"हिंदुत्व कर्म प्रधान जीवनशैली है जिसमें धर्म का निर्धारण भी तर्कों के आधार पर होता है; गीता इसका प्रमाण है; और इसलिए इसे परिवर्तन के प्रभाव में सत्य के नए प्रारूप की स्वीकृति में कोई समस्या नहीं। यही कारन रहा है की हमारी संस्कृति ने ईश्वर के अवतार के रूप में जीवन के कई आदर्श उदाहरण को यथार्थ में प्रस्तुत किये जिसका इतिहास साक्षी रहा है।
हिंदुत्व को यह बोध है की सत्य के कई प्रारूप हो सकते है पर किसी भी परिस्थिति में उसका मूल तत्व एक ही होता है। जहाँ तक धर्म के रूप में आज प्रचलित विश्व के विभिन्न मान्यताओं का सवाल है तो किसी को इस बात पर कोई संशय नहीं होगा की विभिन्न जीवनशैली की अपनी विशिष्ट पृष्टभूमि रही है जिसको आकार प्रदान करने में समय के कालखंड, तात्कालीन सामाजिक परिस्थितियों का सन्दर्भ और भौगोलिक स्थिति की विशेष भूमिका रहती है।
समस्या धर्म नहीं बल्कि धर्म की समझ है क्योंकि अगर ईश्वर सत्य है और धर्म उसी सत्य की प्राप्ति का मार्ग तो कभी भी सत्य के प्राप्ति के मार्ग की विविधता सत्य की स्वीकृति के लिए समस्या का कारन हो ही नहीं सकती पर इसके लिए सत्य का बोध होना आवश्यक है।
जीवन में आदर्श के उदाहरण के निर्धारण का मूल्यांकन अगर कर्म के आधार पर होता है तो संभव है की विभिन्न जीवनशैली अपनी विशिष्ट पृष्टभूमि के आधार पर अपने लिए विभिन्न आदर्शों को स्वीकार करे और इसलिए अगर यह कहा जाए की हिंदुत्व के लिए अगर श्री राम, कृष्ण, गुरु गोबिंद सिंग, महात्मा बुद्ध अथवा महावीर पूजनीय व् आदर्श हैं तो स्वाभाविकतः अन्य धार्मिक मान्यताओं के भी अपने अलग इष्ट व् आराध्य होंगे।
हम श्री राम को अपना आदर्श मानते हैं पर हमें मोहम्मद या ईसा को भी पैगम्बर मान्ने में कोई समस्या नहीं, पर यह भी उतना ही सत्य है की जिन परिस्थितियों ने मोहम्मद अथवा ईसा को पैगम्बर बनाया वह उस स्थान विशेष के सामाजिक और भौगोलिक पृष्टभूमि पर निर्धारित थी जो ईसाई अथवा इस्लाम का उद्गम स्थल रहा है।
जब महत्व के लिए तुलना और प्रभाव के लिए संख्याबल निर्णायक मान लिया जाए तो स्वयं की विशिष्टता का बोध और सामाजिक स्वीकृति के लिए विस्तार की सही प्रक्रिया का ज्ञान हो पाना कठिन है;
धर्म के रूप में ईसाई या इस्लाम का जन्म भारत में नहीं हुआ, भारत ने उन्हें सत्य के रूप में स्वीकारा अवश्य है , ऐसे में, अगर भारत इस्लाम या ईसाई धर्मों के आदर्शों को सम्मान दे कर अपने सामाजिक जीवन में अपना सकता है तो भला ईसाई या इस्लाम धर्मावलंबियों को भारत की संस्कृति के आधारशिला रहे महापुरुषों को सम्मान से स्वीकार करने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए ; कारन भी नहीं है;
व्यक्ति को भी किसी नए स्थान पर स्थापित होने के लिए परिस्थिति-अनुकूलन आवश्यक होता है तो भला किसी मान्यता और विचारधारा का प्रचार प्रसार परिस्थिति अनुकूलन की किसी प्रक्रिया से प्रतिरक्षित कैसे रह सकता है !! अगर ऐसा होता है तो विश्वास मानिये की ऐसी कोई भी मान्यता जो समय और परिस्थिति के अनुरूप स्वयं को ढालने में असमर्थ हो उसका ठहराव ही उसमें तनाव को जन्म देगा जो अंततः सामाजिक घर्षण का कारन बनेगा; यही तो आज हो रहा है !
समय के घरसँ में जीवन मूल्यों की ऊपरी सतह का आलोड़ित हो जाना स्वाभाविक है और तब उनमें परिवर्तन अपरिहार्य हो जाता है पर जब हम परिवर्तन से प्रतिरक्षित हो जाएं तो वही वृद्धावस्था कहलाती है जो अंततः अपनी मृत्यु को प्राप्त करती; फिर बात चाहे व्यक्ति की करें या मान्यताओं की, यह नियम सामान रूप से सभी पर लागु होता है।
क्यों न धर्म के आधार पर ईश्वर को परिभाषित करने के बदले आज हम ईश्वर की अनुभूति के आधार पर धर्म को पुनः परिभाषित करने का प्रयास करें ; धर्म की कुंठा के निवारण और ईश्वर की सत्यता के बोध के लिए यह आवश्यक होगा; पर यह तभी संभव है जब हम स्वेक्षा से कुंठित रहने के बदले परिवर्तन को स्वीकार करें और अपनी मान्यताओं, विचारधारा और संस्कृति का युगानुकूल संस्करण प्रस्तुत करने का प्रयास करें ; आधुनिकता के इसे प्रयास को सही अर्थों में मानवता का विकास कहा जा सकता है..
यही सोच विश्व शांति को सुनिश्चित करने वाला समाधान है और वर्तमान की आवश्यकता भी जिसकी स्वीकृति के लिए विश्व के समक्ष यथार्थ में ऐसे व्यावहारिक व् आदर्श समाज का उदाहरण प्रस्तुत करने की आवश्यकता होगी जिससे समस्त संसय व् शंकाओं का निवारण हो सके;
संभावनाएं केवल भारत से है क्योंकि जनसँख्या की दृष्टि से भी आज हम विश्व के सबसे युवा देश हैं, बस, हमें हमारी मानसिकता को थोड़ी बदलनी पड़ेगी और परिवर्तन की स्वीकार करने का सहस दिखाना होगा; क्या हम इसके लिए तैयार हैं ; इसके लिए भारत को अपनी कुम्भकरण की निद्रा का परित्याग कर सत्य के प्रकाश को स्वीकार करना होगा वैसे भी, जब जागो, तब सवेरा !"
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