Monday 21 July 2014

इजराइल में हो रहे संग्राम का सच

 इजराइल में हो रहे संग्राम का सच 
"यहूदी लोगों का इतिहास 5700 वर्ष पुराना है. (वर्तमान हिब्रू कैलेंडर वर्ष 5774 है). अब्राहम इसहाक और याकूब के पिता थेए और याकूब पहले यहूदी थे. याकूब से ही B'nei Yisrael कहे जाने वाले इस्राएल के लोगों या इज़रायल के बच्चों का उदय हुआ. वास्तव में यहूदी धर्म को ठीक उसी तरह अरब का बुनियादी मूल धर्म/सभ्यता माना जा सकता है जैसे सनातन धर्म (या हिन्दुओं) भारत का मूल धर्म/सभ्यता है. इसके अलावा, हिंदुओं की एकमात्र मातृभूमि भारतवर्ष की ही तरह, यहूदियों की भी इज़रायल के अतिरिक्‍त कोई अन्य मातृभूमि नहीं है. 
सदियों तक यहूदी कसदियों, यूनानी रोमनों आदि जैसे विभिन्न समूहों/देशों द्वारा अनवरत् किए गए उत्पीड़न और कठिनाइयों का सामना करते हुए इज़रायल का एक राष्ट्र के रूप में अस्तित्व बचाने के लिए लगातार संघर्ष करते रहे और 3000 से भी अधिक वर्षों तक इस देश ने एक राष्ट्र के रूप में अपनी उपस्थिति बनाए रखी, हालांकि इस पूरे काल में अरब देशों और यूरोप में यहूदियों की विभिन्न जनजातियां यहां-वहां भटकती हुई किसी तरह बची रहीं. द्वितीय विश्च युद्ध के दौरान हिटलर द्वारा 6 लाख यहूदियों के अमानवीय क़त्ले-आम और लगभग उसी समय ब्रिटेन से इज़रायल को स्वतंत्रता मिलने के बाद - दुनिया भर से यहूदियों के जत्थों ने इज़रायल में पहुंचना शुरू कर दिया. वहां से बाहर निकलते समय ब्रिटिश शासकों ने इस्राएल के देश को विभाजित कर दिया. यह अन्यायपूर्ण विभाजन इज़रायल को स्वीकार्य नहीं था और इसने उन्हें अस्थिर सीमाओं के साथ छोड़ दिया. (जैसा कि हमें भारत में भी देखने को मिलता है.) 
इज़रायल के उत्तरी हिस्से यहूदिया पर 117 = 138 ईस्वी के मध्य रोम के लोगों द्वारा कब्ज़ा कर लिया गया था. इज़रायल रोमन साम्राज्य का विस्तार करने के लिए एक संरक्षित राज्य के रूप में काम करने के लिए स्थापित किया गया था. वे इस क्षेत्र को फिलिस्तिया कहा करते थे. जब ब्रिटेन और जार्डन ने इज़रायल पर कब्ज़ा कर लिया तब वे रोमन नाम फिलिस्तिया से मिलते जुलते नाम फिलिस्तीन से इस भूमि को पुकारने लगे. लंबे समय के बाद से वहाँ रह रहे विभिन्न नस्लों के अरब मुसलमानों ने फिलिस्तीन नाम से अपने लिए एक नए देश की मांग करनी प्रारंभ कर दी (ठीक भारतीय मुसलमानों की ही तरह जिन्होंने पूर्व और पश्चिम पाकिस्तान नाम से एक नई जमीन की मांग प्रारंभ कर दी थी, हालांकि दोनों में फर्क सिर्फ इतना है कि इज़रायल के मामले में मुसलमानों अलग-अलग जातियों व नस्लों के अरबी मुस्लिम थे जबकि पाकिस्तानी मुस्लिमों के पूर्वज भारत के सनातन धर्म के अनुयायी थे जिन्हें बलपूर्वक तलवार से मुसलमान बना दिया गया