शहर है और गंगा, जमुना और सरस्वती नदियों का संगम स्थान है। इस विष्णु मंदिर को किसने और कब बनाया इसका उल्लेख कहीं नहीं है, लेकिन मस्जिद के प्रवॆश द्वार के दीवारों और खंभों पर हिंदू मंदिर वास्तुकला चीख चीख कर अपने ऊपर हुए अत्याचार का बखान कर रही है।बंगाल सिविल सेवाओं के ब्रिटिश अधिकारी डी। मनी ने वर्ष 1847 में गाजी जफर खान के म्यूजोलियम के खादीम से मुलाकात की थी जहां उन्हें खादिम ने कुछ दस्तावेज़ दिये जिसमें साफ तौर पर लिखा था कि जफर मोहम्मद खान और उनके भतीजे शाह सूफी पश्चिमी भारत से बंगाल हिंदुओं को मारने और उन्हें इस्लाम में बदलने के लिए आए थे। दस्तावेज़ में उल्लेख है कि जफर खान ने स्थानीय शासक मैन निरापति को हराकर उसे इस्लाम में परिवर्तित किया था।
मस्जिद के पूर्व की ऒर मंदिर के प्रवेश द्वार की वास्तुकला है। मंदिर के दीवार के चप्पे चप्पे में हिन्दु वास्तुकला और देवताओं का चित्रण है। मंदिर के दीवार पर विष्णु के दशावतार का चित्रण होना यह दर्शाता है कि यह एक विष्णु मंदिर था। मंदिर के अंदर ज़फर खान गाज़ी और अन्य दो लोगों कि मकबरें बनाये गये हैं। और कुछ छित्रकारियों को ईंट से ड़क दिया गया है।
गाज़ी शीर्षक एक इस्लामी योद्धा को दिया जाता है जिसने कफिरों (हिन्दुओं) का नरसंहार किया हो या उनका धर्मपरिवर्तन करवाया हो। ऐसे में सवाल यह उठता है कि ऐसे हिन्दु हत्यारों के नाम के मस्जिदों को हिन्दु मंदिरों के ऊपर रहने क्यों दिया जा रहा है। भारत में केवल एक अयॊध्या नहीं है ऐसे कई अयॊध्या है जहां मस्जिद के नीचे एक मंदिर खामोश आहें भर रही है। और सॊच रहा है कि भारत के हिन्दु कब जागेंगे और उन सभी मंदिरों को आक्रांताओं के चंगुल से चुड़ायेंगे….

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खारक एक सूखा मेवा है,,जिसे खजूर को सुखाकर बनाया जाता है,इसे छुहारा भी कहते है...।
हमने देखा है कि हकीम व ओझा प्राचीन काल से ही अनेक रोगों के ईलाज में खारक को मंत्रित कर देते थे,आज भी बहुत जगह चल रहा है...जिसमे एक या दो खारक प्रतिदिन सुबह शाम सेवन करने का और कुछ नियमो का पालन करने का बोलते है... जिससे कई रोग समाप्त हो जाते थे ....ये उस खारक के ही औषधीय गुण रहते थे जो रोगों से हमारी रक्षा करती थी....।
खारक खाने के कई फायदे हैं इसमें विटामिन, आयरन, कैल्शियम, जिंक और मैग्नीशियम भरपूर पाया जाता है........खारक के सेवन से फेफड़े और चेस्ट को शक्ति मिलती है। और श्वास रोग में लाभ होता है.....सुबह-शाम दो खारक चबाकर खाने और हल्का गर्म पानी पीने से कब्ज दूर होता है। इसके अलावा खारक और किशमिश खाने से भी कब्ज दूर होता है....।
खारक और गाय का दूध पीने से शरीर में कैल्शियम की कमी पूरी होती है। क्योंकि खारक में कैल्शियम अधिक मात्रा में होता है.....।
खारक की गुठली पानी के साथ किसी साफ पत्थर या सिल पर घिसें,,फिर फोड़े-फुंसी व दूसरे व्रणों पर लगाने से जल्द लाभ होता है, सूजन व शूल नष्ट होता है......छोटे बच्चों को खारक खिलाने से उनके बिस्तर पर पेशाब करने की समस्या दूर होती है....दो खारक दूध में उबालकर रात को खाने और दूध पीने से स्वर बहुत सुरीला होता है......खारक को दूध में उबालकर खाने और दूध पीने से एक सप्ताह में बवासीर नष्ट होता है....खारक कब्ज को नष्ट करके बवासीर रोग का निवारण करते हैं...... शारीरिक रूप से दुबले व्यक्ति को खारक दूध में उबालकर रोजाना खाना चाहिए। शरीर में रक्त और मांस की वृद्धि होती है..।
खजूर न केवल दमे के रोगियों के लिए गुणकारी है बल्कि लकवा और सीने के दर्द की शिकायत को दूर करने में भी खजूर सहायता करता है..।
सावधानी: खारक खाने और दूध पीने के बाद डेढ़-दो घंटे तक पानी नही पीना चाहिए,खारक अधिक मात्रा में लेना भी हानिकारक होता है...।

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वीरांगना रामप्यारी गुर्जर की कहानी 
 जिस की वीरता का परिचय भारत के बच्चे बच्चे को होना चाहिए था
वीरांगना रामप्यारी गुर्जर और उसकी 40000 महिला सेनानियों ने तैमूर लंग की सेना को धूल चटाई थी। इतिहास में विलुप्त उस महानायिका की कहानी

रामप्यारी गुर्जर/गुर्जरी वो वीरांगना थी जिसने इस्लामी आक्रमणकारी हिन्दुओं के हत्यारे तैमूर लंग की विशाल सेना को धूल चटाई थी। इतिहास की महानायिका जिस की वीरता का परिचय भारत के बच्चे बच्चे को होना चाहिए था। मात्र 20 वर्ष की आयु में अपने 40,000 महिला सेनानियों की सहायता से तैमूर की सेना को सब्जी की भांती काट कर रख दिया था।

1398 मॆं हिन्दुओं की सेना ने तैमूर की सेना पर ऐसा कहर बरसाया कि उसे भारत छॊड़कर दुम दबाकर भागना पड़ा था। जाट, गुर्जर, राजपूत, ब्राह्मण, वाल्मीकी, आहीर व अन्य समुदाय के 80,000 लोगों की सैन्य ने तैमूर के सेना को भारत में आगे बड़ने से और मंदिरों को लूटने और लाखों हिन्दुओं को कटने से बचाया था। इनमें से वीरांगना रामप्यारी का नाम सबसे पहले आता है।

वीरांगना रामप्यारी गुर्जर का जन्म गुर्जरगढ (वर्तमान मे सहारनपुर) क्षेत्र में हुआ था। सहारनपुर की वीर चौहान वंश में उनका जन्म हुआ था तो उनका बचपन से ही वीर होना स्वाभाविक था। बचपन से ही भारत के वीर नर-नारियों की कहानी सुनकर पली बड़ी रामप्यारी खुद एक कुशल यॊद्धा बनीं। वे पुरुषों के जैसे वेष भूषा पहनती थी और रॊज़ कुश्ती और कसरत किया करती थी। जिस प्रकार उन्होंने चालीस हज़ार महिलाऒं की सेना का नेतृत्व किया था उसे देखकर तैमूर की सेना दंग रह गयी थी। उन्होंने एक महिला को इस प्रकार युद्ध लड़ते हुए कभी नहीं देखा था।

मेरट, हरिद्वार और घरवाल में गुर्जरों का इतना दबदबा था कि तैमूर जैसा नर पिशाच भी अपना कदम यहां जमा नहीं पाया। दिल्ली में तैमूर ने लूट पाट मार काट मचा रखी थी। करीब एक लाख हिन्दुओं को मारकर उनके शीष से स्थंभ बनाये थे। उसका अत्याचार दिन ब दिन ज्यादा हो रहा था और वह दिल्ली से आगे बड़ने की मनशा में था। तब देवपाल के सर्व खाप ने सभी समुदायों को इकठ्ठा कर महापंचायत बनाई जिसमें अस्सी हज़ार पुरुष यॊद्धाओं का नेतृत्व महाबली जॊगराज सिंह ने किया।

तैमूर के विरुद्ध इस युद्ध में महिला सेना का नेतृत्व रामप्यारी गुर्जरी ने किया था। रामप्यारी और उसकी महिलाऒं की सेना रात को तैमूर के सैनिकों के शिविर में जाकर उन्हें गाजर मूली की भांती काट डालती थी। उनके युद्ध सामाग्री और खाद्यान्न को चुरा लाती थी। रामप्यारी के गेरिल्ला युद्ध कौशल को शत्रु की सेना तॊड़ नहीं पाई। दिल्ली, मेरट और हरिद्वार में तैमूर की सेना को इसी तरह से प्रताड़ित किया गया।

हिन्दुओं की सेना का कहर इतना था कि तैमूर ने भारत छॊड़कर भाग ने का निर्णय किया। सभी समुदाय ने एक जुट होकर तैमूर को जो घाव दिया उससे वह उभर ही नहीं पाया और भारत से लौटने के कुछ ही समय पश्चात उसका देहांत भी हो गया।

