Tuesday, 30 April 2013

एक जापानी अपने मकान की मरम्मत के
लिए उसकी दीवार को खोल रहा था।
ज्यादातर जापानी घरों में लकड़ी की दीवारो के बीच जगह
होती है। जब वह लकड़ी की इस दीवार को उधेड़ रहा तो उसने
देखा कि वहां दीवार में एकछिपकली फंसी हुई थी। 

छिपकली के एक पैर में कील ठुकी हुई थी।
उसने यह देखा और उसे छिपकली पर रहम
आया। उसने इस मामले में उत्सुकता दिखाई
और गौर से उस छिपकली के पैर में ठुकी कील को देखा।

अरे यह क्या! यह तो वही कील है जो 4 साल पहले मकान
बनाते वक्त ठोकी गई थी। यह क्या !!!!
क्या यह छिपकली पिछले 4 सालों से
इसी हालत से दो चार है?

दीवार के अंधेरे हिस्से में बिना हिले-डुले
पिछले 4 सालों से!! यह नामुमकिन है।
मेरा दिमाग इसको गवारा नहीं कर
रहा। उसे हैरत हुई। यह छिपकली पिछले 4
सालों से आखिर जिंदा कैसे है!!! बिना एक
कदम हिले-डुले जबकि इसके पैर में कील ठुकी है!

उसने अपना काम रोक दिया और उस
छिपकली को गौर से देखने लगा। आखिर
यह अब तक कैसे रह पाई औरक्या और किस
तरह की खुराक इसे अब तक मिल पाई।
इस बीच एक दूसरी छिपकली ना जाने
कहां से वहां आई जिसके मुंह में खुराक थी।
अरे!!!! यह देखकर वह अंदर तक हिल गया।
यह दूसरी छिपकली पिछले 4
सालों से इस फंसी हुई छिपकली को खिलाती रही।
जरा गौर कीजिए वह दूसरी छिपकली बिना थके और अपने
साथी की उम्मीद छोड़े बिना लगातार 4 साल से उसे खिलाती रही।

आप अपने गिरेबां में झांकिए क्या आप अपने
जीवनसाथी के लिए ऐसी कोशिश कर सकते हैं?
 

Monday, 29 April 2013

क्या आप जानते है..... 

*. नया पेन देने पर 97% लोग अपना खुद का नाम लिखते हैं।

*. एक सामान्य मनुष्य की आँखें 200 अंश की चौड़ाई तक देख सकती हैं।

*. पका हुआ तरबूज कच्चे तरबूज की अपेक्षा खोखला होता है।

... *. लगभग छः माह की उम्र होनेतक रोने परभी बच्चों की आँख से आँसू नहीं निकलते।

*. अपेक्षाकृत गरम पानी से सिंचाई किए जाने वाले पौधे ठण्डे पानी से सिंचाई किए जाने वाले पौधों की अपेक्षा तेजी से बढ़ते हैं

*. एक घंटे तक हेडफोन लगाए रहने पर कान के अंदर बैक्टीरिया 700 गुना बढ़ जाते हैं

*. उम्र बढ़ने के साथ मनुष्य के कान और नाक के आकार में वृद्धि होती है किन्तु आँखें जन्म से मृत्यु तक एकही आकार की रहती हैं।

*. उँगलियों के निशान जैसे ही प्रत्येकव्यक्ति के जीभ के निशान भी अलग-अलग होते हैं

*. स्वीडन में एक ऐसा होटल है जो पूर्णतया बर्फ का बनाहै, प्रतिवर्ष इसका पुनर्निर्माण किया जाता है।

*. उँगलियाँ तोड़ने पर जो आवाज सुनाई देती है वह वास्तव में नाइट्रोजन बबल्स के बर्स्ट होने की आवाज होती है।

अरब की प्राचीन समृद्ध वैदिक संस्कृति और भारत...........

अरब की प्राचीन समृद्ध वैदिक संस्कृति और भारत...........

