Wednesday, 28 February 2018

ये सीरिया वाले तो सबसे बड़े नौटंकीबाज़ निकले.....
ये सीरियाई आतंकी खुद ही बच्चों का मेकअप करके फ़ोटो सोशल मीडिया पर डालते थे.....ताकि दुनिया की सहानुभूति और यूरोप के देशों में शरण मिले.....
पहले भी एक बच्चे की झूठी लाश समुन्द्र के किनारे डालकर सहानुभूति के सहारे ये यूरोप के देशों में शरण ले चुके है....
इन पर कोई विश्वास नही करना आखिरकार ये बच्चे भी बड़े होकर आतंकी ही तो बनेंगे.....
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 नौटंकी चल रहा है, सीरिया में इतने बच्चे मर गए हैं।
वगैहरा वगैहरा,
शांतिप्रिय समुदाय को तो रोना ही है, उनके लिए आखिर मरने वाले मुस्लिम जो हैं,
पर एक बात समझ में नहीं आ रही है, हिन्दू भी लगे पड़े हैं, अबे सालो उनका गृह युद्ध हो रहा है तुमने यहां क्यों गन्द मचा रखी है!
इतना रंडीरोना तब मचा लिया होता जब शांतिदूतों ने 6 लाख कश्मीरियों को मार कर उनका सब कुछ छीन लिया, उनकी बहू बेटियों का बलात्कार उनकी आंखों के सामने किया उनके 2 साल के मासूम बच्चों को भी नहीं छोड़ा!
लाखों लोग पलायन कर गए कश्मीर से और,
दुर्गम इलाको में तंबू और शिविरो में रहे अपना घर परिवार और अपनी इज्जत गंवा कर, कश्मीरी पंडितों के गांव के गांव साफ कर दिए तब किसी हिन्दू, और शांतिप्रिय समुदाय ने #Peace वाली बकचोदी न की उनके लिए |
कश्मीरी पंडित जो बच गए वो एक शिविर में 10 से 12 तक लोग रहे जहां,
मूलभूत सुविधा जैसे टॉयलेट की सुविधा भी नहीं थी,कई लोग बीमारियों से मर गए, किसी की मानवता न जागी किसी ने कुछ नहीं बोला पर सीरिया में गृह युद्ध में कुछ लोग आपस में लड़ मर गए तो हिंदुस्तान में रोना धोना चालू हो गया है,क्यों सीरिया में जो हो रहा है वो उनके कर्म हैं जिसकी सजा उनको और उनके बच्चों को भुगतनी पड़ रही है
आतंकवादियों को संरक्षण दोगे पनाह दोगे तो यही होगा,जो कुछ अच्छे होंगे वो भी पिसेंगे जैसे गेंहू के साथ घुन पिसता है जैसे उनकी गलती ये है कि गलत लोगों के काम में उनको मौन सहमति दी हर जगह फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम व्हाट्सएप्प पोस्ट हो रहे हैं कि सीरिया में इतने मर गए उतने मर गए, क्योंकि मरने वाले मुस्लिम थे पर आतंकवादी बने मुस्लिमों ने आज तक कितने देश साफ कर दिये ईरान, बंगलादेश,बेल्जियम जैसे तब इनके मुँह से एक बोल न फूटा, कश्मीरी पंडितों पर चुप जब इनको मार दिया जाए तो विक्टिम कार्ड और जब ये 40% से ज्यादा हों तो दादागिरी जम्मू कश्मीर में इनकी जनसंख्या 68%असम में 41% बंगाल में 34%तीनों राज्यों के क्या हालात हैं बताने की जरूरत नहीं है,
सीरिया में ये जो मारे जा रहे हैं ठीक पेले जा रहे हैं साफ करो ये गंदगी !
पुनश्चः : बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होये!