जरा सॊचिये अगर उस दिन हिन्दुओं ने जाति का अंतर मिटाकर एक जुट हॊकर तैमूर के खिलाफ़ युद्ध नहीं लड़ा होता तो आज भारत में एक भी हिन्दू जिंदा ना होता। इतिहास से हमें कुछ सीख लेना चाहिए। धर्मनिरपॆक्षता की आड़ में आज भी हिन्दुओं के ऊपर अत्याचार हो रहा है। अगर आज हम एक नहीं होंगे तो हमारा अस्तित्व ही मिट जायेगा।

इतिहास के उन सभी महानायक नायिकाओं को प्रणाम करते हैं जिन्होंने अपनी जान पर खेल कर धर्म की रक्षा की है।

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अंजीर एक ऐसा फल है जो ओर फलों की भांति फल मंडी में नही बल्कि किराना व पंसारी की दुकान पर मिलता है इसके फलो को सुखाकर फूलो की माला की तरह गूँथा जाता है......।
सर्दी के आते ही अंजीर की मांग स्वतः ही बढ़ जाती हैं...अंजीर एक सुखा हुआ फल है,अंजीर के अंदर बहुत सारे अनगिनत बीज होते है.... अंजीर के पेड़ अधिकतर गर्म देशो में पाए जाते है....मालवांचल में इसकी खेती करना बड़ा लाभदायक है,यहाँ इसका अच्छा उत्पादन लिया जा सकता हैं...अंजीर के पेडो को लगाने के लिए चुने वाली भूमि अत्यधिक उपजाऊ होती है,इस भूमि पर अंजीर की पैदावार बहुत अच्छी मात्रा में होती है...... अंजीर के कच्चे फल का रंग हरा होता है एवं पके हुए का रंग पीला या बैंगनी होता है. अंजीर के फल के अंदर का रंग बहुत ही लाल होता है....इसका वृक्ष मध्यम आकार को होता है । पत्ते चौड़े तथा हृदयाकार होते हैं,अंजीर पहाड़ों पर खूब पैदा होता है.... ।
अंजीर औषधीय रूप से काफी महत्वपूर्ण है...।
अंजीर को रात में पानी मे गलाकर सुबह लेना काफी लाभदायक होता है...आयुर्वेद के अनुसार थोड़ी मात्रा में खाए जाने पर अंजीर पाचक, रूचिकर और हृदय के लिए हितकर होता है .....जिन लोगों को होठ, मुख फटने की शिकायत होती है उनके लिए ताजा या सूखा अंजीर लाभदायक होता है.....अंजीर का सेवन दूध के साथ करने से डाइबिटीज कंट्रोल होती है ,साथ ही कब्ज दूर हो जाती है......।
अंजीर का सेवन टी.बी.के रोगी के लिए बड़ा फायदेमंद है,वही दमारोगी जिन्हें कफ (बलगम) निकलता हो ,उनके लिए अंजीर खाना बड़ा लाभकारी होता है.........इससे कफ बाहर आ जाता है तथा रोगी को शीघ्र ही आराम भी मिलता है....बार-बार प्यास लगने पर अंजीर का सेवन लाभकारी होता है...।
मुंह में छाले हो तो अंजीर का रस छालों पर लगाने से शीघ्र आराम मिलता है।
तो मित्रो इस बारिश में अंजीर का पेड़ लगाये ...।
अंजीर से जुड़ी कोई जानकारी हो तो अवश्य साझा करें..।
नंदकिशोर प्रजापति कानवन 9893777768


बांस में पकाया जाता है खाना......!
आज हम सभी स्टील के बर्तनों मंे खाना पकाते है। अब भी कहीं कहीं पूर्व समय की तरह अब भी मिटटी के बर्तनों में खाना पकाते है। पूर्व में बर्तनों के अभाव होने के कारण जंगल में रहने वाले आदिवासी पत्तों में, जमीन खोदकर, या गर्म पत्थरों पर अपना खाना तैयार करते रहे है। खाना पकाने के लिये बांस का भी इस्तेमाल किया जाता रहा है। खोखले मोटे बांस का इस्तेमाल खाना पकाने के बर्तन के रूप में किया जाता रहा है।
बस्तर एवं दुनिया के लगभग सभी जंगली क्षेत्रों में जहां बांस बहुतायत में पाये जाते है वहां बांस में खाना पकाने का यह तरीका प्रचलित रहा है। बस्तर के नारायणपुर के माड़ क्षेत्र एवं मध्य बस्तर के आसपास में इन खोखले बांसों में खाना पकाने की यह तरीका अब भी देखने को मिलता है। स्टील के बर्तनों की अपेक्षा मिटटी या अन्य प्राकृतिक वस्तुओं की मदद से पका खाना बेहद स्वादिष्ट होता है।
हरे खोखले मोटे बांस को पहचान कर उसे काट लिया जाता है। अधिकांशतः उपर से काट कर उसके अंदर पानी एवं चावल डालकर जलती हुई आग में खड़ा रख दिया जाता है। या बांस को आडा कर लंबाई से काट दिया जाता है। फिर उसमें चावल डालकर पकाया जाता है।
फिर बांस हरा होने के कारण जलता नहीं है। कुछ देर में खाना पककर तैयार हो जाता है। बस्तर में आदिम युग में खाना पकाने की यह पुरानी पद्धति अब भी चलन में है। प्रकृति प्रदत्त बांस में खाना पकाना अब भी बस्तर में प्रचलित है यह बेहद सुखद एवं आश्चर्यजनक बात है। मुझे चित्र तो नहीं मिले इसलिये प्रस्तुत चित्र नेट से लिये गये है।
Om Soni !
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प्राचीन बस्तर में चलते थे गजलक्ष्मी की आकृति वाले सोने के सिक्के......!
अनादि काल से लक्ष्मी का विशेष महत्व रहा है और आज भी लक्ष्मी के लिए देश में सबसे बड़ा पर्व दीपावली मनाया जाता है। भले ही आज बस्तर की गिनती पिछड़े-वनांचल के रूप में होती है लेकिन बस्तर ने वह युग भी देखा है जब यहां सोने के सिक्के चलते थे, वह भी गजलक्ष्मी की आकृति वाली।
इतिहासकारों के अनुसार बस्तर में पहले कलचुरी शासक नहीं थे। वे जबलपुर के पास त्रिपुरी से छत्तीसगढ़ में आए। उनकी कुलदेवी और राजचिन्ह गजलक्ष्मी थीं। त्रिपुरी से आकर उन्होने रायपुर व रतनपुर में अधिपत्य जमाया। 11वीं शताब्दी में त्रिपुरी शासक श्रीमद गांगेयदेव ने ओड़िशा में हमला किया था। तब उसने बस्तर होकर ही ओड़िशा प्रवेश किया था। बस्तर में काकतियों के पहले कलचुरियों का ही शासन रहा, इसलिए उस काल के गजलक्ष्मी वाले सोने के सिक्के खुदाई में यदा- कदा मिल रहे हैं।
बस्तर में गजलक्ष्मी वाले सोने के 25 सिक्के धोबीगु़ड़ा, राजनगर और भंडार सिवनी से प्राप्त हुए हैं। इन सिक्कों के अग्रभाग में जहां गजलक्ष्मी की आकृति हैं वहीं पृष्ठभाग में तत्कालीन कलचुरी शासक 'श्रीमद गांगेयदेव का उत्सव' अंकित है। इसके अलावा फरसगांव, कांकेर, भानुप्रतापपुर, केशकाल से स्वर्ण मुद्राएं मिली हैं।
Source - Nai Duniya
Bastar Bhushan





मौर्य युगीन आटविक बस्तर ........!

बस्तर के प्राचीन इतिहास के अध्ययन से यह मालुम पड़ता है कि बस्तर सदैव स्वाभिमानी अौर स्वतंत्रता प्रिय रहा है. चाणक्य की रणनीति अौर विशाल सेना का स्वामी होकर कश्मीर से कन्याकुमारी तक विजय रथ दौडाने वाला चन्द्रगुप्त मौर्य भी बस्तर की स्वाभिमानी जनता पर अपना शासन स्थापित नही कर सका था.

मौर्य काल मे बस्तर आटविक जनपद के नाम से जाना जाता था. मौर्य काल मे बस्तर तदयुगीन आटविक की जनता कबीलो मे रहती थी .यहां के लड़ाकु जनजातियो से सीधे लड़ने की क्षमता उस समय के किसी भी राजा मे नही थी.

कौटिल्य के अर्थशास्त्र मे आटविक सेना का उल्लेख मिलता है. चन्द्रगुप्त मौर्य ने आटविक बस्तर के योद्धाओ को अपनी सेना मे सम्मिलित किया था. भारत का सबसे महान सम्राट अशोक मौर्य ने भी आटविक बस्तर को अपने अधीन रखने की इच्छा दिखायी थी. अशोक के समय कलिंग और आटविक बस्तर दोनो ही मौर्य साम्राज्य के आँखो मे चुभते हुए कांटो के समान थे.

