जब हाथी झारखंड और ओडिशा में आतंक मचाते हैं तो 14 साल की किशोरी निर्मला को बुलाया जाता है.
ओडिशा के वन विभाग ने झारखंड से 14 साल की आदिवासी किशोरी को राऊरकेला स्टेडियम में उधम मचा रहे हाथियों के झुंड से बात करने के लिए बुलाया और उसे इसका मेहनताना भी दिया. यक़ीन नहीं होता न?
इस बात की तसदीक़ करने वाले लोग भी हैं और सवाल करने वाले भी. मगर तब क्या कहेंगे जब सरकार एक लड़की को दूसरे राज्य से बुलाकर जंगली हाथियों से बात करवाती है और उसे इसका ख़र्च भी देती है.
ओडिशा राज्य के वन विभाग ने इस साल जून में 14 साल की आदिवासी बच्ची निर्मला टोप्पो से राऊरकेला शहर में घुसे 11 जंगली हाथियों के झुंड को वापस जंगल भेजने में मदद मांगी.
निर्मला ओडिशा के पड़ोसी राज्य झारखंड के आदिवासी इलाक़े की रहने वाली हैं. वे अकेली नहीं आईं. निर्मला के गांव के दस नौजवान भी उनके साथ थे.
जब उन्होंने हाथियों से बात करनी शुरू की, तो वे राऊरकेला के स्टेडियम में थे. फिर हाथी जंगल में चले गए.
पैर में लगी चोट
ओडिशा में हाथियों को भगाने के लिए गईं निर्मला को पैर में चोट लग गई थी.
कुआरमुंडा की कालूसीरा पंचायत के सरपंच बिक्रम ओराम कहते हैं, ''हम सब बहुत डर गए थे क्योंकि हाथियों का झुंड यहां के जंगलों से होता हुआ राऊरकेला में घुसा था. हमें लगा कि वहां शहर में हाथी काफ़ी तांडव मचाएंगे मगर निर्मला के आने के बाद हमारी उम्मीदें जगीं. बिना ज़्यादा नुक़सान के निर्मला और उसके साथियों ने हाथियों के झुंड को वापस जंगल की तरफ़ भेजने में काफ़ी अहम भूमिका निभाई.''
ओडिशा के पानपोश वन क्षेत्र अधिकारी पीपी ढोला बताते हैं कि जब शहर में 11 हाथियों का झुंड घुसा, तो विभाग ने निर्मला और उनके पिता से मदद मांगी. विभाग ने इसके एवज़ में निर्मला को पैसे भी दिए.
वन क्षेत्र अधिकारी के मुताबिक़ निर्मला और उनके साथ आए दल ने हाथियों के झुंड को स्टेडियम में चारों तरफ से घेरा और कुछ इशारे और बात करते हुए वो उस झुंड को निकालने में कामयाब हुए.
निर्मला ने मुझे बताया कि उन्हें इस काम के लिए 20 हज़ार रुपए दिए गए. इस दौरान जब निर्मला हाथियों के दल को शहर से बाहर हांकने का काम कर रहीं थीं तो उनके पैर में चोट लग गई, जो बाद में सेप्टिक में तब्दील हो गई.
कालूसीरा पंचायत के सरपंच बिक्रम ओराम के मुताबिक़ हाथियों को भगाने में निर्मला की अहम भूमिका थी.
मेरी मुलाक़ात निर्मला से राऊरकेला के एक सरकारी अस्पताल में हुई, जहाँ अब उनके पैरों के ज़ख्म भर चुके हैं.
क्या सुनकर भागे हाथी?
निर्मला जंगली हाथियों से अपनी ज़ुबान यानी 'मुंडारी' में बातें कर उन्हें वापस जाने के लिए 'मनाती' हैं.
