Saturday 27 December 2014

हिन्दुत्व कहिए या भारतीयता कहिये 
प्रशांत बाजपेई, पाञ्चजन्य , 27 दिसंबर 2014 

आजादी के बाद भी साल दर साल, रेड़ के रेड़, गरीब, अपढ़ और अबोध हिंदुओं के रीति रिवाजो, परंपराओं और पूजा पद्धति का नाश किया जा रहा है और कभी कोई ची-पटांग नहीं होती। लेकिन आगरा में कुछ मुट्ठीभर मुस्लिमों की घर वापसी से मानो कयामत टूट पड़ी है। .....................................................................................
संत राबिया के बारे में प्रसिद्ध है कि एक दिन वो एक हाथ में आग और एक हाथ में पानी लेकर गलियों में दौड़ रही थी। जब लोगों ने उससे इसका कारण पूछा तो उसने कहा कि इस आग से मैं स्वर्ग को जला दूँगी और इस पानी से जहन्नुम की आग को ठंडा कर दूँगी ताकि लोग बिना किसी लालच और बिना किसी भय के ईश्वर को ईश्वर के लिए ही प्रेम करें। वास्तव में सच ऐसे ही खोजा जाता है। बिना किसी लालच के, बिना किसी डर के और सत्य से आँखें मिलाने के साहस के साथ।

मतांतरण के मामले पर जिस प्रकार का कोहराम संसद में मचाया जा रहा है उसमें ईमानदारी का कतरा भी ढूंढ पाना मुश्किल जान पड़ता है। भारत में मतांतरण पर सार्वजनिक चर्चा का इतिहास स्वतंत्रता प्राप्ति के भी बहुत पीछे तक जाता है, और कई दशकों से ये मामले उठाए जा रहे हैं लेकिन तथाकथित सेकुलर दल अचानक नींद से जाग पड़े हैं। लेकिन आज भी वो मतांतरण पर चर्चा नहीं करना चाहते। वो सिर्फ आगरा वाले मामले पर हुड़दंग करना चाहते हैं। मतांतरण पर कोई देशव्यापी कानून बने इसके भी वो खिलाफ हैं। और तो और महात्मा गाँधी के नाम पर सत्ता के पायदान पर पहला कदम रखने वाली काँग्रेस भी गाँधी जी के उन वक्तव्यों की ओर नज़र तक नहीं डालना चाहती जिनमें उन्होंने ईसाई मिशनरियों के तथाकथित सेवा कार्यों की कठोर आलोचना करते हुए हिन्दुओं को ईसाई बनाने के लिए बाहर से भेजे जा रहे अकूत धन को शैतान द्वारा भेजा गया पैसा कहा था। गाँधीजी की आवाजें अनसुनी रह गई। आज 2014 में भी मतांतरण का कारोबार जस का तस जारी है।

विश्व के ईसाई करण के लिए चर्च के द्वारा किए जा रहे वैश्विक प्रयासों पर लिखी गई किताब ‘सैवन हंड्रेड प्लान्स टू इवैन्जलाइज़ दि वल्र्ड: दि राईज़ आॅफ ग्लोबल इवैन्जेलाइज़ेशन मूवमेंट ’ में विस्तार से बताया गया है कि किस प्रकार सारी दुनिया में 2 लाख 62 हजार 3 सौ मिशनरी कार्यरत हैं और हर एक मिशनरी पर 1 लाख 38 हजार रूपए सालाना खर्च हो रहा है। 41 लाख पूर्णकालिक कार्यकर्ता इसके लिए लगे हैं। 13 हजार विशाल पुस्तकालय काम कर रहे हैं। हर साल करोड़ों पुस्तकें छापी जा रही हैं। 1800 ईसाई टीवी और रेडियो स्टेशन दिन रात काम कर रहे हैं। वैश्विक ईसाईयत का सालाना बजट 145 बिलियन डाॅलर है। भारत में शीर्ष 15 ईसाई मिशनरी हर साल सवा छः अरब रूपए विदेशों से (एफ सी आर ए 2012 के अंतर्गत) प्राप्त कर रहे हैं ।

दूसरी ओर इस्लामी संस्थाओं के पास भी हिंदुओं को इस्लाम में दीक्षित करने के लिए पश्चिम एशिया से पैट्रो-डाॅलर की अथाह संपदा भेजी जा रही है। हमारे देश की ‘सेकुलर ढर्राशाही’ के कारण इसके आंकड़े उपलब्ध नहीं है। लेकिन ये तय है कि अरबों रूपए इस्लाम में मतांतरण के लिए, लव जिहाद के लिए, मस्जिदों और मदरसों के निर्माण के लिए भारत में झोंके जा रहे हैं। दर्जनों इस्लामी संस्थाएँ भी मतांतरण में लगी हुुई हैं।

मजहब के नाम पर चल रहा ये कारोबार इतना एकतरफा है कि आजादी के बाद भी साल दर साल, रेड़ के रेड़, गरीब, अपढ़ और अबोध हिंदुओं के रीति रिवाजो, परंपराओं और पूजा पद्धति का नाश किया जा रहा है और कभी कोई ची-पटांग नहीं होती। लेकिन आगरा में कुछ मुट्ठीभर मुस्लिमों की घर वापसी से मानो कयामत टूट पड़ी है।