प्रियदर्शी अशोक दोनो को स्वतंत्र नही देख सकता था . उसने सर्वप्रथम कलिंग पर चढाई की. आटविक बस्तर की जनजातियो ने अशोक के खिलाफ कलिंग का साथ दिया. कलिंग आटविक के लड़ाको ने वह लड़ाई लड़ी कि अशोक का दिल दहल गया. कलिंग युद्ध मे लाखो सैनिक मारे गये. लाखो लोग अकाल , महामारी अौर भुखमरी से मारे गये. 261 ई पूर्व मे कलिंग ने अशोक की अधीनता स्वीकार कर ली किंतु आटविक बस्तर ने अपनी स्वतंत्रता बनाये रखी. आटविक बस्तर को अशोक कभी जीत नही सका.

आटविक बस्तर पर अधिकार ना कर पाने की विफलता अशोक के एक शिलालेख मे इन पंक्तियो मे दिखायी देती है -"अंतानं अविजितानं" अर्थात आटविक जन अविजित पड़ोसी है’। कलिंग के युद्ध मे अपार जनक्षति के कारण अशोक का ह्रदय परिवर्तन हो गया. चंडशोक से अब वह धम्म अशोक बन गया था. अशोक ने आटविक पर अपना अधिकार करने की इच्छा त्याग दी.

आटविक के लडाकु योद्धा समय समय पर अशोक के लिये चुनौती उत्पन्न करते रहे थे , ये उसके साम्राज्य की शांति के लिये चिंता के विषय बने रहे. अपने तेरहवे शिलालेख मे आटविक राज्य के लिये स्पष्ट रुप से चेतावनी जारी करते हुए सम्राट अशोक कहते है -" यदि आटविक राज्य किसी प्रकार की कोई अराजकता उत्पन्न करता है तो वह उन्हे ऊचित जवाब देने के लिये तैयार है. साथ ही साथ यह भी कहते है कि वे वनवासियो पर दयादृष्टी रखते है, उन्हे धम्म मे लाने का प्रयत्न करते है."

सत्य केतु विद्यालंकार के शब्दो मे " जब राज्य कर्मचारियो ने अशोक से पुछा कि - क्या आटविक का दमन करने के लिये युद्ध किया जाए तो उसने यही आदेश दिया कि उन वनवासी जातियो को भी धर्म द्वारा ही वश मे लाया जाये."

तब अशोक ने आटविक लोगो से स्पष्ट रुप से चिंतित ना होने एवँ स्वयं को स्वाधीन समझने का निर्देश दिया -

“एतका वा मे इच्छा अंतेषु पापुनेयु,

लाजा हर्बं इच्छति अनिविगिन हेयू,

ममियाये अखसेयु च में सुखमेव च,

हेयू ममते तो दु:ख”!!

इन सभी विवरणो से एक बात स्पष्ट हो जाती है कि - निश्चित रुप से अशोक ने आटविक जनो को धम्म मे लाने का प्रयत्न किया होगा. विश्व शांति, गौतम बुद्ध के विचारो , और धम्म के संदेशो को कोने कोने तक पहुँचाने के लिये अशोक ने हजारो स्तुप बनवाये थे. अशोक ने आटविक बस्तर के वनवासियो को धम्म के द्वारा वश मे लाने के लिये यहां भी बौद्ध स्तुप बनवाये होंगे परंतु लम्बे समय व्यतीत होने एवं बाद मे अनेक वंशो के शासन के कारण अब मौर्य युगीन अवशेष अब धुंधले हो चुके है.बस्तर मे मिली बौद्ध प्रतिमाये , भोंगापाल के बौद्ध चैत्य आदि मौर्य युग के बाद के ही माने गये है.भविष्य में ,खुदायी मे यदि मौर्य कालीन सिक्के मिले तो उसमे किसी प्रकार का कोई आश्चर्य नही होना चाहिये !!,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

