Monday 2 October 2017

मजारें अगर सूफ़ी संतों की होती हैं तो इनके नाम में 'शहीद' क्यों लगा...?

दरअसल ये मजारें दो तरह की हैं. दोनों ही इस्लाम के प्रचारकों की.... एक का काम तलवार के बल पर इस्लाम को फैलाना था और दूसरे का काम भ्रांतियों और छल (अल-तकिया) से इस्लाम का विस्तार करना था. इस बार 'तलवार वाले संतों' पर चर्चा करते हैं.
'शहीद' शब्द इस्लाम में उन सैनिकों के लिए प्रयोग किया जाता है जो दीन के लिए लड़ते हुए मारे गए हैं. जैसे ईमान शब्द का अर्थ इस्लाम में 'दीन के लिए समर्पण' के तौर पर लिया जाता है न कि स्वच्छ छवि के परिप्रेक्ष्य में, बिल्कुल वैसे ही शहीद का भी अर्थ बदल जाता है. अब ये शहीद थे कौन...? ये शहीद उन इस्लामिक आक्रमणकारियों की फौजों के पैदल सैनिक थे जो धन, धर्म और ध्वज का विस्तार करने के लिए भारत आए थे. ये भारत को दारूल-अमन और दारूल-हर्ब से दारूल-इस्लाम बनाने का ख्वाब लिए थे. इन विधर्मियों को भारत के प्रतापी राजाओं ने काट डाला था. अब ये शहीद कह कर पूजे जा रहे हैं.
कुछ इसी संदर्भ में 'गाज़ी' शब्द का भी प्रयोग होता रहा है. गाज़ी शब्द बना है 'गज़वा' शब्द से. गाज़ी का अर्थ है- "काफिरों का संहारक (जो इस्लाम नहीं मानते उनकी हत्या करने वाला)". इसी तरह लगभग हर मुस्लिम शासक ने, चाहे वह सुल्तान रहा हो या बादशाह, अपने नाम के साथ गाज़ी शब्द ज़रूर जोड़ा. सुल्तान वे होते थे जो उलेमाओं को शासन में हस्तक्षेप का मौका देते थे या इस्लामिक क़ानूनों को शासन में ज्यादा प्राथमिकता देते थे. जबकि बादशाह खुद को इनसे अलग कर लेते थे. पर इस मामले में दोनों ही एकमत थे. जैसे जिस तरह दिल्ली के सुल्तानों में गयासुद्दीन तुगलक का नाम गाज़ी खान था उसी तरह मुगल बादशाहों ने भी इसे अपने नाम के साथ लगाया. सबसे उदार माने जाने वाले अकबर का भी पूरा नाम 'जलालुद्दीन मोहम्मद अकबर बादशाह गाज़ी' था. लश्कर-ए-तैयबा की पत्रिका का नाम है- गज़वा टाइम्स. हदीसों में बताए गए भारत को इस्लामिक मुल्क बनाने के ख़्वाब का नाम भी है- गज़वा-ए-हिंद.
