भारत के ईसाइयों द्वारा कन्वर्जन के क्रूर तथा वीभत्स प्रयास जारी हैं। सामान्यत: पाश्चात्य जगत तथा भारत में रिलीजन तथा धर्म को एक ही अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है जो सर्वथा गलत तथा अमान्य है। विदेशियों द्वारा प्रयुक्त रिलीजन में भी परस्पर कोई सम्यक चिंतन, समान विचार तथा एकरूपता नहीं है। किसी ने इसे पवित्र रोग कहा तो किसी ने इसे मस्तिष्क की बीमारी कहा। हॉब्स ने इसे राज्य द्वारा स्वीकृत अंधविश्वास, तो मार्क्स ने अफीम की पुडि़या तथा लेनिन ने आध्यात्मिक अंधविश्वास कहा। इसके विपरीत जर्मनी के कांट ने इसे नैतिकता कहा तो हीगेल ने स्वतंत्रता तथा फ्योरबेच ने मानवता की सबसे कीमती सामग्री माना।
भारत में धर्म को सदैव एक व्यापक तथा सर्वोच्च स्थान दिया गया। इसे 'मानव का कर्त्तव्य' कहा गया। मानव का कर्त्तव्य, व्यक्ति, परिवार, कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र, विश्व तथा चर-अचर के प्रति कर्त्तव्य बताया गया है। इसके लिए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का मार्ग बताया तथा जीवन का अंतिम लक्ष्य मानव कल्याण बताया।
कन्वर्जन मूलत: कोई नकारात्मक विचार नहीं है। हिन्दू धर्म में विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को धर्म की स्वतंत्रता की पूर्ण गारंटी दी गई है। कोई भी व्यक्ति विवेक, नैतिक तथा सैद्धांतिक चिंतन के आधार पर व्यक्तिगत रूप से अपनी आस्था के अनुसार कोई भी सम्प्रदाय, मत, पंथ उपासना एवं पूजा को अपना सकता है। भारत में प्राय: हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख आदि मतों, पंथों में यह प्रवृत्ति ही दृष्टिगोचर होती है। परंतु कन्वर्जन किसी योजना या संगठित प्रयास द्वारा छल-कपट, प्रलोभन, भय या आतंक से किया जाता है तो यह अवैध, अपराध तथा अभिशाप बन जाता है। यह राजनीतिक स्वार्थों से युक्त तथा मानसिक विकृतियों का पोषक बन जाता है। यह समाज में अलगाव तथा राष्ट्रद्रोह जगाता है। यह प्रत्येक स्तर पर अवैध तथा शर्मनाक है तथा आपराधिक श्रेणी में आता है।
इतिहास
भारत में 1760 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा छल-कपट से बंगाल पर कब्जा करते ही ईसाइयों द्वारा कन्वर्जन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। क्रमश: 1813 व 1833 के चार्टर एक्ट द्वारा पहले बंगाल में तथा बाद में संपूर्ण ब्रिटिश प्रभावित क्षेत्र में ईसाई मत प्रचार की कानूनी मान्यता ब्रिटिश संसद ने दी। भारत में ईसाई संस्थाओं का जाल फैल गया। परंतु वे भरसक प्रयत्न के पश्चात भी 1833 ई. तक कुल 1406 लोगों को ईसाई बना सके जो भारतीय जनसंख्या की दृष्टि से नगण्य था (देखें, के.पी. सेनगुप्त, द क्रिश्चियन मिशनरीज इन बंगाल 1793-1833) भारत में ब्रिटिश प्रशासकों, सेना के सर्वोच्च अधिकारियों, ब्रिटिश शिक्षाविदों तथा ईसाई पादरियों ने क्रूर तथा भौंडे ढंग से कन्वर्जन का मार्ग अपनाया। स्कूलों में बाइबिल पढ़ाई जाने लगी। ईसाई कन्वर्जन के लिए परंपरागत हिन्दू उत्तराधिकार नियम बदला तथा अब ईसाई बनने पर भी पूर्वजों की संपत्ति पर उनका अधिकार माना गया। राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, प्रताप चंद मजूमदार जैसे विद्वानों को भी ईसाई बनाने के असफल प्रयास हुए। एक आंकड़े के अनुसार 1850 ई. के प्रारंभ तक 91295 व्यक्तियाों का कन्वर्जन हुआ। धूर्त मैक्समूलर पादरी ने 25 अगस्त 1856 को ऑक्सफोर्ड से जर्मन विद्वान तथा कूटनीतिज्ञ वॉन बुनसन को एक पत्र