विडंबना ही है कि अपने सेवाकार्यों के नाम पर लाखों लोगों को ईसाई बनाने वाली और अपने इस उद्देश्य को सार्वजनिक रूप से स्वीकार करने वाली मदर टेरेसा को पद्मश्री और भारत रत्न से सम्मानित किया जाता है लेकिन ‘‘छल, कपट, भय अथवा लालच से जिन हिंदुओं का मतांतरण किया गया है उन्हें समझाबुझा कर वापिस अपने पुरखों की परंपरा में लौटा लेना चाहिए’’ जैसे बयान से ‘सेकुलरिज़्म’ की नींव हिलने लगती है। धर्म निरपेक्षता के ढोंग का ही कमाल है कि मदर टेरेसा के व्यक्तित्व और कार्यों के स्याह पक्ष को उजागर करने वाले कैनेडा के सार्ज लैरीवी और जैनेवीब कैनार्ड के आरोपों पर कोई चर्चा नहीं होती लेकिन घर वापसी की बात करने वाले खलनायक बना दिए जाते है।

मतांतरण की चर्चा और भी व्यापक संदर्भों में होनी चाहिए। आजादी मिलने के साथ ही भारत की धरती खंडित हो गई। इसके बाद भी समाज के समरस होने के लिए कोई दिशा तय नहीं हो सकी। एकता के नाम पर घर के कचरे को गलीचे के नीचे छिपाने की कवायद ही होती रही है। अशांति का मूल कारण अस्वीकार्यता है। सैमेटिक पंथों की ऐतिहासिक असहिष्णुता से नजरें चुराते हुए पकते हुए घाव पर पट्टी रखने की कोशिशें बंद गली के मुहाने तक पहुँच रही हैं। ‘मेरा मज़हब, मेरा मसीहा और मेरी किताब ही एक मात्र सही’ इस विभाजनकारी मानसिकता को दूर करने के लिए प्रयास करना तो दूर, विचार तक नहीं किया गया। इन सुलगते सवालों पर चर्चा क्यों नहीं हो सकती?

‘आत्माओं की फसल काटने वालों’ से क्यों नहीं पूछा जा सकता कि आपका ही रास्ता एकमात्र श्रेष्ठ कैसे है? तालिबान और इस्लामिक स्टेट जो कर रहे हैं उसका औचित्य वे कुरान और हदीस के आधार पर सिद्ध करते हैं। वहाबी भी जहर फैलाते घूम रहे हैं। मामला यदि व्याख्याओं का है तो सही व्याख्या कौन करेगा? भारत के मुस्लिम बच्चों को अबू-बकर अल बगदादी, मुल्ला उमर और मौलाना मौदूदी से कैसे बचाएंगे? यदि इस्लामिक देश तुर्की कालसुसंगतता के आधार पर हदीसों की कांट-छांट का काम शुरू कर सकता है तो भारत जैसे उदार देश में ये संभव क्यों नहीं है?

ध्यान रहे कि मिली जुली संस्कृति के नाम पर दारा शिकोह और औरंगजेब को नहीं मिलाया जा सकता। अशफाक़ उल्ला खाँ और जिन्ना को एक नज़र से नहीं देखा जा सकता। औरंगजेब और गुरु तेगबहादुर में से किसी एक को ही चुना जा सकता है। यदि औरंगजेब के नाम पर सड़कें और अत्याचारी जेवियर के नाम पर शिक्षण संस्थाएँ होगी तो फरीद, राबिया और बुल्लेशाह के लिए कोई जगह नहीं बचेगी।

महात्मा गाँधी ने 1909 में हिन्द स्वराज लिखी जिसमें उन्होंने कहा कि मुस्लिमों का भारतीय समाज का समरस हो जाना ही हिन्दू-मुस्लिम प्रश्न का समाधान है। इस पुस्तक के लिखने के तीन दशक बाद जब उनसे इस विषय पर दोबारा पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वे हलन्त, पूर्ण विराम सहित अपनी उस बात पर कायम है।

शिवमहिम्न स्तोत्रम में एक श्लोक आता है।
रुचीनां वैचित्र्यादृजुकुटिलनानापथजुषाम्। नृणामेको गमयस्त्वमसि पयसामर्णव इव।।
‘‘जैसे विभिन्न नदियाँ भिन्न-भिन्न स्रोतों से निकलकर समुद्र में मिल जाती है, उसी प्रकार हे प्रभो! भिन्न भिन्न रूचि के अनुसार विभिन्न टेढ़े-मेढ़े अथवा सीधे रास्ते से जानेवाले लोग अन्त में तुझमें ही आकर मिल जाते हैं।’’

भारत में समरस समाज का सूत्र यही हो सकता है। हर भारतवासी तक इस भाव को पहुँचाने के लिए अथक प्रयास करने होंगे । अब इसे हिंदुत्व कह लीजिए या भारतीयता कह लीजिए। गंगा जमुनी तहजीब का मुहावरा भी अक्सर कहा-सुना जाता है। उसका अर्थ भी यही होना चाहिए। और यदि ऐसा नहीं है तो कहना होगा कि सवेरा अभी दूर है।

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