Saturday, 7 September 2013

33 करोड़ देवी देवता ...आखिर सत्य क्या है

लोगों को इस बात की बहुत बड़ी गलतफहमी है कि हिन्दू सनातन धर्म में 33 करोड़ देवी-देवता हैं |

लेकिन ऐसा है नहीं और, सच्चाई इसके बिलकुल ही विपरीत है |


दरअसल हमारे वेदों में उल्लेख है 33 "कोटि" देवी-देवता |

अब "कोटि" का अर्थ "प्रकार" भी होता है और "करोड़" भी |

तो मूर्खों ने उसे हिंदी में करोड़ पढना शुरू कर दिया जबकि वेदों का तात्पर्य 33 कोटि अर्थात 33 प्रकार के देवी-

देवताओं से है (उच्च कोटि.. निम्न कोटि इत्यादि शब्दतो आपने सुना ही होगा जिसका अर्थ भीकरोड़ ना होकर प्रकार होता है)

ये एक ऐसी भूल है जिसने वेदों में लिखे पूरे अर्थ को ही परिवर्तित कर दिया |

इसे आप इस निम्नलिखित उदहारण से और अच्छी तरह समझ सकते हैं |



अगर कोई कहता है कि बच्चों को "कमरे में बंद रखा" गया है |

और दूसरा इसी वाक्य की मात्रा को बदल कर बोले कि बच्चों को कमरे में " बंदर खा गया " है| (बंद रखा= बंदर खा)

कुछ ऐसी ही भूल अनुवादकों से हुई अथवा दुश्मनों द्वारा जानबूझ कर दिया गया ताकि, इसे HIGHLIGHT किया जा सके |


सिर्फ इतना ही नहीं हमारे धार्मिक ग्रंथों में साफ-साफउल्लेख है कि "निरंजनो निराकारो एको देवो महेश्वरः"


अर्थात इस ब्रह्माण्ड में सिर्फ एक ही देव हैं जो निरंजन निराकार महादेव हैं |

साथ ही यहाँ एक बात ध्यान में रखने योग्य बात है कि हिन्दू सनातन धर्म मानव की उत्पत्तिके साथ ही बना है और प्राकृतिक है इसीलिए हमारे धर्म में प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित कर जीना बताया गया है और

प्रकृति को भी भगवान की उपाधि दी गयी है ताकि लोगप्रकृति के साथ खिलवाड़ ना करें |

जैसे कि :

1. गंगा को देवी माना जाता है क्योंकि गंगाजल में सैकड़ों प्रकार की हिमालय की औषधियां घुली होती हैं |

2. गाय को माता कहा जाता है क्योंकि गाय का दूध अमृततुल्य और, उनका गोबर एवं गौ मूत्र में विभिन्न प्रकार की औषधीय गुण पाए जाते हैं |


3. तुलसी के पौधे को भगवान इसीलिए माना जाता है कि तुलसी के पौधे के हर भाग में विभिन्न औषधीय गुण हैं |

4. इसी तरह वट और बरगद के वृक्ष घने होने के कारण ज्यादा ऑक्सीजन देते हैं और, थके हुए राहगीर को छाया भी प्रदान करते हैं |

यही कारण है कि हमारे हिन्दू धर्म ग्रंथों में प्रकृति पूजा को प्राथमिकता दी गयी है क्योंकि, प्रकृति से ही मनुष्य

जाति है ना कि मनुष्य जाति से प्रकृति है |

अतः प्रकृति को धर्म से जोड़ा जाना और उनकी पूजा करना सर्वथा उपर्युक्त है |

यही कारण है कि हमारे धर्म ग्रंथों में सूर्य, चन्द्र, वरुण, वायु , अग्नि को भी देवता माना गया है और इसी प्रकार कुल 33 प्रकार के देवी देवता हैं |

इसीलिए, आपलोग बिलकुल भी भ्रम में ना रहें क्योंकि ब्रह्माण्ड में सिर्फ एक ही देव हैं जो निरंजन निराकार महादेव हैं |

भगवान हर चीज़ मे है .. पेड़ मे , पानी मे , हवा मे , पथ्हर मे , और हम मे भी ..

आप किसी की भी पूजा करे , अंत मे वो पूजा देवो के देव के पास ही जाती है . ज़रूरी नही की आप किस की पूजा करते है .. सिर्फ़ मान मे सच्ची भक्ति होनी चाहिए .. हर चीज़ मे भगवान है तो आप जिस किसी की पूजा करेंगे वो महाकाल तक पोहच जाती है |

अतः कुल 33 प्रकार के देवता हैं :

12 आदित्य है : धाता , मित् , अर्यमा , शक्र , वरुण , अंश , भग , विवस्वान , पूषा , सविता , त्वष्टा , एवं "विष्णु" !!

8 वसु हैं : धर , ध्रुव ,सोम , अह , अनिल , अनल , प्रत्युष एवं प्रभाष

11 रूद्र हैं : हर , बहुरूप, त्र्यम्बक , अपराजिता , वृषाकपि , शम्भू , कपर्दी , रेवत , म्रग्व्यध , शर्व तथा कपाली |

2 अश्विनी कुमार हैं |

कुल : 12 +8 +11 +2 =33

33 करोड़ देवी देवता ...आखिर सत्य क्या है

शाकल्य—'देवता कितने हैं?'

