Saturday, 22 August 2015

इतिहास की पुस्तकों में क्यों ‘अनाथ’ बनी रही रानी गाइदिन्लयू?


उत्तर प्रदेष के झांसी और मणिपुर के नुंगका के बीच लगभग ढ़ाई हजार कि.मी. की दूरी है. परन्तु इतिहास की दो घटनाओं ने इस दूरी को शून्य में तब्दील कर दिया. 1857 की भारतीय स्वतंत्रता के संग्राम में झांसी की महारानी लक्ष्मीबाई ने अंग्रेजों के छक्के छुड़ा दिए और उन्हें शहादत मिली. एक दूसरी विरांगना उत्तर-पूर्व भारत की है. मणिपुर के नांगुका गांव की रानी गाइदिन्लयू. मात्र 13 वर्ष की उम्र में वह अंग्रेजी हुकूमत के लिए सिरदर्द बन गई और 16 साल की उम्र में उन पर साम्राज्यवाद को चुनौती देने, साम्राज्यवाद के खिलाफ लोगों को भड़काने का मुकदमा चला. ब्रिटिष हुकूमत ने असम राइफल रेजिमेंट को गाइदिन्लयू को पकड़ने का जिम्मा सौंपा.

17 अक्टूबर, 1932 में वह गिरफ्तार हुई. उन्हें आजीवन कारावास की सजा दी गई. वह 15 वर्षों तक जेल में रही और स्वतंत्रता के पश्चात 14 अक्टूबर 1947 को रिहा हुई.  गाइदिन्लयू जेल में भी बिजली की तरह कौंधती थी. गाइदिन्लयू का जन्म अति साधारण परिवार में हुआ था. लोग राजघराने में पैदा होकर राजा-रानी बनते हैं तो कुछ ऐसे अपवाद होते हैं जो कुटिया में पैदा होकर भी अपने व्यक्तित्व एवं कर्तृत्व से लोगों के दिलों में राजा-रानी बन जाते हैं. गाइदिन्लयू उन्हीं में एक थीं. उनकी गिरफ्तारी के पांच वर्षों के बाद जेल में उनसे जवाहरलाल नेहरू मिलने गए. वे गाइदिन्लयू को देखकर हतप्रभ हो गए और पंडित नेहरू ने ही उन्हें “रानी“ कहा और पूरा देश ने उन्हें “रानी मां“ कहा.


प्रेरणा का स्त्रोत गाइदिन्लयू बाल्यकाल से ही हाइपाउ जादोनांग से अत्यधिक प्रभावित थी. वह उनकी रिष्ते में भाई थे. उन्होंने धर्म सुधार और स्वतंत्रता आंदोलन को जोड़कर जनजातियों को साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन में जुड़ने के लिए प्रेरित किया. उनके इस आंदोलन का नाम था हरेका आंदोलन. यह आंदोलन लोकप्रिय होने लगा. जिस प्रकार बाल गंगाधर तिलक ने धार्मिक संकेतों व भावनाओं का सकारात्मक एवं प्रगतिषील उपयोग साम्राज्यवाद मुक्ति आंदोलन को संपुष्ट करने एवं इसके सामाजिक आधार को कुलीनों से आमलोगों तक ले जाने के लिए किया था लगभग ठीक उसी तरह पहले जादोनांग एवं बाद में रानी गाइदिन्लयू ने साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन के सामाजिक आधार का विस्तार जनजातियों के बीच करने का काम किया. साम्राज्यवादी भारत की जनजातियों को स्वतंत्रता संघर्ष से नहीं जुड़ने देना चाहते थे. इसके लिए हर प्रकार का षडयंत्र एवं जुल्म का सहारा लिया. झारखंड में जब बिरसा मुंडा ने जनजातियों में देष भक्ति और साम्राज्यवाद विरोध की अलख जगाई थी तब भी ब्रिटिष राज उद्वेलित और परेषान था. रानी गाइदिन्लयू और बिरसा को पकड़ने के लिए जुल्म के साथ-साथ छल कपट का सहारा लिया. धोखे में इन दोनों को पकड़ा गया था.
 दोनों ही अपने क्षेत्र के अस्मिता के प्रतीक बन गए. बिरसा को भगवान माना गया तो गाइदिन्लयू को स्थानीय लोगों ने देवी चेराचाम्दीनल्यू का अवतार माना. लेकिन स्वतंत्र भारत के इतिहासकारों ने रानी गाइदिन्लयू को इतिहास में जगह नहीं दी और दी तो ऐसे जैसे खानापूर्ति की जा रही हो. देष ने अपनी स्वतंत्रता का जब पचासवां वर्षगांठ 1997 में मनाया तो गाइदिन्लयू का कही नामोनिषान नहीं था. उम्मीद है कि इस शताब्दी वर्ष में हम उनके जीवन चरित्र से प्रेरणा लेंगे. तभी तो इतिहास के छात्रों से सवाल करने पर कि गाइदिन्लयू कौन थी? निराषा हाथ लगती है. चयनित तथ्यों और पूर्वाग्रही कलम से बनी इतिहास की पुस्तकों की उपयोगिता प्रतियोगिता परीक्षा के पाठ्यक्रम मात्र तक रह गई. इतिहास को कुछ चुने हुए नायकों और घटनाओं के ईर्द-गिर्द इस प्रकार बंदी बनाकर रखा गया कि लाखों हिन्दुस्तानियों का तप, त्याग और बलिदान इतिहास की पृष्ठों के हासिये में सिमटा दिया गया. और यही रानी गाइदिन्लयू के साथ भी हुआ.

