Monday, 18 February 2013

पुनर्जन्म का सिद्धांत :

यह विचारणीय बात है कि निसर्गतः अज्ञानी कृमिकीटों (कीड़े मकौड़ों) को भी अपने मृत्यु का पता कैसे लगा, और उस स्थान से दूसरे स्थान तक भाग जाने का उत्साह उसे किसने सिखाया ? इसका विचार करते करते विचारी मनुष्य पुनर्जन्म पर विशवास करने लगता है, और समझता है, कि प्रत्येक प्राणिमात्र के अन्दर जो यह मृत्यु का भय लगा हुआ है , वह मृत्यु के अनुभव के कारण ही है । पहले कई बार इसने स्वयं मृत्यु का अनुभव किया और देखा कि मृत्यु के समय क्या आपत्ति होती है । मृत्यु के अनिष्ट अनुभव का गुप्तज्ञान उसकी सूक्ष्मबुद्धि में छिपा हुआ है और यही उसे प्रेरणा करता है कि तुम मृत्यु से बचने का यत्न करो । अर्थात् पुनर्जन्म सत्य है , इसीलिए प्रत्येक प्राणी मृत्यु से भयभीत होता है ; यदि पूर्व मृत्यु का अनुभव न होता तो इस देह में आने के पश्चात मृत्यु कि कलप्ना भी किसी प्राणी को न होती और जिसकी कलप्ना भी नहीं होती उसके विषय में भय का होना सर्वथा असम्भव है ।
जीव अल्पज्ञ है त्रिकालदर्शी नहीं इसीलिए स्मरण नहीं रहता और जिस मन से ज्ञान करता है , वह भी एक समय में दो ज्ञान नहीं रख सकता । भला पूर्वजन्म की बात तो दूर रहने दीजिये , इसी देह में जब गर्भ में जीव था, शरीर बना, पश्चात जन्मा , पांचवें वर्ष से पूर्व तक जो भी बातें हुई हैं, उनका स्मरण क्यों नहीं कर सकता ? और जाग्रत वा स्वप्न में बहुत सा व्यवहार प्रत्यक्ष में करके जब सुषुप्ति अथवा गाढ़ निद्रा होती है ,तब जाग्रत आदि का व्यवहार क्यों नहीं कर सकता ? और तुनसे कोई पूछे कि बारह वर्ष से पूर्व तेहरवें वर्ष के पांचवें दिन दस बजे पर पहली मिनट में तुमने क्या किया था ? तुम्हारा मुख ,कान,हाथ,नेत्र,शरीर किस ओर किस प्रकार का था ? और मन में क्या विचार था ? जब इसी शरीर में ऐसा है तो पूर्वजन्म की बातों में स्मरण में शंका करना केवल लड़कपन की बात है और जो स्मरण नहीं होता इसी से जीव सुखी है , नहीं तो सब जन्मों के दुखों को देख देख दुखित होकर मर जाता ।
जब पाप बढ़ जाता और पुन्य कम हो जाता है तब मनुष्य का आत्मा पश्वादि नीच शरीर और जब धर्म अधिक तथा आधर्म कम होता है तब देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता है और जब पुन्य पाप बराबर होता है तब साधारण मानव जन्म होता है ।इसमें भी पुण्य पाप के उत्तम, मध्यम,निकृष्ट शरीर आदि सामग्री वाले होते हैं और जब अधिक पाप का फल पश्वादि शरीर में भोग लिया है पुनः पाप पुुण्य के तुल्य रहने से मनुष्य शरीर में आता और पुण्य के फल भोग कर फिर भी मध्यस्त पुरुष के शरीर में आता है जब शरीर से निकलता है उसी का नाम मृत्यु और शरीर के साथ संयोग होने का नाम ही जन्म है । तो यह जीवन मृत्यु का चक्र इसी प्रकार से चलता रहता है । यदी कोई कहे कि मृत्यु के बाद क्या ? तो यही उत्तर होगा कि "जीवन" । फिर जीवन के पश्चात मृत्यु का वही क्रम होता है । ईश्वर ने यही नियम अपनी हर रचना में भी दे रखा है,जैसे कि पृथ्वी सूर्य की एक निश्चित रूप में परिक्रमा करती है , और पूरा सौरमण्डल आकाश गंगा की निश्चित मार्ग और निश्चित समय में परिक्रमा करता है । ठीक वैसे ही जन्म मृत्यु का यह चक्र इसी तरह से चलता है, परन्तु जीवात्मा किस शरीर में जायेगा यह निरधारण केवल उसके कर्मों के आधार पर किया जाता है, क्योंकि जैसा बीजोगे वैसा पाओगे । अगर हम यह मानें भी कि यही जन्म केवल आधुनिक है तो इससे प्रकृति नियम चक्र का ही उलंघन होगा । क्योंकि अगर जिवात्माओं को उनके कर्मों का यथायोग्य फल देना ही ईश्वर का न्याय है । यह पुनर्जन्म की बात तो हमारे अनुभव की भी है, कभी हमने TV , समाचार पत्रों में अनेकों बार यह सुना है कि अमुक गाँव के एक बालक को अपने पूर्व जन्म की बातोंं का स्मरण है , उसे अपने पूर्व जन्म के माता पिता, भाई , पत्नि आदि भी याद हैं और वह स्थान भी जहाँ वह पिछले जन्म में रहता था जहाँ कि वह इस जन्म में कभी गया तक नहीं था । तो इस तरह के समाचार अकसर ही सुनने को मिलता है और यही बात जान पड़ती है कि पुनर्जन्म सत्य है और शाशवत है ।
अब जो सिद्धांत इस िवषय को गम्भीरता से समझाते हैं उनका विज्ञान महर्षि कपिल के सांख्यशास्त्र के अनुसार इस प्रकार है :-
जीव शरीर का निर्माण इस रीति से हुआ कि :-
त्रिगुणात्मक प्रकृति से बुद्धि, अहंकार,मन,
सात्विक अहंकार से पाँच ज्ञानेंद्रिय (चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण, त्वचा),
ताम्सिक अहंकार से पाँच कर्मेंन्द्रिय (वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ, पायु),
पंच तन्मात्र (पृथ्वि, अग्नि, जल, वायु, आकाश )
पाँच विषय (रूप,रस,गंध,स्पर्श,दृष्य)
और इस चौबिस प्रकार के अचेतन जगत के अतिरिक्त पच्चीसवाँ चेतन पुरुष (आत्मा) ।