अरब देश का भारत , महर्षि भृगु के पुत्र शुक्राचार्य तथा उनके पौत्र और्व से एतिहासिक सम्बन्ध प्रमाणित हैं , यहाँ तक की “ हिस्ट्री ऑफ़ पर्शिया “ के लेखक साईक्स का मत हैं की अरब का नाम महर्षि भृगु के पौत्र और्व के ही नाम पर पड़ा जो विकृत होकर “अरब” हो गया | भारत के उत्तर – पश्चिम में इलावर्त था , जहा दैत्य और दानव बसते थे , इस इलावर्त में एशियाई रूस का दक्षिणी – पश्चिमी भाग , ईरान का पूर्वी भाग तथा गिलगित का निकटवर्ती क्षेत्र सम्मलित था | आदित्यो का निवास स्थान देवलोक भारत के उत्तर – पूर्व में स्थित हिमालयी क्षेत्रो में रहा था | बेबीलोन की प्राचीन गुफाओ में पुरातात्विक खोज में जो भित्ति चित्र मिले हैं , उनमे विष्णु को हिरण्यकश्यप के भाई हिरण्याक्ष से युद्ध करते हुए उत्कीर्ण किया गया हैं | उस युग में अरब एक बड़ा व्यापारिक केंद्र रहा था , इसी कारण देवों , दानवों और दैत्यों में इलावर्त के विभाजन को लेकर १२ बार युद्ध “देवासुर संग्राम” हुए | देवतावों के राजा इन्द्र ने अपनी पुत्री जयंती का विवाह शुक्र के साथ इसी विचार से किया था की शुक्र उनके ( देवों ) के पक्षधर बन जायेंगे , लेकिन शुक्र दैत्यों के गुरु बने रहे | यहाँ तक कि जब दैत्यराज बलि ने शुक्राचार्य का कहना न माना तो वो उसे त्याग कर अपने पौत्र और्व के पास अरब में आ गए और दस वर्ष तक रहे | साइक्स ने अपने इतिहास ग्रन्थ “ हिस्ट्री ऑफ़ पर्शिया “ में लिखा हैं की ‘ शुक्राचार्य लिव्ड टेन इयर्स इन अरब ‘ | अरब में शुक्राचार्य का इतना मान सम्मान हुआ की आज जिसे ‘काबा’ कहते हैं वह वस्तुतः ‘काव्य शुक्र’ (शुक्राचार्य) के सम्मान में निर्मित उनके अराध्य भगवान् शिव का ही मंदिर हैं| कालांतर में काव्य नाम विकृत होकर ‘काबा’ प्रचलित हुआ | अरबी भाषा में ‘शुक्र’ का अर्थ ‘बड़ा’ अर्थात ‘जुम्मा’ इसी कारण किया गया और इसी से ‘जुम्मा’ (शुक्रवार) को मुसलमान पवित्र दिन मानते हैं |

“ वृहस्पति देवानां पुरोहित आसीत्, उशना काव्योsसुराणाम् “ – जैमिनिय ब्रा. (01-125)

अर्थात वृहस्पति देवो के पुरोहित थे औरउशना काव्य ( शुक्राचार्य ) असुरो के |

प्राचीन अरबी काव्य संग्रह ग्रन्थ ‘सेअरुल – ओकुल’ के 257 वें पृष्ठपर हजरत मोहम्मद से 2300 वर्ष पूर्व एवं ईसा मसीह से 1800 वर्ष पूर्व पैदा हुएलबी-बिन-ए-अरव्तब-बिन-ए-तुरफा ने अपनी सुप्रसिद्ध कविता में भारत भूमि एवं वेदोंको जो सम्मान दिया हैं , वह इस प्रकार हैं –

“अया मुबारेकल अरज मुशैये नोंहा मिनार हिंदे |

व् अरादकल्लाह मज्जोनज्जे जिकरतुन ||1||वह लवज्जलीयतुन ऐनाने सह्बी अरवे अतुन जिकरा |
वहाजेही योनज्जेलुर्ररसूल मिनल हिंद्तुन ||2||

यकूलूनुल्लाहः या अह्लल अरज आलमीन फुल्ल्हुम|
फत्तेबेऊ जिकरतुल वेद हुक्कुन मालन योनज्वेलतुन ||3||

वहोबा आलमुस्साम वल यजुरमिनल्लाहेतन्जीलन |

फऐ नोमा या अरवीयो मुत्तवअनयोवसीरीयोनजातुन ||4||
जईसनैन हुमारिक अतर नासेहीन का –अ-खुबातुन |
व असनात अलाऊढन व होवा मश-ए-रतुन ||5||

अर्थात –

हे भारत की पुण्यभूमि (मिनार हिंदे ) तू धन्य हैं , क्योकि ईश्वर ने अपने ज्ञान के लिए तुझको चुना हैं ||1||

वह ईश्वर का ज्ञान प्रकाश , जो चार प्रकार स्तंभों के सदृश्य सम्पूर्ण जगत को प्रकाशित करता हैं , यह भारत वर्ष (हिंद तुन ) में ऋषियों द्वारा चार रूप में प्रकट हुआ ||2||

और परमात्मा समस्त संसार के मनुष्यों को आज्ञा देता हैं की वेद , जो मेरे ज्ञान हैं , इनके अनुसार आचरण

करो ||3||

वह ज्ञान के भण्डार साम व यजुर हैं , जो ईश्वर ने प्रदान किये हैं | इसलिए, हे मेरे भाईयो ! इनको मानो , क्योकि ये हमें मोक्ष का मार्ग बताते हैं ||4||

और दो उनमे से ऋक , अतर ( ऋग्वेद ,अथर्ववेद ) जो हमें भातृत्व की शिक्षा देते हैं और जो इनकी शरण में आ गया , वह कभी अन्धकार को प्राप्त नहीं होता हैं |