में लिखा, 'भारत पूरी तरह से ईसाई देश होने के लिए उपयुक्त अवस्था में है।' उसने रानी विक्टोरिया को लिखा, 'हमने उनके पवित्र साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति को पूर्ण जड़हीन कर दिया है। परंतु अब भी ईसाइयत न फैले तो इसकी पूरी जिम्मेदारी ब्रिटिश प्रशासकों की होगी। सरकारी सर्कुलर द्वारा सरकारी कर्मचारियों को ईसाई बनने के लिए बाध्य किया। अंग्रेजों का भारत में प्रत्यक्ष शासन स्थापित हो गया परंतु संपूर्ण देश का ईसाई कन्वर्जन नहीं हुआ। कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति डब्ल्यू डब्ल्यू हण्टर ने अब भारत की जनजातियों के ईसाईकरण करने को कहा तथा उन्हें सहज प्राप्त होने वाला लक्ष्य बतलाया (देखें ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन पीपुल्स, लंदन 1882, पृ. 50)
बीसवीं शताब्दी में लोकमान्य तिलक तथा महात्मा गांधी ने विदेशी पादरियों के भारत आगमन तथा उनके द्वारा कन्वर्जन का कटु विरोध किया। गांधीजी ने ईसाइयों के इस कुप्रचार को बिल्कुल नकार दिया कि ईसाई पंथ ही एकमात्र सच्चा पंथ है या हिन्दू धर्म झूठा है (संपूर्ण गांधी वांगमय, खण्ड 35, पृ. 544-45, 24 नवम्बर 1927)। 1931 ई. में गांधीजी रोम के पोप से भी मिलने गये। परंतु भारत के पादरियों ने उसे पहले ही सूचित कर दिया था। अत: पोप गांधीजी से नहीं मिला। गांधीजी ने एक बार लिखा, 5000 विदेशी फादर प्रतिवर्ष 20 करोड़ रुपए भारत के हिन्दुओं के कन्वर्जन पर खर्च करते हैं। अब विश्वभर के 30,000 कैथोलिक आगामी नवम्बर (1937) में मुम्बई में इकट्ठा होंगे, जिनका उद्देश्य अधिक से अधिक भारतीयों पर विजय पाना है (देखें, हरिजन, 6 मार्च 1937) गांधीजी ईसाइयत को बीफ एण्ड बीयर बोटल्स क्रिश्चियनिटी कहते थे। उन्होंने भारत में ईसाई मिशनरियों के प्रयास का उद्देश्य हिन्दुत्व को जड़मूल से उखाड़कर उसके स्थान पर एक दूसरा मत थोपना कहा, उन्होंने यह भी कहा कि यदि मेरे पास विधान बनाने की शक्ति होती तो मैं निश्चय ही सभी प्रकार के कन्वर्जन पर प्रतिबंध लगा देता। इसी भांति देश के अन्य विद्वानों ने ईसाइयों के क्रूर प्रचार तथा कन्वर्जन की आलोचना की। महान दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा, ईसाई पंथ प्रचारकों ने मुझे श्रद्धाहीन बनाकर जिज्ञासा की उस प्राथमिक अवस्था में डाल दिया जहां से सभी दर्शनों का जन्म होता है। पं. श्रीराम शर्मा ने लिखा, भारत में पादरियों का पंथ प्रचार हिन्दू धर्म को मिटाने का खुला षड्यंत्र है। इससे पुन: आजादी की खतरे में होने की संभावना हो सकती है।
कांग्रेस शासन का सहयोग
स्वतंत्रता के पश्चात पं. नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत ईसाई गतिविधियों का स्वर्ग बन गया। समूचे ब्रिटिश काल में ईसाई कन्वर्जन इतनी तेजी से न हुआ था जितना भारत की स्वतंत्रता बाद के अर्द्धशतक में। विदेशी धन की भरमार तथा पादरियों के संगठन उभरे। भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 का खुले रूप से दुरुपयोग, हिन्दुत्व का प्रतिरोध, सेकुलरिज्म की मनमानी व्याख्या तथा ईसाई कन्वर्जन को सरकार का भरपूर सहयोग मिला। 14 अप्रैल 1955 की सात सदस्यीय न्यायामूर्ति निगम आयोग की 1956 ई. में प्रस्तुत रपट कूड़े की टोकरी में फेंक दी गई, इसमें कन्वर्जन के भ्रष्ट तथा अवैध तरीकों का भंडाफोड़ किया गया था।
