दुनिया की सबसे लंबी सुरंग स्विटजरलैंड में तैयार
स्वीट्जरलैंड के इंजीनियरों ने दुनिया की सबसे लंबी सुरंग तैयार कर दी । एप्ल्स के बर्फीले पहाड़ों के भीतर 57 किलोमीटर लंबी सुरंग को लाइव टेलीकास्ट के साथ दुनिया के सामने पेश किया. सुरंग से जर्मनी टू इटली का शॉर्टकट बना.आखिरी चरण के काम में शुक्रवार को इंजीनियर के सामने एक चट्टान आई. डेढ़ मीटर मोटी इस चट्टान को टनल बोरिंग मशीन से धराशाई करते ही उजाला दिखने लगा. इस तरह तालियों की गड़गड़ाहट के बीच सुरंग बनाने का काम पूरा हुआ. इस ऐतिहासिक पल के गवाह यूरोप के ज्यादातर देशों के परिवहन मंत्री भी बने.पूरे पश्चिमी यूरोप में सुरंग निर्माण के आखिरी चरण का लाइव टेलीकास्ट किया गया. सुरंग को गोटहार्ड टनल का नाम दिया गया है. 35.4 मील यानी 57 किलोमीटर लंबी यह सुरंग रेल गाड़ियों के लिए बनाई गई है. सुरंग यूरोप की सबसे ऊंचे एल्प्स पहाड़ों के अंदर ही अंदर बनाई गई है. इसकी मदद से जर्मनी शॉर्ट कट से इटली से जुड़ जाएगा. प्रोजेक्ट से जुड़े अधिकारियों का कहना है कि 2017 से सुरंग में ट्रेनें 250 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से दौड़ने लगेंगी. हर रोज 300 ट्रेनें सुरंग से गुजर सकेंगी.एल्प्स के पहाड़ों को भेदा14 साल से चल रही इस बड़ी परियोजना में अब तक 10 अरब डॉलर से ज्यादा खर्च हो चुके हैं. स्विटजरलैंड के परिवहन मंत्री मोरित्स लेउएनबर्गर कहते हैं, ''दुनिया की किसी भी दूसरी सुंरग की तुलना में गोटहार्ड हमेशा ज्यादा आर्कषक रहेगी.'' गोटहार्ड प्रोजेक्ट से 2,500 लोग जुड़े रहे. निर्माण के दौरान हुई दुर्घटनाओं में आठ लोगों की मौत हुई. लेकिन शुक्रवार का दिन राह में जुदा हुई जिंदगियों को याद करने, आपस में गले लगने और जोरदार पार्टी वाला रहा.इससे पहले सबसे लंबी सुरंग बनाने का श्रेय जापान के पास था. जापान में संमदर के भीतर 53.8 किलोमीटर लंबी सुरंग है. यह होनशु और होकाइदो द्वीपों को जोड़ती है. इसके बाद यूरो टनल का नंबर आता है. 50 किलोमीटर लंबी यूरो टनल भी समुद्र केअंदर ही अंदर फ्रांस और ब्रिटेन को जोड़ती है।
#साभार रेडियो डायचे वैले जर्मनी...
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प्रतापी राजा कृष्णदेव राय
एक के बाद एक लगातार हमले कर विदेशी मुस्लिमों ने भारत के उत्तर में अपनी जड़ंे जमा ली थीं। अलाउद्दीन खिलजी ने मलिक काफूर को एक बड़ी सेना देकर दक्षिण भारत जीतने के लिए भेजा। 1306 से 1315 ई. तक इसने दक्षिण में भारी विनाश किया। ऐसी विकट परिस्थिति में हरिहर और बुक्का राय नामक दो वीर भाइयों ने 1336 में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना की।
इन दोनों को बलात् मुसलमान बना लिया गया था; पर माधवाचार्य ने इन्हें वापस हिन्दू धर्म में लाकर विजयनगर साम्राज्य की स्थापना करायी। लगातार युद्धरत रहने के बाद भी यह राज्य विश्व के सर्वाधिक धनी और शक्तिशाली राज्यों में गिना जाता था। इस राज्य के सबसे प्रतापी राजा हुए कृष्णदेव राय। उनका राज्याभिषेक 8 अगस्त, 1509 को हुआ था।
महाराजा कृष्णदेव राय हिन्दू परम्परा का पोषण करने वाले लोकप्रिय सम्राट थे। उन्होंने अपने राज्य में हिन्दू एकता को बढ़ावा दिया। वे स्वयं वैष्णव पन्थ को मानते थे; पर उनके राज्य में सब पन्थों के विद्वानों का आदर होता था। सबको अपने मत के अनुसार पूजा करने की छूट थी। उनके काल में भ्रमण करने आये विदेशी यात्रियों ने अपने वृत्तान्तों में विजयनगर साम्राज्य की भरपूर प्रशंसा की है। इनमें पुर्तगाली यात्री डोमिंगेज पेइज प्रमुख है।
महाराजा कृष्णदेव राय ने अपने राज्य में आन्तरिक सुधारों को बढ़ावा दिया। शासन व्यवस्था को सुदृढ़ बनाकर तथा राजस्व व्यवस्था में सुधार कर उन्होंने राज्य को आर्थिक दृष्टि से सबल और समर्थ बनाया। विदेशी और विधर्मी हमलावरों का संकट राज्य पर सदा बना रहता था, अतः उन्होंने एक विशाल और तीव्रगामी सेना का निर्माण किया। इसमें सात लाख पैदल, 22,000 घुड़सवार और 651 हाथी थे।
महाराजा कृष्णदेव राय को अपने शासनकाल में सबसे पहले बहमनी सुल्तान महमूद शाह के आक्रमण का सामना करना पड़ा। महमूद शाह ने इस युद्ध को ‘जेहाद’ कह कर सैनिकों में मजहबी उन्माद भर दिया; पर कृष्णदेव राय ने ऐसा भीषण हमला किया कि महमूद शाह और उसकी सेना सिर पर पाँव रखकर भागी। इसके बाद उन्होंने कृष्णा और तुंगभद्रा नदी के मध्य भाग पर अधिकार कर लिया। महाराजा की एक विशेषता यह थी कि उन्होंने अपने जीवन में लड़े गये हर युद्ध में विजय प्राप्त की।
महमूद शाह की ओर से निश्चिन्त होकर राजा कृष्णदेव राय ने उड़ीसा राज्य को अपने प्रभाव क्षेत्र में लिया और वहाँ के शासक को अपना मित्र बना लिया। 1520 में उन्होंने बीजापुर पर आक्रमण कर सुल्तान यूसुफ आदिलशाह को बुरी तरह पराजित किया। उन्होंने गुलबर्गा के मजबूत किले को भी ध्वस्त कर आदिलशाह की कमर तोड़ दी। इन विजयों से सम्पूर्ण दक्षिण भारत में कृष्णदेव राय और हिन्दू धर्म के शौर्य की धाक जम गयी।
महाराजा के राज्य की सीमाएँ पूर्व में विशाखापट्टनम, पश्चिम में कोंकण और दक्षिण में भारतीय प्रायद्वीप के अन्तिम छोर तक पहुँच गयी थीं। हिन्द महासागर में स्थित कुछ द्वीप भी उनका आधिपत्य स्वीकार करते थे। राजा द्वारा लिखित ‘आमुक्त माल्यदा’ नामक तेलुगू ग्रन्थ प्रसिद्ध है। राज्य में सर्वत्र शान्ति एवं सुव्यवस्था के कारण व्यापार और कलाओं का वहाँ खूब विकास हुआ।
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