Tuesday, 8 October 2013

बहादुर क्रांतिकारियों के परिवारों का यह हाल

चंद्रशेखर आजाद के शहीद होने के बाद उनकी माँ जीवन भर कहती रहीं मेरा शेखर जरूर आएगा, वह कैसे जा सकता है। वह माँ भिखारिन सी सडको पर घूमती रही, उनकी मृत्यु से के केवल चार महीने पहले ही १५ रुपये
महीना पेंशन दी गई। उन्होंने पेंशन की रोटी भी नहीं खाई।

हमारे देश के बहादुर क्रांतिकारियों के परिवारों का यह हाल सुनकर कलेजा फटने लगता हैं आँखे विद्रोही हो जाती हैं झर झर अश्रु धारा बहने लगती हैं, वो भी तो अपनी माँ के बेटे थे चाहते तो सुख चैन से जी सकते थे पर नहीं उन्होंने खुद को तो माँ भारती की सेवा के लिए बलिदान किया तो उनके परिवार ने भी बड़ी कीमत चुकाई ..

और हमारी सरकारे उन्हें सम्मान भी नहीं दे सकी, भुला दिया गया उनके बलिदानों को, हमारे छोटे छोटे बच्चो को उनकी गौरव गाथा पढाया ही नहीं जाता ..!!

इस माँ के चरणों में कोटि कोटि वंदन, आपका उपकार यह कृतघ्न राष्ट्र कभी नहीं भूलेगा जिस दिन भी देश का सही इतिहास लिखा जाएगा स्वर्ण अक्षरों में आपका नाम अंकित होगा .

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 प्रसिद्ध क्रांतिकारी भगवती चरण वोहरा की पत्नी दुर्गादेवी,  क्रांतिकारियों के बीच दुर्गा भाभी के नाम से प्रसिद्द थीं, का जन्मदिवस है| 7 अक्टूबर 1907 को इलाहाबाद के एक न्यायाधीश के यहाँ   जन्मी दुर्गा का विवाह ग्यारह वर्ष की आयु में नेशनल कालेज लाहौर के विद्यार्थी उन पन्द्रह वर्षीय भगवतीचरण वोहरा से हो गया जो पूर्णरूपेण क्रान्तिभाव से भरे हुए थे| दुर्गा देवी भी आस-पास के क्रांतिकारी वातावरण के कारण उसी में रम गईं थी। सुशीला दीदी को वे अपनी ननद मानती थीं।

नौजवान भारत सभा की सक्रिय सदस्या दुर्गा भाभी उस समय चर्चा में आयीं, जब नौजवान सभा ने 16 नवम्बर 1926 को अमर शहीद करतार सिंह सराबा की शहादत का ग्यारहवीं वर्षगाँठ मनाने का निश्चय किया, जिन्हें मात्र 19 वर्ष की आयु में फांसी के फंदे पर चढ़ा दिया गया था क्योंकि उन्होंने 1857 की क्रान्ति की तर्ज पर अंग्रेजी सेना के भारतीय सैनिकों में विद्रोह की भावना उत्पन्न करके देश को आज़ाद कराने की योजना बनायी थी और इस हेतु अथक कार्य किये थे। भगतसिंह और दुर्गा भाभी के लिए सराभा सर्वकालीन नायक थे और देश के लिए सब कुछ न्योछावर करने की प्रेरणा इन्हें सराभा से ही मिलती थी।

शहीदी दिवस वाले दिन नौजवान सभा के कार्यक्रम में दो युवतियों द्वारा अपने खून से बनाये गए सराभा के आदमकद चित्र का अनावरण किया गया और ये दोनों युवतियां थीं-दुर्गा भाभी और सुशीला दीदी। जब भगत सिंह ने चंडी को समर्पित अपने जोशीले व्याख्यान को समाप्त किया और सशस्त्र संघर्ष के जरिये अंग्रेजों को देश से बाहर निकालने का संकल्प किया, दुर्गा भाभी ने उठ कर उन्हें तिलक लगाया, आशीर्वाद दिया और उनके उद्देश्य में सफलता की कामना की। यहाँ से भगतसिंह और उनके बीच जो प्रगाढ़ता उत्पन्न हुयी, उसे भगतसिंह की मृत्यु भी नहीं तोड़ पायी और वो हमेशा उन्हें याद करती रहीं। भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव की त्रिमूर्ति समेत सभी क्रांतिकारी उन्हें भाभी मानते थे।