इस समूचे काल में भारत के दो प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ अपवादस्वरूप दिखलाई देते हैं। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जब असम में ईसाइयों के सेवा प्रकल्पों को देखने गये तो उन्होंने उनके कार्यों की प्रशंसा की, साथ ही यह चेतावनी भी दी कि इन कार्यों का प्रयोग कन्वर्जन के लिए न करें। इस पर वहां के मुख्य पादरी ने तुरंत अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, अगर हम इन सबके लिए मानवता के विचार से प्रेरित होते, हमें इतनी दूर यहां आने की क्या आवश्यकता थी, क्यों हमने इतना सारा धन खर्च किया? हम यहां केवल इस कारण से आये हैं कि ईसा मसीह के अनुयायियों की संख्या बढ़ सके। भारत में दूसरा अपवाद भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई का है। 1979 में संसद सदस्य श्री ओम प्रकाश त्यागी ने लोकसभा में धर्म स्वातंत्र्य विधेयक प्रस्तुत किया जिसमें छल-कपट, भय तथा प्रलोभन द्वारा किसी प्रकार के कन्वर्जन को अपराध घोषित करने का प्रावधान था। इसके विरोध में 26 मार्च 1979 को मदर टेरेसा ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा जो किसी भी भारतीय के लिए चौंकाने वाला था। मदर टेरेसा ने लिखा, मैं निश्चित रूप से ईसा के नाम पर ही सेवा कर रही हूं। लोगों को प्रेम का संदेश देने आई हूं। लोगों को ईसाई बनाने पर यदि कोई प्रतिबंध लगाया जाता है तो हम इसे कभी सहन न करेंगे।' मदर टेरेसा ने मोरारजी देसाई पर व्यक्तिगत आक्षेप करते हुए लिखा, 'तुम बहुत बूढ़े हो चुके हो। कुछ वर्षों के बाद तुम्हें मर कर खुदा के पास इस चीज का जवाब देना पड़ेगा कि तुमने ईसाइयत के प्रसार पर प्रतिबंध क्यों लगाया।' उन्होंने मोरारजी को नरक में जाने का शाप भी दिया। इस पर मोरारजी देसाई ने बड़े संयम का परिचय देते हुए जवाब दिया, 'मैं आपकी सेवा भावना की प्रशंसा करता हूं किंतु सेवा के बहाने किसी का धर्म लूटने का अधिकार नहीं दे सकता।'
मदर टेरेसा की भांति रांची के फादर बुल्के ने अपनी भड़ास निकाली। मुंबई के पिंमेटा ने ईसाइयत का मिथ्या प्रचार किया। किल्फोर्ड मैंशर्दन ने अपनी पुस्तक में यह स्वीकार किया हमने धोखे से व्यक्तियों को अपना धर्म मानने को कहा (देखें, क्रिश्चियनिटी इन चेंजिग इंडिया)
इसी कालखण्ड में असम के क्षेत्र नागालैंड, मेघालय तथा मिजोरम ईसाई बाहुल्य क्षेत्र बन गए। नागालैंड के ईसाई समर्थक नागा ए.जे.डी. फिगो ने राष्ट्र विद्रोह कर दिया, वह इंग्लैंड भाग गया, जहां वहां के प्रसिद्ध पादरी मांझेल स्कॉट ने उसे सुरक्षा प्रदान की। झारखण्ड को ईसाई प्रांत बनाने के प्रयत्न हुए। केरल में ईसाई शासन स्थापित करने के प्रयत्न हुए। कन्वर्जन द्वारा ईसाइयों की जनसंख्या तेजी से बढ़ी। 1991-2001 के दशक में ईसाइयों की आबादी 23.13 प्रतिशत बढ़ी। 2001 की देश की जनगणना के अनुसार ईसाई जनसंख्या 2.5 प्रतिशत है। परंतु वर्ल्ड क्रिश्चियन ईसाई क्लोपीडिया के अनुसार भारत में ईसाइयों की जनसंख्या 6.5 प्रतिशत है। यह सत्य है कि ईसाई जनसंख्या का अनुमान केवल सरकारी आंकड़ों से नहीं लगाया जा सकता। भारत में क्रिप्टो ईसाइयों की संख्या बहुत है जिन्हें 'सीक्रेट बिलीवर्स' भी कहा जाता है। ये लोग नाम से हिन्दू हैं तथा छद्मवेश में ईसाइयत के लिए कार्य करते हैं। दुर्भाग्य से इनमें अनेक राजनीतिक, नौकरशाह तथा सरकारी अधिकारी भी भारी संख्या में हैं, जो हिन्दू होते हुए भी हिन्दुत्व को उसे धोखा देते हैं।
मिशनरी दौरे
