Wednesday 10 April 2013

गढ़वाल की घाटियों में .......

बात 1998 की है। उत्तराखंड तब बना नहीं था। खबर मिली कि कार्बेट नेशनल पार्क के पार दूर-दुर्गम पहाड़ों में एक अनोखा काम हुआ है। राम नगर से डौटियाल और वहां से सराईखेत। इसके आगे तब सड़क नहीं हुआ करती थी। कंधे पर पिट्ठू बैग टांगे कच्चे पहाड़ी रास्ते तय करता मैं चला जा रहा था। तीखी धूप, पहाड़ी चढ़ाई, सूखी चट्टानें, पसीने से तर शरीर और सूखता गला, मगर एक मोड़ पर सारा दृश्य बदल गया। मिट्टी में नमी, हवा में घुली मीठे पानी की महक और पेड़ों की पत्तियों से टपकती पानी की बूंदों की आवाज, साथ में टरर्ाते मेंढक और पक्षियों का कलरव। उजड़ते पहाड़ की सूरत संवारने का यही वह कमाल था जिसकी खबर दिल्ली तक जा पहुंची थी। दूधातोली के उस इलाके में सच्चिदानंद भारती नामक शिक्षक ने पानी बचाने की अनोखी मुहिम छेड़ रखी थी। ढलानों पर रिसते, बहते, बरसते पानी की एक-एक बूंद को बचाने की परम्परागत तकनीक को उन्होंने फिर जीवन दे दिया। छोटी नांद से लेकर कमरे के आकार तक के हजारों तालाब, लाखों पेड़ पहली बार मुझे किसी एक व्यक्ति द्वारा लिए संकल्प की अतुलनीय शक्ति का अनुभव हुआ। एक गुमनाम से व्यक्ति के पर्वत से संकल्प ने पहाड़ के जनजीवन में नई जान फूंक डाली। अब तो सारा समाज भारती के साथ खड़ा था। दैड़ा गांव में तारों की छांव में भारती का नाम लोकगीतों में सुना। मैंने स्वयं से पूछा, 'ठान लें तो हम क्या नहीं कर सकते?' तब से यह उदाहरण मुझे शक्ति और दिशा देता रहा है।
वर्ष प्रतिपदा विशेषांक की योजना के समय यही सवाल और गढ़वाल की घाटियों में गूंजता वही जवाब याद आया।

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