खांटी भारतीय हैं पूर्वोत्तर के लोग
आज पूर्वोत्तर के जिन सात राज्यों को सात बहनों के नाम से हम जानते हैं, वे राज्य पश्चिम बंगाल और असम विभाजन के फलस्वरूप स्वतंत्र रूप से अस्तित्व में आए हैं। ये छोटे राज्य मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड, त्रिपुरा, सिक्किम और मिजोरम हैं। इतिहास के पन्नों को खंगालें तो पता चलता है कि भगवान परशुराम और अर्जुन के बीच जो भीषण युद्ध हुआ था, उसके अंतिम आततायी को परशुराम ने अरुणाचल प्रदेश में जाकर मारा था। अंत में यहीं के लोहित क्षेत्र में पहुंचकर ब्रह्मपुत्र नदी में अपना रक्त-रंचित फरसा धोया था। बाद में स्मृति स्वरूप यहां पांच कुंड बनाए गए, जिन्हें समंतपंच का रुधिर कुंड कहा जाता है। ये कुंड आज भी अस्तित्व में है। इस क्षेत्र में यह दंतकथा भी प्रचालित है कि इन्हीं कुंडों में भृगुकुल भूषण परषुराम ने युद्ध में मारे गए योद्धाओं का तर्पण किया था। परशुराम यही नहीं रूके, उन्होंने शुद्र और इस क्षेत्र की जो आदिम जनजातियां थीं, उनका यज्ञोपवीत संस्कार करके उन्हें ब्राह्मण बनाया और सामूहिक विवाह किए।महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण ने पूर्व से पश्चिम की सामरिक और सांस्कृतिक यात्रा की। द्वारिका एवं माणिपुर में सैन्य अड्डे स्थापित किए। इसीलिए इस पूरे क्षेत्र की जनजातियां अपने को रामायण और महाभारत काल के नायकों का वंशज मानती हैं। यही नहीं ये अपने पुरखों की यादें भी जीवित रखे हुए हैं। सूर्यदेव को आराध्य मानने वालीं अरुणाचल की 54 जनजातियों में से एक मिजो-मिमी जनजाति खुद को भगवान श्रीकृष्ण की पटरानी रुक्मिणी का वंशज मानती हैं। दंतकथाओं के अनुसार आज के अरुणाचल क्षेत्र स्थित भीष्मकनगर की एक राजकुमारी थीं। उनके पिता का नाम भीष्मक एवं भाई का नामरुक्मंगद था। जब कृष्ण रुक्मिणी का अपहारण करने गए तो रुक्मंगद ने उनका विरोध किया। परमवीर योद्धा रुक्मंगद को पराजित करने के लिए कृष्ण को सुदर्शन चलाने के लिए मजबूर होना पड़ा। इस पर रुक्मिणी का ह्दय पसीज उठा और उन्होंने कृष्ण से अनुरोध किया कि वे भाई के प्राण न लें, सिर्फ सबक सिखाकर छोड़ दें। तब श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र को रुक्मंगद का आधा मुंडन करने का आदेश दिया। रुक्मंगद का यही अर्धमुंडन आज सेना के जवानों की हेयर स्टाइल मानी जाती है। मिजो-मिष्मी जनजाति के पुरुष आज भी अपने बाल इसी तरह से रखते हैं। दिल्ली में नीदो नामक जिस युवक के बालों पर नोकझोंक हुई थी, उसके बाल इसी परंपरागत के तर्ज पर थे। वास्तव में वह भगवान कृष्ण द्वारा निर्मित परंपरा का निर्वाह कर रहा था, जिस कृष्ण की पूजा उत्तर भारत समेत समूचे देश में होती है। यदि वाकई देश के लोग इस लोककथा से परिचित होते तो शायद निदो पर जानलेवा हमला ही नहीं हुआ होता?मेघालय की खासी जयंतिया जनजाति की आबादी करीब 13 लाख है। यह जनजाति आज भी तीरंदजी में प्रवीण मानी जाती है, किंतु हैरानी की बात यह है कि धनुष-बाण चलाते समय ये अंगूठे का प्रयोग नहीं करते। ये लोग अपने को एकलव्य का वंशज मानते हैं। यह वही एकलव्य है, जिसने द्रोणाचार्य के मागंने पर गुरुदक्षिणा में अपना अंगूठा दे दिया था। इसी तरह नागालैंड के शहर दीमापुर का पुराना नाम हिडिंबापुर था। यहां की बहुसंख्यक आबादी दिमंशा जनजाति की है। यह जाति खुद को भीम की पत्नी हिडिंबा का वंशज मानती है। दीमापुर में आज भी हिडिंबा का वाड़ा है। यहां राजवाड़ी क्षेत्र में स्थित शतंरज की बड़ी-बड़ी गोटियां पर्यटकों के आर्कषण का प्रमुख केंद्र है। किंवदंती है कि इन गोटियों से हिडिंबा और भीम का बाहुबली पुत्र वीर घटोत्कच शतरंज खेलता था।म्यामांर की सीमा से सटे राज्य माणिपुर के जिले उखरूल का नाम उलूपी-कुल का अपभ्रंश माना जाता है। अर्जुन की एक पत्नी का नाम भी उलूपी था, जो इसी क्षेत्र की रहने वाली थी। तांखुल जनजाति के लोग खुद को अर्जुन और उलूपी का वंशज मानते हैं। ये लोग मार्शल आर्ट में माहिर माने जाते हैं। अर्जुन की दूसरी पत्नी चित्रांगदा भी मणिपुर के मैत्रेयी जाति से थी। यह जाति अब वैष्णव बन चुकी है। असम की बोडो जनजाति खुद को सृष्टि के रचियता ब्रह्मा का वंशज मानती है। असम के ही पहाड़ी जिले कार्बी आंगलांग में रहने वाली कार्बी जनजाति स्वंय को सुग्रीव का वंशज मानती है। देश के तथाकथित माक्र्सवादी प्रगतिशील इतिहासकार रामायण और महाभारत कालीन पात्रों व नायकों को भले ही मिथक मानते हों, लेकिन पूर्वोत्तर राज्यों के रहवासियों को रक्त व धर्म आधारित सांस्कृतिक एकरूपता से जोड़ती है तो यही वह स्थिति है, जिसका व्यापक प्रचार संर्कीण सोच के लोगों को खंडित मानसिकता से उबार सकता है। हमारे प्राचीन संस्कृत ग्रंथों, लोक और दंत कथाओं में ज्ञान के ऐसे अनेक स्रोत मिलते हैं।
जो हमें सीमांत प्रदेशों में भी मूल भारतीय होने के जातीय गौरव से जोड़ते हैं। जरूरी है कि हम सांस्कृतिक एकरूपता वाली इन कथाओं को पाठ्य पुस्तकों में शामिल करें। पूर्वोत्तर राज्यों में रक्तजन्य जातीय समरसता के इस मूल-मंत्र से जातीय एकता की उम्मीद की जा सकती है।
जो हमें सीमांत प्रदेशों में भी मूल भारतीय होने के जातीय गौरव से जोड़ते हैं। जरूरी है कि हम सांस्कृतिक एकरूपता वाली इन कथाओं को पाठ्य पुस्तकों में शामिल करें। पूर्वोत्तर राज्यों में रक्तजन्य जातीय समरसता के इस मूल-मंत्र से जातीय एकता की उम्मीद की जा सकती है।
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