दिल दहलाने वाली यादें
15 अगस्त, 1947 को एक तरफ भारत आजाद होने की खुशी में झूम रहा था तो दूसरी तरफ विभाजन की भयंकर मार-काट के कारण गम में भी डूबा हुआ था। भारत का 30 प्रतिशत भाग कटकर पाकिस्तान नाम से एक अलग देश बन गया। 'पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा' की घोषणा करने वाले महात्मा गांधी असहाय से देखते रहे और जल्द से जल्द सत्ता सुख भोगने की लालसा में कांग्रेस के नेताओं ने देश का विभाजन स्वीकार कर लिया। 15 अगस्त, 1947 को दिल्ली दुल्हन की तरह सजी थी। स्वतंत्र होने पर दिल्ली में जश्न मनाया जाना स्वाभाविक था। 15 अगस्त को लाल किले पर तिरंगा फहराकर नेहरूजी ने प्रथम स्वाधीनता दिवस की घोषणा की। 14 अगस्त की रात 12 बजे संसद के सेंट्रल हाल में नेहरू के प्रसिद्ध भाषण के साथ अंग्रेज साम्राज्य का यूनियन जैक उतारकर भारत का राष्ट्रध्वज तिरंगा लहरा दिया गया, परंतु उसी 15 अगस्त, 1947 को लाहौर में और पूरे पश्चिम पंजाब व सीमा प्रांत में हिंदू-सिख इलाके धू-धू कर जल रहे थे। हजारों लोगों को मौत के घाट उतारा जा रहा था। जगह-जगह लूटपाट, अपहरण व हत्याएं हो रही थीं। रेलगाड़ियों में तिल रखने की जगह नहीं थी।
15 अगस्त को मैं लाहौर में था। मैंने लोमहर्षक कांड अपनी आंखों से देखे थे, जो 66 वर्ष बीत जाने पर आज भी मेरे दिलों-दिमाग को दहला देते हैं। पंजाब के स्वयंसेवकों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ओटीसी शिक्षक शिक्षण वर्ग कैंप फगवाड़ा में लगा था। यह शिविर 20 अगस्त को समाप्त होना था, परंतु पश्चिमी पंजाब व सीमा प्रांत में भीषण मार-काट, हत्या, लूट, अपहरण की घटनाओं और हिंदू-सिखों के पलायन के दिल दहलाने वाले समाचार आ रहे थे। इस कारण संघ अधिकारियों ने निर्णय किया कि शिविर को 10 अगस्त को ही समाप्त कर दिया जाए। हम लोग 10 अगस्त को ही पहली गाड़ी से लाहौर के लिए चल दिए। अटारी स्टेशन पार करते ही वातावरण बदला सा था। हिंसा का तांडव जोरों पर था।
मेरा परिवार लाहौर छोड़कर जा चुका था। मुझे यह भी पता न था कि मेरे परिवार के लोग कहां गए हैं। मोहल्ले में 10-12 घरों में कुछ लोग थे, शेष सब जा चुके थे। 10 अगस्त की रात को लाहौर में छत से जहां भी नजर जाती थी चारों ओर धू-धू जलते मकानों के हृदय विदारक दृश्य थे। अगले दिन बचे-खुचे लोगों ने मोहल्ला छोड़ दिया। हम वहां से निस्बत रोड स्थित संघ के कार्यालय में चले गए। 12-13 अगस्त को मैं निस्बत रोड पर चलाए जा रहे अस्थायी शिविर में था। रात को एक कार में एक महिला और उसके कुछ रिश्तेदार किसी व्यक्ति के शव को लेकर निस्बत रोड पर आए। उस महिला के पति की हत्या कर दी गई थी। इतनी भीषण मारकाट मची थी कि रावी के किनारे शमशान में शव रखने को जगह नहीं बची थी। महिला और उसके संबंधी चाहते थे कि उसके पति का संस्कार एक खाली प्लॉट पर कर दिया जाए, परंतु मोहल्ले के बचे लोग एकत्र हो गए और रिहायशी क्षेत्र में संस्कार को अशुभ मानकर संस्कार की अनुमति नहीं दी। फिर वह महिला अपने पति के शव को लेकर कहां गई, मालूम नहीं। मोहल्ले के लोगों को मालूम नहीं था कि अपने जिन मकानों को शव संस्कार के कारण अपवित्र होने की उन्होंने जो आशंका जाहिर की थी वह मोहल्ला, वह शहर हमेशा के लिए छूट जाएगा। डीएवी कॉलेज और उसके हॉस्टल में बड़ा शिविर लगा था। वहां से कुछ स्वयंसेवक डोगरा सैनिकों के साथ लाहौर की गलियों में जाकर फंसे हुए हिंदुओं को निकालने का काम करते थे। मुझे कुछ दिनों के लिए डीएवी कॉलेज में काम करने के लिए कहा गया।
