20 अक्टूबर 1962 में भारत-चीन बीच घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया...चीनी चुजे अपने को अजेय मानकर बढ़ते चले आ रहे थे...उन्होंने लेह के पूर्वी क्षेत्र व नेफा में मैकमोहन सीमा रेखा की भारतीय सैनिक चौकी पर देखते ही देखते फतह कर ली थी।
चौकी पर भारतीय सेना की कोई पेट्रोल पार्टी गश्त नहीं कर रही थी... लद्दाख की भयानक सर्दी में जवानों के पास न तो पर्याप्त कपड़े, सर्दी के जूते और न ही हथियार थे लेकिन दुश्मन का सामना करने का हौसला था...
ऊंचे ग्लेशियरों से घिरे सुनसान पहाड़ी इलाके चुशूल रेजांग ला पोस्ट पर मेजर शैतानसिंह
अपनी 13 वीं कुमाऊं बटालियन की 'सी०' कम्पनी का नेतृत्व कर रहे थे जिसमें 118
जवान थे...18 नवम्बर 1962 को बर्फीली हवाओं के तेज झोंके, कुहासे की धुंध से जवानों के हाथ-पांव ठंडे हो रहे थे कि 1310 चीनी सैनिकों का अचानक हमला हो गया...सुबह
4:35 बजे हुए उस हमले के उत्तर में मेजर शैतान सिंह, हवलदार राजकुमार, हरिराम,
सूरजा, रामचंद्र, गुलाब सिंह, रामकुमार सिंह, फूलसिंह, जयनारायण, निहाल सिंह,
हरफूल सिंह आदि ने अपनी प्लाटूनों सहित मोर्चा संभाल लिया...मैदानी क्षेत्र से आए जवानों ने पहली बार बर्फ से ढंकी पहाडिय़ों पर मोर्चे का तजुर्बा किया था और उनके पास मौसम का सामना करने के संसाधन नहीं के बराबर थे...
मेजर शैतान सिंह अपने संख्या बल एवं हथियारों की क्षमता से परिचित थे...उन्होंने अपनी हर प्लाटून के मोर्चे तय कर निर्देश देना आरम्भ किया कि दुश्मन के हथियारों की रेंज में आते ही गोलियां चलाई जाएं...
कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद राइफल, मशीनगन और मोर्टांर से हमला बोल दिया गया परन्तु चीनी चुजे ने उस समय तक भारतीय सैनिकों को चारों ओर से घेर लिया था...
उनका हमला जानलेवा था... उनके मोर्टारों से उगलते शोलों के गोले भारतीय सेना के बंकर व मोर्चे तबाह कर रहे थे...
इसके बावजूद भारतीय सैनिक पीछे हटने को तैयार नहीं थे...
नवम्बर माह के उस दिन पूरा देश दीपावली मना रहा था और चुशूल घाटी में भारतीय वीर खून की होली खेल रहे थे.."भारतीय लोकसभा में प्रधानमंत्री द्वारा वक्तव्य दिया जा रहा था कि जिस हिस्से पर चीन ने कब्जा किया है वहां अन्न का एक दाना भी नहीं उगता..."
सदन में कांग्रेस के ही सदस्यों ने उठकर अपनी टोपियां उतारीं और कहा नेहरुजी,
हमारे सिरों पर बाल नहीं है और आपके सिरपर भी नहीं...इसका मतलब यह नहीं कि सिर कट जाने दिया जाए...
उधर, युद्ध मैदानमें डटे मेजर शैतान सिंह ने 118 जवानों को
संबोधित करते हुए कहा कि "यह हर सैनिक के जीवन का सर्वोत्तम क्षण है कि वे अपनी मातृभूमि की पवित्रता की रक्षा करें या दुश्मन से लड़ते-लड़ते अपने प्राणों को राष्ट्रहित में न्यौछावर कर दें..."
उनके संबोधन ने सैनिकों का जोश दुगुना कर दिया। उसी बीच चीनियों चुजो ने 13 वीं कुमाऊं रेजीमेंट चौकी के पीछे से हमला बोल दिया जिससे तांगात्से छावनी जवान सैनिकों के बचने की गुंजाइश भी नहीं बची...
फिर भी, भारत के जांबाजों ने शत्रु सेना को खासा नुकसान पहुंचाया। उसी दौरान चीनी सेना की चलाई गई एक गोली.कम्पनी कमांडर मेजर शैतान सिंह को लगी लेकिन हवलदार हरफूल सिंह के कहने के
बावजूद मेजर शैतानसिंह ने मैदान से हटना कबूल नहीं किया...