शरीर के दो भेद हैं :-
सूक्ष्म शरीर जिसमें :- [बुद्धि ,अहंकार, मन ]
स्थूल शरीर जिसमें :-[ पाँच ज्ञानेंद्रिय (चक्षु, श्रोत्र, रसना, घ्राण, त्वचा), पाँच कर्मेंन्द्रिय (वाक्, हस्त, पैर, उपस्थ, पायु), पंच तन्मात्र (पृथ्वि, अग्नि, जल, वायु, आकाश ) ]

जब मृत्यु होती है तब केवल स्थूल शरीर ही छूटता है, पर सूक्ष्म शरीर पूरे एक सृष्टि काल (4320000000 वर्ष) तक आत्मा के साथ सदा युक्त रहता है और प्रलय के समय में यह सूक्ष्म शरीर भी अपने मूल कारण प्रकृति में लीन हो जाता है । बार बार जन्म और
 मृत्यु का यह क्रम चलता रहता है शरीर पर शरीर बदलता रहता है पर आत्मा से युक्त वह शूक्ष्म शरीर सदा वही रहता है जो कि सृष्टि रचना के समय आत्मा को मिला था , पर हर नये जन्म पर नया स्थूल शरीर जीवात्मा को मिलता रहता है । जिस कारण हर जन्म के कुछ न कुछ विषय हमारी शूक्ष्म बुद्धि में बसे रहते हैं और कोई न कोई किसी न किसी जन्म में कभी न कभी वह विषय पुनः जागृत हो जाते हैं जिस कारण वह लोग जिनको कि शरीर परिवर्तन का वह विज्ञान नहीं पता वह लोग इसको भूत बाधा या कोई शैतान आदि का साया समझ कर भयभीत होते रहते हैं । कभी किसी मानव की मृत्यु के बाद जब उसे दूसरा शरीर मिलता है तब कई बार किसी विषय कि पुनावृत्ति होने से पुरानी यादें जाग उठती हैं , और उसका रूप एकदम बदल जाता है और आवाज़ भारी हो जाने के कारन लोग यह सोचने लगते हैं कि इसको किसी दूसरी आत्मा ने वश में कर लिया है , या कोई भयानक प्रेत इसके शरीर में प्रवेश कर गया है । परन्तु यह सब सत्य ना जानने का ही परिणाम है कि लोग भूत प्रेत, डायन, चुड़ैल,परी आदि का साया समझ भय खाते रहते हैं । पृथ्वी के सभी जीवों में यह बात देखी जाती है कि जिस विषय का अनुभव उनको होता है उस विषय कि जब पुनावृत्ति का आभास जब उन्हें होता है तब उनकी बुद्धि उस विषय में सतर्क रहती है । और देखा गया है कि पृथ्वी का हर जीव मृत्यु नामक दुख से भयभीत होता है और बचने के लिये यत्न करता है , वह उस स्थान से दूर चला जाना चाहता है जहाँ पर मृत्यु की आशंका है , उसे लगता है कि कहीं और चले जाने से उसका इस मृत्यु दुख से छुटकारा हो जायेगा । अब यहाँ समझने वाली बात यह है कि किसने उस जीव को यह प्रेरणा दी यह सब करने कि? तो यही तथ्य सामने आता है कि यह सब उसके पूर्व मृत्यु के अनुभव के कारण ही है, क्योंकि मृत्यु का अनुभव उसे पूर्व जन्म में हो चुका है जिस कारण वह अनुभव का ज्ञान जो उसकी सूक्ष्म बुद्धि में छुपा था वह उस विषय कि पुनावृत्ति के होने से दुबारा जाग्रत हो गया है । जैसा कि पहले भी कहा गया है कि मृत्यु केवल स्थूल शरीर की हुआ करती है , तो सूक्ष्म शरीर तो वही है जो पहले था और अब भी वही है । जिस कारण यह सिद्ध होता है कि पुनर्जन्म का सिद्धांत प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से सिद्ध है ।

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