पोप ने महात्मा गांधी से मिलने से इंकार कर दिया था। उसी पोप के अनुयायियों ने कन्याकुमारी में स्थित विवेकानंद स्मारक की पट्टिका उखाड़ फेंकी। उसी का भव्य स्वागत 1964 में मुंबई के 38 यूक्राइटिक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन कर तब की सेकुलर सरकार के सहयोग से किया गया। उल्लेखनीय है कि वे वेटिकन सिटी राष्ट्राध्यक्ष के रूप में नहीं बल्कि ईसाई पोप के रूप में भारत आये थे। उनके 25000 विदेशी फादर भी विश्व के विभिन्न देशों से आये थे।
मुम्बई के एक प्रसिद्ध पत्र ने इस सरकारी स्वागत का विस्तृत वर्णन किया है (ब्लिट्ज, दिसम्बर 1964) पोप ने अपने भाषण में कहा, विश्व में केवल एक ही पंथ सच्चा है, वह है 'क्रिश्चियनिटी अवैक' नामक पत्रिका में लिखा, जब ईसाइयत तथा देश की वफादारी में टकराव हो तो निश्चय ही सच्चे ईसाई को ईसा की आज्ञा माननी चाहिए (देखें ब्लिट्ज 15 फरवरी, 1965) पोप जॉन पॉल द्वितीय ने भारत की पहली यात्रा फरवरी 1986 में की। वे भी भारत में ईसाइयों के पोप के रूप में आये। उनका भव्य स्वागत तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी तथा उनकी पत्नी सोनिया गांधी ने किया। यात्रा के संबंध में पूर्व प्रधानमंत्री श्री चरण सिंह ने पूछा, राष्ट्राध्यक्ष के रूप में आये या ईसाई पंथ के गुरु के रूप में? चौधरी साहब को उत्तर मिला, राष्ट्राध्यक्ष के रूप में। चौधरी साहब ने पुन: पूछा, राष्ट्राध्यक्ष के लिए क्या कोई सरकारी बातचीत का कार्यक्रम था? उत्तर नदारद था।
यही पोप दूसरी बार नवम्बर 1999 में भारत की राजधानी दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में आये। उन्होंने भारत में कन्वर्जन का अपना एजेंडा घोषित किया, 'हम ईसा की पहली सहस्राब्दी में यूरोपीय महाद्वीप को चर्च की गोद में लाये, दूसरी सहस्राब्दी में हमने उत्तर और दक्षिण के महाद्वीपों व अफ्रीका में वर्चस्व स्थापित किया।
भौंडे तथा वीभत्स तरीके
भारत में बिखरे हजारों पादरियों का पाखण्ड उनके द्वारा चलाए हुए कान्वेंट स्कूलों, अनाथालयों तथा अस्पतालों से सामने आता है। देश विदेश में अनेक पादरियों के क्रूर तथा वीभत्स काले कारनामे नित्य समाचार पत्रों में आते रहते हैं। बेचारा पोप स्थान-स्थान पर जाकर क्षमा याचना करता नजर आता है। सेवा और ईश्वर मुक्ति के नाम पर कामुकता का नग्न प्रदर्शन होता है। उदाहरण के लिए भारत की जैसमी नाम की एक सिस्टर ने अपनी आत्मकथा (अमन : द ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए नन, पेइंग्विन, 2009) में अपने कटु अनुभव दिये हैं। इससे ईसाई पादरी द्वारा प्रत्येक लड़की या लड़के का चुम्बन लेकर साक्षात्कार करना, नर्सों से भेदभाव करना, नर्सों से पादरी द्वारा जबरदस्ती करना उन्हें चंदा लाने के लिए दबाव करना, शारीरिक प्रेम का पाठ पढ़ाना तथा इसे पवित्र ग्रंथों द्वारा उचित ठहराना पादरियों का छिपा एजेंडा बतलाया। जैसमी का मत है कि चर्च में सभी चीजें गुप्त हैं, न पारदर्शिता का कोई हिसाब-किताब है। सही अर्थों में नर्से पादरियों की गुलाम हैं।
समय की मांग
भारत में ईसाइयों की कन्वर्जन संबंधी, समाज विरोधी एवं राष्ट्रविरोधी गतिविधियों की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग बैठाया जाए। नियोगी आयेाग के सुझावों को गंभीरता से लिया जाए। संविधान की भावना के अनुकूल लोभ, लालच, धोखे, भय तथा आतंक या जबरदस्ती के विरुद्ध सख्त कानून बनाये जाएं। विदेशी धन को ईसाई कन्वर्जन के उपयोग से रोका जाए। दुराचारी पादरियों के लिए कठोर नियम हों, क्रिप्टो क्रिश्चियन या 'सीक्रेट बिलीवर्स' का पता
लगाया जाए।
