Wednesday, 21 September 2016

1897 में अधीन भारत की उत्तर पश्चिम सीमा पर सारग्राही नाम के एक छोटे से गाँव में रणनीति के दृष्टिकोण से एक महत्वपूर्ण दुर्ग स्थित था। वहाँ के कबाइली बाग़ी हमलों से दुर्ग की रक्षा का दायित्व 36th Sikh रेजिमेंट के 21 सिख जवानों को सौंपा गया। 12 सितम्बर, 1897 को जो वहाँ घटित हुआ वह आज भी विश्व में साहस और सेवानिष्ठा की उपमा के रूप में प्रयोग किया जाता है। 
उस दिन तड़के ही कबाइली बाग़ियों के एक विशाल दल ने सारग्राही दुर्ग पर हमला बोल दिया। अनुमानित है कि आक्रमणकर्ता 10,000 से 20,000 की संख्या में थे। 19 वर्षीय गुरमुख सिंह रेजिमेंट के सबसे कम आयु के सैनिक थे। उन्होंने तत्काल सैन्य प्रबलीकरण के सन्देश भेजे, जिसका उत्तर नकारात्मक आया, क्योंकि इतने बड़े स्तर के आक्रमण में सहायता किसी काम ना आती। निश्चित मृत्यु को प्रत्यक्ष देख रेजिमेंट के सभी सैनिकों ने निर्णय लिया कि आत्मसमर्पण कोई विकल्प नहीं।
सभी समीकरणों को धता बताते हुए दुर्ग की रक्षापंक्ति सक्रीय हो उठी, और आक्रमण का प्रत्युत्तर दिया जाने लगा। भीषण हमलों के बीच दुर्ग क्षतिग्रस्त होता रहा, और जवान प्रत्युत्तर देते रहे। उधर तीखे और सधे हुए जवाबी हमले से कबाइली दल को अनपेक्षित हानि होने लगी। हमला और तीव्र हो गया और कई घंटों के संघर्ष के उपरान्त दुर्ग की एक दीवार ढह गयी और दुश्मन को अंदर आने का अवसर मिल गया। अन्दर पाँच सिख जवान अभी जीवित बचे थे और फिर आमने सामने की लड़ाई हाथों से शुरू हो गयी। कहा जाता है कि अंतिम जीवित सिख जवान गुरमुख सिंह ने अकेले 20 कबालियों को मौत के घाट उतार दिया। अंततः कबालियों ने दुर्ग में आग लगा कर गुरमुख सिंह को मृत्यु के सुपुर्द कर दिया। "जो बोले सो निहाल, सत श्री अकाल" की युद्ध ललकार से जो दुर्ग गूँज रहा था, वह अब शान्त हो चुका था। मगर सहस्रों कबालियों के प्राण हरने के साथ ही साथ उन वीर सिखों ने आक्रमणकर्ताओं का आवेग भी तोड़ दिया। घंटों चले इस संघर्ष से यह अभियान विफल हुआ, और दो दिन के पश्चात वह दुर्ग पुनः सेना के कब्ज़े में आ गया।
वीरता की यह गाथा विश्व में आग की तरह फैली। यहाँ तक कि अंग्रेजी संसद को बीच में रोक कर सांसदों ने खड़े हो कर सम्मान दिया।
इस ऐतिहासिक तिथि पर आइये इन महावीरों को याद करें।

genaral v k singh

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