दुनिया में संगठन बनते और बिगड़ते रहे हैं। विचारधाराएं आयी और समाप्त होती रही हैं। सोवियत संघ और चीन से अच्छा उदहारण और क्या हो सकता है। चीन ने तो माओवाद और मार्क्सवाद को पूंजीवाद के यहां इस शर्त्त पर गिरवी रख दी है कि चीनी कुलीन अधिनायकवाद का रसपान करते रहे । पूंजीवाद और कम्युनिस्ट चीन के बीच का यह बाजारवादी समझ और समझौता है । 1917 में बोल्शेविक क्रांति रूस में हुई थी और मात्र सात दशको में कम्यनिस्ट पार्टी ,जो सोवियत राष्ट्र -राज्य का पर्याय बन गयी थी,का पतन हो गया और फिर वही उस राज्य के विखराव का कारण भी बना।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई और वही काल था जब सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट विचारो नेभी भारत में करवट लेना शुरू किया था । पर वे आज हासिये पर हैं औरRSS भारतीय राष्ट्र जीवन के केंद्र की और बढ़ता जा रहा है। इसकी ताकत को शाखाओं या स्वयंसेवकों की संख्या के आधार पर मापना गलत होगा। ऐसी संख्या तो किसी दुसरे संगठन के पास भी हो सकती है। संख्या की गुणात्मकता महत्व का होता है जो उस संख्या के प्रभाव और तीव्रता को की गुना बढा देता है। संघ से जूड़ने वाले व्यक्ति के सामने लक्ष्य के प्रति 'यांची देहि यांची डोला' (इसी शरीर और आंखो के सामने ) का भाव होता है और उसे प्राप्त करने के उद्देश्य से संघ रूपी साधन से घुल मिलकर एक हो जाता है। साधन और साध्य की पवित्रता जिसकी बात महात्मा गाँधी भी किया करते थे ने संघ को एक नैतिक वैधानिकता के रूप में बड़ी पूँजी है। इसलिए विरोधो और प्रहारों के बावजूद संघ समाज में कभी अलग थलग नही हुआ। जब लोकशक्ति राज्य शक्ति के इतर राष्ट्रीय प्रश्नों को लेकर समस्या मूलक नही समाधानात्मक विमर्श करती है और उसके लिए समाज को ही साधन में परिवर्तित कर देती है तो उसकी आयु और ऊर्जा अपरिमित हो जाती है। तभी तो एक बेल्ट या निकर में परिवर्त्तन भी बड़ा समाचार और लम्बा विमर्श का कारण बन जाता है।
पिछले कुछ दशको से राजनितिक ही नही सामाजिक सांस्कृतिक विमर्श में लगातार गिरावट आयी है। गाली गलौज , आरोप प्रत्यारोप , काल्पनिक और ओछी बाते विमर्श की परिधान बन गयी थी। कौन कितना दोषी है इसपर विवाद तो हो सकता है पर विमर्श के स्तर पर निर्विवाद रूप से स्कूली बच्चो से लेकर सामान्य नागरिको की एक जैसी राय है। कभी राधकृष्णन ,कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी , जयप्रकाश नारयण , दीनदयाल उपाध्याय , विनोबा भावे जैसे लोगो के भाषण मन को छूने वाला , मष्तिष्क को खुराक देने वाला होता था। उन्हें सस्ती लोकप्रियता कीचिंता नही थी। एक बार जे पी दिल्ली के लाजपत नगर में 50 के दशक में तीन दिनों तक भाषण किया तो एक उद्योगपति मालिक ने यह कहकर उनके दुसरे भाषण को प्रकाशित होने से रोक दिया कि विधर्मियो के लिए जगह उनके अखबार में जगह नही है। तब संपादक के पत्र कॉलम में संवादाता ने चालाकी से उनके भाषण को प्रकशित कर दिया। पर जे पी को छपने की चिंता नही समाज बदलें की चिंता थी। वे तात्कालिकता में नही दीर्घकालिकता में जीते थे। आज उनके जैसे राजनेताओ के भषणो का संग्रह पाठ्यक्रम का हिस्सा बनने लायक है।