याज्ञ.—'तेंतीस (33)।'

शाकल्य ने इसी प्रश्न को बार-बार पांच बार और दोहराया। इस पर याज्ञवल्क्य ने हर बार संख्या घटाते हुए देवताओं की संख्या क्रमश: छह, तीन, दो, डेढ़ और अन्त में एक बतायी।

शाकल्य—'फिर वे तीन हज़ार तीन सौ छह देवगण कौन हैं?'

याज्ञ.-'ये देवताओं की विभूतियां हैं। देवगण तो तैंतीस ही हैं।'

शाकल्य-'वे कौन से हैं?'

याज्ञ.-'आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, इन्द्र और प्रजापति।'

शाकल्य-'आठ वसु कौन से है?'

याज्ञ.-'अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्युलोक, चन्द्र और नक्षत्र। जगत के सम्पूर्ण पदार्थ इनमें समाये हुए हैं। अत: ये वसुगण हैं।'

शाकल्य—'ग्यारह रुद्र कौन से हैं?'

याज्ञ.-'पुरुष में स्थित दस इन्द्रियां, एक आत्मा। मृत्यु के समय ये शरीर छोड़ जाते हैं और प्रियजन को रूलाते हैं। अत: ये रुद्र हैं।'

शाकल्य-'बारह आदित्य कौन से है?'

याज्ञ.-'वर्ष के बारह मास ही बारह आदित्य हैं।'

शाकल्य—'इन्द्र और प्रजापति कौन हैं?'

याज्ञ.-'गर्जन करने वाले मेघ 'इन्द्र' हैं और 'यज्ञ' ही 'प्रजापति' है। गर्जनशील मेघ 'विद्युत' है और 'पशु' ही यज्ञ है।'

शाकल्य—'छह देवगण कौन से हैं?'

याज्ञ.-'पृथ्वी, अग्नि, वायु, अन्तरिक्ष, द्यौ और आदित्य।'

शाकल्य—'तीन देव कौन से हैं?'

याज्ञ.-'तीन लोक- पृथ्वीलोक (विष्णु), स्वर्गलोक (ब्रह्मा), पाताललोक (शिव)। ये तीनों देवता हैं। इन्हीं में सब देवगण वास करते हैं।'

और ये 3 रूप है देवो के देव महादेव के |


"निरंजनो निराकारो एको देवो महेश्वरः" 

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क्यों पहनते थे खड़ाऊ ?
पुरातन समय में हमारे पूर्वज पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ (चप्पल) पहनते थे। पैरों में लकड़ी के खड़ाऊ पहनने के पीछे भी हमारे पूर्वजों की सोच पूर्णत: वैज्ञानिक थी। गुरुत्वाकर्षण का जो सिद्धांत वैज्ञानिकों ने बाद में प्रतिपादित किया उसे हमारे ऋषि-मुनियों ने काफी पहले ही समझ लिया था।
उस सिद्धांत के अनुसार शरीर में प्रवाहित हो रही विद्युत तरंगे गुरुत्वाकर्षण के कारण पृथ्वी द्वारा अवशोषित कर ली जाती हैं । यह प्रक्रिया अगर निरंतर चले तो शरीर की जैविक शक्ति(वाइटल्टी फोर्स) समाप्त हो जाती है। इसी जैविक शक्ति को बचाने के लिए हमारे पूर्वजों ने पैरों में खड़ाऊ पहनने की प्रथा प्रारंभ की ताकि शरीर की विद्युत तंरगों का पृथ्वी की अवशोषण शक्ति के साथ संपर्क न हो सके।
इसी सिद्धांत के आधार पर खड़ाऊ पहनी जाने लगी।
उस समय चमड़े का जूता कई धार्मिक, सामाजिक कारणों से समाज के एक बड़े वर्ग को मान्य न था और कपड़े के जूते का प्रयोग हर कहीं सफल नहीं हो पाया। जबकि लकड़ी के खड़ाऊ पहनने से किसी धर्म व समाज के लोगों के आपत्ति नहीं थी इसीलिए यह अधिक प्रचलन में आए। कालांतर में यही खड़ाऊ ऋषि-मुनियों के स्वरूप के साथ जुड़ गए ।
खड़ाऊ के सिद्धांत का एक और सरलीकृत स्वरूप हमारे जीवन का अंग बना वह है पाटा। डाइनिंग टेबल ने हमारे भारतीय समाज में बहुत बाद में स्थान पाया है। पहले भोजन लकड़ी की चौकी पर रखकर तथा लकड़ी के पाटे पर बैठकर ग्रहण किया जाता था। भोजन करते समय हमारे शरीर में सबसे अधिक रासायनिक क्रियाएं होती हैं। इन परिस्थिति में शरीरिक ऊर्जा के संरक्षण का सबसे उत्तम उपाय है चौकियों पर बैठकर भोजन करना।
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