Saturday, 7 December 2013

१८५७ के स्वतंत्रता संग्राम के बारे में, अंग्रेजों ने यही प्रचार किया था कि - यह तो मात्र एक सैनिक विद्रोह था और इसे ग़दर कहकर प्रचारित किया. वीर सावरकर ने पिछले ५० वर्ष से १८५७ के संग्राम के विषय में फैली भ्रान्ति का निवारण करने व राष्ट्र को पुन: ऐसी ही क्रांति के लिए खड़ा करने लिए, लन्दन के पुस्तकालय में बैठकर लगभग २५ वर्ष कि अवस्था में “१८५७ का स्वातंत्र्य समर” लिखा. ग्रन्थ लिखने कि सुचना से ही अंग्रेजी सरकार इतनी घबरा गई कि- छपने से पहले ही इस पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया. आश्चर्य तो यह हैं कि- अंग्रेजी सरकार को तब यह भी नहीं पता था कि - इस पुस्तक का नाम क्या हैं, किस भाषा में हैं और कहाँ छपी हैं ?

पुस्तक पर प्रतिबन्ध लगाकर , जब वीर सावरकर को बंदी बनाकर, अंडमान की जेल (काला पानी) में भेज दिया गया तो - लाला हरदयाल , मैडम कामा , वीरेंदर चट्टोपाध्याय आदि क्रांतिकारियों ने इसका दूसरा संस्करण भी प्रकाशित कर प्रचारित किया था. भारतीय क्रांति के धूमकेतु “शहीदे आजम सरदार भगत सिंह” ने राजाराम शास्त्री की सहायता से इसे प्रकाशित करवाया और सर्वप्रथम पुरुषोत्तम दास टंडन को बेचा था. शहीद सुखदेव ने भी इसे बेचने में विशेष परिश्रम किया था. क्रन्तिकारी पथ के पथिक रास बिहारी बोस को भी इस पुस्तक ने आकर्षित किया, जिसके परिणाम स्वरुप जापान में आजाद हिंद फौज तैयार हुई. आजाद हिंद फौज के सैनिकों को यह पुस्तक पढने के लिए दी जाती थी.

नेताजी सुभाष के आशीर्वाद से इसका तमिल संस्करण भी प्रकाशित हुआ. इस कालखंड में इस पुस्तक के, न जाने कितने गुप्त संस्करण देश और विदेश में छपे थे, यह पुस्तक क्रांतिकारियों की गीता बन गयी थी. १९१५ में भारत की स्वतंत्रता के लिए सर धड़ की बाजी लगाकर “कामागाटामारू जहाज” से जो वीर चले थे और हांगकांग, सिंगापुर और बर्मा में स्थित ब्रिटिश सेना में जो बगावत हुई थी, इन सबके मूल में यह ऐतिहिसिक ग्रन्थ ही था

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