Friday, 29 March 2013

संकट की ओर ले जाते ट्रैक्टर: Devinder Sharma


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संकट की ओर ले जाते ट्रैक्टर: Devinder Sharma

हर सोमवार सुबह-सुबह ही पंजाब की कोटकापुरा अनाज मंडी में सेकंड हैंड ट्रैक्टरों की आमद शुरू हो जाती है। दोपहर तक तो यह मंडी ट्रैक्टरों की मंडी में तब्दील हो जाती है। ज्यादातर टै्रक्टरों की खरीद वो बिचौलिए करते हैं, जो उत्तर प्रदेश, राजस्थान और बिहार में सेकंड हैंड ट्रैक्टर बेचते हैं। आप सोच रहे होंगे, पंजाब के किसान ट्रैक्टर से तंग आ चुके हैं, इसलिए अपने ट्रैक्टर बेचने को लालायित हैं। सच्चाई यह है कि जो लोग ट्रैक्टर बेचने आ रहे हैं, वे नए अच्छे और आकार में बड़े ट्रैक्टर खरीद चुके हैं। अनेक दशकों से ट्रैक्टर पंजाब के किसानों के लिए सम्मान का प्रतीक हैं। जिन्हें जरूरत न हो, वे भी ट्रैक्टर खरीद लेते हैं। पंजाब में 5 लाख से ज्यादा ट्रैक्टर हैं। कभी इन्हें सम्मान का प्रतीक माना जाता था, लेकिन अब ये आत्महत्या के प्रतीक हैं। इसके बावजूद किसानों ने ट्रैक्टर-प्रेम नहीं छोड़ा है। ट्रैक्टर के नए ब्रांड के प्रति उनमें चाहत विकसित हो गई है और यह चाहत बढ़ती जा रही है।

हालांकि ऎसे किसान भी बड़ी संख्या में हैं, जिनके लिए ट्रैक्टर जरूरत हैं, लेकिन ऎसे छोटे किसान भी हैं, जो सामाजिक दबाव के कारण ट्रैक्टर खरीद लेते हैं, चूंकि कम ब्याज दर पर आसान किश्तों में ट्रैक्टर उपलब्ध हैं। वे 5 लाख रूपए या उससे ज्यादा की कीमत पर भी ट्रैक्टर खरीद लेते हैं।
एक ट्रैक्टर अकेले किसान के लिए ज्यादा इस्तेमाल का नहीं है, उससे जुड़े भारी औजारों-कल-पुर्जो का बहुत महत्व होता है। ये औजार किसानों की ऋणग्रस्तता को बढ़ाते हैं। हरियाणा में जमीन समतल करने वाले औजार पर सब्सिडी 50,000 रूपए से बढ़कर 75,000 रूपए की गई है, मल्टिपल क्रॉप प्लान्टर पर सब्सिडी 10,000 रूपए से बढ़ाकर 20,000 रूपए कर दी गई है। ट्रैक्टर से जुड़कर काम करने वाले दूसरे औजार भी हैं, जो किसानों पर पड़ने वाले आर्थिक दबाव को बढ़ा देते हैं, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि मैं कृषि के यांत्रिकीकरण के खिलाफ हूं, मुझे तो यह स्पष्टीकरण चाहिए कि जब किसान पहले ही आर्थिक संकट में घिरे हैं, तब उन्हें महंगे कृषि औजार खरीदने के लिए प्रेरित करना कहां तक उचित है?

पंजाब के लगभग हर दूसरे घर में ट्रैक्टर है और खेतों का औसत आकार 4 एकड़ से भी कम हो गया है, लेकिन बुरी बात यह है कि 20,000 ट्रैक्टर हर साल बिकते हैं। ये टै्रक्टर काफी विशाल मशीन होते हैं, जिनमें 60-90 हॉर्स पावर होता है, ऎसे ट्रैक्टरों को आर्थिक रूप से कारगर बनाने के लिए सामान्य तौर पर 10-10 एकड़ के खेत चाहिए, पर उद्योगों के दबाव में सरकार ने ट्रैक्टर खरीदने के लिए जरूरी खेत के आकार को घटाकर मात्र 2 एकड़ कर दिया है। जब पी. चिदम्बरम पिछली बार वित्त मंत्री थे, तब उन्होंने ट्रैक्टर पर विक्रय व उत्पाद शुल्क 18 प्रतिशत घटाकर ट्रैक्टर के खरीदारों को लुभाया था।