इस्लाम मजहब के प्रवर्तक मोहम्मद स्वयं भी वैदिक परिवार में हिन्दू के रूप मेंजन्मे थे , और जब उन्होंने अपने हिन्दू परिवार की परम्परा और वंश से सम्बन्ध तोड़ने और स्वयं को पैगम्बर घोषित करना निश्चित किया तब संयुक्त हिन्दू परिवार छिन्न – भिन्न हो गया और काबा में स्थित महाकाय शिवलिंग (संगे अस्वद) के रक्षार्थ हुए युद्ध में पैगम्बर मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम को भी अपने प्राण गवाने पड़े |उमर-बिन-ए-हश्शाम का अरब में एवं केंद्र काबा (मक्का) में इतना अधिक सम्मान होता था कि सम्पूर्ण अरबी समाज, जो की भगवान् शिव के भक्त थे एवं वेदों के उत्सुक गायक तथा हिन्दू देवी देवताओ के अनन्य उपासक थे , उन्हें अबुल हाकम अर्थात ‘ज्ञान का पिता’ कहते थे | बाद में मोहम्मद के नए सम्प्रदाय ने उन्हें इर्ष्या वश अबुल जिहाल ‘अज्ञान का पिता’ कहकर उनकी निंदा की |जब मोहम्मद ने मक्का पर आक्रमण किया , उससमय वहा वृहस्पति , मंगल , अश्वनी कुमार , गरुड़ , नृसिंह की मुर्तिया प्रतिष्ठित थी | साथ ही एक मूर्ति वहा विश्वविजेता महाराज बलि की भी थी और दानी होने की प्रसिद्धि से उनका एक हाथ सोने का बना था | ‘Holul’ के नाम से अभिहित यह मूर्ति वहाँ इब्राहम और इस्माइल की मूर्तियों के बराबर रखी थी | मुहम्मद ने उन सब मूर्तियों को तोड़कर वहाँ बने कुँए में फेक दिया ,किन्तु तोड़े गए शिवलिंग का एक टुकड़ा आज भी काबा में सम्मानपूर्वक न केवल प्रतिष्ठित हैं , वरन हज करने जाने वाले मुसलमान उस काले ( अश्वेत ) प्रस्तर खण्ड अर्थात ‘संगे अस्वद’ को आदर मान देते हुए चुमते हैं |

प्राचीन अरबों ने सिंध को सिंध ही कहा तथा भारतवर्ष के अन्य प्रदेशो को हिन्द निश्चित किया | सिंध से हिन्द होने की बात बहुत ही अवैज्ञानिक हैं | इस्लाम मत के प्रवर्तक मोहम्मद के पैदा होने से 2300 वर्ष पूर्व यानी लगभग 1800 ईसवी पूर्व भी अरब में हिन्द एवं हिन्दू शब्द का व्यवहार ज्यों का त्यों आज ही के अर्थ में प्रयुक्त होता था |

अरब की प्राचीन समृद्ध संस्कृति वैदिक थीतथा उस समय ज्ञान –विज्ञान , कला कौशल , धर्म –संस्कृति आदि में भारत (हिन्द) के साथ उसके प्रगाढ़ सम्बन्ध थे | हिन्द नाम अरबों को इतना प्यारा लगाकि उन्होंने उस देश के नाम पर अपनी स्त्रियों एवं बच्चो के नाम भी हिन्द पर रखे |

अरबी काव्य संग्रह ग्रन्थ ‘सेअरुल-ओकुल’ के 253 वें पृष्ठ पर हजरत मोहम्मद के चाचाउमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता हैं जिसमे उन्होंने हिंदे यौमन एवं गबुल हिन्दू का प्रयोग बड़े आदर से किया हैं | हजरत मोहम्मद के चाचा उमर-बिन-ए-हश्शाम की कविता नईदिल्ली स्थित मंदिर मार्ग पर श्री लक्ष्मीनारायण मंदिर ( बिडला मंदिर ) की वाटिका में यज्ञशाला के लाल पत्थर (खम्बे) पर काली स्याही से लिखी हुयी हैं , जो इस प्रकार हैं –

“कफविनक जिकरा मिन उलुमिन तब असेक |

कलुवन अमातातुल हवा व तजक्करू ||1||

न तज खेरोहा उड़न एललवदए लिलवरा |

वलुकएने जातल्लाहे औम असेरू ||2||

व अहालोलहा अजहू अरानीमन महादेव ओ |

मनोजेल इल्मुद्दीन मीनहुम व सयत्तरू||3||

व सहबी वे याम फीम कामिल हिंदे यौमन |

व यकुलून न लातहजन फइन्नक तवज्जरु ||4||मअस्सयरे अरव्लाकन हसनन कुल्ल्हूम |

नजुमुन अजा अत सुम्मा गबुल हिन्दू ||5||

अर्थात –

वह मनुष्य जिसने अपना सारा जीवन पाप और अधर्म में बिताया हो , काम , क्रोध में अपने यौवन को नष्ट किया हो ||1||

यदि अंत में उसको पश्चाताप हो और भलाई की ओर लौटना चाहे , तो क्या उसका कल्याण हो सकता हैं ? ||2||

एक बार भी वह सच्चे ह्रदय से वह महादेवजी की पूजा करे , तो धर्म – मार्ग में उच्चसे उच्च पद को पा सकता हैं ||3||

हे प्रभु , मेरा समस्त जीवन लेकर केवल एक दिन भारत ( हिन्द ) के निवास का दे दो , क्योकि वहा पंहुचकर मनुष्य जीवन – मुक्त हो जाता हैं ||4||