प्रतिदिन की तरह हम 5-5 स्वयंसेवक दो जीपों में बैठकर सेना की सुरक्षा में विभिन्न क्षेत्रों में फंसे हिंदू, सिखों को बचाने के लिए निकले। मैं जिस ग्रुप में था वह गवालमंडी, मेवामंडी, किला गुजर सिंह आदि क्षेत्रों में फंसे लोगों को निकालने गया और दूसरा दल गया था गुरुदत्ता भवन, शहालमी, वच्छोवाली इत्यादि क्षेत्रों में। हम लोग सारा दिन घूम कर कुछ लोगों को बचाकर कर शिविर में लाए। भरे-पूरे घरों को छोड़कर केवल एक छोटा संदूक साथ लेकर परिवारों को निकलने की अनुमति थी, परंतु दूसरी जीप और उसके साथ गए कार्यकर्ता नहीं लौटे। उनके साथ गई डोगरा सैनिकों की जीप वापस आ गई थी। उस जीप को पुन: लेकर स्वयंसेवकों को ढूंढने के लिए कुछ कार्यकर्ता गए, परंतु उनका भी कुछ पता नहीं चला। रात 12 बजे उनमें से एक स्वयंसेवक देवेंद्र बदहवास, छिपता-छिपाता डीएवी कॉलेज पहुंचा। उसने उस लोमहर्षक घटना का विवरण सुनाया। उनकी जीप में सवार सभी लोगों को पुलिस ने एक पंक्ति में खड़ा करके गोलियों से उड़ा दिया। देवेंद्र गोली लगने से पूर्व ही गिर गया था। पुलिस सबको मरा समझकर लाशों को वहीं छोड़कर चली गई। काफी देर बाद देवेंद्र उठकर बचता-बचता डीएवी कॉलेज पहुंचा। सारे पंजाब से लुटे-पिटे, घर-बार, हवेली, खेत-खलिहान छोड़ हजारों की संख्या में लोग प्रतिदिन डीएवी कॉलेज और उसके हॉस्टल में पहुंच रहे थे। हरेक की अपनी-अपनी रोंगटे खड़े कर देने वाली आप बीती थी। परिवार के परिवार मौत के घाट उतार दिए गए। असंख्य महिलाओं का अपहरण कर लिया गया था। अनेक महिलाओं ने कुओं में छलांग लगाकर या आग में जलकर अपने सम्मान की रक्षा की थी। 15 अगस्त था या 16 अगस्त। नेहरूजी डीएवी कॉलेज कैंप में सायंकाल आए थे। जवाहर लाल नेहरू ने इन घटनाओं पर दुख प्रकट करते हुए आश्वासन दिया था कि पाकिस्तान सरकार से बातचीत हो गई है, तुरंत शांति बहाल हो जाएगी। भारतीय सैनिक टुकड़ियां लाहौर व पाकिस्तान के अन्य शहरों, कस्बों में तैनात कर दी गई हैं। अब किसी को घबराने की आवश्यकता नहीं है। उनके वापस जाते ही उस रात भी लाहौर धू-धू कर जलता रहा।
मुझे अभी भी याद है कि एक डोगरा सैनिक मूर्तियां लेकर मेरे पास आया था कि गुंडों के हाथों मंदिर को बचाना अब कठिन है इसलिए खंडित होने से पूर्व वह मूर्तियों को उठा लाया है। विभाजन रेखा की आधिकारिक घोषणा 15 अगस्त को भी नहीं हुई थी, परंतु कांग्रेस मंत्रियों और नेताओं द्वारा लाहौर छोड़कर चले जाने के कारण यह स्पष्ट था कि लाहौर पाकिस्तान में जा रहा है। नेहरूजी के आश्वासन के बावजूद नरसंहार जारी रहा अत: शेष हिंदुओं ने कुछ दिनों में ही लाहौर खाली कर दिया। इनमें से बहुत कम भारत लौट सके। ज्यादातर को रास्ते में कत्ल कर दिया गया।
[लेखक विजय कुमार मल्होत्रा, भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं]
सोर्स - दैनिक जागरण !