निर्मला की माँ को हाथियों ने तब मार दिया था, जब वे जंगल में पट्टे चुनने गईं थीं. इसका निर्मला के दिमाग़ पर गहरा असर हुआ और जब वो दस साल की हुईं, तो अपने पिता मरिनस टोप्पो के साथ मिलकर उन्होंने हाथियों के झुंड से निपटने की कला सीखनी शुरू कर दी.
मगर वो आख़िर कैसे हाथियों को समझाकर मना पाती हैं?
राऊरकेला के स्टेडियम में घुसे जंगली हाथियों पर काबू पाने के लिए स्टेडियम के दरवाज़े बंद कर दिए गए थे.
ये पूछने पर निर्मला ने बताया, "मैं पहले प्रार्थना करती हूँ. फिर हाथियों को अपनी भाषा यानी मुंडारी में कहती हूँ कि वो चले जाएँ. फिर हाथी चले जाते हैं." निर्मला ने मुझे मायने के साथ-साथ अपनी ज़ुबान में वे लफ़्ज़ भी बताए, जो आप
क्लिक करेंयहां सुन सकते हैं.
निर्मला के दल में दस लोग हैं और सब उन्हीं के गाँव के आसपास के रहने वाले हैं.
आवाज़ के असर को लेकर सभी तरफ़दार नहीं. सिमडेगा के सामाजिक कार्यकर्ता नील जस्टिन बेक कहते हैं कि झारखंड में निर्मला काफ़ी लोकप्रिय हैं.
ख़ासतौर पर जंगलों से लगे उन इलाक़ों में, जहाँ हाथियों के झुंड खेतों में घुस आते हैं और फ़सलें बर्बाद कर देते हैं.
निर्मला और उनके साथ गए 10 नौजवानों ने हाथियों से बात कर उन्हें जंगल में वापस भेजा.
वे कहते हैं कि कभी-कभार जब हाथी गाँव में घुस आते हैं, तो निर्मला को बुलाया जाता है, जो अपनी टीम के साथ वहां पहुँचकर हाथियों सी बात कर "उन्हें वापस भेज" देती हैं.
लेडी टार्ज़न
नील का कहना है, "हाथी उनकी भाषा समझते हैं. वे उन्हें समझाती हैं और हाथी मान जाते हैं. अब कहीं भी अगर हाथियों का उत्पात होता है, तो लोग इलाक़े में वनविभाग को नहीं, बल्कि निर्मला और उसके दल को ही बुलाते हैं. कभी-कभी मज़ाक़ में हम उन्हें लेडी टार्ज़न कहकर भी बुलाते हैं."
मगर कई सामाजिक संगठन हाथी से बात करने वाली को अंधविश्वास मानते हैं. सामाजिक कार्यकर्ता रबी प्रधान कहते हैं कि ऐसी धारणा के पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है और विज्ञान इस बात का समर्थन नहीं करता है.
हाथियों के उत्पात के कारण ओडिशा और झारखंड के गांवों के लोगों की नींद हराम हो गई है.
उनका कहना था कि ये संभव है कि चूँकि निर्मला आदिवासी हैं और झारखंड के गाँवों की रहने वाली हैं, तो उन्हें वन्य जीवों को समझना शहर वालों से बेहतर आता होगा.
रबी कहते हैं, "आदिवासियों के अपने कुछ पारंपरिक तरीक़े भी होते हैं, जिसे हम नहीं समझ पाते. आदिवासियों को जंगली जानवरों के साथ रहने की आदत होती है. वे उनके तरीक़ों को बेहतर समझ सकते हैं क्योंकि सदियों से दोनों एकसाथ जंगल में रह रहे हैं."
निर्मला टोप्पो के दल से ओडिशा के वन विभाग के लोग काफ़ी कुछ सीख रहे हैं.
वन क्षेत्र अधिकारी ढोला का कहना है कि अब तक महकमे ने 20 ऐसे कर्मचारियों को तैयार किया है, जो निर्मला के दल की तरह ही हाथियों को भगाने में मदद करते हैं.
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