वहा की यात्रा से सारे शुभ कर्मो कीप्राप्ति होती हैं और आदर्श गुरुजनों ( गबुल हिन्दू ) का सत्संग मिलता हैं  

दूब या 'दुर्वा' (वैज्ञानिक नाम- 'साइनोडान डेक्टीलान") वर्ष भर पाई जाने वाली घास है, जो ज़मीन पर पसरते हुए या फैलते हुए बढती है। हिन्दू धर्म में इस घास को बहुत ही महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। हिन्दू संस्कारों एवं कर्मकाण्डों में इसका उपयोग बहुत किया जाता है। इसके नए पौधे बीजों तथा भूमीगत तनों से पैदा होते हैं। वर्षा काल में दूब घास अधिक वृद्धि करती है तथा वर्ष में दो बार सितम्बर-अक्टूबर और फ़रवरी-मार्च में इसमें फूल आते है। दूब सम्पूर्ण भारत में पाई जाती है। भगवान गणेश को दूब घास प्रिय है। यह घास औषधि के रूप में विशेष तौर पर प्रयोग की जाती है
"त्वं दूर्वे अमृतनामासि सर्वदेवैस्तु वन्दिता।
वन्दिता दह तत्सर्वं दुरितं यन्मया कृतम॥"

पौराणिक कथा के अनुसार- समुद्र मंथन के दौरान एक समय जब देवता और दानव थकने लगे तो भगवान विष्णु ने मंदराचल पर्वत को अपनी जंघा पर रखकर समुद्र मंथन करने लगे। मंदराचल पर्वत के घर्षण से भगवान के जो रोम टूट कर समुद्र में गिरे थे, वही जब किनारे आकर लगे तो दूब के रूप में परिणित हो गये। अमृत निकलने के बाद अमृत कलश को सर्वप्रथम इसी दूब पर रखा गया था, जिसके फलस्वरूप यह दूब भी अमृत तुल्य होकर अमर हो गयी। दूब घास विष्णु का ही रोम है, अतः सभी देवताओं में यह पूजित हुई और अग्र पूजा के अधिकारी भगवान गणेश को अति प्रिय हुई। तभी से पूजा में दूर्वा का प्रयोग अनिवार्य हो गया।
एक अन्य कथा है कि पृथ्वी पर अनलासुर राक्षस के उत्पात से त्रस्त ऋषि-मुनियों ने देवराज इन्द्र से रक्षा की प्रार्थना की। लेकिन इन्द्र भी उसे परास्त न कर सके। देवतागण भगवान शिव के पास गए। शिव ने कहा इसका नाश सिर्फ़ गणेश ही कर सकते हैं। देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर श्रीगणेश ने अनलासुर को निगल लिया। जब उनके पेट में जलन होने लगी, तब ऋषि कश्यप ने २१ दुर्वा की गाँठ उन्हें खिलाई और इससे उनकी पेट की ज्वाला शांत हुई।

भारतीय संस्कृति में महत्त्व
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'भारतीय संस्कृति' में दूब को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। चाहे 'नाग पंचमी' का पूजन हो या विवाहोत्सव या फिर अन्य कोई शुभ मांगलिक अवसर, पूजन-सामग्री के रूप में दूब की उपस्थिति से उस समय उत्सव की शोभा और भी बढ़ जाती है। दूब का पौधा ज़मीन से ऊँचा नहीं उठता, बल्कि ज़मीन पर ही फैला हुआ रहता है, इसलिए इसकी नम्रता को देखकर गुरु नानक ने एक स्थान पर कहा है-नानकनी चाहो चले, जैसे नीची दूब
और घास सूख जाएगा, दूब खूब की खूब।

हिन्दू धर्म के शास्त्र भी दूब को परम-पवित्र मानते हैं। भारत में ऐसा कोई मांगलिक कार्य नहीं, जिसमें हल्दी और दूब की ज़रूरत न पड़ती हो। दूब के विषय में एक संस्कृत कथन इस प्रकार मिलता है-



ज़मीन पर उगती दूब
"विष्णवादिसर्वदेवानां दूर्वे त्वं प्रीतिदा यदा।
क्षीरसागर संभूते वंशवृद्धिकारी भव।।"

अर्थात "हे दुर्वा! तुम्हारा जन्म क्षीरसागर से हुआ है। तुम विष्णु आदि सब देवताओं को प्रिय हो।"

महाकवि तुलसीदास ने दूब को अपनी लेखनी से इस प्रकार सम्मान दिया है-"रामं दुर्वादल श्यामं, पद्माक्षं पीतवाससा।"

प्रायः जो वस्तु स्वास्थ्य के लिए हितकर सिद्ध होती थी, उसे हमारे पूर्वजों ने धर्म के साथ जोड़कर उसका महत्व और भी बढ़ा दिया। दूब भी ऐसी ही वस्तु है। यह सारे देश में बहुतायत के साथ हर मौसम में उपलब्ध रहती है। दूब का पौधा एक बार जहाँ जम जाता है, वहाँ से इसे नष्ट करना बड़ा मुश्किल होता है। इसकी जड़ें बहुत ही गहरी पनपती हैं। दूब की जड़ों में हवा तथा भूमि से नमी खींचने की क्षमता बहुत अधिक होती है, यही कारण है कि चाहे जितनी सर्दी पड़ती रहे या जेठ की तपती दुपहरी हो, इन सबका दूब पर असर नहीं होता और यह अक्षुण्ण बनी रहती है।