इन गाज़ियों में सबसे प्रमुख था- सैयद सालार मसूद गाज़ी. बहराइच में सैयद सालार मसूद गाज़ी की कब्र पर सिर झुकाने वालों में हिंदू ज्यादा हैं. महमूद गजनवी का रिश्तेदार मसूद गाज़ी 1031 ईस्वी में जब भारत पर आक्रमण करने के लिए चला, तो उसने तय किया कि वह हिंद को दारूल-इस्लाम बना कर रहेगा. एक तरह से यह भारत के खिलाफ पहला जिहाद था (बाबर ने भी राणा सांगा के खिलाफ युद्ध में जिहाद का नारा दिया था). पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश तक के इलाके को लूटते-हत्यायें और बलात्कार करते वह अयोध्या के नजदीक बहराइच पंहुचा. इस दौरान इस्लाम के प्रति उसकी सेवाओं को देखते हुए उसे 'गाज़ी बाबा' की उपाधि दी गई. इस दौरान गाजी की विशाल सेना के विरुद्ध 17 हिंदू राजाओं ने गठबंधन कर लिया. शेख अब्दुल रहमान चिश्ती की पुस्तक मीर उल मसूरी के अनुसार वह 1033 में बहराइच पंहुचा. यहां पर मई-जून 1033 में भयानक रक्तपात वाला युद्ध हुआ. युद्ध इतना भयंकर था कि गाज़ी के हर मुल्ला सैनिक को काट डाला गया. युद्धबंदियों तक को मार दिया गया. 14 जून 1033 को युद्ध समाप्त हुआ. गाज़ी की कब्र बनी. बाद में फिरोजशाह तुगलक ने इस पर मकबरा बनवाया. उसे संत के रूप में प्रचारित किया. आज तक उसकी कब्र पर उर्स लगता है.
तुलसीदास उसकी कब्र पर जाने वालों की खिल्ली उड़ाते हुए कहते हैं-
लही आँख कब आंधरे, बाँझ पूछ कब ल्याइ।
कब कोढ़ी काया रही, जग बहराइच जाइ।।
मतलब कि "पता नहीं कब किस अंधे को आंख मिली, कब किस बाँझ को पुत्र मिल गया, कब किसी कोढ़ी को काया मिली... फिर भी लोग बहराइच जाते हैं..!"
#क्रमशः
 सूफ़ी इस्लाम के प्रचारक  निश्चित रूप से सेक्युलर नहीं थे
. उन्होंने तबलीग़ के लिए हर हथकंडा अपनाया. हर सूफ़ी ने लाखों हिंदुओं को मुसलमान बनाया. इन इस्लाम के सिपाहियों को धर्मद्रोहियों ने महिमा मंडित किया. 
पंजाब में बाबा फरीदगंज शक्कर का नाम काफी श्रद्धा से लिया जाता है. गुरूग्रंथ साहिब तक में उनकी वाणी शामिल है. मगर नवीं शताब्दी की एक फारसी पुस्तक जिसका नाम है ‘मिरात-ए-फरीदी’ लेखक अहमद बुखारी में इस महान सूफ़ी की पोल खोलकर रख दी गई है.
 लेखक के अनुसार इस सूफी ने पंजाब में 25 लाख हिन्दू जाटों का धर्मांतरण करवाया था. उनके दस हजार बुतखानों को ध्वस्त करवाया. इस पुस्तक में उनके इन कारनामों का बड़े विस्तृत रूप से जिक्र किया गया है.
दरअसल सिंध पर पहले हमले के समय ही तगड़ा झटका खाकर इस्लाम समझ गया था कि भारत को केवल तलवार से नहीं जीत सकेंगे. (712 ईस्वी से लेकर 1000 ईस्वी यानी 300 सालों तक भारतीय राजाओं ने अरबी आक्रमणकारियों को सिंध से आगे नहीं बढ़ने दिया.) योजनाबद्ध रूप से पहले सूफी के वेशधारी भेजे गये, जिन्होंने यहां जनता के मन की घृणा को कम करके इस्लाम को सहज रूप से सहन करने की जमीन तैयार की. पीछे पीछे उनकी सेनाएं आ गयीं.