था.) इज़रायल ने 1948 में स्वतंत्रता प्राप्त की. इज़रायल के मुस्लिम जातीय समूहों के नेताओं ने उन मुस्लिमों से कहा कि नाजी संहार से पीड़ि‍त यहूदियों के बड़ी संख्या में इज़रायल वापसी के कारण उन्हें यह देश छोड़ देना चाहिए. जहां एक ओर इज़रायल ने देश में आने वाले सभी यहूदी शरणार्थियों को अपने में समाहित कर लिया, वहीं दूसरी ओर वहां रह रहे अरब मुस्लिमों को किसी भी उनके किसी भी सहोदर अरब मुस्लिम देश द्वारा समाहित नहीं किया गया जिनके पास छोटे से राज्य इज़रायल के मुकाबले कहीं अधिक विशाल प्रदेश थे. अंतत: यह मुस्लिम सभी अरब देशों द्वारा लौटाए जाने के बाद वापस इज़रायल लौटे इज़रायल देश ने उन्हें काम करने के लिए वीज़ा दे दिया. उन्होंने पश्चिमी तट और गाजा पट्टी क्षेत्र में रहने के लिए खुद को स्थापित कर लिया, लेकिन अंतत: ख़ुद को 'फिलिस्तीनी' कहना शुरू कर दिया और अपनी इन नई पहचान का आग्रह रखते हुए अपने लिए एक नए गृहक्षेत्र की मांग शुरू कर दी (जोकि भारत, साइप्रस, बांग्लादेश आदि के मुसलमानों जैसे विभाजन में पाया जाने वाला एक आम लक्षण है). 
इस बीच जिन मुस्लिमों ने इज़रायल से पलायन नहीं किया था, वे इज़रायल में लगातार रहते रहे. अपनी पुस्तक "हमास का बेटा" में एक मोसाब हसन यूसुफ़ नाम के एक पूर्व मुस्लिम, जो एक प्रभावशाली हमास नेता के पुत्र हैं, कहते हैं कि फिलीस्तीनी औसतन चार बच्चों को जन्म दे रहे हैं. इनमें से तीन को डॉक्टर, वकील और व्यापारी बनाया जा रहा है और चौथे को जिहाद के लिए दिया जा रहा है. फिलीस्तीनी इस उम्मीद में जनसंख्या जिहाद कर रहे हैं कि जिस दिन उन्हें इज़रायल में प्रवेश करने की अनुमति दी जाती है, उस दिन वे भीतर से इज़रायल को फटने पर मजबूर कर देंगे. 
'मुस्लिम ब्रदरहुड' के साथ मिलीभगत में पूरी मुस्लिम दुनिया फिलीस्तीनियों में घृणा भर रही है. इस घृणा के कारण ही तथाकथित फिलीस्तीनी कभी भी इज़रायल के साथ आत्मसात नहीं हो सकते हैं. यह घृणा का भाईचारा उन्‍हें इस छद्म युद्ध (जैसा कि वे कश्मीर में भी कर रहे हैं) को जारी रखने के लिए उन रॉकेट और अन्य गोला बारूद की आपूर्ति करता है. इसके अलावा सारी दुनिया पर मुसलमानों द्वारा वर्चस्व स्थापित करवाए जाने के लिए दुनिया का एक मुस्लिम खलीफा के अपने परम उद्देश्य की पूर्ति के लिए पूरी दुनिया में मुस्लिम आक्रामकता को मुस्लिम ब्रदरहुड द्वारा कुछ मानक प्रक्रियाओं के ज़रिए बढ़ावा दिया जा रहा है. इसे इज़रायल में अच्छी तरह से देखा जा सकता है. जनसंख्या जिहाद: : 
