आजादी के बाद से राजनैतिक स्वार्थों के लिए एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत दलित उत्थान के नाम पर जो खेल खेला गया, उससे सबसे ज्यादा दलित प्रभावित हुए। दलितों से उनका पारंपरिक आय का स्रोत छीना गया।
अजीब लग रहा है न?
आइये साक्ष्य देता हूँ।
प्राचीन भारत जो जातियों में बटा था, उसमे हर जाति के पास रोजगार के साधन उपलब्ध थे। कुम्हार बर्तन बनाता, लुहार लोहे का काम करता, हजाम हजामत का काम करता, अहीर पशुपालन करते, तेली तेल का धंधा करता, वगैरह... कोई भी जाति दूसरी जाति का काम छीनने का प्रयास नही करती थी।
इस व्यवस्था के अनुसार दलितों का जो मुख्य पेशा था वह था- पशुपालन( डोम का सूअर पालन), मांस व्यवसाय , चमड़ा व्यवसाय और सबसे बड़ा बच्चों के जन्म के समय प्रसव कराने का कार्य।
एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत दलितों को यह एहसास दिलाया गया कि आप जो काम कर रहे हैं वह गन्दा है, घृणित है। फलस्वरूप वे अपने पेशे से दूर होते गए और उनसे ये सारे धंधे छीन लिए गए। पर दलितों के छोड़ देने से क्या ये काम बन्द हो गए?
आज तनिक नजर उठा कर देखिये, चमड़ा उद्योग और मांस उद्योग का वार्षिक टर्न ओवर लाखों करोड़ों का नहीं बल्कि खरबों का है। आज यह व्यवसाय किस जाति के हाथ में है?
आपकी हमारी आँखों के सामने दलितों से उनकी आमदनी का स्रोत छीन कर एक अन्य ..."समुदाय".. हम (मुसलमानो) के झोले में डाल दिया गया और दलित यह चाल समझ नही पाये।
उत्तर प्रदेश में ,,,जय भीम ,,जय मीम ,,,के धोखेबाज नारे के जाल में दलितों को फंसा कर उन्हें अन्य हिन्दुओ के विरुद्ध भड़काने वालों की मंशा साफ है, वे आपको सौ टुकड़े में तोड़ कर आपके सारे हक लूटना चाहते हैं।
तनिक सोशल मिडिया में ध्यान से देखिये, दलितवाद का झूठा खेल अधिकांश वे ही लोग क्यों खेल रहे हैं जिन्होंने दलितों के पेशे पर डकैती डाली है।
दलितों की दुर्दशा के सम्बंध में जो मुख्य बातें बताई जाती हैं, तनिक उनका विश्लेषण कीजिये।
वे आपको बताते हैं, ब्राम्हणों ने दलितों से मल ढोने का काम कराया...!!!
इतिहास और प्राचीन साहित्य का कोई ज्ञाता बताये,
क्या प्राचीन सनातन भारत में घर के मण्डप के अंदर शौचालय निर्माण का कोई साक्ष्य मिलता है?
कहीं नही।
सच तो यह है कि भारत में घर के अंदर शौचालय बनाने की परम्परा मुगलकाल में फैली। भारत के गांवों में तो आज से तीस चालीस वर्ष पहले तक शौचालय होते ही नही थे। फिर इस घृणित परम्परा के लिए सवर्ण कैसे जिम्मेवार हुए?
आपको इतना पता होगा कि मध्यकालीन भारत में हिंदुओं का सबसे ज्यादा कन्वर्जन हुआ।
तनिक पता लगाइये तो,
क्या धर्म परिवर्तन के बाद एक तेली पठान हो गया?
कोई लुहार क्या शेख हो गया? न
हीं न!
तेली ने धर्म बदला तो मुसलमान तेली हो गया।
हजाम बदला तो मुसलमान हजाम हो गया।
गांवों में देखिये,
मुसलमान हजाम, लोहार, तेली, धुनिया, धोबी और यहां तक कि राजपूत भी हैं। उनका सिर्फ धर्म बदला है जातियां नहीं।
जिन लोगों में आज दलित प्रेम जोर मार रहा है वे क्या बताएँगे कि उन्होंने अपने धर्म में जाति ख़त्म करने का क्या उपाय किया?
प्राचीन भारत में दलित दुर्दशा के विषय में सोचने के पहले एक बार अपने गांव के सिर्फ पचास बर्ष पहले के इतिहास को याद कर लीजिये। दलितों की स्थिति बुरी थी, तो क्या अन्य जातियों की बहुत अच्छी थी?