उन्होंने अपनी कमर से
बेल्ट निकाल कर उनको दी और कहा मैं यहीं लड़ूंगा आप छावनी में जाकर सूचना दो कि 13 वीं कुमाऊं बटालियन की 'सीÓ कम्पनी का प्रत्येक सैनिक लहू की अंतिम बूंद और अपनी अंतिम गोली तक दुश्मन से लड़ता रहा...
दुश्मन के खिलाफ हमले पर हमले कर रहे जख्मी मेजर पर शत्रु सैनिकों की मशीनगन से निकली गोली की बौछार आई...
सीने, पेट और जांघ पर गोलियां लगने के बाद मेजर ने मृत्यु को स्वीकार कर भारतीय वीरता का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत किया...
आगे चलकर तांगात्से को रेजांग ला दर्रे की लड़ाई चुशूल की लड़ाई के नाम से अविस्मरणीय वीरगाथा बन गई...
इस वीरगाथाके तीन
माह बाद बर्फ पिघलने पर भारतीय सीमा के अंदर 114 भारतीय व 1100 चीनी चुजों
के शव प्राप्त हुए...रक्षा मंत्रालय ने सैनिकों की सुरक्षा में रेडक्रास की एक टीम रेजांगला दर्रे भेजी...
निगरानी दल ने देखा कि शहीद सैनिकों की उंगलियां राइफलों के ट्रिगर पर थी तो किसी के हाथ में हथगोले थे...
"मातृभूमि की रक्षा के लिए भारतीय सैनिकों के अदम्य
साहस और बलिदान को देख चीनी सैनिकों ने जाते समय सम्मान के रूप में जमीन पर
अपनी राइफलें उल्टी गाडऩे के बाद उन पर अपनी टोपी रख दी थी...
भारतीय सैनिकों को शत्रु सैनिकों से सर्वोच्च सम्मान प्राप्त हुआ था...
आज भी इंडिया गेट दिल्ली में वीर जवान ज्योति में यह छवि देखने को मिलती है...
वहीं 13 वीं कुमाऊं रेजीमेंट के 114 वीरों की चुशूल से 12 किमी दूर एक स्मारक बना है...इस स्मारक में सभी वीर सैनिकों के नाम अंग्रेजी के अक्षरों में अंकित हैं... इस विजय प्राचीर के समान ही एक छोटी समधि के रूप में "अहीर धाम स्मारक का भी निर्माण किया गया है..."
उल्लेखनीय है कि 13 वीं कुमाऊं
बटालियन की 'सी कम्पनी में शामिल अधिकांश जांबाज जवान अहीर (यादव) ही थे...
परंतु 'रेजांग ला के समर में वे सब भारतीय सैनिक थे...
जयहिंद।
चौकी पर भारतीय सेना की कोई पेट्रोल पार्टी गश्त नहीं कर रही थी... लद्दाख की भयानक सर्दी में जवानों के पास न तो पर्याप्त कपड़े, सर्दी के जूते और न ही हथियार थे लेकिन दुश्मन का सामना करने का हौसला था...
ऊंचे ग्लेशियरों से घिरे सुनसान पहाड़ी इलाके चुशूल रेजांग ला पोस्ट पर मेजर शैतानसिंह
अपनी 13 वीं कुमाऊं बटालियन की 'सी०' कम्पनी का नेतृत्व कर रहे थे जिसमें 118
जवान थे...18 नवम्बर 1962 को बर्फीली हवाओं के तेज झोंके, कुहासे की धुंध से जवानों के हाथ-पांव ठंडे हो रहे थे कि 1310 चीनी सैनिकों का अचानक हमला हो गया...सुबह
4:35 बजे हुए उस हमले के उत्तर में मेजर शैतान सिंह, हवलदार राजकुमार, हरिराम,
सूरजा, रामचंद्र, गुलाब सिंह, रामकुमार सिंह, फूलसिंह, जयनारायण, निहाल सिंह,
हरफूल सिंह आदि ने अपनी प्लाटूनों सहित मोर्चा संभाल लिया...मैदानी क्षेत्र से आए जवानों ने पहली बार बर्फ से ढंकी पहाडिय़ों पर मोर्चे का तजुर्बा किया था और उनके पास मौसम का सामना करने के संसाधन नहीं के बराबर थे...
मेजर शैतान सिंह अपने संख्या बल एवं हथियारों की क्षमता से परिचित थे...उन्होंने अपनी हर प्लाटून के मोर्चे तय कर निर्देश देना आरम्भ किया कि दुश्मन के हथियारों की रेंज में आते ही गोलियां चलाई जाएं...
कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद राइफल, मशीनगन और मोर्टांर से हमला बोल दिया गया परन्तु चीनी चुजे ने उस समय तक भारतीय सैनिकों को चारों ओर से घेर लिया था...
उनका हमला जानलेवा था... उनके मोर्टारों से उगलते शोलों के गोले भारतीय सेना के बंकर व मोर्चे तबाह कर रहे थे...