राष्ट्रीय एकता, अखण्डता तथा स्वतंत्रता के लिए कानून आवश्यक हैं। जबरन कन्वर्जन पर प्रतिबंध लगाने के लिए लोकसभा में 27 फरवरी 2015 को शिवसेना के संसद सदस्य सदाशिव लोखंडे ने एक निजी विधेयक रखा। इसमें कहा गया है कि यह कानून उन लोगों पर नहीं लागू होगा जो स्वेच्छा से कन्वर्जन या अपने मूल धर्म में वापसी करेंगे। देखिए, इस विधेयक का भविष्य क्या होता है! -डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
भारत में धर्म को सदैव एक व्यापक तथा सर्वोच्च स्थान दिया गया। इसे 'मानव का कर्त्तव्य' कहा गया। मानव का कर्त्तव्य, व्यक्ति, परिवार, कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र, विश्व तथा चर-अचर के प्रति कर्त्तव्य बताया गया है। इसके लिए धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का मार्ग बताया तथा जीवन का अंतिम लक्ष्य मानव कल्याण बताया।
कन्वर्जन मूलत: कोई नकारात्मक विचार नहीं है। हिन्दू धर्म में विश्व के प्रत्येक व्यक्ति को धर्म की स्वतंत्रता की पूर्ण गारंटी दी गई है। कोई भी व्यक्ति विवेक, नैतिक तथा सैद्धांतिक चिंतन के आधार पर व्यक्तिगत रूप से अपनी आस्था के अनुसार कोई भी सम्प्रदाय, मत, पंथ उपासना एवं पूजा को अपना सकता है। भारत में प्राय: हिन्दू, जैन, बौद्ध, सिख आदि मतों, पंथों में यह प्रवृत्ति ही दृष्टिगोचर होती है। परंतु कन्वर्जन किसी योजना या संगठित प्रयास द्वारा छल-कपट, प्रलोभन, भय या आतंक से किया जाता है तो यह अवैध, अपराध तथा अभिशाप बन जाता है। यह राजनीतिक स्वार्थों से युक्त तथा मानसिक विकृतियों का पोषक बन जाता है। यह समाज में अलगाव तथा राष्ट्रद्रोह जगाता है। यह प्रत्येक स्तर पर अवैध तथा शर्मनाक है तथा आपराधिक श्रेणी में आता है।
इतिहास
भारत में 1760 ई. में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी द्वारा छल-कपट से बंगाल पर कब्जा करते ही ईसाइयों द्वारा कन्वर्जन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई। क्रमश: 1813 व 1833 के चार्टर एक्ट द्वारा पहले बंगाल में तथा बाद में संपूर्ण ब्रिटिश प्रभावित क्षेत्र में ईसाई मत प्रचार की कानूनी मान्यता ब्रिटिश संसद ने दी। भारत में ईसाई संस्थाओं का जाल फैल गया। परंतु वे भरसक प्रयत्न के पश्चात भी 1833 ई. तक कुल 1406 लोगों को ईसाई बना सके जो भारतीय जनसंख्या की दृष्टि से नगण्य था (देखें, के.पी. सेनगुप्त, द क्रिश्चियन मिशनरीज इन बंगाल 1793-1833) भारत में ब्रिटिश प्रशासकों, सेना के सर्वोच्च अधिकारियों, ब्रिटिश शिक्षाविदों तथा ईसाई पादरियों ने क्रूर तथा भौंडे ढंग से कन्वर्जन का मार्ग अपनाया। स्कूलों में बाइबिल पढ़ाई जाने लगी। ईसाई कन्वर्जन के लिए परंपरागत हिन्दू उत्तराधिकार नियम बदला तथा अब ईसाई बनने पर भी पूर्वजों की संपत्ति पर उनका अधिकार माना गया। राजा राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, प्रताप चंद मजूमदार जैसे विद्वानों को भी ईसाई बनाने के असफल प्रयास हुए। एक आंकड़े के अनुसार 1850 ई. के प्रारंभ तक 91295 व्यक्तियाों का कन्वर्जन हुआ। धूर्त मैक्समूलर पादरी ने 25 अगस्त 1856 को ऑक्सफोर्ड से जर्मन विद्वान तथा कूटनीतिज्ञ वॉन बुनसन को एक पत्र में लिखा, 'भारत पूरी तरह से ईसाई देश होने के लिए उपयुक्त अवस्था में है।' उसने रानी विक्टोरिया को लिखा, 'हमने उनके पवित्र साहित्य के माध्यम से भारतीय संस्कृति को पूर्ण जड़हीन कर दिया है। परंतु अब भी ईसाइयत न फैले तो इसकी पूरी जिम्मेदारी ब्रिटिश प्रशासकों की होगी। सरकारी सर्कुलर द्वारा सरकारी कर्मचारियों को ईसाई बनने के लिए बाध्य किया। अंग्रेजों का भारत में प्रत्यक्ष शासन स्थापित हो गया परंतु संपूर्ण देश का ईसाई कन्वर्जन नहीं हुआ। कलकत्ता विश्वविद्यालय के उपकुलपति डब्ल्यू डब्ल्यू हण्टर ने अब भारत की जनजातियों के ईसाईकरण करने को कहा तथा उन्हें सहज प्राप्त होने वाला लक्ष्य बतलाया (देखें ए हिस्ट्री ऑफ इंडियन पीपुल्स, लंदन 1882, पृ. 50)