साण्डर्स वध के पश्चात् भगत सिंह और राजगुरु को पुलिस से बचा कर लखनऊ लाने में उनका योगदान और साहस कभी भुलाया नहीं जा सकता| वो 17 दिसंबर 1928 का दिन था जब साण्डर्स वध के पश्चात् सुखदेव दुर्गा भाभी के पास आये। सुखदेव ने दुर्गा भाभी से 500 सौ रूपये की आर्थिक मदद ली तथा उनसे प्रश्न किया-आपको पार्टी के काम से एक आदमी के साथ जाना है, क्या आप जायेंगी ? प्रत्युत्तर में हाँ मिला। सुखदेव ने कहा-आपके साथ छोटा बच्चा शची होगा, गोली भी चल सकती है। दुर्गा स्वरूप रूप धर दुर्गा भाभी ने कहा-सुखदेव, मेरी परीक्षा मत लो। मैं केवल क्रांतिकारी की पत्नी ही नहीं हूँ, मैं खुद भी क्रान्तिकारी हूँ। अब मेरे या मेरे बच्चे के प्राण क्रान्तिपथ पर जायें तो कोई परवाह नहीं, मैं तैयार हूँ।

दूसरी रात ग्यारह बजे के बाद सुखदेव, साण्डर्स का वध करने वाले भगत सिंह और राजगुरू, दुर्गा भाभी के घर आ गये। भाभी ने कलकत्ता जाने का मशविरा दिया क्योंकि उनके पति भगवतीचरण जी कांग्रेस अधिवेशन में शामिल होने के लिए वहीँ पर थे और उनकी सहायता से भगतसिंह को पुलिस की नज़रों से बचाया जा सकता था। फिर प्रातः भगत सिंह ने साहब का रूप बनाया और शची को गोद में लिया। फैल्ट हैट और शची के कारण भगत सिंह का चेहरा छिपा था, पीछे दुर्गा भाभी बड़ी रूआब से ऊँची हील की सैण्डिल पहने, पर्स लटकाये चल रही थीं। राजगुरू नौकर के रूप में पीछे-पीछे स्टेशन पहुंचे। भगत सिंह और दुर्गा भाभी प्रथम श्रेणी में तथा राजगुरू तृतीय श्रेणी के डिब्बे में चढ़ गये। एक दुसरे तृतीय श्रेणी के डिब्बे में चंद्रशेखर आज़ाद साधू के वेश में मानस की चौपाइयां गाते हुए विराजमान थे।

उस समय सांडर्स के हत्यारों को पकड़ने के लिए लगभग 500 पुलिसवाले स्टेशन के चप्पे चप्पे पर मौजूद थे पर सभी लोग सारे इंतजाम को धता बता कर लाहौर से रवाना हो गए। मार्ग के हर स्टेशन पर नौकर राजगुरु अपने साहब भगतसिंह और मेमसाब दुर्गाभाभी के पास आकर उनकी देखभाल करते रहे और ऐसा लगता रहा कि कोई अंग्रेजीदां भारतीय अपने परिवार और नौकर के साथ घूमने के लिए निकला है। ऐसा लग रहा था जैसे शिवाजी ने एकबार फिर औरंगजेब को मात देकर आगरा से प्रस्थान कर दिया हो। गाडी के लखनऊ आने पर राजगुरू अलग होकर आगरा चल दिये। कलकत्ता स्टेशन पर भगवती चरण वोहरा और सुशीला दीदी इनको लेने आये और वहां पर भगत के ठहरने का पूरा इंतजाम सुशीला दीदी ने कर दिया था। इस प्रकार भगत सिंह और राजगुरू को सकुशल लाहौर से निकालने का श्रेय दुर्गा भाभी को है। धन्य हैं ये वीरांगना।