इसके बावजूद भारतीय सैनिक पीछे हटने को तैयार नहीं थे...
नवम्बर माह के उस दिन पूरा देश दीपावली मना रहा था और चुशूल घाटी में भारतीय वीर खून की होली खेल रहे थे.."भारतीय लोकसभा में प्रधानमंत्री द्वारा वक्तव्य दिया जा रहा था कि जिस हिस्से पर चीन ने कब्जा किया है वहां अन्न का एक दाना भी नहीं उगता..."
सदन में कांग्रेस के ही सदस्यों ने उठकर अपनी टोपियां उतारीं और कहा नेहरुजी,
हमारे सिरों पर बाल नहीं है और आपके सिरपर भी नहीं...इसका मतलब यह नहीं कि सिर कट जाने दिया जाए...
उधर, युद्ध मैदानमें डटे मेजर शैतान सिंह ने 118 जवानों को
संबोधित करते हुए कहा कि "यह हर सैनिक के जीवन का सर्वोत्तम क्षण है कि वे अपनी मातृभूमि की पवित्रता की रक्षा करें या दुश्मन से लड़ते-लड़ते अपने प्राणों को राष्ट्रहित में न्यौछावर कर दें..."
उनके संबोधन ने सैनिकों का जोश दुगुना कर दिया। उसी बीच चीनियों चुजो ने 13 वीं कुमाऊं रेजीमेंट चौकी के पीछे से हमला बोल दिया जिससे तांगात्से छावनी जवान सैनिकों के बचने की गुंजाइश भी नहीं बची...
फिर भी, भारत के जांबाजों ने शत्रु सेना को खासा नुकसान पहुंचाया। उसी दौरान चीनी सेना की चलाई गई एक गोली.कम्पनी कमांडर मेजर शैतान सिंह को लगी लेकिन हवलदार हरफूल सिंह के कहने के
बावजूद मेजर शैतानसिंह ने मैदान से हटना कबूल नहीं किया...
उन्होंने अपनी कमर से
बेल्ट निकाल कर उनको दी और कहा मैं यहीं लड़ूंगा आप छावनी में जाकर सूचना दो कि 13 वीं कुमाऊं बटालियन की 'सीÓ कम्पनी का प्रत्येक सैनिक लहू की अंतिम बूंद और अपनी अंतिम गोली तक दुश्मन से लड़ता रहा...
दुश्मन के खिलाफ हमले पर हमले कर रहे जख्मी मेजर पर शत्रु सैनिकों की मशीनगन से निकली गोली की बौछार आई...
सीने, पेट और जांघ पर गोलियां लगने के बाद मेजर ने मृत्यु को स्वीकार कर भारतीय वीरता का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत किया...
आगे चलकर तांगात्से को रेजांग ला दर्रे की लड़ाई चुशूल की लड़ाई के नाम से अविस्मरणीय वीरगाथा बन गई...
इस वीरगाथाके तीन
माह बाद बर्फ पिघलने पर भारतीय सीमा के अंदर 114 भारतीय व 1100 चीनी चुजों
के शव प्राप्त हुए...रक्षा मंत्रालय ने सैनिकों की सुरक्षा में रेडक्रास की एक टीम रेजांगला दर्रे भेजी...
निगरानी दल ने देखा कि शहीद सैनिकों की उंगलियां राइफलों के ट्रिगर पर थी तो किसी के हाथ में हथगोले थे...
"मातृभूमि की रक्षा के लिए भारतीय सैनिकों के अदम्य
साहस और बलिदान को देख चीनी सैनिकों ने जाते समय सम्मान के रूप में जमीन पर
अपनी राइफलें उल्टी गाडऩे के बाद उन पर अपनी टोपी रख दी थी...
भारतीय सैनिकों को शत्रु सैनिकों से सर्वोच्च सम्मान प्राप्त हुआ था...
आज भी इंडिया गेट दिल्ली में वीर जवान ज्योति में यह छवि देखने को मिलती है...
वहीं 13 वीं कुमाऊं रेजीमेंट के 114 वीरों की चुशूल से 12 किमी दूर एक स्मारक बना है...इस स्मारक में सभी वीर सैनिकों के नाम अंग्रेजी के अक्षरों में अंकित हैं... इस विजय प्राचीर के समान ही एक छोटी समधि के रूप में "अहीर धाम स्मारक का भी निर्माण किया गया है..."
उल्लेखनीय है कि 13 वीं कुमाऊं
बटालियन की 'सी कम्पनी में शामिल अधिकांश जांबाज जवान अहीर (यादव) ही थे...
परंतु 'रेजांग ला के समर में वे सब भारतीय सैनिक थे...
जयहिंद।
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