बीसवीं शताब्दी में लोकमान्य तिलक तथा महात्मा गांधी ने विदेशी पादरियों के भारत आगमन तथा उनके द्वारा कन्वर्जन का कटु विरोध किया। गांधीजी ने ईसाइयों के इस कुप्रचार को बिल्कुल नकार दिया कि ईसाई पंथ ही एकमात्र सच्चा पंथ है या हिन्दू धर्म झूठा है (संपूर्ण गांधी वांगमय, खण्ड 35, पृ. 544-45, 24 नवम्बर 1927)। 1931 ई. में गांधीजी रोम के पोप से भी मिलने गये। परंतु भारत के पादरियों ने उसे पहले ही सूचित कर दिया था। अत: पोप गांधीजी से नहीं मिला। गांधीजी ने एक बार लिखा, 5000 विदेशी फादर प्रतिवर्ष 20 करोड़ रुपए भारत के हिन्दुओं के कन्वर्जन पर खर्च करते हैं। अब विश्वभर के 30,000 कैथोलिक आगामी नवम्बर (1937) में मुम्बई में इकट्ठा होंगे, जिनका उद्देश्य अधिक से अधिक भारतीयों पर विजय पाना है (देखें, हरिजन, 6 मार्च 1937) गांधीजी ईसाइयत को बीफ एण्ड बीयर बोटल्स क्रिश्चियनिटी कहते थे। उन्होंने भारत में ईसाई मिशनरियों के प्रयास का उद्देश्य हिन्दुत्व को जड़मूल से उखाड़कर उसके स्थान पर एक दूसरा मत थोपना कहा, उन्होंने यह भी कहा कि यदि मेरे पास विधान बनाने की शक्ति होती तो मैं निश्चय ही सभी प्रकार के कन्वर्जन पर प्रतिबंध लगा देता। इसी भांति देश के अन्य विद्वानों ने ईसाइयों के क्रूर प्रचार तथा कन्वर्जन की आलोचना की। महान दार्शनिक डॉ. राधाकृष्णन ने लिखा, ईसाई पंथ प्रचारकों ने मुझे श्रद्धाहीन बनाकर जिज्ञासा की उस प्राथमिक अवस्था में डाल दिया जहां से सभी दर्शनों का जन्म होता है। पं. श्रीराम शर्मा ने लिखा, भारत में पादरियों का पंथ प्रचार हिन्दू धर्म को मिटाने का खुला षड्यंत्र है। इससे पुन: आजादी की खतरे में होने की संभावना हो सकती है।
कांग्रेस शासन का सहयोग
स्वतंत्रता के पश्चात पं. नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी तथा राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत ईसाई गतिविधियों का स्वर्ग बन गया। समूचे ब्रिटिश काल में ईसाई कन्वर्जन इतनी तेजी से न हुआ था जितना भारत की स्वतंत्रता बाद के अर्द्धशतक में। विदेशी धन की भरमार तथा पादरियों के संगठन उभरे। भारत के संविधान के अनुच्छेद 25 का खुले रूप से दुरुपयोग, हिन्दुत्व का प्रतिरोध, सेकुलरिज्म की मनमानी व्याख्या तथा ईसाई कन्वर्जन को सरकार का भरपूर सहयोग मिला। 14 अप्रैल 1955 की सात सदस्यीय न्यायामूर्ति निगम आयोग की 1956 ई. में प्रस्तुत रपट कूड़े की टोकरी में फेंक दी गई, इसमें कन्वर्जन के भ्रष्ट तथा अवैध तरीकों का भंडाफोड़ किया गया था।
इस समूचे काल में भारत के दो प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ अपवादस्वरूप दिखलाई देते हैं। भारत के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जब असम में ईसाइयों के सेवा प्रकल्पों को देखने गये तो उन्होंने उनके कार्यों की प्रशंसा की, साथ ही यह चेतावनी भी दी कि इन कार्यों का प्रयोग कन्वर्जन के लिए न करें। इस पर वहां के मुख्य पादरी ने तुरंत अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा, अगर हम इन सबके लिए मानवता के विचार से प्रेरित होते, हमें इतनी दूर यहां आने की क्या आवश्यकता थी, क्यों हमने इतना सारा धन खर्च किया? हम यहां केवल इस कारण से आये हैं कि ईसा मसीह के अनुयायियों की संख्या बढ़ सके। भारत में दूसरा अपवाद भारत के एक पूर्व प्रधानमंत्री श्री मोरारजी देसाई का है। 