Thursday 22 September 2016

Mohan Bhagwat ji
"सत्य को अभिव्यक्ति के लिए न तो किसी स्वीकृति की आवश्यकता होती है और न ही किसी के अनुमति की क्योंकि वह तो यथार्थ होता है, ऐसे में, अगर किसी को सत्य या उसकी अभिव्यक्ति से समस्या हो तो आप क्या कहेंगे?
यही न… की जीवन शैली के लिए धर्म की गुणात्मकता से अधिक बहुमत का गणनात्मक आधार निर्णायक हो गया है ; ऐसा तभी होता है जब सामाजिक जीवन व्यवहारिकता के नाम पर अपना वैचारिक स्तर खो दे क्योंकि तभी सत्य भी बहुमत के समर्थन, समझ और सुविधा द्वारा तय होता है।
इसे जीवन पर अनुकूलन का प्रभाव नहीं तो और क्या कहेंगे जो हम सतत व धीमी गति से चल रहे हमारे सामाजिक व् वैचारिक पतन की प्रक्रिया के आज इतने अभ्यस्त हो चुकें है की हम वर्त्तमान के परिस्थितियों के सन्दर्भ में आवश्यक प्रतिक्रिया करने के लायक भी नहीं रहे ; तभी, आज हम अपने सामाजिक जीवन में सहुलीयत के नाम पर विषमता, भ्रस्टाचार और सिद्धान्तों के समझौते के इतने अभ्यस्त हो चुके हैं की परिवर्तन का प्रयास ही हमारे लिए समस्या बन गयी है। ऐसा इसलिए क्योंकि भ्रस्टाचार भी हमारे लिए तभी समस्या होती है जब हम उसके शोषण का पात्र बनते हैं, अन्यथा, व्यावहारिक जीवन में सहूलयतों के नाम पर भ्रस्टाचार तो कब से हमारी स्वीकृत जीवनशैली है जिससे किसी को कोई शिकायत नहीं !
वास्तव में देखा जाए तो स्वयंसेवक होना ही अपने आप में एक बहोत बड़ा दयित्व है और इसलिए उद्देश्य के प्रति समर्पण और अपने कर्तव्यों के प्रति निष्ठा से कोई भी स्वयंसेवक अपने लिए महत्व अर्जित कर सकता है। केवल संघ से सम्बन्ध अथवा संघ से प्राप्त पद से ही कोई स्वयंसेवक सिद्ध नहीं होता, हाँ, यह सामाजिक उत्थान के संगठित प्रयास के समन्वय व् संतुलन के लिए ही नहीं बल्कि व्यक्तिगत भूमिका के महत्व को रेखांकित करने की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है;
जिस विचारधारा को संघ संगठित रूप में जीता है उसी विचारधारा को जो व्यक्तिगत स्तर पर अपने विचार, व्यव्हार और आचरण से यथार्थ में जीवंत रूप प्रदान करे वही सही अर्थों में व्यावहारिक रूप से आदर्श स्वयंसेवक है इसलिए वह अपने परिचय अथवा प्रयास के लिए किसी औपचारिकता पर आश्रित नहीं होता। ऐसे में, हमारे लिए आज महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए, संघ का उद्देश्य और स्वयंसेवकों का लक्ष्य या औपचारिकताएं, सहूलयतें और व्यवहारिकता के नाम पर जीवन मूल्यों से किये जाने वाले समझौते , आप ही बताइये !
राजनीति और राजनीतिक दल के लिए संख्याबल का महत्व हो सकता है गुणवत्ता से अधिक हो पर न तो संघ कोई राजनीतिक दल है और न ही राजनीतिक कार्यकर्ताओं का निर्माण करना संघ का काम; संघ समाज में अग्रसर का निर्माण करता है जो अपने विवेक से अपने कार्यक्षेत्र को चुनने के लिए स्वतंत्र हैं और इसलिए किसी राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं के विपरीत संघ के स्वयंसेवकों मंे विवेक एवं बुद्धि का विकास महत्वपूर्ण होता है ; संघ धर्मनिरपेक्ष नहीं बल्कि धर्मावलंबी है और इसीलिए संघ और स्वयंसेवक नैतिक व् धार्मिक जीवन मूल्यों द्वारा शाषित होते हैं, ऐसे में, आश्चर्य नहीं जो एक स्वयंसेवक के तर्क ही देश के इक्कतीस प्रतिशत जनता के निर्णय पर भारी पड़े;
समस्या यह नहीं की परिस्थितियां विकट है बल्कि समस्या यह है की हम इस विषम परिस्थिति के इतने आदि हो रहे हैं की हमें परिस्थितियों को बदलने की कोई आवश्यकता ही महसूस नहीं होती ; आखिर, संवेदनाओं की कीमत पर ऐसी समझदारी किस काम की जिसके चलते हमारी सभ्यता, वास्तविकता और मानवता ही खतरे में पड़ जाए, कभी समय मिले तो इस विषय पर अवश्य विचार कीजियेगा !”

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