भाई की मौत ने दिखाई राह, देशभर के मरीजों के इलाज का उठाया बीड़ा

“हमारे परिवार ने छोटे भाई के इलाज के लिए 15 साल से ज्यादा अस्पताल के चक्कर काटे हैं। अपनी कोशिश में हर उस अस्पताल ले जाने की कोशिश की जहां उसके ठीक होने की उम्मीद थी। एक पुलिस कांस्टेबल पिता अपने बेटे का जितना इलाज करा सकते थे, उससे कई गुना ज्यादा कर्ज लेकर हमारे पिता ने इलाज करवाया पर फिर भी उसे हम बचा न सके।” ये बताते हुए रविन्द्र सिंह क्षत्री (29 वर्ष) भावुक हो गए।

पैसे के अभाव में इलाज के दौरान अपने 22 साल के भाई सुमित की असमय मौत से आहत रविन्द्र ने हर जरूरतमंद की मुफ्त इलाज करने की ठान ली है। रविन्द्र ने स्वास्थ्य सेवाओं को बेहतर करने के देश में 347 आरटीआई लगाई और एक ऐसा मोबाइल ऐप बनाया है जिसके द्वारा चिकित्सा सेवा को बेहतर किया जा सके।
रविन्द्र ने स्टार्ट अप इंडिया के थिंक रायपुर प्रोग्राम में अपना आइडिया जमा किया था। जिसमें देश भर से 6000 लोगों ने अपने आइडियाज समिट किये थे। इन छह हजार आइडियाज में 18 लोगों के आइडियाज को चुना गया था। जिसमें रविन्द्र का आइडिया पसंद किया गया और उसे दूसरा पुरस्कार मिला। उन्हें 12 जनवरी 2018 को राज्य के मुख्यमंत्री डॉ रमन सिंह और मशहूर क्रिकेटर वीरेन्द्र सहवाग ने सम्मानित किया।रविन्द्र ने ढाई साल पहले फेसबुक पर ‘जीवनदीप’ नाम का एक समूह बनाया। जिसमें देशभर से 62 हजार से ज्यादा लोग जुड़े हुए हैं। जब भी जीवनदीप को ऐसे किसी रोगी की जानकारी मिलती है जिसे इलाज के लिए मदद की जरूरत हो तो उसकी पूरी जानकारी इस पेज पर डाल दी जाती है।
इस समूह से जुड़े लोगअपने आस-पास रहने वाले किसी भी मरीज की जानकारी मिलते ही मदद के लिए तुरंत जुट जाते हैं। ये मरीज की तबतक देखरेख करते हैं जबतक वह पूरी तरह से ठीक न हो जाए। ये लोग सोशल मीडिया के जरिए जनता से अपील करके बीमार व्यक्ति के इलाज के लिए पैसा इकट्ठा करते हैं। जीवनदीप के प्रयास से अब तक देश के 300 से ज्यादा मरीजों की गम्भीर बीमारी की इलाज करवाकर उन्हें ठीक किया जा चुका है।रविन्द्र छत्तीसगढ़ के बिलासपुर जिले के रहने वाले हैं। इनके द्वारा शुरू हुई ये मुहिम आज देश के लगभग सभी हिस्सों में पहुंच चुकी है। इस मुहिम से जुड़े एक जाने माने अस्पताल के प्रमुख डॉ आशुतोष तिवारी ने गांव कनेक्शन संवाददाता को फोन पर बताया, “किसी गम्भीर मरीज की इलाज में पैसा यहां बाधा नहीं बनता है। जरूरतमंद मरीज की इलाज में जितना सम्भव होता है डिस्काउंट कर देता हूँ।” इस मुहिम में डॉ आशुतोष की तरह सैकड़ों डॉक्टर, पुलिसकर्मी, समाजसेवी और युवा अपनी-अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह कर रहे हैं।
रविन्द्र भाई के इलाज के समय आई चुनौतियों को याद करते हुए बताते हैं, “पापा के पुलिस विभाग ने भाई के मेडिकल खर्चे का बिल इसलिए देने से मना कर दिया कि मेरा भाई 22 साल का है और वह बालिग़ है। पापा की तनख्वाह 26 हजार महीने थी जबकि भाई के इलाज में हर महीने 40 से 50 हजार खर्चा आता था जिससे परिवार बुरी तरह से कर्जे में आ चुका था।”घर की आर्थिक स्थिति दिनोंदिन दयनीय होती जा रही थी इन सबसे आहत सुमित ने राष्ट्रपति महोदय को इच्छा मृत्यु के लिए पत्र लिख दिया था। रविन्द्र ने भी चिकित्सा व्यवस्था को ठीक करने के लिए 100 से ज्यादा पत्र लिखे और 347 आरटीआई लगाई थी।