1979 में संसद सदस्य श्री ओम प्रकाश त्यागी ने लोकसभा में धर्म स्वातंत्र्य विधेयक प्रस्तुत किया जिसमें छल-कपट, भय तथा प्रलोभन द्वारा किसी प्रकार के कन्वर्जन को अपराध घोषित करने का प्रावधान था। इसके विरोध में 26 मार्च 1979 को मदर टेरेसा ने प्रधानमंत्री को एक पत्र लिखा जो किसी भी भारतीय के लिए चौंकाने वाला था। मदर टेरेसा ने लिखा, मैं निश्चित रूप से ईसा के नाम पर ही सेवा कर रही हूं। लोगों को प्रेम का संदेश देने आई हूं। लोगों को ईसाई बनाने पर यदि कोई प्रतिबंध लगाया जाता है तो हम इसे कभी सहन न करेंगे।' मदर टेरेसा ने मोरारजी देसाई पर व्यक्तिगत आक्षेप करते हुए लिखा, 'तुम बहुत बूढ़े हो चुके हो। कुछ वर्षों के बाद तुम्हें मर कर खुदा के पास इस चीज का जवाब देना पड़ेगा कि तुमने ईसाइयत के प्रसार पर प्रतिबंध क्यों लगाया।' उन्होंने मोरारजी को नरक में जाने का शाप भी दिया। इस पर मोरारजी देसाई ने बड़े संयम का परिचय देते हुए जवाब दिया, 'मैं आपकी सेवा भावना की प्रशंसा करता हूं किंतु सेवा के बहाने किसी का धर्म लूटने का अधिकार नहीं दे सकता।'
मदर टेरेसा की भांति रांची के फादर बुल्के ने अपनी भड़ास निकाली। मुंबई के पिंमेटा ने ईसाइयत का मिथ्या प्रचार किया। किल्फोर्ड मैंशर्दन ने अपनी पुस्तक में यह स्वीकार किया हमने धोखे से व्यक्तियों को अपना धर्म मानने को कहा (देखें, क्रिश्चियनिटी इन चेंजिग इंडिया)
इसी कालखण्ड में असम के क्षेत्र नागालैंड, मेघालय तथा मिजोरम ईसाई बाहुल्य क्षेत्र बन गए। नागालैंड के ईसाई समर्थक नागा ए.जे.डी. फिगो ने राष्ट्र विद्रोह कर दिया, वह इंग्लैंड भाग गया, जहां वहां के प्रसिद्ध पादरी मांझेल स्कॉट ने उसे सुरक्षा प्रदान की। झारखण्ड को ईसाई प्रांत बनाने के प्रयत्न हुए। केरल में ईसाई शासन स्थापित करने के प्रयत्न हुए। कन्वर्जन द्वारा ईसाइयों की जनसंख्या तेजी से बढ़ी। 1991-2001 के दशक में ईसाइयों की आबादी 23.13 प्रतिशत बढ़ी। 2001 की देश की जनगणना के अनुसार ईसाई जनसंख्या 2.5 प्रतिशत है। परंतु वर्ल्ड क्रिश्चियन ईसाई क्लोपीडिया के अनुसार भारत में ईसाइयों की जनसंख्या 6.5 प्रतिशत है। यह सत्य है कि ईसाई जनसंख्या का अनुमान केवल सरकारी आंकड़ों से नहीं लगाया जा सकता। भारत में क्रिप्टो ईसाइयों की संख्या बहुत है जिन्हें 'सीक्रेट बिलीवर्स' भी कहा जाता है। ये लोग नाम से हिन्दू हैं तथा छद्मवेश में ईसाइयत के लिए कार्य करते हैं। दुर्भाग्य से इनमें अनेक राजनीतिक, नौकरशाह तथा सरकारी अधिकारी भी भारी संख्या में हैं, जो हिन्दू होते हुए भी हिन्दुत्व को उसे धोखा देते हैं।
मिशनरी दौरे
पोप ने महात्मा गांधी से मिलने से इंकार कर दिया था। उसी पोप के अनुयायियों ने कन्याकुमारी में स्थित विवेकानंद स्मारक की पट्टिका उखाड़ फेंकी। उसी का भव्य स्वागत 1964 में मुंबई के 38 यूक्राइटिक अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का आयोजन कर तब की सेकुलर सरकार के सहयोग से किया गया। उल्लेखनीय है कि वे वेटिकन सिटी राष्ट्राध्यक्ष के रूप में नहीं बल्कि ईसाई पोप के रूप में भारत आये थे। उनके 25000 विदेशी फादर भी विश्व के विभिन्न देशों से आये थे।