बालासाहब देवरस जो संघ के तीसरे सरसंघचालक थे ने 1974 में कहा था कि 'अगर अस्पृश्यता पाप नही है तो दुनिया में कुछ भी पाप नही है।' इस Nromative Position को लेकर संघ आज तक चलता आया है। मोहन भागवत जी ने इस Position को Empirical Position के आयने में अधिक प्रभावी बना दिया। सामजिक हकीकत को अपने संघ तन्त्र के उपयोग से समाज के सामने रखा। अनेक प्रान्तों में सर्वेक्षण हुआ। इसके लिए एजेंसी नही लगायी गयी। शाखा सर्वेक्षण का माध्यम बना। पहले भी सर्वेक्षण होते रहे हैं जो एक राजनितिक वैचारिक उपक्रम के तहत थे और रहे हैं। Economic & Political Weekly /Mainstram /समयांतर / Marxist /Social Action जैसी पत्रिकाओ में 'शोधपरक' लेख छापकर हाय तोबा मचाना , भारत के भीतर पहचान की लड़ाई को बढाकर बौद्धिक विमर्श करना एक घोषित या अघोषित उद्देश्य रहा है। एक देश में जहां सामाजिक, सांस्कृतिक और सांप्रदायिक विरोधाभाषभर भरा पड़ा हों और जिसे लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता के साथ चलना भी हो तो उसके अकादमिक वर्ग का रास्ता विकसित देशो की तुलना में अलग। उसका अकादमिक वर्ग पश्चिम के राष्ट्रों का अनुकरण करता है तो उसका हस्र वही होता है जो हम भारत में सात दशक से देख रहे हैं। उसे तो राष्ट्र निर्माण का सक्रिय साधन बनना पड़ता है।
मोहन भगवत जी ने मध्यभारत के सर्वे को अपने भाषण में रखा। 9000 गावो में 40 प्रतिशत गावो में मंदिर प्रवेश में अस्पृश्यता रुकावट है ,30 प्रतिशत गावो में जल श्रोत का स्थान और 35 प्रतिशत शमसान के उपयोग पर अस्पृश्यता बाधक है। उनके द्वारा इसे विजयदशमी उद्बोधन मे शामिल करना समाज को झकझोरने और सामाजिक यथार्थ में अबतक यथास्थितिवाद बने रहने के प्रति पीड़ादायक चिन्ता थी। उन्होंने उस तबके को आरे हाथ लिया तो अपने जातिगत अहंकार से कमजोर वर्ग के लोगो पर जूल्म ढाहते हैं जैसा उना में हुआ। यही जातिगत अहंकार सामंतवाद का दूसरा ना म है। उस अहंकार को तोड़ना और समाजिक न्याय को हासिल करने में शाखा केंद्र के रूप में काम करेगी।
संघ ने एक और पक्ष को विस्तार से रखा है। वह है समाज में शिक्षा की भूमिका। शिक्षा स्वावलम्बी बनाने का साधन तो बने ही परन्तु उसे नव उदारीकरण के दौर में व्यवसायिकरण के चपेट में आने का खतरा दस्तक दे रहा है। समाज के साथ राज्य की सक्रिय भागीदारी इस खतरे से निबटने के लिए आवश्यक है। मोहन भागवत जी नेदो वर्ष पहले के उद्बोधन में वालमार्ट से निजी व्यपारियो के संकट को समाज के सामने रखा। अब शिक्षा को वालमार्टों से बचाने का आग्रह किया है। यह एक महत्वपूर्ण पक्ष है। और अंतिम बात। अगर संघ नही होता तो उत्तरपूर्व की क्रांतिकारी स्वत्रंत्रता सेनानी रानी गाइडिन्ल्यू से भारत की जनता अपरिचित रह जाती। पिछले वर्ष संघ ने उनका शताब्दी वर्ष मनाया था। वह कमला नेहरू नही थी जिन्हें पर्याप्त स्थान इतिहास की पुस्तको में मिलता। 