अगर स्वामी श्रद्धानंद की बात मान ली जाती तो मुज्जफरनगर का दंगा नहीं होता।
मुज्जफरनगर का दंगा भारत देश की सामाजिक व्यवस्था पर एक दाग के समान हैं।
इस दंगे को टाला जा सकता था। जानते हैं कैसे? इसकी जड़ पर प्रहार करके।
कहने को मुज्जफरनगर के दंगे हिन्दू और मुस्लमान समुदाय के बीच में हुए हैं। पर दोनों और से हिन्दू और मुसलमानों के पूर्वज एक ही हैं। उनके बीच मजहब की दीवारे और दुरिया समय ने बना डाली , अब उसे राजनेता भरने नहीं दे रहे हैं। इतिहास का यह कटु सत्य हैं की भारत देश के ९९% मुस्लिम उन हिन्दुओं की संतान हैं जिनके पूर्वज हिन्दू थे और उन्हें बलात मुस्लिम शासकों ने जबरन इस्लाम में परिवर्तित किया था।
१९२० के दशक में स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज द्वारा आर्यसमाज के मंच से शुद्धि आन्दोलन चलाया गया था। उन्हें आंशिक सफलता भी मिली थी। आगरा, मथुरा, भरतपुर के गाँव गाँव में बसने वाले नौ मुस्लिम जिनके रीति, रिवाज हिन्दू थे, गोत्र हिन्दू थे, परम्पराएँ हिन्दू थी बस केवल नाम मुस्लिम था सहर्ष इस आन्दोलन के माध्यम से वापिस अपने पूर्वजों के धर्म में लौटे थे।
स्वामी जी शुद्धि आन्दोलन को भारत भर में चलाना चाहते थे मगर जातिवादी, संकीर्ण, छुआछुत से ग्रसित, गली सड़ी परम्पराओं को धर्म का नाम देने वाले कुछ अज्ञानी लोगो ने स्वामी जी का साथ नहीं दिया। अन्यथा उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में बसने वाली और अपने नाम के आगे चौहान, त्यागी, जाट, मिश्र आदि लगाने वाले मुस्लिम समाज कब के घर लौट चुके होते।
आज अपने राजनैतिक हितों को सिद्ध करने के लिए राजनेता हिन्दू मुस्लमान के बीच दंगा करवा कर समाज की शांति को भंग कर रहे हैं। इन दंगों को रोकने के लिए और भाई भाई के विवाद को समाप्त करने का एक ही उपाय हैं। वह हैं अपने दिलों को बड़ा कर लो।
सामूहिक शुद्धि ,रोटी, बेटी का सम्बन्ध स्थापित करने से ही अपने समाज को टूटने से, उसकी शांति को भंग होने से बचाया जा सकता हैं। ऐसा नहीं हैं की मुस्लिम समाज में इस घर वापसी का चिंतन नहीं हैं।
सबसे बड़ी रुकावट ही यही हैं की हिन्दू समाज ने कोई विकल्प ही स्थापित नहीं किया हैं। कोई मुस्लिम भाई आना भी चाहे तो उसे इतनी समस्याएँ सहन करनी पड़ती हैं की उसका उत्साह ही समाप्त हो जाता हैं। ...........अभी भी समय हैं, सोचिये!
