"अगर किसी चमत्कार से ही वर्तमान की परिस्थितियों में परिवर्तन संभव है तो क्यों न हम किसी अवतार को जन्म दें; आखिर प्रयास के लिए आवश्यकताओं से अधिक प्रेरक क्या हो सकता है और यह केवल हमारी संस्कृति के लिए संभव भी ; अगर वर्त्तमान की आवश्यकता कोई नहीं महसूस कर सके तो इससे आवश्यकताओं को कोई फर्क नहीं पड़ता, हाँ, समाज की संवदेनहीनता अवश्य ही स्पष्ट होती है, फिर व्यवहारिकता चाहे जो कहे ?
क्या व्यावहारिक है और क्या नहीं यह मान्यताएं नहीं बल्कि सामाजिक व्यवहार तय करता है और इसलिए, व्यवहारिकता के समझ के आधार पर यथार्थ के निर्धारण का अधिकार किसी के भी दृष्टिकोण के लिए एक विकल्प हो सकता है पर उचित यही होगा की हम आपने आदर्शों, सिद्धांतों और जीवन मूल्यों के आधार पर व्यवहारिकता को परिभाषित करें; ऐसे भी, जब अनुभव का ज्ञान अपनी कुंठा से जीवन मूल्यों के व्यावहारिक प्रयोग के किसी भी प्रयास को ही समाप्त कर दे तो समाज स्वतः ही नए की सम्भावना से प्रतिरक्षित हो जाएगा; फिर आप ही बताइये की ऐसी व्यवहारिकता आखिर किस काम की ?
स्वामी विवेकानद ने करीब सौ वर्ष से भी अधिक समय पहले अपनी भक्ति, प्रेम और कला की रचनात्मकता द्वारा भारत माता के रूप में हमारे राष्ट्र के सजीव परिकल्पना को हमारे समक्ष प्रस्तुत किया था और समस्त राष्ट्रवादियों को उन्हीं की उपासना के लिए प्रेरित किया था; चूँकि हिंदुत्व कर्म प्रधान है, अतः स्वाभाविक है, उनके द्वारा निर्देशित उपासना पद्धाति कर्म द्वारा ही शाषित होगी और होनी भी चाहिए; और आज हम कर क्या रहे हैं ?
स्वामी विवेकानंद जी के व्यक्तिव्य, उनके शब्द और उनकी सोच का प्रयोग आज हम देश के युवाओं को भाषण देने के लिए तो करते हैं पर पता नहीं क्यों आज हम अपने देश के युवाओं को किसी महत्वपूर्ण दायित्व के लिए विश्वास नहीं करते; तभी, यह युवा भारत आज बूढी मानसिकता द्वारा शासित है..
अगर दस भुजाओं वाली दुर्गा को हम शक्ति की स्वामिनी के रूप में पूज सकते हैं तो आखिर क्या कारन है की आज सवा दो सौ करोड़ भुजाओं वाली 'भारत माता' भ्रस्टाचार, शोषण और उत्पीडन से त्रस्त है; ऐसा इसलिए, क्योंकि हमने स्वामी विवेकानद की बातों को सुना पर अभी तक उसका पालन करने से बचने का हर संभव प्रयास कर रहे हैं; सैद्धान्तिक तथ्य व्यावहारिक जो न रहा, तभी, आज हम संवेदनहीन तो हैं पर भावुक भी ; शायद यही कारन है की एक राष्ट्र के रूप में हमें स्वर्गीय प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की हत्या का मर्म तो हुआ जिसके प्रभाव में हमारा निर्णय हमारी भावनात्मकता द्वारा शाषित रहा और भारत को रातों रात एक युवा प्रधानमंत्री प्राप्त हुआ पर आज हमारी संवेदनाएं 'भारत माता' के कष्टों को महसूस कर पाने से भी प्रतिरक्षित है; इसे आप सामाजिक चेतना पर व्यवहारिकता के अनुकूलन का प्रभाव कह सकते है।
कठिन या सरल कुछ नहीं होता, बनाना पड़ता है ...और प्रयास के लिए आवश्यकताओं से अधिक उत्प्रेरक और क्या कारन हो सकता है ? आखिर सवा दो सौ करोड़ भुजाओं वाली 'भारत माता' के लिए असंभव क्या हो सकता है;
असंभव को भी संभव बनाया जा सकता है, बस प्रयास को संगठित व् केंद्रित करने की आवश्यकता होगी। चुनाव राजनीति के लिए सत्ता प्राप्ति का माध्यम भले ही हो पर सरकार बनाने और सरकार को सुचारू ढंग से चलने में अंतर होता है; चुनाव जीत कर कोई भी सरकार बना सकता है पर देश में शाशन करने के लिए जनता का साथ निर्णायक होता है; जनता का विश्वास प्रचार से नहीं प्रयास से प्राप्त होता है, वो भी तब, जब प्रयास की दिशा सही हो और जिसका प्रभाव भी दिखे; जब जनता के पास सरकार पर विश्वास करने का कोई कारन ही न हो तो समाज के असहयोग के कारन किसी भी शासक का शाशन कर पाना असंभव होगा, फिर, चुनाव कोई भी जीते क्या फर्क पड़ता है !
आज परिस्थितियां जो भी हैं, सब के सामने है; जो होना चाहिए और जो हो रहा है उसके अंतर को समझ पाना कठिन नहीं, अगर संवेदनाएं आवश्यकताओं को महसूस कर सके तो; ऐसे में, सोचने वाली बात यह है की समय द्वारा प्रदत्त अवसर को अपनी गलतियों के भोग चढ़ाना कितना सही होगा ;
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