वीर दुर्गादास राठौड़ : मारवाड़ का शेर जिसने अपने दम पर ओरंगजेब को धुल चटाई

जिसने इस देश का पूर्ण इस्लामीकरण करने की औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी.....उस महान यौद्धा का नाम है वीर दुर्गादास राठौड़..समय - सोहलवीं - सतरवी शताब्दी स्थान - मारवाड़ राज्य वीर दुर्गादास राठौड का जन्म मारवाड़ में करनोत ठाकुर आसकरण जी के घर सं. 1695 श्रावन शुक्ला चतुर्दसी को हुआ था। आसकरण जी मारवाड़ राज्य की सेना में जोधपुर नरेश महाराजा जसवंत सिंह जी की सेवा में थे ।अपने पिता की भांति बालक दुर्गादास में भी वीरता कूट कूट कर भरी थी,एक बार जोधपुर राज्य की सेना के ऊंटों को चराते हुए राईके (ऊंटों के चरवाहे) आसकरण जी के खेतों में घुस गए, बालक दुर्गादास के विरोध करने पर भी चरवाहों ने कोई ध्यान नहीं दिया तो वीर युवा दुर्गादास का खून खोल उठा और तलवार निकाल कर झट से ऊंट की गर्दन उड़ा दी,इसकी खबर जब महाराज जसवंत सिंह जी के पास पहुंची तो वे उस वीर बालक को देखने के लिए उतावले हो उठे व अपने सेनिकों को दुर्गादास को लेन का हुक्म दिया ।अपने दरबार में महाराज उस वीर बालक की निडरता व निर्भीकता देख अचंभित रह गए,आस्करण जी ने अपने पुत्र को इतना बड़ा अपराध निर्भीकता से स्वीकारते देखा तो वे सकपका गए।परिचय पूछने पर महाराज को मालूम हुवा की यह आस्करण जी का पुत्र है,तो महाराज ने दुर्गादास को अपने पास बुला कर पीठ थपथपाई और इनाम तलवार भेंट कर अपनी सेना में भर्ती कर लिया।उस समय महाराजा जसवंत सिंह जी दिल्ली के मुग़ल बादशाह औरंगजेब की सेना में प्रधान सेनापति थे,फिर भी औरंगजेब की नियत जोधपुर राज्य के लिए अच्छी नहीं थी और वह हमेशा जोधपुर हड़पने के लिए मौके की तलाश में रहता था ।सं. 1731 में गुजरात में मुग़ल सल्तनत के खिलाफ विद्रोह को दबाने हेतु जसवंत सिंह जी को भेजा गया,इस विद्रोह को दबाने के बाद महाराजा जसवंत सिंह जी काबुल में पठानों के विद्रोह को दबाने हेतु चल दिए और दुर्गादास की सहायता से पठानों का विद्रोह शांत करने के साथ ही वीर गति को प्राप्त हो गए । उस समय उनके कोई पुत्र नहीं था और उनकी दोनों रानियाँ गर्भवती थी,दोनों ने एक एक पुत्र को जनम दिया,एक पुत्र की रास्ते में ही मौत हो गयी और दुसरे पुत्र अजित सिंह को रास्ते का कांटा समझ कर ओरंग्जेब ने अजित सिंह की हत्या की ठान ली,ओरंग्जेब की इस कुनियत को स्वामी भक्त दुर्गादास ने भांप लिया और मुकंदास की सहायता से स्वांग रचाकर अजित सिंह को दिल्ली से निकाल लाये व अजित सिंह की लालन पालन की समुचित व्यवस्था करने के साथ जोधपुर में गदी के लिए होने वाले ओरंग्जेब संचालित षड्यंत्रों के खिलाफ लोहा लेते अपने कर्तव्य पथ पर बदते रहे।अजित सिंह के बड़े होने के बाद गद्दी पर बैठाने तक वीर दुर्गादास को जोधपुर राज्य की एकता व स्वतंत्रता के लिए दर दर की ठोकरें खानी पड़ी,ओरंग्जेब का बल व लालच दुर्गादास को नहीं डिगा सका जोधपुर की आजादी के लिए दुर्गादास ने कोई पच्चीस सालों तक सघर्ष किया,लेकिन जीवन के अन्तिम दिनों में दुर्गादास को मारवाड़ छोड़ना पड़ा ।महाराज अजित सिंह के कुछ लोगों ने दुर्गादास के खिलाफ कान भर दिए थे जिससे महाराज दुर्गादास से अनमने रहने लगे वस्तु स्तिथि को भांप कर दुर्गादास ने मारवाड़ राज्य छोड़ना ही उचित समझा ।और वे मारवाड़ छोड़ कर उज्जेन चले गए वही शिप्रा नदी के किनारे उन्होने अपने जीवन के अन्तिम दिन गुजारे व वहीं उनका स्वर्गवास हुवा ।दुर्गादास हमारी आने वाली पिडियों के लिए वीरता, देशप्रेम, बलिदान व स्वामिभक्ति के प्रेरणा व आदर्श बने रहेंगे ।१-मायाड ऐडा पुत जाण, जेड़ा दुर्गादास । भार मुंडासा धामियो, बिन थम्ब आकाश ।२-घर घोड़ों, खग कामनी, हियो हाथ निज मीत सेलां बाटी सेकणी, श्याम धरम रण नीत ।वीर दुर्गादास का निधन 22 नवम्बर, सन् 1718 में हुवा था इनका अन्तिम संस्कार शिप्रा नदी के तट पर किया गया था ।"उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुग़ल शक्ति उनके दृढ हृदये को पीछे हटा सकी। वह एक वीर था जिसमे राजपूती साहस व मुग़ल मंत्री सी कूटनीति थी "जिसने इस देश का पूर्ण इस्लामीकरण करने की औरंगजेब की साजिश को विफल कर हिन्दू धर्म की रक्षा की थी.....उस महान यौद्धा का नाम है वीर दुर्गादास राठौर...इसी वीर दुर्गादास राठौर के बारे में रामा जाट ने कहा था कि "धम्मक धम्मक ढोल बाजे दे दे ठोर नगारां की,, जो आसे के घर दुर्गा नहीं होतो,सुन्नत हो जाती सारां की.......आज भी मारवाड़ के गाँवों में लोग वीर दुर्गादास को याद करते है कि“माई ऐहा पूत जण जेहा दुर्गादास, बांध मरुधरा राखियो बिन खंभा आकाश”हिंदुत्व की रक्षा के लिए उनका स्वयं का कथन"रुक बल एण हिन्दू धर्म राखियों"अर्थात हिन्दू धर्म की रक्षा मैंने भाले की नोक से की............इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होने सारी उम्र घोड़े की पीठ पर बैठकर बिता दी।अपनी कूटनीति से इन्होने ओरंगजेब के पुत्र अकबर को अपनी और मिलाकर,राजपूताने और महाराष्ट्र की सभी हिन्दू शक्तियों को जोडकर ओरंगजेब की रातो की नींद छीन ली थी।और हिंदुत्व की रक्षा की थी।उनके बारे में इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने कहा था कि ....."उनको न मुगलों का धन विचलित कर सका और न ही मुगलों की शक्ति उनके दृढ निश्चय को पीछे हटा सकी,बल्कि वो ऐसा वीर था जिसमे राजपूती साहस और कूटनीति मिश्रित थी".ये निर्विवाद सत्य है कि अगर उस दौर में वीर दुर्गादास राठौर,छत्रपति शिवाजी,वीर गोकुल,गुरु गोविन्द सिंह,बंदा सिंह बहादुर जैसे शूरवीर पैदा नहीं होते तो पुरे मध्य एशिया,ईरान की तरह भारत का पूर्ण इस्लामीकरण हो जाता और हिन्दू धर्म का नामोनिशान ही मिट जाता............28 नवम्बर 1678 को अफगानिस्तान के जमरूद नामक सैनिक ठिकाने पर जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह का निधन हो गया था उनके निधन के समय उनके साथ रह रही दो रानियाँ गर्भवती थी इसलिए वीर शिरोमणि दुर्गादास सहित जोधपुर राज्य के अन्य सरदारों ने इन रानियों को महाराजा के पार्थिव शरीर के साथ सती होने से रोक लिया | और इन गर्भवती रानियों को सैनिक चौकी से लाहौर ले आया गया जहाँ इन दोनों रानियों ने 19 फरवरी 1679 को एक एक पुत्र को जन्म दिया,बड़े राजकुमार नाम अजीतसिंह व छोटे का दलथंभन रखा गयाये वही वीर दुर्गा दास राठौड़ जो जोधपुर के महाराजा को औरंगज़ेब के चुंगल ले निकल कर लाये थे जब जोधपुर महाराजा अजित सिंह गर्भ में थे उनके पिता की मुर्त्यु हो चुकी थी तब औरंगज़ेब उन्हें अपने संरक्षण में दिल्ली दरबार ले गया था उस वक़्त वीर दुर्गा दास राठौड़ चार सो चुने हुए राजपूत वीरो को लेकर दिल्ली गए और युद्ध में मुगलो को चकमा देकर महाराजा को मारवाड़ ले आये.....उसी समय बलुन्दा के मोहकमसिंह मेड़तिया की रानी बाघेली भी अपनी नवजात शिशु राजकुमारी के साथ दिल्ली में मौजूद थी वह एक छोटे सैनिक दल से हरिद्वार की यात्रा से आते समय दिल्ली में ठहरी हुई थी | उसने राजकुमार अजीतसिंह को बचाने के लिए राजकुमार को अपनी राजकुमारी से बदल लिया और राजकुमार को राजकुमारी के कपड़ों में छिपाकर खिंची मुकंददास व कुंवर हरीसिंह के साथ दिल्ली से निकालकर बलुन्दा ले आई | यह कार्य इतने गोपनीय तरीके से किया गया कि रानी ,दुर्गादास,ठाकुर मोहकम सिंह,खिंची मुकंदास,कु.हरिसिघ के अलावा किसी को कानों कान भनक तक नहीं लगी यही नहीं रानी ने अपनी दासियों तक को इसकी भनक नहीं लगने दी कि राजकुमारी के वेशभूषा में जोधपुर के राजकुमार अजीतसिंह का लालन पालन हो रहा है |छ:माह तक रानी राजकुमार को खुद ही अपना दूध पिलाती,नहलाती व कपडे पहनाती ताकि किसी को पता न चले पर एक दिन राजकुमार को कपड़े पहनाते एक दासी ने देख लिया और उसने यह बात दूसरी रानियों को बता दी,अत: अब बलुन्दा का किला राजकुमार की सुरक्षा के लिए उचित न जानकार रानी बाघेली ने मायके जाने का बहाना कर खिंची मुक्न्दास व कु.हरिसिंह की सहायता से राजकुमार को लेकर सिरोही के कालिंद्री गाँव में अपने एक परिचित व निष्टावान जयदेव नामक पुष्करणा ब्रह्मण के घर ले आई व राजकुमार को लालन-पालन के लिए उसे सौंपा जहाँ उसकी (जयदेव)की पत्नी ने अपना दूध पिलाकर जोधपुर के उतराधिकारी राजकुमार को बड़ा किया |
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मां बंजारिन बास्तानार......!
बस्तर के विभिन्न पहाड़ों में भी माता के कई मंदिर हैं, और हर आने जाने वाला यहां दो पल के लिए जरूर रुकता है। इन्ही पहाड़ियों में एक है मां बंजारिन का मंदिर, जो बास्तानार के वनाच्छादित पहाड़ों के मध्य बंजारिन घाट में प्रतिष्ठित है।
जिला मुख्यालय से 60 किमी दूर जगदलपुर-बीजापुर राष्ट्रीय राजमार्ग क्र.16 पर पहाड़ियों के बीच बंजारिन घाट है। माता का मंदिर गीदम से 10 किलोमीटर दुर जगदलपुर मार्ग पर है। बंजारिन घाट लगभग 15 किलोमीटर लंबा है।
घाटी की उंचाई से दूर बैलाडिला की पहाड़ियों के मनमोहक दृश्य दिखाई पड़ते है। घाटी के मध्य मां बंजारिन का पुराना मंदिर है। देवी के प्रति क्षेत्र के लोगों में बड़ी आस्था है। चैत्र और क्वांर नवरात्रि में माता की विशेष पूजा होती है।
बंजारीघाट के जोखिम भरे रास्ते से गुजरने वाले वाले वाहन चालक निर्विघ्न यात्रा की कामना के साथ इस मंदिर के सामने रुकते हैं और देवी की अर्चना पश्चात ही आगे बढ़ते है।
इसी तरह लोग केसकाल बारह भांवर घाट और दरभा के झीरम घाट में रूक कर मां तेलिनसत्ती की पूजा कर आगे बढ़ते हैं।इन देवियों को बस्तर के अलावा बाहर के लोग भी पर्याप्त सम्मान देते हैं। ऐसे भक्तों ने ही बंजारी घाट, केसकाल घाट और झीरम घाट के मंदिरों को संवारा है।
मंदिर में देवी एवं भगवान गणेश की प्राचीन प्रतिमायें स्थापित है। बंजारिन घाट की हरी भरी वादियों में माता के दर्शन से अपार शांति मिलती है!

