Saturday 31 May 2014

कश्मीरः नासमझी ने बनाया नासूर

कश्मीरः नासमझी ने बनाया नासूर
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पहले १९५३ में दो अलग-अलग दुश्मन राज्यों की तरह जम्मू और कश्मीर आपस में भिड़ रहे थे. शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की नीतियों के विरूद्ध जम्मू में प्रजा परिषद नाम के संगठन ने आंदोलन छेड़ रखा था. तब जम्मू का नारा था- एक विधान, एक प्रधान और एक निशान. कश्मीर में धारा 370 की आड़ में जो अपना संविधान बना था वह कई मायनों में भारतीय संविधान की पहुंच से बाहर था.
उसी आंदोलन के दौरान श्यामा प्रसाद मुखर्जी बिना परमिट के जम्मू कश्मीर में दाखिल हुए थे. उन दिनों बिना अनुमति पत्र के कोई भी भारतीय कश्मीर में प्रवेश नहीं पा सकता था. डाक्टर मुखर्जी की रहस्यमय तरीके से जेल में मौत हो गयी. जम्मू और कश्मीर के बीच इतना तनाव पैदा हो गया था कि लोग एक दूसरे के इलाकों से भागने लगे थे. शेख अब्दुल्ला भारत विरोधी बयान दे रहे थे. और नेहरू के नेतृत्व में भारत बहुत कठिन परिस्थितियों में पड़ गयी थी. मजबूरी में नेहरू को अपने मित्र शेख अब्दुल्ला को बर्खास्त करके गिरफ्तार करना पड़ा. आज कोई आधी सदी बाद जम्मू-कश्मीर में एक बार फिर वही हालात दिखाई दे रहे हैं. अमरनाथ पर सरकार के फैसले के विरोध में प्रदर्शन इस कदर पूरे क्षेत्र में फैल गया है कि कोई संगठन या राजनीतिक दल इससे अछूता नहीं रह गया है.
हम वहीं कैसे खिसक आये जहां पिछली सदी के मध्य में हमने यात्रा प्रारंभ की थी? कश्मीर हमारी राजनीतिक व्यवस्था का ऐसा आईना है जिसमें हम अपने अतीत और वर्तमान को तो देख ही सकते हैं चाहें तो भविष्य की भी झलक मिल सकती है. पचपन साल पहले भी जवाहर लाल नेहरू ने इस उम्मीद में शेख अब्दुल्ला को कमान सौंपी थी कि कश्मीर में न केवल लोकतंत्र की बयार बहेगी बल्कि वह भारत संघ का अभिन्न अंग बन जाएगा. नेहरू विशेष सहायता न करते तो शेख अब्दुल्ला महाराजा के साथ समझौता करके उसी व्यवस्था में समा जाते. उन्होंने राजा हरि सिंह को आजादी मिलने से पहले ही चिट्ठी लिखी थी जिसमें आजादी की कस्में खायी थीं. नेहरू ने उन्हें कश्मीर का प्रधानमंत्री बनाया और उन्होंने प्रधानमंत्री बने रहने की ही ठान ली. जिस विलय पत्र पर उनके कहने पर राजा ने हस्ताक्षर किये थे वे उसकी अपनी ही व्याख्या करने लगे. उनकी व्याख्या मानी जाती तो कश्मीर ही क्या कोई भी भारतीय रियासत भारत से अलग जाने या स्वतंत्र रहने का दावा कर सकती थी.
महाराजा को निष्कासित कराके शेख ने कश्मीर को अलग देश के रूप में रखने का आग्रह किया. लेकिन इसके लिए तर्क और कानूनी अवसर भारत सरकार ने ही उपलब्ध करवाये. विलय की प्रार्थना स्वीकार करते हुए भारत सरकार की ओर से गवर्नर जनरल माउण्टबेटेन ने जो उत्तर दिया उसी में यह भी जोड़ा गया था कि जब कबायली आक्रमणकारी हट जाएंगे और राज्य में कानून व्यवस्था ठीक हो जाएगी तो कश्मीर के लोग स्वयं ही तय करेंगे कि उन्हें क्या करना चाहिए. यानी यह विलय अस्थायी ही था. यही तो पाकिस्तान शुरू से ही कह रहा है और अलगाववादी-आतंकवादी भी यही कह रहे हैं. जब शेख अब्दुल्ला यही कहने लगे तो दिल्ली के शासकों के ध्यान में आया कि उन्होंने कितनी बड़ी भूल कर दी है. शेख अब्दुल्ला को हटाकर अधकचरे फैसलों और यथास्थितिवाद का जो सिलसिला शुरू हुआ वह लगातार जटिल होता चला गया. जिस समय कश्मीर में धारा ३७० लागू करने की मांग हो रही थी उस समय तीन भारतीय नेताओं ने प्रधानमंत्री नेहरू को चेताया था कि यह व्यवस्था आगे चलकर भारी समस्या पैदा कर सकती है. ये तीन नेता थे राजेन्द्र प्रसाद, भीमराव अम्बेडकर और सरदार पटेल. अम्बेडकर ने संविधान का प्रारूप बनाया था, राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे और सरदार पटेल भारत संघ की एकता के संयोजक थे. लेकिन नेहरू ने उन नेताओं को कहा कि यह धारा तो अस्थाई है और धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी. लेकिन शेख अब्दुल्ला ने ऐसी व्यवस्था कर दी ऐसा कभी हो ही नहीं सकता था. इस धारा को तभी हटाया जा सकता है जबकि कश्मीर विधानसभा इसे हटाने की सिफारिश करे.