-- डॉ विवेक आर्य --
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चिता जलती देख विदेशी बना हिंदू सात समंदर पार दक्षिण अमेरिका के पेरू निवासी एक ड्रम प्लेयर ने दाह संस्कार की रस्म से प्रभावित होकर हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया है। काशी आकर उसने तीर्थ पुरोहित की मदद से बृहस्पतिवार सुबह गंगा तट पर अपने पिता और चाचा की अस्थियां विसर्जित की। साथ ही सविधि कर्मकांड भी किया। उसकी मानें तो मोक्ष के लिए जल्द ही उसके वतन के और लोग भी इस संस्कृति से जुड़ सकते हैं। इससे पहले वह ईसाई था।
पेरू के लिमा शहर निवासी सेरजियो विल्लाविसेन्सियो के हिंदू संस्कृति से प्रभावित होने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। वह 2010 में वाराणसी घूमने आया तो जीवन में पहली बार मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट पर शवों को चिताओं पर रखकर जलाते देख कौतूहल से भर गया था। इसके बाद सेरजियो ने अंतिम संस्कार की इस भारतीय परंपरा को समझने के लिए हिंदू आचार्यों की भी मदद ली। वतन जाने के बाद जब उसके पिता हिपोलिटो विल्लाविसेन्सियो का निधन हुआ, तब मां लूरदेच और अन्य रिश्तेदारों, पड़ोसियों की तमाम जिद के बाद भी सेरजियो ने अपने पिता के शव को दफनाने नहीं दिया। उसकी पत्नी निकोल जो अमेरिकन कहानीकार है, वह भी अपने श्वसुर को दफनाने के ही पक्ष में थी। फिर भी सेरजियो ने पेरू में हिंदू प्राइस्ट (पुजारी) की तलाश की और हिंदू रीति के अनुसार अपने पिता के शव को चिता पर जलाया।
मुंह में सोना, तुलसी डालने की भी रस्म पूरी की गई थी। चिता पर शव रखने से पहले स्नान कराने के बाद घी का लेप भी कराया गया था। इसके बाद उसके चाचा अलजेंद्रो ओरे का निधन हुआ तब उनका भी उसने दाह संस्कार किया लेकिन इतना विधि-विधान नहीं हो सका था। पिता और चाचा की अस्थियां चुनकर घर में रख ली थी। बृहस्पतिवार को सेरजियो ने अपने पिता और चाचा की अस्थियां गंगा में विसर्जित की। तुलसी घाट से लगे भदैनी पंप घाट पर उसने अस्थियों के विसर्जन के बाद श्राद्ध और पिंडदान कर अपने पुरखों के मोक्ष की रस्म भी पूरी कर ली।
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मुज्जफरनगर का दंगा भारत देश की सामाजिक व्यवस्था पर एक दाग के समान हैं।
इस दंगे को टाला जा सकता था। जानते हैं कैसे? इसकी जड़ पर प्रहार करके।
कहने को मुज्जफरनगर के दंगे हिन्दू और मुस्लमान समुदाय के बीच में हुए हैं। पर दोनों और से हिन्दू और मुसलमानों के पूर्वज एक ही हैं। उनके बीच मजहब की दीवारे और दुरिया समय ने बना डाली , अब उसे राजनेता भरने नहीं दे रहे हैं। इतिहास का यह कटु सत्य हैं की भारत देश के ९९% मुस्लिम उन हिन्दुओं की संतान हैं जिनके पूर्वज हिन्दू थे और उन्हें बलात मुस्लिम शासकों ने जबरन इस्लाम में परिवर्तित किया था।
१९२० के दशक में स्वामी श्रद्धानंद जी महाराज द्वारा आर्यसमाज के मंच से शुद्धि आन्दोलन चलाया गया था। उन्हें आंशिक सफलता भी मिली थी। आगरा, मथुरा, भरतपुर के गाँव गाँव में बसने वाले नौ मुस्लिम जिनके रीति, रिवाज हिन्दू थे, गोत्र हिन्दू थे, परम्पराएँ हिन्दू थी बस केवल नाम मुस्लिम था सहर्ष इस आन्दोलन के माध्यम से वापिस अपने पूर्वजों के धर्म में लौटे थे।
