Tuesday, 10 September 2013

जब भी प्याज की कीमतें आसमान छूती



जब भी प्याज की कीमतें आसमान छूती हैं अथवा खाद्य मुद्रास्फीति (महंगाई) धीरे-धीरे बढ़ती है, तो अर्थशाçस्त्रयों का निरपवाद रूप से यह कथन मन बहला रहा होता है कि मांग और पूर्ति में अंतर आया है, आवक बाधित हुई है, इसे सुधारने की तुरन्त जरूरत है और आपूर्ति की जो श्ृंखला है, उसके आधुनिकीकरण की जरूरत है। उनकायह
कथन मुझे हमेशा आश्चर्य में डाल देता है कि अर्थशास्त्र की किताबों में जो कुछ लिखा है, उस मूल सिद्धान्त के विचार से परे जाकर अर्थशास्त्री कभी क्यों नहीं देखते? मुझे तो उनका कथन हमेशा सच नहीं दिखाई देता है।

प्याज संकट जो इन दिनों उत्पन्न हुआ है, वह कोई अलग नहीं है। ऎसे समय में जबकि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया काफी मुखर है, मैं अनेक ऎसे अर्थशाçस्त्रयों को चैनलों पर बहस करते सुनता और देखता हूं, जो सम्भवत: कभी खेतों में नहीं गए। वे बार-बार विज्ञापन की तरह उसी बात को दोहराते रहते हैं, जो उन्हें उनकी कक्षाओं में पढ़ाई गई थी। प्याज की कीमतें अगस्त माह में गत दो या ढाई वर्षो की अपेक्षा काफी बढ़ गई। वजह यह रही कि प्याज उत्पादन के जो मुख्य क्षेत्र हैं, वहां पिछले वर्ष पड़े सूखे का डर रहा और कुछ क्षेत्रों में भारी बारिश से प्याज की फसल का मजा खराब हो गया। हालांकि इसका उपाय आपूर्ति श्ृंखला को सरल और कारगर बनाना था, पर कुछ समाचारपत्रों ने यह कल्पना तक कर डाली कि जब तक यह भंडारण करने तथा इस्तेमाल में लाने योग्य रहेगी, तब तक इसकी कीमतों का बढ़ना जारी रहेगा।

अर्थशास्त्र के इस मिथक को दो खबरें ध्वस्त कर देती हैं। पहली बात तो यह है कि यह ज्ञात हो चुका है कि व्यापारियों ने किसानों से प्याज मई या जून माह में खरीद ली थी, जब प्याज का भाव प्रति किलो आठ से दस रूपए के बीच था। कई अध्ययन तो यह भी बताते हैं कि किसानों से जो प्याज खरीदी गई, उसकी कीमत उन्हें मुश्किल से औसतन साढ़े तीन रूपए किलो तक ही चुकाई गई। इसलिए यह कहना कि प्याज की बढ़ी हुई कीमतों का लाभ किसानों को मिला, पूरी तरह से गलत है। कुछ लोग यह तर्क देंगे कि किसानों को नुकसान न हो और उन्हें लाभ मिले, इसका एकमात्र रास्ता यही है कि खुदरा व्यापार में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को अनुमति दे दी जाए, इससे दलाल बाहर हो जाएंगे और किसानों को उनकी उपज की बेहतर कीमत मिलेगी और इससे उपभोक्ताओं को भी फायदा होगा।

आइए, इस पर भी विचार करते हैं - वर्ष 2012 में, संसद में खुदरा में एफडीआई को अनुमति देने का बिल पारित होने के तुरन्त बाद एक खबर में भारती-वालमार्ट के कारोबार का खुलासा किया गया। खुलासा अनुबंध खेती के तहत बेबी कॉर्न को उत्पादित करने वाले किसानों को दिए जाने वाले अल्प भुगतान का था। कंपनी बेबी कॉर्न उत्पादकों को पंजाब में आठ रूपए प्रति किलो का भुगतान कर रही थी और थोक में बेबी कॉर्न सौ रूपए किलो बेचा जा रहा था। फुटकर में इसी को उपभोक्ता 200 रूपए किलो में खरीद रहे थे।