1000 साल पहले दो विद्वानों ने भारत में जन्म लिया था -अभिनव गुप्त और रामानुजाचार्य। मोहन भागवत जी ने उन दोनों पर विस्तार से प्रकाश डाला।कहां हैं कश्मीरियत की बात करने वाले ? वे बताये कि अभिनव गुप्त जो कश्मीर से थे उस कश्मीरियत का हिस्सा हैं या नहीं ?उसके पूज्य पुरुष माने जायेंगे या नहीं ? सेकुलरवादी , पाश्चात्यवादी सौंदर्य शास्त पश्चिम से सीखते है और घर में ही अभिनव गुप्त की इसपर अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न रचनाएँ ओझल पड़ी रही ! इस विडम्बना से देश जब तक नही निकलेगा स्वराज सिर्फ भौगोलिक और राजनितिक रूपमे रहेगा। स्वराज तो विचारो , संस्कृति, मन और मानसिकता का होना चाहिए। मोहन भागवात जी ने उसीवैचारिक सांस्कृतिक स्वराज की प्राप्ति के लिए संघ के प्रयास को सामने रखा।
यही विमर्श है जो भारत को भारत वर्ष बनाएगा। परायेपन के भाव से मुक्त कराएगा। इस भारत की खोज यूरोपियन मन और मानसिकता से पुस्तक रचना में नही भारतीय विरासत को आधुनिकता के परिपेक्ष्य में रखकर समाज रचना में है। जो इस काम में लगे हैं वे स्वत्रन्ता के बाद के विचारो के स्वराज की लड़ाई के सेनानी हैं और संघ उस वैचारिक साम्रज्यवाद के खिलाफ लड़ाई का सबसे बड़ा मंच बन गया है। मोहन भागवात जी उसी मंच से विमर्श को कुलीनता और राजनितिक स्वार्थ के साये से बाहर निकालकर लोक मानस को सशक्त करने का काम विजयादशमी के भाषण में किया है।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 1925 में हुई और वही काल था जब सोशलिस्ट और कम्युनिस्ट विचारो नेभी भारत में करवट लेना शुरू किया था । पर वे आज हासिये पर हैं औरRSS भारतीय राष्ट्र जीवन के केंद्र की और बढ़ता जा रहा है। इसकी ताकत को शाखाओं या स्वयंसेवकों की संख्या के आधार पर मापना गलत होगा। ऐसी संख्या तो किसी दुसरे संगठन के पास भी हो सकती है। संख्या की गुणात्मकता महत्व का होता है जो उस संख्या के प्रभाव और तीव्रता को की गुना बढा देता है। संघ से जूड़ने वाले व्यक्ति के सामने लक्ष्य के प्रति 'यांची देहि यांची डोला' (इसी शरीर और आंखो के सामने ) का भाव होता है और उसे प्राप्त करने के उद्देश्य से संघ रूपी साधन से घुल मिलकर एक हो जाता है। साधन और साध्य की पवित्रता जिसकी बात महात्मा गाँधी भी किया करते थे ने संघ को एक नैतिक वैधानिकता के रूप में बड़ी पूँजी है। इसलिए विरोधो और प्रहारों के बावजूद संघ समाज में कभी अलग थलग नही हुआ। जब लोकशक्ति राज्य शक्ति के इतर राष्ट्रीय प्रश्नों को लेकर समस्या मूलक नही समाधानात्मक विमर्श करती है और उसके लिए समाज को ही साधन में परिवर्तित कर देती है तो उसकी आयु और ऊर्जा अपरिमित हो जाती है। तभी तो एक बेल्ट या निकर में परिवर्त्तन भी बड़ा समाचार और लम्बा विमर्श का कारण बन जाता है।