1980 के दशक के आखिर में मैं कंबोडिया (तब उसे कंपुचिया कहा जाता था) गया था। छोटी जोतों वाले उस देश में मैंने सोवियत संघ से आयातित बड़े-बड़े ट्रैक्टर देखे, यह देश तब बर्बाद हो चुका था और उसे केवल सोवियत संघ के खेमे वाले देशों की ही मान्यता मिली हुई थी, इसलिए वहां सोवियत निर्मित ट्रैक्टर की भरमार समझ में आती थी। मुझे याद है, मैंने वहां भारतीय राजदूत से कहा था, भारत अगर कंपुचिया को छोटे आकार के 25-35 हॉर्स पावर के ट्रैक्टर निर्यात करे, तो यह एक अच्छा फैसला होगा।

जहां कंपुचिया छोटे ट्रैक्टरों की ओर बढ़ा, वहीं पंजाब छोटी होती जोतों के बावजूद बड़े ट्रैक्टरों की ओर बढ़ा। मुझे पता चला है कि कुछ किसान अब 105 हॉर्स पावर के और भी विशाल ट्रैक्टर खरीदने की योजना बना रहे हैं। अगली बार जब आप पंजाब में किसानों के कर्ज में डूबने की रिपोर्ट पढें, तो समझ जाइएगा कि इसका एक बड़ा प्राथमिक कारण बड़े ट्रैक्टर हैं। यह त्रासद है, जिस देश में सतत कृषि संकट की वजह से विगत 15 साल में 2,90,470 लोगों के मौत की भेंट चढ़ जाने की रिपोर्ट हो, वह देश कृषि सम्बंधी मशीनों के लिए विशाल बाजार मुहैया कराता है। पंजाब में ही यांत्रिकीकरण के बावजूद प्रति दिन 2 किसान खुद का अंत कर लेते हैं। कृषि क्षेत्र को ऎसे देखा जा रहा है, मानो यहां मशीनों की कमी हो और मशीनें जितनी ज्यादा बिकेंगी, किसानों की आत्महत्या उतनी ही घटेगी। ध्यान दीजिए, विगत पांच वर्ष में ट्रैक्टरों की कीमत में 100 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। यह आश्चर्यजनक है, जब कारों और दोपहिया वाहनों का बाजार मूल्य बढ़ती महंगाई के बावजूद 20 प्रतिशत भी नहीं बढ़ा है, तब ट्रैक्टरों के मूल्य में अप्रत्याशित बढ़ोतरी हुई है। दूसरे शब्दों मे कहें, तो यह कौन सुनिश्चित करेगा कि ट्रैक्टर निर्माता भोले किसानों को नहीं ठग रहे हैं? मैं चकित हूं, ट्रैक्टर कंपनियों ने भारत के दक्षिणी हिस्सों में कृषि विश्वविद्यालयों के साथ टै्रक्टर बिक्री के लिए समझौते किएं हैं।

मैं मानता हूं, कृषि क्षेत्र खेतिहर मजदूरों की बड़ी कमी झेल रहा है, लेकिन क्या बड़े ट्रैक्टर और उससे जुड़े औजारों की बिक्री किसानों को कृषि संकट से उबार पाएगी? तब हमारी राज्य सरकारें ट्रैक्टरों की बिक्री को क्यों प्रेरित कर रही हैं?

राज्य सरकारें ऎसी सहकारी समितियां क्यों नहीं बना सकतीं, जो किसानों को कृषि औजार पट्टे पर दें? सरकारें ऎसी निजी कंपनियों की स्थापना को प्रोत्साहित क्यों नहीं कर सकतीं, जो ट्रैक्टर और कृषि औजार किराए पर दें? मैं एक और राज्य सहकारी संस्था बनाने की सलाह नहीं दे रहा, बल्कि मैं सामाजिक उद्यमशीलता के लिए प्रोत्साहन मांग रहा हूं। यहां मैं जमींदारा फार्म सोल्यूशंस का उदाहरण देना चाहूंगा, पंजाब के फजिल्का का यह उद्यम किसानों को बड़ी मशीनें व कृषि औजार पट्टे पर देता है। विगत वर्षो में इसकी सदस्य संख्या 4000 का आंकड़ा पार कर चुकी है। मैं ऎसी अनेक छोटी ग्राम सहकारी समितियों को जानता हूं, जो औजार किराए पर देती हैं। ऎसे प्रयासों को आक्रामकता के साथ बढ़ाने व प्रोत्साहित करने का यह उचित समय है। यह किसानों को कृषि ऋण चक्र में और गहरे फंसने से बचाने का समय है।

राजस्थान पत्रिका:

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