जलती होली सेनिकलते हैं संतोष पण्डे
लीलाधाम श्री कृष्ण की नगरी मथुरा में भगवत समर्पण का अनुभव यहां के दो गांवों की होली देखकर ही किया जा सकता है.
दोनों ही गांवोंमें जलती हुई होली से अलग-अलग समय पर दो पण्डे निकलते हैं.
ये दोनो गांव हैं जटवारी और फालैन हैं.
इनमें जलती होली से पण्डे निकलते हैं लेकिन दोनों ही स्थानों की होली में बहुत अधिक विभन्नता है.
दोनों गांवों के बीच की दूरी 15 किलोमीटर है लेकिन दोनों में अलग-अलग समय पर होली जलाई जाती है.
समानता एक यह है कि इनमें होली जलाने का समय पण्डों द्वारा निर्धारित किया जाता है.
पण्डे अपने-अपने गांव में मन्दिर में हवन करते हैं और पास में रखे दीपक की लौ पर हथेली रखकर उसकी गर्मी का अनुभव करते हैं.
जब उन्हें दीपक की लौ शीतल महसूस होने लगती है तो वे होली में आग लगाने से पहले प्रह्लाद कुण्ड में स्नान करने आते हैं.
जटवारी गांव में पिछले पांच साल से होली की लपटों से निकल रहे पण्डा संतोष से जब पूछा गया कि लपटों से निकलने में क्या उसे डरलगता है तो उसने कहा, बिल्कुल नहीं, बल्कि ऐसा लगता है कि आगे-आगे ठाकुर जी (भगवान) चल रहे हैं और उसे पीछे आने को कह रहे हैं.
उसने बताया, जब वह होली की लपटों से बाहर निकलता है तो उसे इतनी ठंड महसूस होती है कि उसे रजाई ओढ़नी पड़ती है.
पण्डा संतोष ने बताया कि वह बसंत पंचमी से नित्य यमुना में स्नान कर भजन-पूजन कर रहा है और मन्दिर में ही सो रहा है.
उस दिन से उसने अन्न ग्रहण नहीं किया है तथा दूध, दही और फल खाकर रह रहा है. पण्डे के होली से निकलने से पहले उसकी बहन लोटे में जल लेकर उसजल को होली के चारों ओर डालते हुए होली की प्रदक्षिणा करती है.
स्थानीय लोगों के अनुसार इस गांव का नाम जटवारी इसलिए पड़ा क्योंकि यहां से शंकर जी का सीधा संबंध है.
भोले नाथ जब वृन्दावन में महारास में भाग लेने आए तो उन्होंने गोपी रूप धारण किया था और इसी गांव से होकर गए थे.
इसी कारण इस गांव का नाम पहले जटामासी पड़ा जो बदलते-बदलते जटवारी हो गया.
इस गांव की होली से पण्डे के निकलने का लगभग सवा सौ साल पुराना इतिहास है.
फालैन गांव की होली से निकलने वाले बाबूलाल पण्डा इस समय गांव के प्रह्लाद मन्दिर में भजन-पूजन कर रहे है.
इस गांव की होली को होलिका दहन के कुछ दिन पूर्व बनाया जाता है.
इसका व्यास 30 फुट और ऊंचाई लगभग 15 फुट होती है.
बाबूलाल ने बताया कि वह होली के एक माह पहले से ही मन्दिर में प्रह्लाद जी की शरण में आ जाता है. उसके अनुसार होली से निकलने का मुहूर्त स्वयं प्रह्लाद जी निकालते हैं.
इस गांव में पण्डों के सोलह परिवार हैं और इन्हीं परिवारों में से कोई व्यक्ति होली से निकलता है.
होली के दिन जटवारी गांव की तरह फालैन में भी मेला लग जाता है.
दोनों गांवों में आने वाले मेहमानों के लिए भोजन की व्यवस्था पहले से की जाती है.
विचित्र बात यह है कि दोनों ही गांव पिछड़े हुए हैं.
प्रशासन की उपेक्षा के बावजूद दोनों गांवों की होली हर साल हजारों होली प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र बनती है.