पिछले कुछ दशको से राजनितिक ही नही सामाजिक सांस्कृतिक विमर्श में लगातार गिरावट आयी है। गाली गलौज , आरोप प्रत्यारोप , काल्पनिक और ओछी बाते विमर्श की परिधान बन गयी थी। कौन कितना दोषी है इसपर विवाद तो हो सकता है पर विमर्श के स्तर पर निर्विवाद रूप से स्कूली बच्चो से लेकर सामान्य नागरिको की एक जैसी राय है। कभी राधकृष्णन ,कन्हैया लाल माणिक लाल मुंशी , जयप्रकाश नारयण , दीनदयाल उपाध्याय , विनोबा भावे जैसे लोगो के भाषण मन को छूने वाला , मष्तिष्क को खुराक देने वाला होता था। उन्हें सस्ती लोकप्रियता कीचिंता नही थी। एक बार जे पी दिल्ली के लाजपत नगर में 50 के दशक में तीन दिनों तक भाषण किया तो एक उद्योगपति मालिक ने यह कहकर उनके दुसरे भाषण को प्रकाशित होने से रोक दिया कि विधर्मियो के लिए जगह उनके अखबार में जगह नही है। तब संपादक के पत्र कॉलम में संवादाता ने चालाकी से उनके भाषण को प्रकशित कर दिया। पर जे पी को छपने की चिंता नही समाज बदलें की चिंता थी। वे तात्कालिकता में नही दीर्घकालिकता में जीते थे। आज उनके जैसे राजनेताओ के भषणो का संग्रह पाठ्यक्रम का हिस्सा बनने लायक है।
बालासाहब देवरस जो संघ के तीसरे सरसंघचालक थे ने 1974 में कहा था कि 'अगर अस्पृश्यता पाप नही है तो दुनिया में कुछ भी पाप नही है।' इस Nromative Position को लेकर संघ आज तक चलता आया है। मोहन भागवत जी ने इस Position को Empirical Position के आयने में अधिक प्रभावी बना दिया। सामजिक हकीकत को अपने संघ तन्त्र के उपयोग से समाज के सामने रखा। अनेक प्रान्तों में सर्वेक्षण हुआ। इसके लिए एजेंसी नही लगायी गयी। शाखा सर्वेक्षण का माध्यम बना। पहले भी सर्वेक्षण होते रहे हैं जो एक राजनितिक वैचारिक उपक्रम के तहत थे और रहे हैं। Economic & Political Weekly /Mainstram /समयांतर / Marxist /Social Action जैसी पत्रिकाओ में 'शोधपरक' लेख छापकर हाय तोबा मचाना , भारत के भीतर पहचान की लड़ाई को बढाकर बौद्धिक विमर्श करना एक घोषित या अघोषित उद्देश्य रहा है। एक देश में जहां सामाजिक, सांस्कृतिक और सांप्रदायिक विरोधाभाषभर भरा पड़ा हों और जिसे लोकतंत्र और पंथनिरपेक्षता के साथ चलना भी हो तो उसके अकादमिक वर्ग का रास्ता विकसित देशो की तुलना में अलग। उसका अकादमिक वर्ग पश्चिम के राष्ट्रों का अनुकरण करता है तो उसका हस्र वही होता है जो हम भारत में सात दशक से देख रहे हैं। उसे तो राष्ट्र निर्माण का सक्रिय साधन बनना पड़ता है।