कठे अंवासी बिगहे बोझ( एक कट्ठा में एक मुठा और एक बीघा में एक बोझा, भोजपुरी कहावत) वाले जमाने में जब हर चार पांच साल पर अकाल पड़ते तो क्या सिर्फ एक विशेष जाति के ही लोग दुःख भोगते थे?
सत्य यह है कि उस घोर दरिद्रता के काल में सभी दुःख भोग रहे थे। कोई थोडा कम, और कोई थोडा ज्यादा।
कल जो हुआ वो हुआ। उसे बदलना हमारे हाथ में नहीं, पर हम चाहें तो हमारा वर्तमान सुधर सकता है। यह युग धार्मिक से ज्यादा आर्थिक आधार पर संचालित होता है। इस युग में जिसके पास पैसा है वही सवर्ण है, और जिसके पास नही है वे दलित हैं।
अपने आर्थिक ढांचे को बचाने का प्रयास कीजिये, वैश्वीकरण के इस युग में हमे अपनी सारी दरिद्रता को उखाड़ फेकने में दस साल से अधिक नही लगेगा।
अंत में एक उदाहरण दे दूँ,!
ब्राम्हणों में एक उपजाति होती है महापात्र की।
ये लोग मृतक के श्राद्ध में ग्यारहवें दिन खाते हैं। समाज में इन्हें इतना अछूत माना जाता है कि कोई इन्हें अपने शुभ कार्य में नही बुलाता। इनकी शादियां शेष ब्राम्हणों में नही होती। पर इन्होंने कभी अपना पेशा नही छोड़ा।जिस गांव में ये हैं उस गांव के सबसे अमीर लोग ये ही हैं।
तो भइया, इस आर्थिक युग में स्वयं को स्थापित करने का प्रयास कीजिये। अरबी पैसे से पेट भर कर समाज में आग लगाने का प्रयास करने वाले इन चाइना परस्त लोगों के धोखे में न आइये।
ये देश जितना चन्द्रगुप्त का है उतना ही चन्द्रगुप्त मौर्य का। जितना महाराणा उदयसिंघ का है उतना ही पन्ना धाय का। जितना बाबू कुंवर सिंह का है उतना ही बिरसा भगवान का .|
अजीब लग रहा है न?
आइये साक्ष्य देता हूँ।
प्राचीन भारत जो जातियों में बटा था, उसमे हर जाति के पास रोजगार के साधन उपलब्ध थे। कुम्हार बर्तन बनाता, लुहार लोहे का काम करता, हजाम हजामत का काम करता, अहीर पशुपालन करते, तेली तेल का धंधा करता, वगैरह... कोई भी जाति दूसरी जाति का काम छीनने का प्रयास नही करती थी।
इस व्यवस्था के अनुसार दलितों का जो मुख्य पेशा था वह था- पशुपालन( डोम का सूअर पालन), मांस व्यवसाय , चमड़ा व्यवसाय और सबसे बड़ा बच्चों के जन्म के समय प्रसव कराने का कार्य।
एक सुनियोजित षड्यंत्र के तहत दलितों को यह एहसास दिलाया गया कि आप जो काम कर रहे हैं वह गन्दा है, घृणित है। फलस्वरूप वे अपने पेशे से दूर होते गए और उनसे ये सारे धंधे छीन लिए गए। पर दलितों के छोड़ देने से क्या ये काम बन्द हो गए?
आज तनिक नजर उठा कर देखिये, चमड़ा उद्योग और मांस उद्योग का वार्षिक टर्न ओवर लाखों करोड़ों का नहीं बल्कि खरबों का है। आज यह व्यवसाय किस जाति के हाथ में है?
आपकी हमारी आँखों के सामने दलितों से उनकी आमदनी का स्रोत छीन कर एक अन्य ..."समुदाय".. हम (मुसलमानो) के झोले में डाल दिया गया और दलित यह चाल समझ नही पाये।
उत्तर प्रदेश में ,,,जय भीम ,,जय मीम ,,,के धोखेबाज नारे के जाल में दलितों को फंसा कर उन्हें अन्य हिन्दुओ के विरुद्ध भड़काने वालों की मंशा साफ है, वे आपको सौ टुकड़े में तोड़ कर आपके सारे हक लूटना चाहते हैं।
तनिक सोशल मिडिया में ध्यान से देखिये, दलितवाद का झूठा खेल अधिकांश वे ही लोग क्यों खेल रहे हैं जिन्होंने दलितों के पेशे पर डकैती डाली है।
दलितों की दुर्दशा के सम्बंध में जो मुख्य बातें बताई जाती हैं, तनिक उनका विश्लेषण कीजिये।
वे आपको बताते हैं, ब्राम्हणों ने दलितों से मल ढोने का काम कराया...!!!