तंत्र शास्त्र में उल्लेख
*********************पाँच दुर्वा के साथ भक्त अपने पंचभूत-पंचप्राण अस्तित्व को गुणातीत गणेश को अर्पित करते हैं। इस प्रकार तृण के माध्यम से मानव अपनी चेतना को परमतत्व में विलीन कर देता है। गणेश की पूजा में दो, तीन या पाँच दुर्वा अर्पण करने का विधान तंत्र शास्त्र में मिलता है। इसके गूढ़ अर्थ हैं। संख्याशास्त्र के अनुसार दुर्वा का अर्थ जीव होता है, जो सुख और दु:ख ये दो भोग भोगता है। जिस प्रकार जीव पाप-पुण्य के अनुरूप जन्म लेता है। उसी प्रकार दुर्वा अपने कई जड़ों से जन्म लेती है। दो दुर्वा के माध्यम से मनुष्य सुख-दु:ख के द्वंद्व को परमात्मा को समर्पित करता है। तीन दुर्वा का प्रयोग यज्ञ में होता है। ये 'आणव', 'कार्मण और 'मायिक'रूपी अवगुणों का भस्म करने का प्रतीक है।

उद्यानों की शोभा
******************
दूब को संस्कृत में 'दूर्वा', 'अमृता', 'अनंता', 'गौरी', 'महौषधि', 'शतपर्वा', 'भार्गवी' इत्यादि नामों से जानते हैं। दूब घास पर उषा काल में जमी हुई ओस की बूँदें मोतियों-सी चमकती प्रतीत होती हैं। ब्रह्म मुहूर्त में हरी-हरी ओस से परिपूर्ण दूब पर भ्रमण करने का अपना निराला ही आनंद होता है। पशुओं के लिए ही नहीं अपितु मनुष्यों के लिए भी पूर्ण पौष्टिक आहार है दूब। महाराणा प्रताप ने वनों में भटकते हुए जिस घास की रोटियाँ खाई थीं, वह भी दूब से ही निर्मित थी।[3] राणा के एक प्रसंग को कविवर कन्हैया लाल सेठिया ने अपनी कविता में इस प्रकार निबद्ध किया है-अरे घास री रोटी ही,
जद बन विला वड़ो ले भाग्यो।
नान्हों सो अमरयौ चीख पड्यो,
राणा रो सोयो दुख जाग्यो।

औषधीय गुण
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दूब घास की शाखा
अर्वाचीन विश्लेषकों ने भी परीक्षणों के उपरांत यह सिद्ध किया है कि दूब में प्रोटीन, कार्बोहाइड्रेट पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। दूब के पौधे की जड़ें, तना, पत्तियाँ इन सभी का चिकित्सा क्षेत्र में भी अपना विशिष्ट महत्व है। आयुर्वेद में दूब में उपस्थित अनेक औषधीय गुणों के कारण दूब को 'महौषधि' में कहा गया है। आयुर्वेदाचार्यों के अनुसार दूब का स्वाद कसैला-मीठा होता है। विभिन्न पैत्तिक एवं कफज विकारों के शमन में दूब का निरापद प्रयोग किया जाता है। दूब के कुछ औषधीय गुण निम्नलिखित हैं-संथाल जाति के लोग दूब को पीसकर फटी हुई बिवाइयों पर इसका लेप करके लाभ प्राप्त करते हैं।
इस पर सुबह के समय नंगे पैर चलने से नेत्र ज्योति बढती है और अनेक विकार शांत हो जाते है।
दूब घास शीतल और पित्त को शांत करने वाली है।
दूब घास के रस को हरा रक्त कहा जाता है, इसे पीने से एनीमिया ठीक हो जाता है।
नकसीर में इसका रस नाक में डालने से लाभ होता है।
इस घास के काढ़े से कुल्ला करने से मुँह के छाले मिट जाते है।
दूब का रस पीने से पित्त जन्य वमन ठीक हो जाता है।
इस घास से प्राप्त रस दस्त में लाभकारी है।
यह रक्त स्त्राव, गर्भपात को रोकती है और गर्भाशय और गर्भ को शक्ति प्रदान करती है।
कुँए वाली दूब पीसकर मिश्री के साथ लेने से पथरी में लाभ होता है।
दूब को पीस कर दही में मिलाकर लेने से बवासीर में लाभ होता है।
इसके रस को तेल में पका कर लगाने से दाद, खुजली मिट जाती है।
दूब के रस में अतीस के चूर्ण को मिलाकर दिन में दो-तीन बार चटाने से मलेरिया में लाभ होता है।
इसके रस में बारीक पिसा नाग केशर और छोटी इलायची मिलाकर सूर्योदय के पहले छोटे बच्चों को नस्य दिलाने से वे तंदुरुस्त होते है। बैठा हुआ तालू ऊपर चढ़ जाता है।
........हर हर महादेव ...........जय अम्बे

नाना पाटेकर ने मुम्बई में बढती "वृद्धाश्रम संस्कृति"

नाना पाटेकर ने मुम्बई में बढती "वृद्धाश्रम संस्कृति" पर गहरा दुख जताते हुए कहा है कि, मुम्बई को अपना निवास स्थान कहने में अब उन्हें शर्म महसूस होने लगी है, मुम्बई अब रहने की नहीं, सिर्फ काम करने की जगह है. 