कुछ समय बाद रविन्द्र को राज्यपाल का पत्र आया जिसमें लिखा था। "मैं अपनी विशेष शक्तियों का प्रयोग करके तुरंत प्रभाव से इस नियम में परिवर्तन करता हूँ। अब परिवार का कोई भी सदस्य (ब्लड रिलेशन में) जो आप पर आश्रित हो, उसके इलाज का सारा खर्च राज्य सरकार ही उठाएगी, बशर्ते उसकी तनख्वाह या पेंशन 3050 रुपए से अधिक ना हो।” रविन्द्र ने बताया, “जिस दिन यह नियम बना मैं बहुत रोया क्योंकि तबतक मेरा भाई हम सबसे बहुत दूर जा चुका था। मन को शांति जरुर मिली थी कि अब किसी और को पैसे के लिए भटकना नहीं पड़ेगा।”जीवनदीप का फेसबुक पेज बनने के बाद रविन्द्र ने दो साल पहले अपने भाई के नाम से सुमित फाउंडेशन ‘जीवनदीप’ नाम की एक गैर सरकारी संस्था की नींव रखी। जिसका मुख्य उद्देश्य भारत में इलाज के अभाव में हो रही असमय मौत पर काबू पाना है। जीवनदीप आने वाले पांच वर्षों में एक ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय अस्पताल की स्थापना करना चाहता है, जहां पर हर प्रकार की चिकित्सा सुविधा मुहैया कराई जा सके। यहां कागजी दस्तावेज़ पूरे करने की बजाए जान बचाने को प्राथमिकता दी जाए।
शिया वक्फ बोर्ड ने पहली बार लिखित में स्वीकारा कि हिन्दू मंदिर तोड़ कर बनायी गयी मस्जिदें, 9 ऐसे मंदिरों का नाम लिए और उन्हें हिन्दुओ को वापस देने की बात कही है जिनमें राम मंदिर और कुतुब मीनार भी शामिल है, AIMPLB (आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड) को लिखी चिट्ठी, यह 9 मंदिर हैं :
1. राम मंदिर, अयोध्या
2. केशव देव मंदिर, मथुरा
3. अटाला देव मंदिर, जौनपुर
4. काशी विश्वनाथ मंदिर, वाराणसी
5. रुद्रा महालया मंदिर, बटना
6. भद्रकाली मंदिर, अहमदाबाद
7. अदिना मस्जिद, पंडुवा, पश्चिम बंगाल
8. विजया मंदिर, विदिशा
9. मस्जिद कुबुतुल इस्लाम (कुतुब मीनार), दिल्ली
शिया वक्फ बोर्ड की यह पहल स्वागत योग्य है, अब देखना है AIMPLB इस पर क्या रुख अख्तियार करता है, 
भेड़ की खाल में भेड़िया
किसी ने मुझसे पूछा की भेड़ की खाल में भेड़िया का उदहारण दो।
मैंने कहा आज के समाज में भेड़ की खाल में भेड़िया का सबसे सटीक उदहारण "दलित चिंतक/विचारक" हैं। जो खाते इस देश का है, आरक्षण भी इस देश लेते है और गाली भी इस देश को ही देते है। कुछ उदहारण द्वारा मैं इस तथ्य को समझाना चाहता हूँ।
1. दलित चिंतक हर हिन्दुत्ववादी को ब्राह्मणवाद, मनुवाद के नाम पर गाली देते हैं। इसमें वो हिन्दू भी शामिल हैं जो जातिवाद को नहीं मानते और परस्पर सहयोग से जातिवाद का नाश करना चाहते है।
2. दलित चिंतक पाकिस्तान ज़िंदाबाद, कश्मीर में आज़ादी जैसी मांगों को करने वाले अलगाववादियों के साथ खड़े दिखाई देते हैं। यह एक प्रकार का राष्ट्रद्रोह हैं। वे भारतीय सेना के कश्मीर की रक्षा में दिए गए योगदान को जनता से अनभिज्ञ रखकर भारत विरोधी नारे बाजी और सेना पर पत्थरबाजी करने वालों को महिमामंडित करते दिखाई देते हैं।
3. दलित चिंतक भारतीय संस्कृति, वेद, दर्शन, उपनिषद् आदि की पवित्र शिक्षाओं को जानते हुए भी विदेशी विद्वानों के घीसे पिटे अधकचरे और भ्रामक अनुवादों को शोध के नाम पर रटते/गाते रहते हैं। उनका उद्देश्य प्राचीन महान आर्य संस्कृति को गाली देना होता हैं। JNU जैसे संस्थानों से हर वर्ष शोध के नाम पर ऐसा कूड़ा कचरा ही छपता हैं।
