Saturday, 2 March 2013

सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य ‘’हेमू‘’


सम्राट हेमचन्द्र विक्रमादित्य ‘’हेमू‘’
हेमू का जन्म सन 1501 में राजस्थान के अलवर जिले के मछेरी नामक एक गांव में रायपूर्णदास के यहां हुआ था। इनके पिता पुरोहिताई का कार्य करते थे किन्तु बाद में मुगलों के द्वारा पुरोहितो को परेशान करने की वजह से रेवारी (हरियाणा) में आ कर नमक का व्यवसाय करने लगे |
‘हेमू’ (हेम चन्द्र) की शिक्षा रिवाडी में आरम्भ हुई। उन्होंने संस्कृत, हिन्दी, फारसी, अरबी तथा गणित के अतिरिक्त घुडसवारी में भी महारत हासिल की। समय के साथ साथ हेमू ने पिता के नये व्यवसाय में अपना योगदान देना शुरु किया। काफी कम उम्र से ही हेमू, शेर शाह सूरी के लश्कर को अनाज एवं पोटेशियम नाइट्रेट (गन पावडर हेतु) उपलब्ध करने के व्यवसाय में पिताजी के साथ हो लिए थे. सन १५४० में शेर शाह सूरी ने हुमायु को हरा कर काबुल लौट जाने को विवश कर दिया था. हेमू ने उसी वक़्त रेवारी में धातु से विभिन्न तरह के हथियार बनाने के काम की नीव राखी, जो आज भी रेवारी में ब्रास, कोंपर, स्टील के बर्तन के आदि बनाने के काम के रूप में जारी है.| जब सन 1545 में शेरशाह सूरी की मृत्यु हुई, तब तक हेमू ने अपने प्रभाव का अच्छा खासा विस्तार कर लिया था। यही कारण है कि शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद जब उसका पुत्र इस्लामशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा तो उसने हेमू की योग्यता को पहचान कर उन्हें शंगाही बाजार अर्थात दिल्ली में ‘बाजार अधीक्षक’ नियुक्त किया। कुछ समय बाद बाजार अधीक्षक के साथ-साथ हेमू को आंतरिक सुरक्षा का मुख्य अधिकारी भी नियुक्त कर दिया और उनके पद को वजीर के पद के समान मान्यता दी।
सन 1553 में हेमू के जीवन में एक बड़ा उत्कर्षकारी मोड़ आया। इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद आदिलशाह दिल्ली की गद्दी पर बैठा। आदिलशाह एक घोर विलासी शराबी और लम्पट शासक था। उसे अपने विरुद्ध बढ़ते विद्रोही को दबाने और राजस्व वसूली के लिए हेमू जैसे विश्वस्त परामर्शदाता और कुशल प्रशासक की आवश्यकता थी।
उसने हेमू को ग्वालियर के किले में न केवल अपना प्रधानमंत्री बनाया वरन अफगान फौज का मुखिया भी नियुक्त कर दिया। अब तो राज्य प्रशासन का समस्त कार्य हेमू के हाथ में आ गया और व्यवहारिक रूप में वह ही राज्य का सर्वेसर्वा बन गए। शासन की बागडोर हाथों में आते ही हेमू ने टैक्स न चुकाने वाले विद्रोही अफगान सामंतों को बुरी तरह से कुचल डाला। इब्राहिम खान, सुल्तान मुहम्मद खान, ताज कर्रानी, रख खान नूरानी जैसे अनेक प्रबल विद्रोहियों को युद्ध में परास्त किया और एक-एक कर उन सभी को मौत के घाट उतार दिया। हेमू ने छप्परघटा के युद्ध में बंगाल के सूबेदार मुहम्मद शाह को मौत के घाट उतारा व बंगाल के विशाल राज्य पर कब्जा कर अपने गवर्नर शाहबाज खां को नियुक्त किया। इस बीच आदिल शाह का मानसिक संतुलन बिगड़ गया और हेमू व्यवहारिक रूप से बादशाह माने जाने लगे। उन्हे हिंदू तथा अफगान सभी सेनापतियों का भारी समर्थन प्राप्त था। हेमू जिन दिनों बंगाल में विद्रोह को कुचलने में लगे थे। उनकी अनुपस्थिति का लाभ उठाकर जुलाई 1555 में हुमायुं ने पंजाब, दिल्ली और आगरा पर पुन: अपना अधिकार कर लिया।

