Thursday, 27 October 2016

"लाभ के आधार पर व्यक्तिगत प्रगति से सामाजिक विकास सुनिश्चित नहीं किया जा सकता, हाँ, इससे लोभ को अवश्य ही प्रशय मिलेगा ....पर सामाजिक विकास से समाज के सभी व्यक्ति की प्रगति अवश्य सुनिश्चित की जा सकती है, ऐसे में, महत्वपूर्ण क्या होना चाहिए, व्यक्तिगत लाभ या सामाजिक विकास ?
स्वार्थ और सेवा के बीच केवल 'स्व' के अर्थ के समझ का अंतर है.. और दुर्भाग्यवश, आज हम सब इतने छोटे हो गए हैं की माचिस की डिबिया जैसे घरों में अपने परिवार को समेट कर उसे ही अपनी दुनिया मान ली है, तभी, किसी को पता ही नहीं की अपना आखिर है क्या !
जब 'स्व' की परिधि का विस्तार कर दिया जाए तो स्वार्थ और सेवा का अंतर ही नष्ट हो जाता है; तब सेवा ही स्वार्थ बन जाती है और स्वार्थ ही सेवा.. जिसके लिए वैचारिक स्तर पर समाज का विकास आवश्यक होगा।
लोभ आतंरिक दुर्बलता का परिणाम है। जब किसी को पता ही नहीं की क्या कुछ उसका अपना है तो स्वाभाविक है की इस वैचारिक निर्धनता के प्रभाव में वह अधिक से अधिक प्राप्त करने का प्रयास करेगा। ऐसी आधिपत्य की आकांक्षा ही व्यक्ति में अहंकार को जन्म देती है और इसलिए शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति में अपनत्व के भाव को पल्लवित करने की आवश्यकता होगी।
अब इसे स्वार्थ से प्रेरित प्रयास कहिये या फिर लाभ के लोभ से ग्रषित मानसिकता जिसके प्रभाव में आज व्यक्ति के लिए भ्रस्टाचार भी तभी समस्या होती है जब वह शोषण का पात्र बनता है, अन्य परिस्थिति में भ्रस्टाचार को भी वह व्यावहारिक जीवन की आवश्यकता बताता है।
आज, नियम महत्वपूर्ण नहीं महत्व केवल अपने मतलब का है और जब अपने मतलब के लिए नियमों को तोड़ना पड़े तो उसे व्यावहारिक आवश्यकता बताया जाता है। चिंता इस बात की नहीं रह गयी की समाज में शोषित, उतपीड़ित कौन है, अपने आप को शोषण उतपीडन से बचा लेना ही महत्वपूर्ण रह गया है ; उन्हें यह नहीं समाज में आता की अगर समाज में कोई भी शोषित व् उतपीड़ित है तो यह परिस्थिति किसी के साथ भी हो सकती है। कैसे समझ आएगा, जो अपना नहीं वह दूसरा जो हो गया, और अपना क्या है, ये तो किसी को पता ही नहीं।
बात सड़क पर चलते हुए यातायात के नियमों की करें या दैनिक जीवन में ऐसी कोई भी परिस्थिति की जहाँ अपना काम निकलने की बात हो, नियम किसी के लिए महत्वपूर्ण नहीं। जब समाज के बहुमत के लिए स्वार्थ निर्णायक हो जाए तो सामाजिक जीवन में भ्रस्टाचार भी स्वीकृत जीवन शैली बन जाती है। आश्चर्य नहीं, जो विश्व के सबसे बड़े जनतंत्र में मतदाता के मत भी कुछ पैसों में बिक जाते हों।
जब समाज के लोग ही भ्रष्ट हों तो उन्हें किसी आदर्श व्यवस्था की अपेक्षा भी नहीं करनी चाहिए और अगर सामाजिक स्तर पर कभी ऐसी व्यवस्था आवश्यक हो गयी तो उसकी प्राप्ति के लिए सबसे पहले व्यक्तिगत स्तर पर महत्व की प्राथमिकताओं को पुनः निर्धारित करने की आवश्यकता होगी ;
व्यक्तिगत लाभ से अधिक महत्वपूर्ण सामाजिक विकास को बनाना होगा और इसके लिए नीति के आधार पर नियमों का सम्मान आवश्यक होगा , फिर व्यक्ति का कार्य क्षेत्र चाहे जो हो।
राष्ट्रहित में क्या होना चाहिए इसकी चिंता छोड़ दीजिये बस राष्ट्रहित में व्यक्तिगत स्तर पर जो कुछ भी कर सकते हैं उसके लिए तत्पर रहे, जब समाज में बहुमत इस मानसिकता से शासित होगा तभी सही अर्थों में राष्ट्र का विकास संभव है।
इसलिए, आज सभी के लिए यह चिंता करने की आवश्यकता है की हम 'विकास' के नाम पर एक राष्ट्र के रूप में किधर जा रहे हैं, क्या भारत का बाजारीकरण कर ही उसके परम वैभव को प्राप्त किया जा सकता है, मुझे ऐसा नहीं लगता; आपकी क्या राय है ?”

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