वे भेष बदल बदल कर क्रांतिकारियों को अक्सर बम-पिस्तौल मुहैया कराती रहती थीं। असेम्बली बम काण्ड में गिरफतारी देकर भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त के जेल चले जाने पर इन्हें छुड़ाने की योजना के तहत किये जा रहे बम परीक्षण के दौरान भगवती चरण वोहरा की मृत्यु हो गयी। मृत्यु की सूचना का वज्रपात सहते हुए, अन्तिम दर्शन भी न कर पाने का दंश झेलते हुए भी धैर्य और साहस की प्रतिमूर्ति बनी रहीं दुर्गा भाभी। पति की मृत्योपरान्त उनको श्रद्धांजलिरूपेण वे दोगुने वेग से क्रांति कार्य को प्रेरित करने लगी। मुम्बई के गवर्नर हेली की हत्या की योजना दुर्गा भाभी ने पृथ्वी सिंह आजाद, सुखदेव राज, शिंदे और बापट को मिला कर बनाई। गलत-फहमी में इन लोगों ने पुलिस चौकी के पास एक अंग्रेज अफसर पर गोलियां बरसा दीं। बापट की कुशलता पूर्वक की गई ड्राइविंग से यह लोग बच पाये। चन्द्रशेखर आजाद, जो दुर्गा भाभी को अब भाई की तरह सहारा देते थे, उन्होंने इस योजना को लेकर काफी डांट लगाई। कुछ दिनों के बाद चन्द्रशेखर आजाद भी इलाहाबाद में शहीद हो गये।

समृद्ध परिवार की दुर्गा भाभी के तीनों घर लाहौर के तथा दोनों घर इलाहाबाद के जब्त हो चुके थे और पुलिस पीछे पडी थी। अनगिनत कष्ट उठाये इस दौरान दुर्गा भाभी ने जिन्हें गाँधी-नेहरु के गुणगान में मस्त ये देश ना जानता है , ना जानना चाहता है| इसमें दोषी अगर हमारे सत्ताधीश हैं जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई का श्रेय कभी भी कांग्रेस और उसमें भी गाँधी-नेहरु से आगे जाने नहीं दिया, तो हम भी कम दोषी नहीं हैं जिन्होंने कभी जानने की जरुरत ही नहीं समझी कि हमें आज़ादी क्या सचमुच बिना खड्ग बिना ढाल मिल गयी जैसा की हमें बताया जाता है या असंख्य बलिदानियों ने इसके लिए अपना सर्वस्व होम कर दिया|

14 सितम्बर 1932 को पुलिस ने बुखार में तपती दुर्गा भाभी को कैद कर लिया। 15 दिन के रिमाण्ड के पश्चात सबूतों के अभाव में दुर्गा भाभी को पुलिस को रिहा करना पड़ा। 1919 रेग्यूलेशन ऐक्ट के तहत तत्काल उनको नजर कैद कर लिया गया और लाहौर और दिल्ली प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। तीन वर्ष बाद पाबंदी हटने पर वो प्यारेलाल गर्ल्स स्कूल गाजियाबाद में शिक्षिका के रूप में कार्य किया। योग्य शिक्षा देने की चाह में दुर्गा भाभी ने अड्यार में माण्टेसरी का प्रशिक्षण लिया और 1940 में लखनउ में पहला माण्टेसरी स्कूल खोला।

सेवानिवृत्त के पश्चात् वे गाजियाबाद में अपने बेटे शचीन्द्र के साथ रहने लगीं पर ये देश उन्हें भुला बैठा| बरसों बाद लोगों ने उनका नाम तब सुना सब देहली के तत्कालीन मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना ने गाज़ियाबाद में उनके घर पर जाकर देहली सरकार की ओर से उनका सम्मान किया और। 14 अक्टूबर 1999 को दुर्गा भाभी इस नश्वर संसार को त्याग कर हम सबसे दूर चली गयी। राष्ट्र के लिए समर्पित दुर्गा भाभी का सम्पूर्ण जीवन श्रद्धा-आदर्श-समर्पण के साथ-साथ क्रान्तिकारियों के उच्च आदर्शों और मानवता के लिए समर्पण को परिलक्षित करता है।

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