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ढोलकल का अनुभव----!
दंतेवाड़ा से कुछ दूर बैलाडीला पहाड़ में बसा ग्राम फरसपाल से शुरू होती है आपकी ढोलकल यात्रा ,,,
एक तराई पर बस छोटा सा ग्राम पंचायत जिसे बस्तर टाइगर "महेंद्र कर्मा " का जन्मभूमि भी है ,,एक छोटा नाका जहाँ 2-3 स्थानीय युवकों को गाइड के तौर पर रखा गया है बहुत ही कम चार्ज पर वो पहाड़ के उस ऊँचाई तक ले जाने के लिए तत्पर रहते है ...जहाँ "ढोलकल गणेश" जी स्थित है , लगभग 100 मीटर मैदानी क्षेत्र पार करने के बाद पहाड़ी क्षेत्र एक छोटी नदी के समान्तर शुरू होता है और इस जगह से जब आप ऊंचे पहाड़ को देखते है, तो लगता है... कि जाना` risky` होगा पर आपके अंदर की जिज्ञासा आपके झझक को हटा देती है और एक पतले दुबले guide को आप अपना• जीवनसाथी• बना लेते है जो कोशिश करता है कि वो हिंदी , छत्तीसगढ़ी और गोंडी बोली को बोलकर अपनी बात समझा सकें और टूटी वार्तालाप के सहारे मजबूत वाली यात्रा शुरू करते है......... जैसे जैसे जंगल के भीतर प्रवेश करते है तो कभी आपको national geographic वाला Bear Grylls याद आ जाता है,, तो कभी आप काले सांप, जहरीले जानवर के अचानक सामने आ जाने वाले विचार से भयभीत भी होते है पर आप चाहकर भी दोस्तो से share नही कर पाते क्योंकि आपकी डर का फालूदा बनने का खतरा रहता है ...हांलाकि मन के कोने हिस्से में रोमांचित तो वो भी है लगभग 500 600 मीटर चलने के बाद एक बार मन होता है कि चढ़ाई आप यही खत्म कर दे पर चेतन और अवचेतन मन की लड़ाई में "साहस "जीतकर आपको चलने पर मजबूर कर देता है ...फिर आप बेहद घने जंगलों में पानी का घूँट पीकर , फ़ोटो click करवाकर, मस्ती हँसी मजाक, खास करने की चाह और ढेर सारा रोमांच आपको पहाड़ पर लगभग 3 कम की दूरी तय करवा ही देता है .....
जब आप पहाड़ के ऊँचाई पर पहुँचते तो बादल और पहाड़ को मिलाकर प्रकृति के द्वारा बनाया गया बेहतरीन नजारा आपके थकावट को खत्म करके नई ऊर्जा का संचार कर देता है और कौतूहल वश फिर "ढोलकल गणेश" की मूर्ति के पास जाकर छूने की , बैठने की , pic click करवाने के एहसास को ही सोचकर ही गर्व का अनुभव करते है और इतनी ऊंचाई पर 2-3 फीट के "गणेश जी" के पास बैठकर आप खुद को विशेष महसूस करते है और पहाड़ों का समान्तर नजारा आपको कुछ पलों के लिए बाकि दुनिया से अलग कर बेहद खूबसूरत एहसास बनाकर एक सुखद याद के रूप में आपके भीतर "ढोलकल गणेश " को upload कर देता है
भाई प्रकाश जाजल्य का यह ढोलकल अनुभव आपको कैसा लगा ? आप भी बस्तर से जुड़े अपने खटटे मीठे अनुभव हमारे साथ शेयर कर सकते है। बहुत बहुत शुक्रिया प्रकाश भाई। लिंक पर क्लिक आप प्रकाश भाई को फालो कर सकते है।
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इंद्रावती के मगरमच्छ.....!
जैसे जैसे इंसानों की आबादी बढ़ रही है वैसे वैसे वनों का रकबा घटता जा रहा है जिसके कारण कई जंगली जानवरों के अस्तित्व ही खत्म हो गया है। वनों की तरह नदियां भी प्रदुषित हो गई है जिसके कारण कई जलीय जीवों की पुरी प्रजाति ही दुर्लभ हो गई है।
बस्तर की प्राणदायिनी इंद्रावती में भी कई दुर्लभ जलीय जीवों का रहवास है। यह नदी मगरमच्छों के रहवास के लिये बेहद ही आदर्श नदी है। आज भी इंद्रावती में मगरमच्छ पाये जाते है। ठंड के दिनों में ये मगरमच्छ नदी के मध्य बने रेत के टीलों में आराम करते हुये दिखाई पड़ते है
इंद्रावती ओडिसा के कालाहांडी से निकल कर बस्तर में प्रवेश करती है। बस्तर में घने जंगलों से बहते हुये महाराष्ट्र सीमा लगे भोपालपटनम से कुछ दुर ही भद्रकाली के पास गोदावरी में विलीन हो जाती है। इंद्रावती घने जंगलों से होकर बहती है जिसके कारण मगरमच्छों का इंसानों से संपर्क कम ही हो पाता है। इंद्रावती तट के कई ग्रामों में कभी कभी मगरमच्छ नदी के मध्य बने रेतीले टीलों पर आराम करते दिखाई पड़ते है।
नदी तट के कई गांवों के पास इंद्रावती के मगरमच्छ तो ग्रामीणों से काफी घुल मिल गये है। जिस प्रकार गिर के शेर और वहां के इंसानों में आपसी सामंजस्य स्थापित हो गया है ठीक वैसा ही आपसी सामंजस्य ग्रामीणों और इंद्रावती के मगरमच्छों के मध्य दिखलाई पड़ता है। ये मगरमच्छ थोड़े शर्मीले है बाहरी आदमी को देखते ही नदी में डूबकी लगा लेते है।
बरसात के दिनों में तो एक मगरमच्छ ने बड़ी हिम्मत दिखाई, इंद्रावती से चार किलोमीटर दुरी का सफर तय कर मगर महाराज तो सीधे बारसूर पहुंच गये थे। फिर कुछ साहसी लड़कों ने उस मगरमच्छ को इंद्रावती में जाकर छोड़ा था। छिंदनार, बारसूर, तुमनार, मुचनार, भेजा, बिन्ता, बेदरे आदि जगहों पर मगरमच्छ देखे जाने की जानकारी मिलती है। नदी तट पर बिना आवाज किये इन्हे आराम करते हुये देखा जा सकता है। मैने पिछले साल इन मगरमच्छों को धूप सेकते हुये देखा था तो कुछ तस्वीरे ले ली।
इन मगरमच्छों के संरक्षण के लिये ठोस कदम उठाना अनिवार्य है नहीं तो ये भी जल्द ही लुप्त हो जायेगे। Om Soni !