4. भारतीय संविधान निर्माता डॉ अम्बेडकर द्वारा बनाये गए संविधान के आधार पर दोषी देश द्रोही अफ़जल गुरु, याकूब मेनन जैसो की फांसी का करना हमारे संविधान की अवमानना करने के समान हैं। इस प्रकार से ये भेड़िये डॉ अम्बेडकर के किये कराये पर पानी फेर रहे हैं।
5. डॉ अम्बेडकर को हैदराबाद के निज़ाम ने इस्लाम स्वीकार करने के लिए भारी प्रलोभन दिया था। उन्होंने देशभक्त के समान उसे सिरे से नकार दिया था। NGO धंधे की आड़ में दलित चिंतक विदेशों से पैसा लेकर भारत को कमजोर बनाने में लगे हुए हैं। वे विदेशी ताकतों के इशारे पर देश तोड़क कार्य करते हैं।
6. कहने को दलित चिंतक अपने आपको महात्मा बुध्द का शिष्य बताते हैं। अहिंसा का सन्देश देने वाले महात्मा बुध्द के शिक्षा बीफ़ फेस्टिवल बनाकर गौमांस खाकर अपनी अहिंसा का साक्षात प्रदर्शन करते हैं। इनसे बड़े दोगले आपको देखने को नहीं मिलेंगे। क्यूंकि ऐसी गतिविधि का उद्देश्य केवल और केवल सामाजिक एकता का नाश होता हैं।
7. जब भी देश में हिन्दू-मुस्लिम दंगे होते है। तब मुसलमान दंगाई यह भेद नहीं देखते की हिन्दू स्वर्ण हैं अथवा दलित। उनके लिए तो सभी काफ़िर हैं। दंगों में सभी स्वर्ण और दलित हिन्दुओं की हानि होती हैं। जमीनी हकीकत यही है। दंगे शांत होने पर दलित चिंतक दलितों को मुसलमानों द्वारा जो प्रताड़ित किया गया उसकी अनदेखी कर 'मुजफ्फरनगर अभी बाकि है' जैसी वृत्तचित्रों का समर्थन करते है। इसे दलितों की पीठ पीछे छुरा घोपना कहा जाये तो सटीक रहेगा।
8. मुसलमानों द्वारा लव जिहाद में फंसाकर स्वर्ण और दलित दोनों हिन्दुओं की लड़कियों का जीवन बर्बाद किया जाता हैं। इस सोची समझी साज़िश की अनदेखी कर दलित चिंतक लव जिहाद षड्यंत्र को कल्पना बताने वालों के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर खड़े दिखाई देते है। इस पर आप ही टिप्पणी करे तो अच्छा हैं।
9. मुसलमानों और ईसाईयों द्वारा प्रलोभन देकर धर्म परिवर्तन करने को डॉ अम्बेडकर गलत मानते थे। आज अधिकतर दलित चिंतक केवल नाम से हिन्दू हैं। वे धर्म परिवर्तन करने वालों का कभी विरोध नहीं करते और उनका खुला समर्थन करते हैं। इस प्रकार से उन्होंने डॉ अम्बेडकर को भी ठेंगा दिखा दिया।
10. कुछ राजनीतिक दल दलित-मुस्लिम गठजोड़ बनाने की कवायद में नारे लगाते हैं। डॉ अम्बेडकर द्वारा अपनी पुस्तक थॉट्स ओन पाकिस्तान में इस्लाम की मान्यताओं द्वारा जातिवाद की समस्या का समाधान होने का स्पष्ट निषेध किया था। डॉ अम्बेडकर ने पाकिस्तान बनने पर सभी दलितों को पाकिस्तान छोड़कर भारत आकर बसने के लिए कहा था। क्यूंकि उन्हें मालूम था की इतिहास में मुस्लिम आक्रमणकारियों ने हिन्दू-बौद्ध समाज पर कैसे कैसे अत्याचार किये हैं। दलित चिंतक राजनीतिक तुच्छ लाभ के लिए मुस्लिम नेताओं के हाथ की कठपुतली बन डॉ अम्बेडकर की अवमानना करने से पीछे नहीं रहते।
यह कुछ उदहारण हैं। आपको जितने भी वैदिक धर्म-देश और जाति के विरोध में देश में कार्य दिखेंगे उसमें भेड़ की खाल में भेड़िये आसानी से नज़र आ जायेगे। आईये जातिवाद का नाश कर एक आदर्श समाज का निर्माण करे। जिसमें सभी एक दूसरे के साथ भ्रातृवत व्यवहार करे।
डॉ विवेक आर्य
चेन्नई के सेंट ज़ोसेफ वृद्धाश्रम से मिली 90 लाशें
विदेशो में बेच रहे अंग
पादरियों की पोल खोलने से क्यों बच रही मीडिया..?