एक और तथ्य उल्लेखनीय है. उन्हें पद्म विभूषण तो मिला परंतु उनका अंतिम समय अकेलेपन, निराषा, उपेक्षा एवं विरोध के बीच बीता. इसका कारण था ईसाई मिषनरियों का विरोध. वे रानी गाइदिन्लयू के आध्यात्मिक सुधार के विरोधी थे. 1930 से 1990 तक नागा क्षेत्र में जनसंख्या का धार्मिक संरचना बदल चुकी थी. जहां 30 के दषक में मात्र 12 प्रतिषत ईसाई जनसंख्या थी वहीं 1980-90 के दषक में 90 प्रतिषत हो गई. उनकी मृत्यु 17 फरवरी, 1993 में हुई. वह एक असाधारण महिला थी और उनकी देषभक्ति की विलक्षणता उस सूर्य के तप के समान है जो पीढि़यों को देषभक्ति की उष्मा का संचार करती रहेगी. प्रकृति की अपनी योजना होती है और वह योजना रानी गाइदिन्लयू के संबंध में भी दिखाई पड़ता है. जिस दिन भारत का गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) है, वही दिन उनका जन्मदिन भी है. आज इतिहास की पुस्तकों में ऐसे अनेक नायक हैं जो साम्राज्यवाद विरोधी तो थे परंतु देष की लोकप्रिय संस्कृति के विपरीत उनका व्यवहार, जीवन दर्षन था, ‘स्व’ के लिए स्वदेष को पीछे छोड़ते रहे. और वे इतिहास की पुस्तकों में आवष्यकता से अधिक जगह मिली है. सुभाष चन्द्र बोस, डाॅ. हेडगेवार, रानी गाइदिन्लयू, भगत सिंह उन शूरमाओं में थे जिनके जीवन में ‘स्व’ और ‘स्वदेष’ के बीच कोई अंतर नहीं था. यही कारण है कि माक्र्सवादी-नेहरूवादियों के चयनित तथ्यों वाला इतिहास इन्हें लोगों के मानस पटल और हृदय में रेखांकित होने से नहीं रोक पाया.

राजघराने से लेकर कुटिया तक देशभक्ति की अविरल धारा का प्रवाह होता रहा है. एक ओर जहां उत्तर में झांसी की रानी थी, तो दक्षिण में रानी चेनेम्मा. मध्य भारत में रानी दुर्गावती तो उत्तर-पूर्व में रानी गाइदिन्लयू. भारत मां की अराधना में इन्होंने जो संघर्ष की फौलादी गाथा लिखी है वह पीढि़यों को प्रभावित, उत्साहित और जागृत करती रहेगी.

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