मुम्बई के एक प्रसिद्ध पत्र ने इस सरकारी स्वागत का विस्तृत वर्णन किया है (ब्लिट्ज, दिसम्बर 1964) पोप ने अपने भाषण में कहा, विश्व में केवल एक ही पंथ सच्चा है, वह है 'क्रिश्चियनिटी अवैक' नामक पत्रिका में लिखा, जब ईसाइयत तथा देश की वफादारी में टकराव हो तो निश्चय ही सच्चे ईसाई को ईसा की आज्ञा माननी चाहिए (देखें ब्लिट्ज 15 फरवरी, 1965) पोप जॉन पॉल द्वितीय ने भारत की पहली यात्रा फरवरी 1986 में की। वे भी भारत में ईसाइयों के पोप के रूप में आये। उनका भव्य स्वागत तत्कालीन भारत के प्रधानमंत्री राजीव गांधी तथा उनकी पत्नी सोनिया गांधी ने किया। यात्रा के संबंध में पूर्व प्रधानमंत्री श्री चरण सिंह ने पूछा, राष्ट्राध्यक्ष के रूप में आये या ईसाई पंथ के गुरु के रूप में? चौधरी साहब को उत्तर मिला, राष्ट्राध्यक्ष के रूप में। चौधरी साहब ने पुन: पूछा, राष्ट्राध्यक्ष के लिए क्या कोई सरकारी बातचीत का कार्यक्रम था? उत्तर नदारद था।
यही पोप दूसरी बार नवम्बर 1999 में भारत की राजधानी दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू स्टेडियम में आये। उन्होंने भारत में कन्वर्जन का अपना एजेंडा घोषित किया, 'हम ईसा की पहली सहस्राब्दी में यूरोपीय महाद्वीप को चर्च की गोद में लाये, दूसरी सहस्राब्दी में हमने उत्तर और दक्षिण के महाद्वीपों व अफ्रीका में वर्चस्व स्थापित किया।
भौंडे तथा वीभत्स तरीके
भारत में बिखरे हजारों पादरियों का पाखण्ड उनके द्वारा चलाए हुए कान्वेंट स्कूलों, अनाथालयों तथा अस्पतालों से सामने आता है। देश विदेश में अनेक पादरियों के क्रूर तथा वीभत्स काले कारनामे नित्य समाचार पत्रों में आते रहते हैं। बेचारा पोप स्थान-स्थान पर जाकर क्षमा याचना करता नजर आता है। सेवा और ईश्वर मुक्ति के नाम पर कामुकता का नग्न प्रदर्शन होता है। उदाहरण के लिए भारत की जैसमी नाम की एक सिस्टर ने अपनी आत्मकथा (अमन : द ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए नन, पेइंग्विन, 2009) में अपने कटु अनुभव दिये हैं। इससे ईसाई पादरी द्वारा प्रत्येक लड़की या लड़के का चुम्बन लेकर साक्षात्कार करना, नर्सों से भेदभाव करना, नर्सों से पादरी द्वारा जबरदस्ती करना उन्हें चंदा लाने के लिए दबाव करना, शारीरिक प्रेम का पाठ पढ़ाना तथा इसे पवित्र ग्रंथों द्वारा उचित ठहराना पादरियों का छिपा एजेंडा बतलाया। जैसमी का मत है कि चर्च में सभी चीजें गुप्त हैं, न पारदर्शिता का कोई हिसाब-किताब है। सही अर्थों में नर्से पादरियों की गुलाम हैं।
समय की मांग
भारत में ईसाइयों की कन्वर्जन संबंधी, समाज विरोधी एवं राष्ट्रविरोधी गतिविधियों की जांच के लिए एक न्यायिक आयोग बैठाया जाए। नियोगी आयेाग के सुझावों को गंभीरता से लिया जाए। संविधान की भावना के अनुकूल लोभ, लालच, धोखे, भय तथा आतंक या जबरदस्ती के विरुद्ध सख्त कानून बनाये जाएं। विदेशी धन को ईसाई कन्वर्जन के उपयोग से रोका जाए। दुराचारी पादरियों के लिए कठोर नियम हों, क्रिप्टो क्रिश्चियन या 'सीक्रेट बिलीवर्स' का पता
लगाया जाए।
राष्ट्रीय एकता, अखण्डता तथा स्वतंत्रता के लिए कानून आवश्यक हैं। जबरन कन्वर्जन पर प्रतिबंध लगाने के लिए लोकसभा में 27 फरवरी 2015 को शिवसेना के संसद सदस्य सदाशिव लोखंडे ने एक निजी विधेयक रखा। इसमें कहा गया है कि यह कानून उन लोगों पर नहीं लागू होगा जो स्वेच्छा से कन्वर्जन या अपने मूल धर्म में वापसी करेंगे। देखिए, इस विधेयक का भविष्य क्या होता है! -डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
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