इतिहास और प्राचीन साहित्य का कोई ज्ञाता बताये,
क्या प्राचीन सनातन भारत में घर के मण्डप के अंदर शौचालय निर्माण का कोई साक्ष्य मिलता है?
कहीं नही।
सच तो यह है कि भारत में घर के अंदर शौचालय बनाने की परम्परा मुगलकाल में फैली। भारत के गांवों में तो आज से तीस चालीस वर्ष पहले तक शौचालय होते ही नही थे। फिर इस घृणित परम्परा के लिए सवर्ण कैसे जिम्मेवार हुए?
आपको इतना पता होगा कि मध्यकालीन भारत में हिंदुओं का सबसे ज्यादा कन्वर्जन हुआ।
तनिक पता लगाइये तो,
क्या धर्म परिवर्तन के बाद एक तेली पठान हो गया?
कोई लुहार क्या शेख हो गया? न
हीं न!
तेली ने धर्म बदला तो मुसलमान तेली हो गया।
हजाम बदला तो मुसलमान हजाम हो गया।
गांवों में देखिये,
मुसलमान हजाम, लोहार, तेली, धुनिया, धोबी और यहां तक कि राजपूत भी हैं। उनका सिर्फ धर्म बदला है जातियां नहीं।
जिन लोगों में आज दलित प्रेम जोर मार रहा है वे क्या बताएँगे कि उन्होंने अपने धर्म में जाति ख़त्म करने का क्या उपाय किया?
प्राचीन भारत में दलित दुर्दशा के विषय में सोचने के पहले एक बार अपने गांव के सिर्फ पचास बर्ष पहले के इतिहास को याद कर लीजिये। दलितों की स्थिति बुरी थी, तो क्या अन्य जातियों की बहुत अच्छी थी?
कठे अंवासी बिगहे बोझ( एक कट्ठा में एक मुठा और एक बीघा में एक बोझा, भोजपुरी कहावत) वाले जमाने में जब हर चार पांच साल पर अकाल पड़ते तो क्या सिर्फ एक विशेष जाति के ही लोग दुःख भोगते थे?
सत्य यह है कि उस घोर दरिद्रता के काल में सभी दुःख भोग रहे थे। कोई थोडा कम, और कोई थोडा ज्यादा।
कल जो हुआ वो हुआ। उसे बदलना हमारे हाथ में नहीं, पर हम चाहें तो हमारा वर्तमान सुधर सकता है। यह युग धार्मिक से ज्यादा आर्थिक आधार पर संचालित होता है। इस युग में जिसके पास पैसा है वही सवर्ण है, और जिसके पास नही है वे दलित हैं।
अपने आर्थिक ढांचे को बचाने का प्रयास कीजिये, वैश्वीकरण के इस युग में हमे अपनी सारी दरिद्रता को उखाड़ फेकने में दस साल से अधिक नही लगेगा।
अंत में एक उदाहरण दे दूँ,!
ब्राम्हणों में एक उपजाति होती है महापात्र की।
ये लोग मृतक के श्राद्ध में ग्यारहवें दिन खाते हैं। समाज में इन्हें इतना अछूत माना जाता है कि कोई इन्हें अपने शुभ कार्य में नही बुलाता। इनकी शादियां शेष ब्राम्हणों में नही होती। पर इन्होंने कभी अपना पेशा नही छोड़ा।जिस गांव में ये हैं उस गांव के सबसे अमीर लोग ये ही हैं।
तो भइया, इस आर्थिक युग में स्वयं को स्थापित करने का प्रयास कीजिये। अरबी पैसे से पेट भर कर समाज में आग लगाने का प्रयास करने वाले इन चाइना परस्त लोगों के धोखे में न आइये।
ये देश जितना चन्द्रगुप्त का है उतना ही चन्द्रगुप्त मौर्य का। जितना महाराणा उदयसिंघ का है उतना ही पन्ना धाय का। जितना बाबू कुंवर सिंह का है उतना ही बिरसा भगवान का .|
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