राणा सांगा : वीर योद्धा जो जीवन भर हिंदुत्व की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहे और विदेशी लुटेरों से भारत की रक्षा की
भारतीय इतिहास में एक से बढ़कर एक वीर योद्धा हुवे हे जिन्होंने अपनी वीरता और युद्ध कौशल से इतिहास में अपना नाम अमर कर लिया , मित्रों अगर हम भारत के इतिहास की जानकारी ले और राजस्थान का नाम ना आये ऐसा नहीं हो सकता हे , क्योकि राजस्थान को वीरो की भूमि कहाँ जाता हे , यहाँ पर "सर कटना और धड़ लड़ना" ऐसे सैकड़ो उदाहरण भरे पड़े हे , आज हम आपको राजस्थान के प्रान्त "मेवाड़" के एक शूरवीर योद्धा की कथा सुनाने जा रहे हे जिन्होंने अपनी वीरता और शौर्य के बल पर दुश्मनों के छक्के छुड़ा दिए थे , उस महान वीर योद्धा का नाम हे संग्रामसिंह - "महाराणा सांगा"
महाराणा सांगा जीवन परिचय : राणा सांगा का पूरा नाम महाराणा संग्रामसिंह था | उनका जन्म 12 अप्रैल, 1484 को मालवा, राजस्थान मे हुआ था. राणा सांगा सिसोदिया (सूर्यवंशी राजपूत) राजवंशी थे | राणा सांगा के पिता का नाम "राणा रायमल (शासनकाल 1473 से 1509 ई.) " था , राणा साँगा (शासनकाल 1509 से 1528 ई.) को 'संग्राम सिंह' के नाम से भी जाना जाता है। उसने अपने शासन काल में दिल्ली, मालवा और गुजरात के विरुद्ध अभियान किया।। राणा साँगा महान् योद्धा था और तत्कालीन भारत के समस्त राज्यों में से ऐसा कोई भी उल्लेखनीय शासक नहीं था, जो उससे लोहा ले सके। राणा सांगा ने विदेशी आक्रमणकारियों के विरुद्ध सभी राजपूतों को एकजुट किया। राणा सांगा अपनी वीरता और उदारता के लिये प्रसिद्ध हुये। उस समय के वह सबसे शक्तिशाली हिन्दू राजा थे। इनके शासनकाल मे मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की ‍रक्षा तथा उन्नति की। (शासनकाल 1509 से 1528 ई.) राणा सांगा अदम्य साहसी थे। एक भुजा, एक आँख खोने व अनगिनत ज़ख्मों के बावजूद उन्होंने अपना महान पराक्रम नहीं खोया, वे अपने समय के महानतम विजेता तथा “हिन्दूपति” के नाम से विख्यात थे। वे भारत में हिन्दू-साम्राज्य की स्थापना के लिए प्रयत्नशील थे।
जीवन संघर्ष और वीरता : राणा रायमल के बाद सन 1509 में राणा सांगा मेवाड़ के उत्तराधिकारी बने। इन्होंने दिल्ली, गुजरात, व मालवा मुगल बादशाहों के आक्रमणों से अपने राज्य की बहादुरी से ऱक्षा की। उस समय के वह सबसे शक्तिशाली हिन्दू राजा थे। इनके शासनकाल मे मेवाड़ अपनी समृद्धि की सर्वोच्च ऊँचाई पर था। एक आदर्श राजा की तरह इन्होंने अपने राज्य की ‍रक्षा तथा उन्नति की। राणा सांगा ने दिल्ली और मालवा के नरेशों के साथ अठारह युद्ध किये। इनमे से दो युद्ध दिल्ली के शक्तिशाली सुल्तान इब्राहीम लोदी के साथ लड़े गए। कहा जाता था कि मालवा के सुल्तान मुजफ्फर खान को युद्ध में कोई गिरफ्तार नहीं कर सकता था क्योंकि उसकी राजधानी ऐसी मजबूत थी कि वह दुर्भेद्य थी। परन्तु पराक्रमी राणा सांगा ने केवल उसके दुर्ग पर ही अधिकार न किया किन्तु सुल्तान मुजफ्फर खान को बंदी बनाकर मेवाड़ ले आया। फिर उसने सेनापति अली से रणथम्भोर के सुदृढ़ दुर्ग को छीन लिया।
देख खानवा यहाँ चढ़ी थी राजपूत की त्यौरियाँ ।
मतवालों की शमसीरों से निकली थी चिनगारियाँ ।
'खानवा की लड़ाई' (1527) में ज़बर्दस्त संघर्ष हुआ। इतिहासकारों के अनुसार साँगा की सेना में 200,000 से भी अधिक सैनिक थे। इनमें 10,000 अफ़ग़ान घुड़सवार और इतनी संख्या में हसन ख़ान मेवाती के सिपाही थे। लेकिन बाबर की सेना भी बहुत विशाल थी और बाबर की सेना में तौपे भी थी । कई दिनों तक चले इस भीषण युद्ध में सांगा की विजय हुई और बाबर को अपनी जान बचाकर भागना पड़ा, इस युद्ध में राणा सांगा हाथी पर बैठकर युद्ध कर रहे थे तभी एक तीर महाराणा सांगा को आकर लगा , तीर लगने से सांगा मुर्छित हो गए , मुर्छित राणा सांगा के छत्र-चवर झाला अज्जा जी ने धारण कर लिए और स्वं हाथी पर बैठकर युद्ध करने लगे इससे राणा सांगा को युद्ध भूमि से सुरंक्षित निकाला जा सका |
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गोरा-बादल :जिन्होंने अपनी वीरता से खिलजी को उसकी ओकात दिखाई थी
जब जब भारत के इतिहास की बात होती हे तब तब राजपुताना के वीरो के लड़े युद्ध और उनकी वीरता के चर्चे आम होते हे . आज हम आपको भारत के ऐसे ही दो वीर "गौरा-बादल" की वीरता और पराक्रम की सच्ची कथा बताने जा रहे हे जो हम सबके लिए प्रेरणा प्रदान करने वाली हे . इतिहास को छू कर आने वाली हवा में एक बार साँस ले कर देखिए, उस हवा में घुली वीरता की महक से आपका सीना गौरवान्वित हो उठेगा. भले ही हममें से कई लोग अपने देश की माटी में सने अपने पूर्वजों के लहू की गंध ना ले पाए हों, किन्तु इतिहास ने आज भी भारत माँ के उन सपूतों की वीर गाथाओं को अपने सीने में सहेज कर रखा है. इन्हीं शूरवीरों की वजह से ही हमारी आन-बान और शान आज तक बरकरार है. ध्यान देने वाली बात यह है कि यह गौरव किसी धर्म विशेष या जाति विशेष का नहीं, अपितु यह गौरव है हम सम्पूर्ण भारतवासियों का
गौरा और बादल ऐसे ही दो शूरवीरों के नाम है, जिनके पराक्रम से राजस्थान की मिट्टी बलिदानी है . जीवन परिचय : गौरा ओर बदल दोनों चाचा भतीजे जालोर के चौहान वंश से सम्बन्ध रखते थे | मेवाड़ की धरती की गौरवगाथा गोरा और बादल जैसे वीरों के नाम के बिना अधूरी है. हममें से बहुत से लोग होंगे, जिन्होंने इन शूरवीरों का नाम तक न सुना होगा! मगर मेवाड़ की माटी में आज भी इनके रक्त की लालिमा झलकती है. मुहणोत नैणसी के प्रसिद्ध काव्य ‘मारवाड़ रा परगना री विगत’ में इन दो वीरों के बारे पुख्ता जानकारी मिलती है. इस काव्य की मानें तो रिश्ते में चाचा और भतीजा लगने वाले ये दो वीर जालौर के चौहान वंश से संबंध रखते थे, जो रानी पद्मिनी की विवाह के बाद चितौड़ के राजा रतन सिंह के राज्य का हिस्सा बन गए थे. ये दोनों इतने पराक्रमी थे कि दुश्मन उनके नाम से ही कांपते थे. कहा जाता है कि एक तरफ जहां चाचा गोरा दुश्मनों के लिए काल के सामान थे, वहीं दूसरी तरफ उनका भतीजा बादल दुश्मनों के संहार के आगे मृत्यु तक को शून्य समझता था. यहीं कारण था कि मेवाड़ के राजा रतन सिंह ने उन्हें अपनी सेना की बागडोर दे रखी थी
राणा रतनसिंह को खिलजी की कैद से छुड़ाना : खिलजी की नजर मेवाड़ की राज्य पर थी लेकिन वह युद्ध में राजपूतों को नहीं हरा सका तो उसने कुटनीतिक चाल चली , मित्रता का बहाना बनाकर रावल रतनसिंह को मिलने के लिए बुलाया और धोके से उनको बंदी बना लिया और वहीं से सन्देश भिजवाया कि रावल को तभी आजाद किया जायेगा, जब रानी पद्मिनी उसके पास भजी जाएगी। इस तरह के धोखे और सन्देश के बाद राजपूत क्रोधित हो उठे, लेकिन रानी पद्मिनी ने धीरज व चतुराई से काम लेने का आग्रह किया। रानी ने गोरा-बादल से मिलकर अलाउद्दीन को उसी तरह जबाब देने की रणनीति अपनाई जैसा अलाउद्दीन ने किया था। रणनीति के तहत खिलजी को सन्देश भिजवाया गया कि रानी आने को तैयार है, पर उसकी दासियाँ भी साथ आएगी। खिलजी सुनकर आन्दित हो गया। रानी पद्मिनी की पालकियां आई, पर उनमें रानी की जगह वेश बदलकर गोरा बैठा था। दासियों की जगह पालकियों में चुने हुए वीर राजपूत थे। खिलजी के पास सूचना भिजवाई गई कि रानी पहले रावल रत्नसिंह से मिलेंगी। खिलजी ने बेफिक्र होकर अनुमति दे दी। रानी की पालकी जिसमें गोरा बैठा था, रावल रत्नसिंह के तम्बू में भेजी गई। गोरा ने रत्नसिंह को घोड़े पर बैठा तुरंत रवाना कर और पालकियों में बैठे राजपूत खिलजी के सैनिकों पर टूट पड़े।
राजपूतों के इस अचानक हमले से खिलजी की सेना हक्की-बक्की रहा गई वो कुछ समझ आती उससे पहले ही राजपूतों ने रतनसिंह को सुरक्षित अपने दुर्ग पंहुचा दिया , हर तरफ कोहराम मच गया था गोरा और बादल काल की तरह दुश्मनों पर टूट पड़े थे , और अंत में दोनों वीरो की भांति लड़ते हुवे वीरगति को प्राप्त हुवे | गोरा और बादल जैसे वीरों के कारण ही आज हमारा इतिहास गर्व से अभिभूत है. ऐसे वीर जिनके बलिदान पर हमारा सीना चौड़ा हो जाये, उन्हें कोटि-कोटि नमन | मेवाड़ के इतिहास में दोनों वीरों की वीरता स्वर्ण अक्षरों में अंकित है |