प्रत्येक फिलीस्तीनी ढाल के रूप में महिलाओं और बच्चों का उपयोग मात्र अपनी संख्या के बल पर इज़रायल को समाप्त कर देने के लिए प्रत्येक फिलीस्तीनी कम से कम 4 बच्चों को जन्म देता है. फिलीस्तीनी आतंकवादी बच्चों और महिलाओं को ढाल के रूप में इस्तेमाल करते हुए उनके पीछे छिपते हैं और इज़रायल पर भारी बमबारी करते हैं. हालांकि इज़रायल द्वारा प्रतिहिंसक रुख़ अख्तियार करने पर वे पीड़ित होने का पाखंड रचते हैं और मीडिया दुष्प्रचार का जम कर इस्तेमाल करते हैं. झूठा दुष्‍प्रचार: कट्टरपंथी मुसलमानों का यह सबसे बड़ा और सबसे पुराना हथियार है; वे स्वयं को हमेशा पीड़ितों या शहीदों के रूप में प्रस्तुत करते हैं और सफलतापूर्वक अपनी स्थिति को आम जनता की सहानुभूति अर्जित करने के लिए इस्तेमाल करते हैं. यहां तक कि आम तौर पर हॉलीवुड की विभिन्न फिल्मों में भी उन्हें नायक के रूप में दर्शाया जाता है. वास्तव में, उनका दुष्‍प्रचार तंत्र इतना ताक़तवर और सफल है कि पूरा संसार यही मान चुका है कि इज़रायल, जिसके पास वास्तव में प्राकृतिक संसाधनों के नाम पर कुछ नहीं है और जो मात्र अपनी योग्यता के आधार पर ही सफल है, के पास इतना अधिक पैसा है कि वह पूरे मीडिया को ख़रीद चुका है. जबकि इसके ठीक उलट वास्तविकता यह है कि तेल के पैसे से बेहद समृद्ध अरब देश न केवल अपने पैसे की ताक़त के बल पर दुनिया भर के मीडिया को प्रभावित कर रहे हैं बल्कि सारे संसार में जिहाद का वित्त पोषण भी कर रहे हैं, जिसका असर मीडिया में अक्‍़सर इज़रायल को 'बुरे Zionists' के रूप में चित्रित किए जाने में परि‍लक्षित होता है. 
बाल जिहादी: 
फिलीस्तीनी कार्टून फिल्में जिहाद की राह में खुद को बम से उड़ा लेने को उचित और पवित्र शहादत के रूप में चित्रित करती हैं. बच्चों को चट्टानों और पत्थरों से लैस कर के इज़रायली सैनिकों पर आक्रमण करने के लिए भेजा जाता है, क्यों कि फिलि‍स्तीनी यह अच्छी तरह जानते हैं कि इज़रायली उन पर जवाबी हमला नहीं कर सकते. (ठीक यही कश्मीर में होता है) यहूदियों का किसी के भी प्रति प्रतिशोध, आक्रामकता या किसी भी देश पर आक्रमण करने या कब्ज़ा कर लेने, या किसी जातीय या धार्मिक समूह को सताने का शायद ही कोई इतिहास रहा हो. लेकिन नाजी महासंहार ने यहूदियों को एक सबक बहुत अच्छे से सिखाया है जो हमें उनसे सीखने की ज़रूरत है - 'न क्षमा करो, न भूलो'. इसे आक्रामकता के रूप में पढ़ने की भूल नहीं करनी चाहिए, बल्कि इसे उसी रूप में लिया जाना चाहिए
 यह है - दुनिया में सबसे लाजवाब आत्म रक्षात्मक उपायों से लैस एक देश का क़ीमती सबक़. इसलिए हमें अपनी आंखों से झूठ और मिथ्या भ्रम के पर्दे उठाते हुए यहूदियों का आंकलन मात्र उसके आधार पर ही करना चाहिए जो उन्होंने किया है, न कि उस शातिर और फ़र्जी़ दुष्प्रचार के आधार पर जो हमें उनके खिलाफ एक योजना के तहत घुट्टी में पिलाया गया है. "

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