आज हम पाकिस्तान को चाहे जितना दोष दें लेकिन कश्मीर में पाकिस्तान के दखल के लिए परिस्थितियां भी हमने ही पैदा की. पाकिस्तान ने कबायली गिरोहों की मदद से कश्मीर पर हमला किया. भारतीय सेना ने हमलावरों को खदेड़ना शुरू किया. सेना अभी कश्मीर की सीमाओं तक पहुंची ही नहीं थी कि सरकार ने युद्ध विराम कर दिया. भारतीय सेना बीच मैदान में ही अटक गयी. ऊपर पहाड़ियों पर पाकिस्तानी फौजें डटी हुई थीं. रेखा खिंच गयी. इस ओर भारतीय कश्मीर और उस ओर पाकिस्तानी कश्मीर. अब यह सोचना कि पाकिस्तान आजाद कश्मीर को तश्तरी में सजाकर भेंट कर देता, निपट बेवकूफी नहीं तो और क्या होगी? जो हालात बने उसमें दो बातें होनी थी. पाकिस्तान कोशिश करता रहता कि शेष कश्मीर भी उसे मिले और इसके लिए जो संभव तरीके हैं वह उनका इस्तेमाल करता रहे. संयुक्त राष्ट्र में जाकर हमने ही पाकिस्तान को यह मौका भी दे दिया कि वह कश्मीर का अंतरराष्ट्रीयकर कर सके. पता नहीं किस वकील ने भारत सरकार को सलाह दी थी कि वह एक कमजोर मामले को संयुक्त राष्ट्र में ले जाए. भारत सरकार पहले ही अपने पांव पर कुल्हाड़ी मार चुकी थी और शुरू में जनमत संग्रह को स्वीकार करके विलय को अधूरा या अस्थायी बना चुकी थी. इसलिए अमरीका के प्रभाव वाली विश्व संस्था कश्मीर मुद्दे पर भारत का साथ क्यों देती जब अमेरिका यह मान रहा था कि भारत भारत सोवियत संघ का पिछलग्गू है.
कश्मीर को पाने का दूसरा रास्ता जंग था. जंग तब लड़ी जाती है जब सारे रास्ते बंद हो जाते हैं. जंग का एक निश्चित लक्ष्य होता है जिसे पाने की पूरी कोशिश की जाती है लेकिन हमारे जंग लड़ने का तरीका भी निराला रहा है. हम जंग जीतकर वार्ता की मेज पर हारने के अभ्यस्त हो गये हैं. बांग्लादेश में हमने बड़ी अच्छी जंग लड़ी लेकिन शांति की कामना में वार्ता की मेज पर आ पहुंचे. हम भूल गये कि हमने जंग में किसी व्यक्ति नहीं बल्कि एक राष्ट्र को घायल किया है. इसी तरह जम्मू-कश्मीर में कुछ दर्रे हमारे हाथ लगे थे. इन दर्रों के कारण हमारी चौकियों को काफी हानि उठानी पड़ती थी. सेना चाहती थी उन्हें अपने पास ही रखा जाए. इसमें कुछ इलाके तो करगिल में ही थे. लेकिन हमारे नेताओं ने यह सोचते हुए वे दर्रे दे दिये कि थोड़ी सी भूमि के लिए माहौल क्यों बिगाड़ा जाए? इतना ही नहीं सियाचीन ग्लेशियर पर निशानदेही के वक्त भी सारी दूरदर्शिता ताक पर रखकर एक बिन्दु से आगे निशानदेही ही नहीं की गयी.
एक और नतीजा जो गलत कश्मीर नीति के कारण निकला ह वह है पूरे देश में आतंकवाद का विस्तार. पाकिस्तान जब जंग नहीं जीत पाया तो छद्म युद्ध ही उसके सामने एकमात्र रास्ता था. बार-बार यह कहानी दोहराने की जरूरत नहीं कि कब-कब हमने आतंकवादियों से समझौते किये हैं और कब-कब उनके सामने समर्पण किया है. घीरे-धीरे आतंकवाद एक ऐसा सिक्का बन गया जो जब जिसके हाथ लगा उसने उसे अपने हिसाब से भुनाया. संभवतः पाकिस्तान ने यह बहुत पहले ही भांप लिया था कि भारत जैसे देश से जंग जीतना भले ही असंभव हो लेकिन उसके अंदर सेँध लगाना आसान है. आईएसआई का गठन ही इस महत्वपूर्ण लक्ष्य के साथ हुआ था. आईएसआई आज दुनिया के सफल खुफिया तंत्र में गिना जाता है और भारत में आतंक फैलाने के अलग-अलग विभाग यहां काम करते हैं. पंजाब में आतंकवाद फैलाने में आईएसआई के हाथ के अब पक्के सबूत हैं. लेकिन दुर्भाग्य से हम इसे काउण्टर करने के कोई खास हथियार विकसित नहीं कर पाये. बांग्लादेश बनने में रॉ ने जो सफलता पायी थी वैसी सफलता फिर उसके हाथ नहीं लगी. जाहिर सी बात है भारतीय नौकरशाही खुफियातंत्र को पंगु करने में सफल रही. राजनीतिक इच्छाशक्ति और दूरदृष्टि के अभाव में कश्मीर रिस-रिस कर नासूर बन गया. ऐसे में क्या किसी एक व्यक्ति को दोष देना ठीक होगा या फिर यह हमारी राजव्यवस्था के खोट की निशानी है?

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