मोहन भगवत जी ने मध्यभारत के सर्वे को अपने भाषण में रखा। 9000 गावो में 40 प्रतिशत गावो में मंदिर प्रवेश में अस्पृश्यता रुकावट है ,30 प्रतिशत गावो में जल श्रोत का स्थान और 35 प्रतिशत शमसान के उपयोग पर अस्पृश्यता बाधक है। उनके द्वारा इसे विजयदशमी उद्बोधन मे शामिल करना समाज को झकझोरने और सामाजिक यथार्थ में अबतक यथास्थितिवाद बने रहने के प्रति पीड़ादायक चिन्ता थी। उन्होंने उस तबके को आरे हाथ लिया तो अपने जातिगत अहंकार से कमजोर वर्ग के लोगो पर जूल्म ढाहते हैं जैसा उना में हुआ। यही जातिगत अहंकार सामंतवाद का दूसरा ना म है। उस अहंकार को तोड़ना और समाजिक न्याय को हासिल करने में शाखा केंद्र के रूप में काम करेगी।
संघ ने एक और पक्ष को विस्तार से रखा है। वह है समाज में शिक्षा की भूमिका। शिक्षा स्वावलम्बी बनाने का साधन तो बने ही परन्तु उसे नव उदारीकरण के दौर में व्यवसायिकरण के चपेट में आने का खतरा दस्तक दे रहा है। समाज के साथ राज्य की सक्रिय भागीदारी इस खतरे से निबटने के लिए आवश्यक है। मोहन भागवत जी नेदो वर्ष पहले के उद्बोधन में वालमार्ट से निजी व्यपारियो के संकट को समाज के सामने रखा। अब शिक्षा को वालमार्टों से बचाने का आग्रह किया है। यह एक महत्वपूर्ण पक्ष है। और अंतिम बात। अगर संघ नही होता तो उत्तरपूर्व की क्रांतिकारी स्वत्रंत्रता सेनानी रानी गाइडिन्ल्यू से भारत की जनता अपरिचित रह जाती। पिछले वर्ष संघ ने उनका शताब्दी वर्ष मनाया था। वह कमला नेहरू नही थी जिन्हें पर्याप्त स्थान इतिहास की पुस्तको में मिलता। 1000 साल पहले दो विद्वानों ने भारत में जन्म लिया था -अभिनव गुप्त और रामानुजाचार्य। मोहन भागवत जी ने उन दोनों पर विस्तार से प्रकाश डाला।कहां हैं कश्मीरियत की बात करने वाले ? वे बताये कि अभिनव गुप्त जो कश्मीर से थे उस कश्मीरियत का हिस्सा हैं या नहीं ?उसके पूज्य पुरुष माने जायेंगे या नहीं ? सेकुलरवादी , पाश्चात्यवादी सौंदर्य शास्त पश्चिम से सीखते है और घर में ही अभिनव गुप्त की इसपर अद्भुत प्रतिभा सम्पन्न रचनाएँ ओझल पड़ी रही ! इस विडम्बना से देश जब तक नही निकलेगा स्वराज सिर्फ भौगोलिक और राजनितिक रूपमे रहेगा। स्वराज तो विचारो , संस्कृति, मन और मानसिकता का होना चाहिए। मोहन भागवात जी ने उसीवैचारिक सांस्कृतिक स्वराज की प्राप्ति के लिए संघ के प्रयास को सामने रखा।
यही विमर्श है जो भारत को भारत वर्ष बनाएगा। परायेपन के भाव से मुक्त कराएगा। इस भारत की खोज यूरोपियन मन और मानसिकता से पुस्तक रचना में नही भारतीय विरासत को आधुनिकता के परिपेक्ष्य में रखकर समाज रचना में है। जो इस काम में लगे हैं वे स्वत्रन्ता के बाद के विचारो के स्वराज की लड़ाई के सेनानी हैं और संघ उस वैचारिक साम्रज्यवाद के खिलाफ लड़ाई का सबसे बड़ा मंच बन गया है। मोहन भागवात जी उसी मंच से विमर्श को कुलीनता और राजनितिक स्वार्थ के साये से बाहर निकालकर लोक मानस को सशक्त करने का काम विजयादशमी के भाषण में किया है।
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