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किले की 100 फिट ऊंची दीवार से कूद गई थीं रानी लक्ष्मीबाई…अंग्रेजों को बता दी थी उनकी औकात
रानी लक्ष्मीबाई, भारत की वो वीरांगना जिसने अंग्रेजों का उनकी औकात बता दी थी। झांसी के गणेश मं‍दिर में राजा गंगाधर राव से शादी के बाद उनका नाम मण‍िकर्ण‍िका से बदलकर लक्ष्मी बाई रख दिया गया और वह झांसी की रानी बन गईं।
1613 में ओरछा के राजा वीर सिंह द्वारा बनवाए गए इस किले को 400 साल हो गए हैं। कई मराठा शासकों का झांसी में शासन रहा, लेकिन किले को रानी के नाम से जाना जाता है। रानी की वीरता की कहानी किला सहेजे है। अंग्रेजों से खुद को घिरता देख लक्ष्मी बाई ने दत्तक पुत्र दामोदर राव को पीठ से बांध अपने ढाई हजार की कीमत के सफेद घोड़े पर बैठ किले की 100 फीट ऊंची दीवार से छलांग लगाई थी। झांसी के पुरानी बजरिया स्थित गणेश मंदिर की रानी लक्ष्मीबाई की जिंदगी में सबसे अहम जगह थी। 15 साल की उम्र (जानकारों के मुताबिक रानी का जन्म 1827 है) में मनु कर्णिका की शादी इसी मंदिर में झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई थी। शादी के बाद इसी मंदिर में उनका नाम मनु कर्ण‍िका से लक्ष्मीबाई पड़ा।राजा गंगाधर राव के निधन के बाद रानी गम में डूब गई थीं। 
गंगाधर राव का क्रिया कर्म जहां किया गया था, उसी लक्ष्मीताल के किनारे रानी ने राजा की याद में उनकी समाधि बनवाई थी। झांसी में रानी ने सिर्फ यही एक निर्माण करवाया था। इसे गंगाधर राव की छतरी के नाम से जानते हैं। कहा जाता है कि रानी लक्ष्मी बाई महा लक्ष्मी मंदिर में पूजा करने के जाती थीं, तब इसी तालाब से होकर गुजरती थीं। यह झांसी का बड़ा जल श्रोत था। निधन के बाद गंगाधर राव का अंतिम संस्कार भी यहीं किया गया, उन्हें श्रद्धांजलि देने लोगों का हुजूम उमड़ पड़ा था। आज इस तालाब की हालतखराब हो चुकी है।
इसे संवारने के लगातार कोश‍िश की जा रही है। झाँसी 1857 के संग्राम का एक प्रमुख केन्द्र बन गया जहाँ हिंसा भड़क उठी। रानी लक्ष्मीबाई ने झाँसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती की गयी और उन्हें युद्ध का प्रशिक्षण दिया गया। साधारण जनता ने भी इस संग्राम में सहयोग दिया। झलकारी बाई जो लक्ष्मीबाई की हमशक्ल थी को उसने अपनी सेना में प्रमुख स्थान दिया।
1857 के सितम्बर तथा अक्टूबर के महीनों में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झाँसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। 1858 के जनवरी माह में ब्रितानी सेना ने झाँसी की ओर बढ़ना शुरू कर दिया और मार्च के महीने में शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर क़बज़ा कर लिया।
परन्तु रानी दामोदर राव के साथ अंग्रेजों से बच कर भाग निकलने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिली। तात्या टोपे और रानी की संयुक्त सेनाओं ने ग्वालियर के विद्रोही सैनिकों की मदद से ग्वालियर के एक किले पर क़बज़ा कर लिया।
18 जून 1858 को ग्वालियर के पास कोटा की सराय में ब्रिटिश सेना से लड़ते-लड़ते रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त की। लड़ाई की रिपोर्ट में ब्रिटिश जनरल ह्यूरोज़ ने टिप्पणी की कि रानी लक्ष्मीबाई अपनी सुन्दरता, चालाकी और दृढ़ता के लिये उल्लेखनीय तो थी ही, विद्रोही नेताओं में सबसे अधिक खतरनाक भी थी।
,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,अंग्रेज़ों की तरफ़ से कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स पहला शख़्स था जिसने रानी लक्ष्मीबाई को अपनी आँखों से लड़ाई के मैदान में लड़ते हुए देखा.
उन्होंने घोड़े की रस्सी अपने दाँतों से दबाई हुई थी. वो दोनों हाथों से तलवार चला रही थीं और एक साथ दोनों तरफ़ वार कर रही थीं.
उनसे पहले एक और अंग्रेज़ जॉन लैंग को रानी लक्ष्मीबाई को नज़दीक से देखने का मौका मिला था, लेकिन लड़ाई के मैदान में नहीं, उनकी हवेली में.
जब दामोदर के गोद लिए जाने को अंग्रेज़ों ने अवैध घोषित कर दिया तो रानी लक्ष्मीबाई को झाँसी का अपना महल छोड़ना पड़ा था.
उन्होंने एक तीन मंज़िल की साधारण सी हवेली 'रानी महल' में शरण ली थी.
रानी ने वकील जॉन लैंग की सेवाएं लीं जिसने हाल ही में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ़ एक केस जीता था.
'रानी महल' में लक्ष्मी बाई
लैंग का जन्म ऑस्ट्रेलिया में हुआ था और वो मेरठ में एक अख़बार, 'मुफ़ुस्सलाइट' निकाला करते थे.
लैंग अच्छी ख़ासी फ़ारसी और हिंदुस्तानी बोल लेते थे और ईस्ट इंडिया कंपनी का प्रशासन उन्हें पसंद नहीं करता था क्योंकि वो हमेशा उन्हें घेरने की कोशिश किया करते थे.
जब लैंग पहली बार झाँसी आए तो रानी ने उनको लेने के लिए घोड़े का एक रथ आगरा भेजा था.
उनको झाँसी लाने के लिए रानी ने अपने दीवान और एक अनुचर को आगरा रवाना किया.
अनुचर के हाथ में बर्फ़ से भरी बाल्टी थी जिसमें पानी, बीयर और चुनिंदा वाइन्स की बोतलें रखी हुई थीं. पूरे रास्ते एक नौकर लैंग को पंखा करते आया था.
झाँसी पहुंचने पर लैंग को पचास घुड़सवार एक पालकी में बैठा कर 'रानी महल' लाए जहाँ के बगीचे में रानी ने एक शामियाना लगवाया हुआ था.
मलमल की साड़ी
रानी लक्ष्मीबाई शामियाने के एक कोने में एक पर्दे के पीछे बैठी हुई थीं. तभी अचानक रानी के दत्तक पुत्र दामोदर ने वो पर्दा हटा दिया.
लैंग की नज़र रानी के ऊपर गई. बाद में रेनर जेरॉस्च ने एक किताब लिखी, 'द रानी ऑफ़ झाँसी, रेबेल अगेंस्ट विल.'
किताब में रेनर जेरॉस्च ने जॉन लैंग को कहते हुए बताया, 'रानी मध्यम कद की तगड़ी महिला थीं. अपनी युवावस्था में उनका चेहरा बहुत सुंदर रहा होगा, लेकिन अब भी उनके चेहरे का आकर्षण कम नहीं था. मुझे एक चीज़ थोड़ी अच्छी नहीं लगी, उनका चेहरा ज़रूरत से ज़्यादा गोल था. हाँ उनकी आँखें बहुत सुंदर थीं और नाक भी काफ़ी नाज़ुक थी. उनका रंग बहुत गोरा नहीं था. उन्होंने एक भी ज़ेवर नहीं पहन रखा था, सिवाए सोने की बालियों के. उन्होंने सफ़ेद मलमल की साड़ी पहन रखी थी, जिसमें उनके शरीर का रेखांकन साफ़ दिखाई दे रहा था. जो चीज़ उनके व्यक्तित्व को थोड़ा बिगाड़ती थी- वो थी उनकी फटी हुई आवाज़.'
रानी के घुड़सवार
बहरहाल कैप्टन रॉड्रिक ब्रिग्स ने तय किया कि वो ख़ुद आगे जा कर रानी पर वार करने की कोशिश करेंगे.
लेकिन जब-जब वो ऐसा करना चाहते थे, रानी के घुड़सवार उन्हें घेर कर उन पर हमला कर देते थे. उनकी पूरी कोशिश थी कि वो उनका ध्यान भंग कर दें.
कुछ लोगों को घायल करने और मारने के बाद रॉड्रिक ने अपने घोड़े को एड़ लगाई और रानी की तरफ़ बढ़ चले थे.
उसी समय अचानक रॉड्रिक के पीछे से जनरल रोज़ की अत्यंत निपुण ऊँट की टुकड़ी ने एंट्री ली. इस टुकड़ी को रोज़ ने रिज़र्व में रख रखा था.
इसका इस्तेमाल वो जवाबी हमला करने के लिए करने वाले थे. इस टुकड़ी के अचानक लड़ाई में कूदने से ब्रिटिश खेमे में फिर से जान आ गई. रानी इसे फ़ौरन भाँप गईं.
उनके सैनिक मैदान से भागे नहीं, लेकिन धीरे-धीरे उनकी संख्या कम होनी शुरू हो गई.
ब्रिटिश सैनिक