क्या आप जानते है ?
चेन्नई में ईसाई मिशनरियो का काला कारनामा छिपाने के लिए श्रीदेवी के लिए घड़ियाली आँसू बहाये जा रहे है ! ताकि लोगो का ध्यान इस काण्ड से हट जाए !
ये है तांबरम, चेन्नई के निकट सेंट जोसेफ़ करूनई-इल्लम ओल्डएज होम मतलब वृद्धाश्रम ! इनके यहाँ छापा पड़ा 21-22 तारीख को जब इस संस्था के ही एक गाड़ी में एक बूढ़ी औरत की 'बचाओ-बचाओ' की आवाज़ लगा रही थी रोड पे इसकी गाड़ी रोकी गई और उस गाड़ी से दो वृद्ध जनों को बचाया गया।
फिर इसके बाद इस ओल्डएज होम पे छापा पड़ा जहाँ इंटेलिजेंस वालों के होश उड़ गए। ओल्डएज होम पर लाशों का रैक बना हुआ था बड़े-बड़े बक्सों के अंदर और वो लाश थी ? जी नहीं केवल मांस के लोथड़े ही बचे थे।
1600 से ऊपर ऐसे लोथड़े थे। इससे पहले तो पता नहीं कितने ही ऐसे लोथड़े मिट्टी में मिल गए होंगे। इनकी हड्डियां और अंग विदेशों में सप्लाई कर दिए जाते हैं, जहाँ बहुत माँग हैं इन सबकी।
हॉस्पिटलस से ये लाशें लाते हैं और हड्डियों को निकालने का काम करते हैं। इनके ही वृद्धाश्रम से पता नहीं कितनों को मार कर इनकी हड्डियां और ऑर्गन्स बेचे जाते हैं। सड़क किनारे से बुजुर्गों को उठा के लाते हैं सोशल सर्विस के नाम पर जो भी तगड़ा मिलता है सोशल सर्विस के नाम से और अंदर खाने ये सब कुकृत्य किया जाता है।
मेन स्ट्रीम मीडिया में नहीं मिला न ये सब?
कैसे मिलेगा ?
सेंट फेंट वालों के यहाँ ऐसे चीज थोड़े न होते हैं, ऐसे कृत्य तो केवल बाबाओं के यहां ही होते हैं।
खैर मीडिया आज श्रीदेवी की अंतेष्टि में ही सारा दिन निकाल देगी और आखिर में ये खबर गायब हो जाएगी .

सुशिल पंडित का बड़ा खुलासा भारत हो चुका है पाकिस्तान का गुलाम,अगर पाकिस्तान पर हमला हुआ तो…
पाकिस्तान भारत की तरह एक देश नहीं है, पाकिस्तान का निर्माण ही हिन्दुओ से नफरत के कारण हुआ था, पाकिस्तान एक ऐसा देश है जिसका लक्ष्य विकास इत्यादि नहीं बल्कि भारत और हिन्दुओ के खिलाफ जिहाद है, और पाकिस्तान का लक्ष्य है भारत को गजवा हिन्द करना
भारत चाहे पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक करे, चाहे 1 के बदले उसके 10 सैनिक मारे फिर भी पाकिस्तान नहीं सुधर सकता क्यूंकि पाकिस्तान की नींव ही हिन्दुओ से नफरत पर रखी गयी थी, पाकिस्तान का 1 ही उपाय है और वो है पाकिस्तान से निर्णायक युद्ध और उसका समूल नाश, जबतक ऐसा नहीं होता तब तक पाकिस्तान नहीं सुधर सकता चाहे आप 100 सर्जिकल स्ट्राइक करे, उनके 2000 सैनिको को मारे, फिर भी पाकिस्तान नहीं सुधरेगा
सुशिल पंडित ने आज बताया की पाकिस्तान की सबसे बड़ी ताकत क्या है, और क्यों पाकिस्तान भारत से कई युद्ध हारने के बाद, साथ ही भारत की कार्यवाहियों के बाद नहीं सुधरता, सुशिल पंडित ने बताया की पाकिस्तान ये बात अच्छे से जानता है की भारत उसपर कभी भी निर्णायक युद्ध नहीं कर सकता, क्यूंकि भारत में करोडो पाकिस्तानी है, और भारत के हर शहर में मिनी पाकिस्तान है, और इन करोडो पाकिस्तानियों के पास असलहो हथियारों की कोई कमी नहीं है ये तो तैयारी करके बैठे हुए है
अगर भारत ने पाकिस्तान के खिलाफ निर्णायक युद्ध किया तो पाकिस्तान मजहब के नाम पर जिहाद का ऐलान करेगा, और भारत में मिनी पाकिस्तान भारत के खिलाफ गृह युद्ध छेड़ देंगे, भारत को सिर्फ पाकिस्तान से ही नहीं बल्कि करोडो पाकिस्तानियों से लड़ना पड़ेगा, और वो भी देश के अंदर ही, यही भारत की कमजोरी और पाकिस्तान की ताकत है, इसी कारण नहीं सुधरता, सुशिल पंडित ने कहा की – पाकिस्तान के इलाज के लिए जरुरी है की भारत में मौजूद मिनी पकिस्तानों को साफ़ किया जाये
रेणुका शर्मा की कलम से...
