बृहत्तर भारत का एक प्राचीन और महत्वपूर्ण विद्या का केन्द्र और गान्धार प्रान्त की राजधानी--तक्षशिला। प्राचीन भारत का यह गान्धार प्रान्त वर्तमान दक्षिणी अफगानिस्तान में आता है। यह शिक्षा और व्यापार दोनों का केन्द्र था। कुछ विचारकों के अनुसार छान्दोग्योपनिषद् में ऋषि उद्दालक आरुणि गांधार देश का वर्णन करते हैं। शतपथ ब्राह्मण में आरुणि उदीच्य और उद्दालक जातक में तक्षशिला की यात्रा का वर्णन है। रामायण में इसे भरत द्वारा राजकुमार तक्ष के नाम पर स्थापित बताया गया है, जो यहाँ का शासक नियुक्त किया गया था। जनमेजय का सर्पयज्ञ इसी स्थान पर हुआ था। (महाभारत--1.3.20)
इस प्रकार देखा जाय तो भरत के पुत्र तक्ष के नाम पर इस नगर को बसाया गया। महाभारत अथवा रामायण में इसके विद्या के केन्द्र होने की चर्चा नहीं है। किन्तु ई. पू. सप्तम शताब्दी में यह स्थान विद्या के केन्द्र के रूप में पूर्ण रूप से प्रसिद्ध हो चुका था तथा राजगृह, काशी एवं मिथिला के विद्वानों के आकर्षण का केन्द्र बन गया था। सिकन्दर के आक्रमण के समय यह विद्यापीठ अपने दार्शनिकों के लिए प्रसिद्ध था।
गौतम बुद्ध के समय तक्षशिला विद्यापीठ में वेदत्रयी, उपवेदों के सहित 18 (कलाओं) विद्याओं (शिल्पों) की शिक्षा दी जाती थी। कोसल के राजा प्रसेनजित के पुत्र तथा बिम्बिसार के राजवैद्य जीवक ने यहाँ शिक्षा पाई थी। कुरु तथा कोसलराज्य निश्चित संख्या में यहाँ प्रतिवर्ष छात्रों को भेजते थे। तक्षशिला का एक विभाग धनुःविद्या शास्त्र था, जिसमें भारत के विभिन्न भागों से सैंकडों राजकुमार युद्धविद्या सीखने आते थे। कहा जाता है कि पाणिनि यहीं के छात्र थे। चाणक्य और चन्द्रगुप्त की प्रसिद्धि यहीं से हुई। यहाँ विदेशी छात्र भी पढते थे।
यह नगर उत्तरापथ के द्वारा श्रावस्ती और राजगृह से जुडा हुआ था। अशोक के 5 वें शिलालेख में लिखा मिलता है कि उसने धर्माधिकारियों को यवन और कांबोज के गांधार में भी नियुक्त किया था।
7 वीं शताब्दी में जब ह्वेनसांग इधर भ्रमण करने आया तब तक इसका गौरव समाप्त हो चुका था। फाहियान को भी यहाँ कोई शैक्षिक महत्व की बात नहीं प्राप्त हुई। वास्तव में इसकी शिक्षा विषयक चर्चा मौर्यकाल के बाद नहीं सुनी जाती। सम्भवतः बर्बर विदेशियों ने इसे नष्ट कर डाला।
संस्कृत का तक्षशिला पालि भाषा में "तक्कसिला" हो गया और ग्रीक में यही बदलकर "टेक्सिला" हो गया, जिसे अंग्रेजी में "टैक्सिला" कहा जाता है। फाहियान ने इसका चीनी नाम दिया--"शि-शि-चेंग"। इसका खण्डहर रावलपिंडी से उत्तर-पश्चिम में 22 मील दूर "शाह की ढेरी" में है। प्राचीन तक्षशिला ही आज "शाह की ढेरी है, जो आज पाकिस्तान में है।
इस प्रकार देखा जाय तो भरत के पुत्र तक्ष के नाम पर इस नगर को बसाया गया। महाभारत अथवा रामायण में इसके विद्या के केन्द्र होने की चर्चा नहीं है। किन्तु ई. पू. सप्तम शताब्दी में यह स्थान विद्या के केन्द्र के रूप में पूर्ण रूप से प्रसिद्ध हो चुका था तथा राजगृह, काशी एवं मिथिला के विद्वानों के आकर्षण का केन्द्र बन गया था। सिकन्दर के आक्रमण के समय यह विद्यापीठ अपने दार्शनिकों के लिए प्रसिद्ध था।
गौतम बुद्ध के समय तक्षशिला विद्यापीठ में वेदत्रयी, उपवेदों के सहित 18 (कलाओं) विद्याओं (शिल्पों) की शिक्षा दी जाती थी। कोसल के राजा प्रसेनजित के पुत्र तथा बिम्बिसार के राजवैद्य जीवक ने यहाँ शिक्षा पाई थी। कुरु तथा कोसलराज्य निश्चित संख्या में यहाँ प्रतिवर्ष छात्रों को भेजते थे। तक्षशिला का एक विभाग धनुःविद्या शास्त्र था, जिसमें भारत के विभिन्न भागों से सैंकडों राजकुमार युद्धविद्या सीखने आते थे। कहा जाता है कि पाणिनि यहीं के छात्र थे। चाणक्य और चन्द्रगुप्त की प्रसिद्धि यहीं से हुई। यहाँ विदेशी छात्र भी पढते थे।
यह नगर उत्तरापथ के द्वारा श्रावस्ती और राजगृह से जुडा हुआ था। अशोक के 5 वें शिलालेख में लिखा मिलता है कि उसने धर्माधिकारियों को यवन और कांबोज के गांधार में भी नियुक्त किया था।
7 वीं शताब्दी में जब ह्वेनसांग इधर भ्रमण करने आया तब तक इसका गौरव समाप्त हो चुका था। फाहियान को भी यहाँ कोई शैक्षिक महत्व की बात नहीं प्राप्त हुई। वास्तव में इसकी शिक्षा विषयक चर्चा मौर्यकाल के बाद नहीं सुनी जाती। सम्भवतः बर्बर विदेशियों ने इसे नष्ट कर डाला।
संस्कृत का तक्षशिला पालि भाषा में "तक्कसिला" हो गया और ग्रीक में यही बदलकर "टेक्सिला" हो गया, जिसे अंग्रेजी में "टैक्सिला" कहा जाता है। फाहियान ने इसका चीनी नाम दिया--"शि-शि-चेंग"। इसका खण्डहर रावलपिंडी से उत्तर-पश्चिम में 22 मील दूर "शाह की ढेरी" में है। प्राचीन तक्षशिला ही आज "शाह की ढेरी है, जो आज पाकिस्तान में है।
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