15 अगस्त, 1947 को एक तरफ भारत आजाद होने की खुशी में झूम रहा था तो दूसरी तरफ विभाजन की भयंकर मार-काट के कारण गम में भी डूबा हुआ था। भारत का 30 प्रतिशत भाग कटकर पाकिस्तान नाम से एक अलग देश बन गया। 'पाकिस्तान मेरी लाश पर बनेगा' की घोषणा करने वाले महात्मा गांधी असहाय से देखते रहे और जल्द से जल्द सत्ता सुख भोगने की लालसा में कांग्रेस के नेताओं ने देश का विभाजन स्वीकार कर लिया। 15 अगस्त, 1947 को दिल्ली दुल्हन की तरह सजी थी। स्वतंत्र होने पर दिल्ली में जश्न मनाया जाना स्वाभाविक था। 15 अगस्त को लाल किले पर तिरंगा फहराकर नेहरूजी ने प्रथम स्वाधीनता दिवस की घोषणा की। 14 अगस्त की रात 12 बजे संसद के सेंट्रल हाल में नेहरू के प्रसिद्ध भाषण के साथ अंग्रेज साम्राज्य का यूनियन जैक उतारकर भारत का राष्ट्रध्वज तिरंगा लहरा दिया गया, परंतु उसी 15 अगस्त, 1947 को लाहौर में और पूरे पश्चिम पंजाब व सीमा प्रांत में हिंदू-सिख इलाके धू-धू कर जल रहे थे। हजारों लोगों को मौत के घाट उतारा जा रहा था। जगह-जगह लूटपाट, अपहरण व हत्याएं हो रही थीं। रेलगाड़ियों में तिल रखने की जगह नहीं थी।
15 अगस्त को मैं लाहौर में था। मैंने लोमहर्षक कांड अपनी आंखों से देखे थे, जो 66 वर्ष बीत जाने पर आज भी मेरे दिलों-दिमाग को दहला देते हैं। पंजाब के स्वयंसेवकों के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का ओटीसी शिक्षक शिक्षण वर्ग कैंप फगवाड़ा में लगा था। यह शिविर 20 अगस्त को समाप्त होना था, परंतु पश्चिमी पंजाब व सीमा प्रांत में भीषण मार-काट, हत्या, लूट, अपहरण की घटनाओं और हिंदू-सिखों के पलायन के दिल दहलाने वाले समाचार आ रहे थे। इस कारण संघ अधिकारियों ने निर्णय किया कि शिविर को 10 अगस्त को ही समाप्त कर दिया जाए। हम लोग 10 अगस्त को ही पहली गाड़ी से लाहौर के लिए चल दिए। अटारी स्टेशन पार करते ही वातावरण बदला सा था। हिंसा का तांडव जोरों पर था।
मेरा परिवार लाहौर छोड़कर जा चुका था। मुझे यह भी पता न था कि मेरे परिवार के लोग कहां गए हैं। मोहल्ले में 10-12 घरों में कुछ लोग थे, शेष सब जा चुके थे। 10 अगस्त की रात को लाहौर में छत से जहां भी नजर जाती थी चारों ओर धू-धू जलते मकानों के हृदय विदारक दृश्य थे। अगले दिन बचे-खुचे लोगों ने मोहल्ला छोड़ दिया। हम वहां से निस्बत रोड स्थित संघ के कार्यालय में चले गए। 12-13 अगस्त को मैं निस्बत रोड पर चलाए जा रहे अस्थायी शिविर में था। रात को एक कार में एक महिला और उसके कुछ रिश्तेदार किसी व्यक्ति के शव को लेकर निस्बत रोड पर आए। उस महिला के पति की हत्या कर दी गई थी। इतनी भीषण मारकाट मची थी कि रावी के किनारे शमशान में शव रखने को जगह नहीं बची थी। महिला और उसके संबंधी चाहते थे कि उसके पति का संस्कार एक खाली प्लॉट पर कर दिया जाए, परंतु मोहल्ले के बचे लोग एकत्र हो गए और रिहायशी क्षेत्र में संस्कार को अशुभ मानकर संस्कार की अनुमति नहीं दी। फिर वह महिला अपने पति के शव को लेकर कहां गई, मालूम नहीं। मोहल्ले के लोगों को मालूम नहीं था कि अपने जिन मकानों को शव संस्कार के कारण अपवित्र होने की उन्होंने जो आशंका जाहिर की थी वह मोहल्ला, वह शहर हमेशा के लिए छूट जाएगा। डीएवी कॉलेज और उसके हॉस्टल में बड़ा शिविर लगा था। वहां से कुछ स्वयंसेवक डोगरा सैनिकों के साथ लाहौर की गलियों में जाकर फंसे हुए हिंदुओं को निकालने का काम करते थे। मुझे कुछ दिनों के लिए डीएवी कॉलेज में काम करने के लिए कहा गया।