इसके 6 माह बाद ही हुमायुं का देहांत हो गया और उसका नाबालिग पुत्र अकबर उसका उत्तराधिकारी बना। हेमू ने इसे अनुकूल अवसर जानकार मुगलों को परास्त करके और दिल्ली पर अपना एकछत्र शासन करने के स्वर्णिम अवसर के रूप में देखा। वह एक विशाल सेना को लेकर बंगाल से वर्तमान बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश को रौंदते हुए दिल्ली की ओर चल पड़े। उनके रण कौशल के आगे मुगल फौजदारों में भगदड़ मच गई। आगरा सूबे का मुगल कमांडर इस्कंदर खान उजबेक तो बिना लड़े ही आगरा छोड़कर भाग गया। हेमू ने इटावा, काल्पी, बयाना आदि सूबों पर बड़ी सरलता से कब्जा कर वर्तमान उत्तरप्रदेश के मध्य एवं पश्चिमी भागो ंपर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया। अब दिल्ली की बारी थी। 6 अक्टूबर 1956 को तुगलकाबाद के पास मात्र एक दिन की लड़ाई में हेमू ने अकबर की फौजों को हराकर दिल्ली को फतेह कर लिया। पुराने किले में जो प्रगति मैदान के सामने है अफगान तथा राजपूत सेनानायकों के सान्निध्य में पूर्ण धार्मिक विधि विधान में राज्याभिषेक कराया।

उन्होंने शताब्दियों से विदेशी शासन की गुलामी में जकड़े भारत को मुक्त कराकर हेमचंद्र विक्रमादित्य की उपाधि धारण की व उत्तर भारत में दक्षिण भारत में स्थापित विजय नगर साम्राज्य की तर्ज पर हिंदू राज की स्थापना की। इस अवसर पर हेमू ने अपने चित्रों वाले सिक्के ढलवाए सेना का प्रभावी पुनर्गठन किया और बिना किसी अफगान सेना नायक को हटाए हिंदू अधिकारियों को नियुक्त किया। अपने कौशल, साहस और पराक्रम के बल पर अब हेमू हेमचंद विक्रमादित्य के नाम से देश की शासन सत्ता के सर्वोच्च शिखर पर आसीन थे। अब्बुल फजल के अनुसार दिल्ली विजय के बाद हेमू काबुल पर आक्रमण करने की योजना बना रहे थे।
उधर अकबर अपने सेनापतियों की सलाह पर हेमू की बढ़ती शक्ति से डर कर काबुल लौट जाने की तैयारी में था कि उसके संरक्षक बैरमखां ने एक और मौका लेने की जिद की। दोनों ओर युद्ध की तैयारियां जोरों पर थी। हेमू एक विशाल सेना लेकर दिल्ली से पानीपत के लिए निकले। 5 नवम्बर 1556 को पानीपत के मैदान में दोनों सेनाएं आमने-सामने आ डटी। भय और सुरक्षा के विचार से अकबर और बैरमयां ने स्वयं इस युद्ध में भाग नहीं लिया और वे दोनों युद्ध क्षेत्र से 8-10 मील की दूरी पर, सौंधापुर गांव के कैंप में रहे किंतु हेमू ने स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व किया। भयंकर युद्ध मे प्रारंभिक सफलताओं से ऐसा लगा कि मुगल सेना शीघ्र ही मैदान से भाग जाएगी लेकिन दुर्भाग्यवश एक तीर अचानक हाथी पर बैठे हेमू की आंख में लग गया। तीर निकाल कर हेमू ने लड़ाई जारी रखा। तीर लगने के कारण हेमू बेहोश हो गए। हेमचन्द्र को अकबर की उपस्थिति में बैरम खाँ और अली कुली खाँ, (कालान्तर नूरजहाँ का पति) ने कत्ल कर दिया । हेमू का कटा सिर अफगानिस्तान स्थित काबुल भेजा गया जहां उसे एक किले के बाहर लटका दिया गया। जबकि उनका धड़ दिल्ली के पुराने किले के सामने जहां उनका राज्यभिषेक हुआ था, लटका दिया गया। इस प्रकार एक असाधारण व्यक्तित्व के धनी, भारत सम्राट की गौरवपूर्ण जीवन यात्रा पूरी हुई।
बैरमखाँ ने सैनिकों के सशस्त्र दल को हेमचन्द्र के अस्सी वर्षीय पिता के पास भेजा। उन को मुस्लमान होने अथवा कत्ल होने का विकल्प दिया गया। वृद्ध पिता ने गर्व से उत्तर दिया कि ‘जिन देवों की अस्सी वर्ष तक पूजा अर्चना की है उन्हें कुछ वर्ष और जीने के लोभ में नहीं त्यागूं गा’। उत्तर के साथ ही उन्हे कत्ल कर दिया गया था।

–दिल्ली पहुँच कर अकबर ने ‘कत्ले-आम’ करवाया ताकि लोगों में भय का संचार हो और वह दोबारा विद्रोह का साहस ना कर सकें। कटे हुये सिरों के मीनार खडे किये गये। पानीपत के युद्ध संग्रहालय में इस संदर्भ का ऐक चित्र आज भी हिन्दूओं की दुर्दशा के समारक के रूप मे सुरक्षित है किन्तु हिन्दू समाज के लिय़े शर्म का विषय तो यह है कि हिन्दू सम्राट हेम चन्द्र विक्रमादूतीय का समृति चिन्ह भारत की राजधानी दिल्ली या हरियाणा में कहीं नहीं है। इस से शर्मनाक और क्या होगा कि फिल्म ‘जोधा-अकबर’ में अकबर को महान और सम्राट हेमचन्द्र को खलनायक की तरह दिखाया गया था।
 

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