एक अन्य समाचारपत्र की खोजपरक रिपोर्ट से खुलासा हुआ है कि किस तरह व्यापारियों ने दो महीने के आसपास से स्टॉक की जमाखोरी करना शुरू कर दी थी। एक न्यूज चैनल के स्टिंग आपरेशन में दिखाया गया है कि हजारों टन प्याज मध्यप्रदेश में गोदामों और प्याज उत्पादक क्षेत्रों में पड़ा हुआ है। कृत्रिम अभाव की वजह से ही प्याज के दामों में बढ़ोत्तरी हो रही है।

यह पहली बार नहीं है, जब प्याज के व्यापार ने करवट ली है। दिसम्बर 2010 में भी प्याज के दाम आसमान में पहुंच गए थे। यहां तक कि प्याज की कीमतें सितम्बर से दिसम्बर महीने के बीच लगातार तीन साल तक बढ़ी थीं और मैंने हमेशा यही कहा कि कुछ मौसमी बदलाव को छोड़कर प्याज की कीमत में 400 से 500 प्रतिशत की बढ़ोतरी का कोई कारण नहीं था।

इन सब के बाद, 2010 में प्याज के उत्पादन में कोई कमी नहीं थी। यहां तक कि इस साल उत्पादन में कमी 4 प्रतिशत ही अनुमानित किया गया, लेकिन प्याज की कीमत में 600 प्रतिशत की औसत वृद्धि हो गई। कीमत में ऎसी आश्चर्यजनक वृद्धि के लिए मांग की तुलना में आपूर्ति में कमी को कैसे जिम्मेदार ठहराया जा सकता है? वर्षो से कहता आ रहा हूं कि प्याज व अन्य सब्जियों की कीमतों में इतनी उतार-चढ़ाव वास्तव में थोक बाजार में सक्रिय मूल्य संघ या उत्पादक संघ की कारस्तानी है।

प्याज की जमाखोरी अनियंत्रित हो गई है। कारण स्पष्ट है, कोई राजनीतिक दल कड़ी कार्रवाई कर व्यापारियों को नाराज नहीं करना चाहता। व्यापारी राजनीतिक बटुए की चाबी अपने पास रखे हुए हैं। ऎसा केवल कृषि क्षेत्र में चल रहा हो, ऎसा नहीं है। आप इंटरनेट पर एक उड़ान के मार्ग पर तीन बार क्लिक करें, तो टिकट के दाम बढ़ जाते हैं। अंडे के दाम देखें, यदि आपूर्ति-मांग ही कीमत तय करने का मंत्र है, तब कैसे पूरे देश में अंडों के दाम लगभग समान हैं? कैसे मांग-आपूर्ति समीकरण पूरे देश में एक समान हो सकता है? दरअसल, मुटीभर लोग व कंपनियां दिन के हिसाब से अंडों की कीमत तय करते हैं।

बार-बार आरोप एग्रीकल्चर प्रोडयूज मार्केट कमेटी (एपीएमसी) एक्ट पर मढ़ा जाता है। मुझे पता है कि एपीएमसी एक्ट में कई कमियां हैं। कैसे मुटीभर व्यापारियों का समूह बाजार समितियों को नियंत्रित कर रहा है। यह सभी जानते हैं, लेकिन किसी की भी इच्छा इनके खिलाफ कार्रवाई की नहीं है। कारण आसान है, कृषि उद्योग उस टर्मिनल मार्केट में जाना चाहता है, जो कार्पोरेट द्वारा संचालित हो रहा है। यदि संगठित खुदरा व्यापार क्षेत्र में सक्रिय कंपनियां जो किसानों से सीधे खरीदने का दावा करती हैं, इतनी ही कार्यकुशल हैं, तो वे फिर क्यों 60-70 रूपए किलो प्याज बेच रही हैं? स्पष्ट है, संगठित खुदरा बाजार भी उपभोक्ताओं को लाभ देने में नाकाम रहा है। एक दलाल को हटाकर दूसरे को लाने से समस्या खत्म नहीं हो जाती।


साभार : देविन्दर शर्मा (कृषि एवं खाद्य सुरक्षा विशेषज्ञ)
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