स्वामी जी शुद्धि आन्दोलन को भारत भर में चलाना चाहते थे मगर जातिवादी, संकीर्ण, छुआछुत से ग्रसित, गली सड़ी परम्पराओं को धर्म का नाम देने वाले कुछ अज्ञानी लोगो ने स्वामी जी का साथ नहीं दिया। अन्यथा उत्तर प्रदेश आदि राज्यों में बसने वाली और अपने नाम के आगे चौहान, त्यागी, जाट, मिश्र आदि लगाने वाले मुस्लिम समाज कब के घर लौट चुके होते।
आज अपने राजनैतिक हितों को सिद्ध करने के लिए राजनेता हिन्दू मुस्लमान के बीच दंगा करवा कर समाज की शांति को भंग कर रहे हैं। इन दंगों को रोकने के लिए और भाई भाई के विवाद को समाप्त करने का एक ही उपाय हैं। वह हैं अपने दिलों को बड़ा कर लो।
सामूहिक शुद्धि ,रोटी, बेटी का सम्बन्ध स्थापित करने से ही अपने समाज को टूटने से, उसकी शांति को भंग होने से बचाया जा सकता हैं। ऐसा नहीं हैं की मुस्लिम समाज में इस घर वापसी का चिंतन नहीं हैं।
सबसे बड़ी रुकावट ही यही हैं की हिन्दू समाज ने कोई विकल्प ही स्थापित नहीं किया हैं। कोई मुस्लिम भाई आना भी चाहे तो उसे इतनी समस्याएँ सहन करनी पड़ती हैं की उसका उत्साह ही समाप्त हो जाता हैं। ...........अभी भी समय हैं, सोचिये!
-- डॉ विवेक आर्य --
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चिता जलती देख विदेशी बना हिंदू सात समंदर पार दक्षिण अमेरिका के पेरू निवासी एक ड्रम प्लेयर ने दाह संस्कार की रस्म से प्रभावित होकर हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया है। काशी आकर उसने तीर्थ पुरोहित की मदद से बृहस्पतिवार सुबह गंगा तट पर अपने पिता और चाचा की अस्थियां विसर्जित की। साथ ही सविधि कर्मकांड भी किया। उसकी मानें तो मोक्ष के लिए जल्द ही उसके वतन के और लोग भी इस संस्कृति से जुड़ सकते हैं। इससे पहले वह ईसाई था।
पेरू के लिमा शहर निवासी सेरजियो विल्लाविसेन्सियो के हिंदू संस्कृति से प्रभावित होने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। वह 2010 में वाराणसी घूमने आया तो जीवन में पहली बार मणिकर्णिका घाट और हरिश्चंद्र घाट पर शवों को चिताओं पर रखकर जलाते देख कौतूहल से भर गया था। इसके बाद सेरजियो ने अंतिम संस्कार की इस भारतीय परंपरा को समझने के लिए हिंदू आचार्यों की भी मदद ली। वतन जाने के बाद जब उसके पिता हिपोलिटो विल्लाविसेन्सियो का निधन हुआ, तब मां लूरदेच और अन्य रिश्तेदारों, पड़ोसियों की तमाम जिद के बाद भी सेरजियो ने अपने पिता के शव को दफनाने नहीं दिया। उसकी पत्नी निकोल जो अमेरिकन कहानीकार है, वह भी अपने श्वसुर को दफनाने के ही पक्ष में थी। फिर भी सेरजियो ने पेरू में हिंदू प्राइस्ट (पुजारी) की तलाश की और हिंदू रीति के अनुसार अपने पिता के शव को चिता पर जलाया।
मुंह में सोना, तुलसी डालने की भी रस्म पूरी की गई थी। चिता पर शव रखने से पहले स्नान कराने के बाद घी का लेप भी कराया गया था। इसके बाद उसके चाचा अलजेंद्रो ओरे का निधन हुआ तब उनका भी उसने दाह संस्कार किया लेकिन इतना विधि-विधान नहीं हो सका था। पिता और चाचा की अस्थियां चुनकर घर में रख ली थी। बृहस्पतिवार को सेरजियो ने अपने पिता और चाचा की अस्थियां गंगा में विसर्जित की। तुलसी घाट से लगे भदैनी पंप घाट पर उसने अस्थियों के विसर्जन के बाद श्राद्ध और पिंडदान कर अपने पुरखों के मोक्ष की रस्म भी पूरी कर ली।
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