उस लड़ाई में भाग ले रहे जॉन हेनरी सिलवेस्टर ने अपनी किताब 'रिकलेक्शंस ऑफ़ द कैंपेन इन मालवा एंड सेंट्रल इंडिया' में लिखा, "अचानक रानी ज़ोर से चिल्लाई, 'मेरे पीछे आओ.' पंद्रह घुड़सवारों का एक जत्था उनके पीछे हो लिया. वो लड़ाई के मैदान से इतनी तेज़ी से हटीं कि अंग्रेज़ सैनिकों को इसे समझ पाने में कुछ सेकेंड लग गए. अचानक रॉड्रिक ने अपने साथियों से चिल्ला कर कहा, 'दैट्स दि रानी ऑफ़ झाँसी, कैच हर.'"
रानी और उनके साथियों ने भी एक मील ही का सफ़र तय किया था कि कैप्टेन ब्रिग्स के घुड़सवार उनके ठीक पीछे आ पहुंचे. जगह थी कोटा की सराय.
लड़ाई नए सिरे से शुरू हुई. रानी के एक सैनिक के मुकाबले में औसतन दो ब्रिटिश सैनिक लड़ रहे थे. अचानक रानी को अपने बायें सीने में हल्का-सा दर्द महसूस हुआ, जैसे किसी सांप ने उन्हें काट लिया हो.
एक अंग्रेज़ सैनिक ने जिसे वो देख नहीं पाईं थीं, उनके सीने में संगीन भोंक दी थी. वो तेज़ी से मुड़ीं और अपने ऊपर हमला करने वाले पर पूरी ताकत से तलवार लेकर टूट पड़ीं.
राइफ़ल की गोली
रानी को लगी चोट बहुत गहरी नहीं थी, लेकिन उसमें बहुत तेज़ी से ख़ून निकल रहा था. अचानक घोड़े पर दौड़ते-दौड़ते उनके सामने एक छोटा-सा पानी का झरना आ गया.
उन्होंने सोचा वो घोड़े की एक छलांग लगाएंगी और घोड़ा झरने के पार हो जाएगा. तब उनको कोई भी नहीं पकड़ सकेगा.
उन्होंने घोड़े में एड़ लगाई, लेकिन वो घोड़ा छलाँग लगाने के बजाए इतनी तेज़ी से रुका कि वो क़रीब क़रीब उसकी गर्दन के ऊपर लटक गईं.
उन्होंने फिर एड़ लगाई, लेकिन घोड़े ने एक इंच भी आगे बढ़ने से इंकार कर दिया. तभी उन्हें लगा कि उनकी कमर में बाई तरफ़ किसी ने बहुत तेज़ी से वार हुआ है.
उनको राइफ़ल की एक गोली लगी थी. रानी के बांए हाथ की तलवार छूट कर ज़मीन पर गिर गई.
उन्होंने उस हाथ से अपनी कमर से निकलने वाले ख़ून को दबा कर रोकने की कोशिश की.
रानी पर जानलेवा हमला
एंटोनिया फ़्रेज़र अपनी पुस्तक, 'द वॉरियर क्वीन' में लिखती हैं, "तब तक एक अंग्रेज़ रानी के घोड़े की बगल में पहुंच चुका था. उसने रानी पर वार करने के लिए अपनी तलवार ऊपर उठाई. रानी ने भी उसका वार रोकने के लिए दाहिने हाथ में पकड़ी अपनी तलवार ऊपर की. उस अंग्रेज़ की तलवार उनके सिर पर इतनी तेज़ी से लगी कि उनका माथा फट गया और वो उसमें निकलने वाले ख़ून से लगभग अंधी हो गईं."
तब भी रानी ने अपनी पूरी ताकत लगा कर उस अंग्रेज़ सैनिक पर जवाबी वार किया. लेकिन वो सिर्फ़ उसके कंधे को ही घायल कर पाई. रानी घोड़े से नीचे गिर गईं.
तभी उनके एक सैनिक ने अपने घोड़े से कूद कर उन्हें अपने हाथों में उठा लिया और पास के एक मंदिर में ले लाया. रानी तब तक जीवित थीं.
मंदिर के पुजारी ने उनके सूखे हुए होठों को एक बोतल में रखा गंगा जल लगा कर तर किया. रानी बहुत बुरी हालत में थीं. धीरे-धीरे वो अपने होश खो रही थीं.
उधर, मंदिर के अहाते के बाहर लगातार फ़ायरिंग चल रही थी. अंतिम सैनिक को मारने के बाद अंग्रेज़ सैनिक समझे कि उन्होंने अपना काम पूरा कर दिया है.
दामोदर के लिए...
तभी रॉड्रिक ने ज़ोर से चिल्ला कर कहा, "वो लोग मंदिर के अंदर गए हैं. उन पर हमला करो. रानी अभी भी ज़िंदा है."
उधर, पुजारियों ने रानी के लिए अंतिम प्रार्थना करनी शुरू कर दी थी. रानी की एक आँख अंग्रेज़ सैनिक की कटार से लगी चोट के कारण बंद थी.
उन्होंने बहुत मुश्किल से अपनी दूसरी आँख खोली. उन्हें सब कुछ धुंधला दिखाई दे रहा था और उनके मुंह से रुक-रुक कर शब्द निकल रहे थे, "....दामोदर... मैं उसे तुम्हारी... देखरेख में छोड़ती हूँ... उसे छावनी ले जाओ... दौड़ो उसे ले जाओ."
बहुत मुश्किल से उन्होंने अपने गले से मोतियों का हार निकालने की कोशिश की. लेकिन वो ऐसा नहीं कर पाई और फिर बेहोश हो गईं.
मंदिर के पुजारी ने उनके गले से हार उतार कर उनके एक अंगरक्षक के हाथ में रख दिया, "इसे रखो... दामोदर के लिए."
रानी का पार्थिव शरीर
रानी की साँसे तेज़ी से चलने लगी थीं. उनकी चोट से ख़ून निकल कर उनके फेफड़ों में घुस रहा था. धीरे-धीरे वो डूबने लगी थीं. अचानक जैसे उनमें फिर से जान आ गई.
वो बोलीं, "अंग्रेज़ों को मेरा शरीर नहीं मिलना चाहिए." ये कहते ही उनका सिर एक ओर लुड़क गया. उनकी साँसों में एक और झटका आया और फिर सब कुछ शांत हो गया.
झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने अपने प्राण त्याग दिए थे. वहाँ मौजूद रानी के अंगरक्षकों ने आनन-फ़ानन में कुछ लकड़ियाँ जमा की और उन पर रानी के पार्थिव शरीर को रख आग लगा दी थी.
उनके चारों तरफ़ रायफ़लों की गोलियों की आवाज़ बढ़ती चली जा रही थी. मंदिर की दीवार के बाहर अब तक सैकड़ों ब्रिटिश सैनिक पहुंच गए थे.
मंदिर के अंदर से सिर्फ़ तीन रायफ़लें अंग्रेज़ों पर गोलियाँ बरसा रही थीं. पहले एक रायफ़ल शांत हुई... फिर दूसरी और फिर तीसरी रायफ़ल भी शांत हो गई.
चिता की लपटें
जब अंग्रेज़ मंदिर के अंदर घुसे तो वहाँ से कोई आवाज़ नहीं आ रही थी. सब कुछ शांत था. सबसे पहले रॉड्रिक ब्रिग्स अंदर घुसे.
वहाँ रानी के सैनिकों और पुजारियों के कई दर्जन रक्तरंजित शव पड़े हुए थे. एक भी आदमी जीवित नहीं बचा था. उन्हें सिर्फ़ एक शव की तलाश थी.
तभी उनकी नज़र एक चिता पर पड़ी जिसकीं लपटें अब धीमी पड़ रही थीं. उन्होंने अपने बूट से उसे बुझाने की कोशिश की.
तभी उसे मानव शरीर के जले हुए अवशेष दिखाई दिए. रानी की हड्डियाँ क़रीब-क़रीब राख बन चुकी थीं.
इस लड़ाई में लड़ रहे कैप्टन क्लेमेंट वॉकर हेनीज ने बाद में रानी के अंतिम क्षणों का वर्णन करते हुए लिखा, "हमारा विरोध ख़त्म हो चुका था. सिर्फ़ कुछ सैनिकों से घिरी और हथियारों से लैस एक महिला अपने सैनिकों में कुछ जान फूंकने की कोशिश कर रही थी. बार-बार वो इशारों और तेज़ आवाज़ से हार रहे सैनिकों का मनोबल बढ़ाने का प्रयास करती थी, लेकिन उसका कुछ ख़ास असर नहीं पड़ रहा था. कुछ ही मिनटों में हमने उस महिला पर भी काबू पा लिया. हमारे एक सैनिक की कटार का तेज़ वार उसके सिर पर पड़ा और सब कुछ समाप्त हो गया. बाद में पता चला कि वो महिला और कोई नहीं स्वयं झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई थी."
तात्या टोपे
रानी के बेटे दामोदर को लड़ाई के मैदान से सुरक्षित ले जाया गया. इरा मुखोटी अपनी किताब 'हीरोइंस' में लिखती हैं, "दामोदर ने दो साल बाद 1860 में अंग्रेज़ों के सामने आत्म समर्पण किया. बाद में उसे अंग्रेज़ों ने पेंशन भी दी. 58 साल की उम्र में उनकी मौत हुई. जब वो मरे तो वो पूरी तरह से कंगाल थे. उनके वंशज अभी भी इंदौर में रहते हैं और अपने आप को 'झाँसीवाले' कहते हैं."
दो दिन बाद जयाजीराव सिंधिया ने इस जीत की खुशी में जनरल रोज़ और सर रॉबर्ट हैमिल्टन के सम्मान में ग्वालियर में भोज दिया.
रानी की मौत के साथ ही विद्रोहियों का साहस टूट गया और ग्वालियर पर अंग्रेज़ों का कब्ज़ा हो गया.
नाना साहब वहाँ से भी बच निकले, लेकिन तात्या टोपे के साथ उनके अभिन्न मित्र नवाड़ के राजा ने ग़द्दारी की.
तात्या टोपे पकड़े गए और उन्हें ग्वालियर के पास शिवपुरी ले जा कर एक पेड़ से फाँसी पर लटका दिया गया.

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