लीलाधाम श्री कृष्ण की नगरी मथुरा में भगवत समर्पण का अनुभव यहां के दो गांवों की होली देखकर ही किया जा सकता है.
दोनों ही गांवोंमें जलती हुई होली से अलग-अलग समय पर दो पण्डे निकलते हैं.
ये दोनो गांव हैं जटवारी और फालैन हैं.
इनमें जलती होली से पण्डे निकलते हैं लेकिन दोनों ही स्थानों की होली में बहुत अधिक विभन्नता है.
दोनों गांवों के बीच की दूरी 15 किलोमीटर है लेकिन दोनों में अलग-अलग समय पर होली जलाई जाती है.
समानता एक यह है कि इनमें होली जलाने का समय पण्डों द्वारा निर्धारित किया जाता है.
पण्डे अपने-अपने गांव में मन्दिर में हवन करते हैं और पास में रखे दीपक की लौ पर हथेली रखकर उसकी गर्मी का अनुभव करते हैं.
जब उन्हें दीपक की लौ शीतल महसूस होने लगती है तो वे होली में आग लगाने से पहले प्रह्लाद कुण्ड में स्नान करने आते हैं.
जटवारी गांव में पिछले पांच साल से होली की लपटों से निकल रहे पण्डा संतोष से जब पूछा गया कि लपटों से निकलने में क्या उसे डरलगता है तो उसने कहा, बिल्कुल नहीं, बल्कि ऐसा लगता है कि आगे-आगे ठाकुर जी (भगवान) चल रहे हैं और उसे पीछे आने को कह रहे हैं.
उसने बताया, जब वह होली की लपटों से बाहर निकलता है तो उसे इतनी ठंड महसूस होती है कि उसे रजाई ओढ़नी पड़ती है.
पण्डा संतोष ने बताया कि वह बसंत पंचमी से नित्य यमुना में स्नान कर भजन-पूजन कर रहा है और मन्दिर में ही सो रहा है.
उस दिन से उसने अन्न ग्रहण नहीं किया है तथा दूध, दही और फल खाकर रह रहा है. पण्डे के होली से निकलने से पहले उसकी बहन लोटे में जल लेकर उसजल को होली के चारों ओर डालते हुए होली की प्रदक्षिणा करती है.
स्थानीय लोगों के अनुसार इस गांव का नाम जटवारी इसलिए पड़ा क्योंकि यहां से शंकर जी का सीधा संबंध है.
भोले नाथ जब वृन्दावन में महारास में भाग लेने आए तो उन्होंने गोपी रूप धारण किया था और इसी गांव से होकर गए थे.
इसी कारण इस गांव का नाम पहले जटामासी पड़ा जो बदलते-बदलते जटवारी हो गया.
इस गांव की होली से पण्डे के निकलने का लगभग सवा सौ साल पुराना इतिहास है.
फालैन गांव की होली से निकलने वाले बाबूलाल पण्डा इस समय गांव के प्रह्लाद मन्दिर में भजन-पूजन कर रहे है.
इस गांव की होली को होलिका दहन के कुछ दिन पूर्व बनाया जाता है.
इसका व्यास 30 फुट और ऊंचाई लगभग 15 फुट होती है.
बाबूलाल ने बताया कि वह होली के एक माह पहले से ही मन्दिर में प्रह्लाद जी की शरण में आ जाता है. उसके अनुसार होली से निकलने का मुहूर्त स्वयं प्रह्लाद जी निकालते हैं.
इस गांव में पण्डों के सोलह परिवार हैं और इन्हीं परिवारों में से कोई व्यक्ति होली से निकलता है.
होली के दिन जटवारी गांव की तरह फालैन में भी मेला लग जाता है.
दोनों गांवों में आने वाले मेहमानों के लिए भोजन की व्यवस्था पहले से की जाती है.
विचित्र बात यह है कि दोनों ही गांव पिछड़े हुए हैं.
प्रशासन की उपेक्षा के बावजूद दोनों गांवों की होली हर साल हजारों होली प्रेमियों के आकर्षण का केंद्र बनती है.
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