Friday, 4 July 2014

उन दिनों की बात है, जब स्वामी रामतीर्थ जापान में थे। स्वामी जी रेल से एक शहर से दूसरे शहर घूम रहे थे। उन दिनों वह अन्न नहीं खाते थे, फलाहार ही करते थे। एक दिन ऐसा हुआ कि वह गाड़ी से यात्रा कर रहे थे और उन्हें खोजने पर भी कहीं फल नहीं मिल सके। स्वामी जी को तेज भूख लग गई थी। गाड़ी एक स्टेशन पर ठहरी। स्वामी जी ने इधर-उधर नजर दौड़ाई, मगर उन्हें फल न दिखाई दिए। सहसा उनके मुंह से निकल पड़ा, 'लगता है, जापान फलों के मामले में बड़ा गरीब है।' स्वामी जी के डिब्बे के सामने खड़े एक युवक ने उनकी यह बात सुन ली। वह अपनी पत्नी को गाड़ी में बिठाने आया था। यह सुनकर वह दौड़ा-दौड़ा स्टेशन से बाहर गया और एक टोकरी फल लेकर स्वामी जी के पास आया और बोला, 'ये लीजिए फल। आपको इनकी जरूरत है।'
स्वामी जी ने समझा, शायद यह कोई फल बेचने वाला है। उन्होंने फल ले लिए और पूछा, 'इनका मूल्य कितना है?' युवक ने कहा, 'इनका कोई मूल्य नहीं है, ये आपके लिए हैं।' स्वामी जी ने फिर पैसे लेने का आग्रह किया, तो युवक बोला, 'आप फलों की कीमत देना ही चाहते हैं, तो आपसे प्रार्थना है कि अपने देश जाकर किसी से यह न कहें कि जापान फलों के मामले में गरीब देश है। बस यही इनका मूल्य है।' रामतीर्थ उस जापानी युवक का उत्तर सुनकर बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने मन ही मन सोचा कि जिस देश का हरेक नागरिक अपने देश के सम्मान का इतना ध्यान रखता है, वह मुल्क सचमुच महान है।

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