प्रतिदिन की तरह हम 5-5 स्वयंसेवक दो जीपों में बैठकर सेना की सुरक्षा में विभिन्न क्षेत्रों में फंसे हिंदू, सिखों को बचाने के लिए निकले। मैं जिस ग्रुप में था वह गवालमंडी, मेवामंडी, किला गुजर सिंह आदि क्षेत्रों में फंसे लोगों को निकालने गया और दूसरा दल गया था गुरुदत्ता भवन, शहालमी, वच्छोवाली इत्यादि क्षेत्रों में। हम लोग सारा दिन घूम कर कुछ लोगों को बचाकर कर शिविर में लाए। भरे-पूरे घरों को छोड़कर केवल एक छोटा संदूक साथ लेकर परिवारों को निकलने की अनुमति थी, परंतु दूसरी जीप और उसके साथ गए कार्यकर्ता नहीं लौटे। उनके साथ गई डोगरा सैनिकों की जीप वापस आ गई थी। उस जीप को पुन: लेकर स्वयंसेवकों को ढूंढने के लिए कुछ कार्यकर्ता गए, परंतु उनका भी कुछ पता नहीं चला। रात 12 बजे उनमें से एक स्वयंसेवक देवेंद्र बदहवास, छिपता-छिपाता डीएवी कॉलेज पहुंचा। उसने उस लोमहर्षक घटना का विवरण सुनाया। उनकी जीप में सवार सभी लोगों को पुलिस ने एक पंक्ति में खड़ा करके गोलियों से उड़ा दिया। देवेंद्र गोली लगने से पूर्व ही गिर गया था। पुलिस सबको मरा समझकर लाशों को वहीं छोड़कर चली गई। काफी देर बाद देवेंद्र उठकर बचता-बचता डीएवी कॉलेज पहुंचा। सारे पंजाब से लुटे-पिटे, घर-बार, हवेली, खेत-खलिहान छोड़ हजारों की संख्या में लोग प्रतिदिन डीएवी कॉलेज और उसके हॉस्टल में पहुंच रहे थे। हरेक की अपनी-अपनी रोंगटे खड़े कर देने वाली आप बीती थी। परिवार के परिवार मौत के घाट उतार दिए गए। असंख्य महिलाओं का अपहरण कर लिया गया था। अनेक महिलाओं ने कुओं में छलांग लगाकर या आग में जलकर अपने सम्मान की रक्षा की थी। 15 अगस्त था या 16 अगस्त। नेहरूजी डीएवी कॉलेज कैंप में सायंकाल आए थे। जवाहर लाल नेहरू ने इन घटनाओं पर दुख प्रकट करते हुए आश्वासन दिया था कि पाकिस्तान सरकार से बातचीत हो गई है, तुरंत शांति बहाल हो जाएगी। भारतीय सैनिक टुकड़ियां लाहौर व पाकिस्तान के अन्य शहरों, कस्बों में तैनात कर दी गई हैं। अब किसी को घबराने की आवश्यकता नहीं है। उनके वापस जाते ही उस रात भी लाहौर धू-धू कर जलता रहा।
मुझे अभी भी याद है कि एक डोगरा सैनिक मूर्तियां लेकर मेरे पास आया था कि गुंडों के हाथों मंदिर को बचाना अब कठिन है इसलिए खंडित होने से पूर्व वह मूर्तियों को उठा लाया है। विभाजन रेखा की आधिकारिक घोषणा 15 अगस्त को भी नहीं हुई थी, परंतु कांग्रेस मंत्रियों और नेताओं द्वारा लाहौर छोड़कर चले जाने के कारण यह स्पष्ट था कि लाहौर पाकिस्तान में जा रहा है। नेहरूजी के आश्वासन के बावजूद नरसंहार जारी रहा अत: शेष हिंदुओं ने कुछ दिनों में ही लाहौर खाली कर दिया। इनमें से बहुत कम भारत लौट सके। ज्यादातर को रास्ते में कत्ल कर दिया गया।
[लेखक विजय कुमार मल्होत्रा, भाजपा के वरिष्ठ नेता हैं]
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