ठाणे जिले के बाहरी उपनगर में एक वृद्धाश्रम का उदघाटन करते समय नाना ने अपने दिल की यह व्यथा व्यक्त की. इस मौके पर नाना पाटेकर ने आगे कहा कि फिल्मों में काम करने की वजह से हमारे चारों तरफ एक विशिष्ट घेरा बना दिया जाता है, जो कि उचित नहीं है. हम लोग कतई बड़े या महान नहीं है, क्योंकि हम लोग तो पैसा लेकर फिल्मों में काम करते हैं. वास्तव में महान तो आप लोग हैं, जो पैसा खर्च करके हमारी फ़िल्में देखते हो. जो फ़िल्मी कलाकार खुद को विशिष्ट या VIP दर्शाता है मुझे उससे घृणा होने लगती है. अभिनय, पुस्तकें पढ़ने से या कोचिंग लेने से नहीं आता... अभिनय करने के लिए "मनुष्य" और आम आदमी को पढ़ना आना चाहिए...

उल्लेखनीय है कि हाल ही में नाना पाटेकर फिल्म इंडस्ट्री के कुछ लोगों के निशाने पर उस समय आ गए थे, जब उन्होंने एक इंटरव्यू में कहा था कि मैं तब तक संजय दत्त के साथ फिल्मों में काम नहीं 
करूँगा जब तक वह अपनी पूरी सजा नहीं भुगत लेते... संजय को माफी की अर्जी लगाने का कोई अधिकार नहीं है..." 

जिसे हिन्दी में "जमीन से जुड़ा इंसान" या अंग्रेजी में "Down to Earth" कहते हैं, यदि वास्तव में आपको ऐसा इंसान देखना हो, तो वह हैं नाना पाटेकर. 

सत्य कड़वा होता है मित्रों...

ता हैसत्य कड़वा हो मित्रों...
* मुफ्त मे मोबाईल कनेक्शन दे सकते हैं लेकिन
रोटी नहीं
* ट्रेनों में मुफ्त WI FI मिल सकता है लेकीन
पीने का पानी नहीं
* बेकारों को रोजगारी भत्ता द लेकिन
किसानों को उनकी फसल का उचित मूल्य नहीं!!!
* गाँव-गाँव तक पेप्सी- कोला का जहर
पहुँचाया जा सकता है लेकिन पीने
का पानी नहीं!!!
* विदेशी कंपनियों का देश को लूटना और गुलाम
बनाना मंजूर है लेकिन स्वदेशी उद्योग से
आत्मनिर्भर होना नहीं!!!
* विदेशों से उधार लाया जासकता हैं
लेकिन कालाधन नहीं!!!
* खरबों रुपये के घोटाले किये जा सकते हैं
लेकिन गरीबों की सब्सिडी के लिये
खजाने खाली!!!
* राबर्ट वाड्रा व भ्रष्ट
मंत्रियों का किसानों की जमी लूटना जाय
हो जाता है… …लेकिन स्वामी रामदेव
का सरकार से मिली जमीन पर आरोग्य
भवन जायज नहीं!!!
* बलात्कार होने के बाद
महिला को मुआव्जा मिल सकता लेकिन
महिलाओं
को पहले से सुरक्षा नहीं!!!
* ओवैसी-नाईक जैसे गद्दारों के
ल मंजूर हैं पर RSS जैसे देशभक्त संगठन नहीं!!!
बिहार के किसान सुमंत कुमार दुनियाभर में जाना पहचाना नाम बन चुके हैं। एबीसी, बीबीसी और द गार्जियन समेत दुनिया के तमाम बड़े मीडिया हाऊस उनकी कामयाबी की कहानी कह रहे हैं। बिहार के नालंदा के दरवेशपुरा गांव के सुमंत कुमार ने दुनिया में सबसे ज्यादा धान उगाने का रिकार्ड बनाया है। 

इससे पहले यह रिकॉर्ड चीन के वैज्ञानिक और 'फादर ऑफ राइस' के नाम से प्रसिद्ध युआन लोंगपिंग के नाम था। युआन ने एक हैक्टेयर में 19.4 टन धान उगाया था। लेकिन सुमंत कुमार ने इस रिकॉर्ड को तोड़ते हुए एक हैक्टेयर में 22.4 टन धान का उत्पादन कर दुनिया को चकित कर दिया।

सुमंत कुमार ने न सिर्फ चीन के वैज्ञानिक का रिकॉर्ड तोड़ा बल्कि वर्ल्ड बैंक के फंड से चल रहे फिलिपींस के इंटरनेशनल राइस रिसर्च और अमेरिका और यूरोप की बड़ी-बड़ी बीज कंपनियों के फार्मों के रिकॉर्ड भी ध्वस्त कर दिए।