इस्लाम में शायरी हराम है, क्योंकि जब मुहम्मद साहब ने खुद को अल्लाह का रसूल घोषित कर दिया था तो अरब के लोग कुरान को मुहम्मद की शायरी कहते थे. अरब के शायर कुरान का मजाक उड़ाते थे. इसी तरह इस्लाम में संगीत, गाना बजाना और वाद्ययंत्रों का प्रयोग करना भी हराम है क्योंकि यह हिदू धर्म के भजन-कीर्तन में इस्तेमाल किया जाता है. इसलिए चालाक मुस्लिमों ने सोचा कि यदि संगीत के माध्यम से हिन्दुओं में इस्लाम के प्रति रूचि पैदा की जाये तो उनका धर्म परिवर्तन करना सरल होगा. इसका परिणाम यह हुआ कि कुछ हिन्दुओं ने तो मुसलमानों के आचार विचार और खानपान तो अपना लिए लेकिन मुसलमानों से हमेशा दूरी बनाये रखी. फिर एक कृत्रिम वर्णसंकर छद्म-धर्मनिरपेक्ष गंगा-जमुनी तहजीब बना डाली. इसे हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक बता दिया. बाद में दोगले हिन्दुओं ने इसे "धर्मनिरपेक्षता" का नाम दे दिया. मुस्लिम शासकों ने तो इसकी आड़ में हिन्दुओं की खतना करा कर मुसलमान बनाया था. लेकिन इस "धर्मनिरपेक्षता" ने हिन्दुओं की मानसिकता परिवर्तित कर दी. जिस से उनमें अन्याय और अत्याचार के विरुद्ध लड़ने की शक्ति समाप्त हो गयी. (आज भी यह बुजदिली निरंतर कायम है).
कई मतों के अनुसार तो आज के सूफ़ी संगीत के कई बड़े मरकज तो पहले भारतीय संगीत के घराने थे. चूंकि दीन में संगीत हराम था इसलिए इनसे कहा गया कि वे अल्लाह और उसके नबी मुहम्मद साहब की शान में गीत बनाएं पर इन्हें मक्का और मदीना यानी हज़ पर जाने की इजाज़त नहीं होगी. 
संभवत: इस तथ्य को गोस्वामी तुलसीदासजी ने सबसे अच्छी तरह समझा. उनकी मानस पद्मावत का इतना करारा जवाब है कि आज तक तथाकथित प्रगतिवादी पद्मावत को उसके बराबर खडा करने का दुस्साहस नहीं कर पाए. पद्मावत भी लगभग उसी कुटिल सोच से लिखी गयी थी.
अजमेर के हजरत गरीब नवाज़ मोईनुद्दीन चिश्ती के बारे में कुछ वर्ष पूर्व लाहौर के एक समाचारपत्र 'कोहिस्तान' में कुछ फ़ारसी पत्र प्रकाशित हुए थे. जो कि उन्होंने शाहबुद्दीन गौरी को लिखे थे. जिसमें उन्होंने अजमेर के किले तारागढ़ को कैसे जीता जाए इसके बारे में कई सुझाव दिए थे. इनकी चार पत्नियां थीं जिनमें से एक पत्नी राजपूत थीं. जिसे किसी युद्ध में बंदी बनाया गया था. इसका जबरन धर्म परिवर्तन किया गया. उससे एक पुत्री का जन्म हुआ था जिसका नाम बीबी जमाल है जिसकी कब्र आज भी अजमेर स्थित दरगाह के परिसर में है. इनके बारे में तत्कालीन फारसी इतिहासकारों ने यह दावा किया है कि उन्होंने दस लाख काफिरों (हिन्दू) को कुफ्र की जिहालत से निकालकर इस्लामी के नूर से रोशन किया अर्थात् उनका धर्मांतरण करवाया. इस सूफी की प्रेरणा से अजमेर और नागौर में अनेक मंदिरों को ध्वस्त किया गया. अजेमर स्थित ढाई दिन का झोपड़ा इसका ज्वलंत उदाहरण है.
बंगाली खूंखार और लड़ाके सूफियों में एक मुख्य नाम सिलहट के शेख जलाल का भी है.
 गुलजार-ए-अबरार नामक ग्रंथ के अनुसार उन्होंने राजा गौढ़ गोविन्द को हराया. शेख जलाल का अपने अनुयायियों को स्पष्ट आदेश था कि वह हिन्दुओं को इस्लाम कबूल करने की दावत दें और जो उससे इंकार करे उसे फौरन कत्ल कर दें।

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