यही कारण है कि बिहार के नालंदा जिले के छोटे से गांव दरवेशपुरा में उनसे मिलने के लिए दुनियाभर से लोग आ रहे हैं। लेकिन सुमंत कुमार की कामयाबी युआन लोंगपिंग को नहीं पची और उन्होंने उनके दावे पर ही सवाल उठे दिए। 

इसके बाद अब सुमंत कुमार ने अपने खेत में धान के बजाए गेंहू की फसल का रिकॉर्ड बनाने की तैयारी की है। 
  सुमंत कुमार ने
इंटर तक की पढ़ाई करने के बाद टेक्सटाइल सुपरवाइजर
की नौकरी की और फिर दोबारा किसानी की ओर लौटे। सुमंत कुमार ने धान उगाने का पुराना तरीका छोड़कर
नया तरीका अपनाया। उन्होंने सिस्टम ऑफ राइस
इंटेनसिफिकेशन या श्री विधि का प्रयोग किया। इस
विधि में पौध के रोपन, बीज की तैयारी, पौध की उम्र और
सिंचाई का तरीका पारंपरिक तरीके से अलग होता है। इस
विधि को 80 के दशक में विकसित किया गया था और इससे गेंहू और अन्य फसलों में भी अपनाया जा सकता है। पारंपरिक तरीके में धान के कई पौधे एक साथ रोपें जाते हैं
जबकि नए तरीके में एक-एक पौधे को अलग-अलग
रोपा जाता है। सुमंत कुमार के लिए नई विधि अपनाना लाटरी की तरह था।
उनका यह तरीका कामयाब रहा। जब गांव के लोगों ने फसल
तौली तो बाहर की दुनिया को यकीन नहीं हुआ। इसके बाद
बिहार सरकार के एक कृषि विज्ञानी ने स्वयं सुमंत कुमार
की फसल तौलकर रिकॉर्ड की पुष्टि की। सुमंत कुमार अब खुद में एक कृषि स्कूल बन गए हैं। उनके इर्द-
गिर्द हमेशा किसान रहते हैं और उनसे खेती के बारे में
जानकारी इकट्ठा करते हैं। जब हमने सुमंत कुमार से फोन पर
बात की तो वह बार-बार गांव आकर फसल देखने पर जोर देते
रहे। दरवेशपुरा गांव में सिर्फ सुमंत कुमार के खेत में ही रिकॉर्ड
तोड़ फसल नहीं हुई थी बल्कि कई अन्य किसानों ने भी 17
टन प्रति हैक्टेयर तक की फसल अपने खेतों से काटी थी। सुमंत और दरवेशपुरा के अन्य किसान जैविक
खादों का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। यहां तक कि वह गोबर से
खाद बनाने के लिए पड़ोस से गोबर तक घरीद लाते हैं।....."R"

मेजर शैतान सिंह,दी रियल शैर.

20 अक्टूबर 1962 में भारत-चीन बीच घमासान युद्ध प्रारम्भ हो गया...चीनी चुजे अपने को अजेय मानकर बढ़ते चले आ रहे थे...उन्होंने लेह के पूर्वी क्षेत्र व नेफा में मैकमोहन सीमा रेखा की भारतीय सैनिक चौकी पर देखते ही देखते फतह कर ली थी।

चौकी पर भारतीय सेना की कोई पेट्रोल पार्टी गश्त नहीं कर रही थी... लद्दाख की भयानक सर्दी में जवानों के पास न तो पर्याप्त कपड़े, सर्दी के जूते और न ही हथियार थे लेकिन दुश्मन का सामना करने का हौसला था...

ऊंचे ग्लेशियरों से घिरे सुनसान पहाड़ी इलाके चुशूल रेजांग ला पोस्ट पर मेजर शैतानसिंह
अपनी 13 वीं कुमाऊं बटालियन की 'सी०' कम्पनी का नेतृत्व कर रहे थे जिसमें 118
जवान थे...18 नवम्बर 1962 को बर्फीली हवाओं के तेज झोंके, कुहासे की धुंध से जवानों के हाथ-पांव ठंडे हो रहे थे कि 1310 चीनी सैनिकों का अचानक हमला हो गया...सुबह
4:35 बजे हुए उस हमले के उत्तर में मेजर शैतान सिंह, हवलदार राजकुमार, हरिराम,
सूरजा, रामचंद्र, गुलाब सिंह, रामकुमार सिंह, फूलसिंह, जयनारायण, निहाल सिंह,
हरफूल सिंह आदि ने अपनी प्लाटूनों सहित मोर्चा संभाल लिया...
मैदानी क्षेत्र से आए जवानों ने पहली बार बर्फ से ढंकी पहाडिय़ों पर मोर्चे का तजुर्बा किया था और उनके पास मौसम का सामना करने के संसाधन नहीं के बराबर थे...

मेजर शैतान सिंह अपने संख्या बल एवं हथियारों की क्षमता से परिचित थे...उन्होंने अपनी हर प्लाटून के मोर्चे तय कर निर्देश देना आरम्भ किया कि दुश्मन के हथियारों की रेंज में आते ही गोलियां चलाई जाएं...

कुछ देर की प्रतीक्षा के बाद राइफल, मशीनगन और मोर्टांर से हमला बोल दिया गया परन्तु चीनी चुजे ने उस समय तक भारतीय सैनिकों को चारों ओर से घेर लिया था...

उनका हमला जानलेवा था... उनके मोर्टारों से उगलते शोलों के गोले भारतीय सेना के बंकर व मोर्चे तबाह कर रहे थे...

इसके बावजूद भारतीय सैनिक पीछे हटने को तैयार नहीं थे...

नवम्बर माह के उस दिन पूरा देश दीपावली मना रहा था और चुशूल घाटी में भारतीय वीर खून की होली खेल रहे थे.."भारतीय लोकसभा में प्रधानमंत्री द्वारा वक्तव्य दिया जा रहा था कि जिस हिस्से पर चीन ने कब्जा किया है वहां अन्न का एक दाना भी नहीं उगता..."

सदन में कांग्रेस के ही सदस्यों ने उठकर अपनी टोपियां उतारीं और कहा नेहरुजी,
हमारे सिरों पर बाल नहीं है और आपके सिरपर भी नहीं...इसका मतलब यह नहीं कि सिर कट जाने दिया जाए...

उधर, युद्ध मैदानमें डटे मेजर शैतान सिंह ने 118 जवानों को
संबोधित करते हुए कहा कि "यह हर सैनिक के जीवन का सर्वोत्तम क्षण है कि वे अपनी मातृभूमि की पवित्रता की रक्षा करें या दुश्मन से लड़ते-लड़ते अपने प्राणों को राष्ट्रहित में न्यौछावर कर दें..."

उनके संबोधन ने सैनिकों का जोश दुगुना कर दिया। उसी बीच चीनियों चुजो ने 13 वीं कुमाऊं रेजीमेंट चौकी के पीछे से हमला बोल दिया जिससे तांगात्से छावनी जवान सैनिकों के बचने की गुंजाइश भी नहीं बची...

फिर भी, भारत के जांबाजों ने शत्रु सेना को खासा नुकसान पहुंचाया। उसी दौरान चीनी सेना की चलाई गई एक गोली.कम्पनी कमांडर मेजर शैतान सिंह को लगी लेकिन हवलदार हरफूल सिंह के कहने के
बावजूद मेजर शैतानसिंह ने मैदान से हटना कबूल नहीं किया...

उन्होंने अपनी कमर से
बेल्ट निकाल कर उनको दी और कहा मैं यहीं लड़ूंगा आप छावनी में जाकर सूचना दो कि 13 वीं कुमाऊं बटालियन की 'सीÓ कम्पनी का प्रत्येक सैनिक लहू की अंतिम बूंद और अपनी अंतिम गोली तक दुश्मन से लड़ता रहा...

दुश्मन के खिलाफ हमले पर हमले कर रहे जख्मी मेजर पर शत्रु सैनिकों की मशीनगन से निकली गोली की बौछार आई...
सीने, पेट और जांघ पर गोलियां लगने के बाद मेजर ने मृत्यु को स्वीकार कर भारतीय वीरता का सर्वोच्च आदर्श प्रस्तुत किया...

आगे चलकर तांगात्से को रेजांग ला दर्रे की लड़ाई चुशूल की लड़ाई के नाम से अविस्मरणीय वीरगाथा बन गई...
इस वीरगाथाके तीन
माह बाद बर्फ पिघलने पर भारतीय सीमा के अंदर 114 भारतीय व 1100 चीनी चुजों
के शव प्राप्त हुए...रक्षा मंत्रालय ने सैनिकों की सुरक्षा में रेडक्रास की एक टीम रेजांगला दर्रे भेजी...

निगरानी दल ने देखा कि शहीद सैनिकों की उंगलियां राइफलों के ट्रिगर पर थी तो किसी के हाथ में हथगोले थे...

"मातृभूमि की रक्षा के लिए भारतीय सैनिकों के अदम्य
साहस और बलिदान को देख चीनी सैनिकों ने जाते समय सम्मान के रूप में जमीन पर
अपनी राइफलें उल्टी गाडऩे के बाद उन पर अपनी टोपी रख दी थी...

भारतीय सैनिकों को शत्रु सैनिकों से सर्वोच्च सम्मान प्राप्त हुआ था...

आज भी इंडिया गेट दिल्ली में वीर जवान ज्योति में यह छवि देखने को मिलती है...

वहीं 13 वीं कुमाऊं रेजीमेंट के 114 वीरों की चुशूल से 12 किमी दूर एक स्मारक बना है...इस स्मारक में सभी वीर सैनिकों के नाम अंग्रेजी के अक्षरों में अंकित हैं... इस विजय प्राचीर के समान ही एक छोटी समधि के रूप में "अहीर धाम स्मारक का भी निर्माण किया गया है..."

उल्लेखनीय है कि 13 वीं कुमाऊं
बटालियन की 'सी कम्पनी में शामिल अधिकांश जांबाज जवान अहीर (यादव) ही थे...
परंतु 'रेजांग ला के समर में वे सब भारतीय सैनिक थे...
जयहिंद।