चेन्नई में ईसाई मिशनरियो का काला कारनामा छिपाने के लिए श्रीदेवी के लिए घड़ियाली आँसू बहाये जा रहे है ! ताकि लोगो का ध्यान इस काण्ड से हट जाए ! ये है तांबरम,चेन्नई के निकट सेंट जोसेफ़ करूनई-इल्लम ओल्डएज होम मतलब वृद्धाश्रम ! इनके यहाँ छापा पड़ा 21-22 तारीख को जब इस संस्था के ही एक गाड़ी में एक बूढ़ी औरत की 'बचाओ-बचाओ' की आवाज़ लगा रही थी रोड पे इसकी गाड़ी रोकी गई ..और उस गाड़ी से दो वृद्ध जनों को बचाया गया।. फिर इसके बाद इस ओल्डएज होम पे छापा पड़ा जहाँ इंटेलिजेंस वालों के होश उड़ गए। ओल्डएज होम पर लाशों का रैक बना हुआ था बड़े-बड़े बक्सों के अंदर .. और वो लाश थी ? जी . नहीं केवल मांस के लोथड़े ही बचे थे....
1600 से ऊपर ऐसे लोथड़े थे। इससे पहले तो पता नहीं कितने ही ऐसे लोथड़े मिट्टी में मिल गए होंगे । इनकी हड्डियां और अंग विदेशों में सप्लाई कर दिए जाते हैं, जहाँ बहुत माँग हैं इन सबकी । हॉस्पिटलस से ये लाशें लाते हैं और हड्डियों को निकालने का काम करते हैं। इनके ही वृद्धाश्रम से पता नहीं कितनों को मार कर इनकी हड्डियां और ऑर्गन्स बेचे जाते हैं।
सड़क किनारे से बुजुर्गों को उठा के लाते हैं सोशल सर्विस के नाम पर दान भी तगड़ा मिलता है सोशल सर्विस के नाम से और अंदर ये सब कुकृत्य किया जाता है...मेन स्ट्रीम मीडिया में नहीं मिला न ये सब ? कैसे मिलेगा ? सेंट फेंट वालों के यहाँ ऐसे चीज थोड़े न होते हैं, ऐसे कृत्य तो केवल बाबाओं के यहां ही होते हैं...
खैर मीडिया आज श्रीदेवी की अंतेष्टि में ही सारा दिन निकाल देगी और आखिर में ये खबर गायब हो जाएगी
650 एकड़ का मैदान, 10 हजार से ज्यादा गाड़ियां, 3 लाख लोगों का समागम, 
बिना प्रशासन-पुलिस के खुद सम्भाली हर व्यवस्था, दमदार प्रबन्धन, 
प्रतिदिन 6 लाख भोजन के पैकेट, कूड़े का एक कण भी नही, 
गजब का अनुशासन, ,कोई अव्यवस्था नही.
ये है "राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ"
ईसाई मिशनरी ने तमिलनाडु में जब कमल
हसन जैसे मोहरों का इस्तेमाल किया है, तब जयेंद्र सरस्वती का जाना अपूरणीय क्षति है!


कांची कामकोटि के शंकराचार्य आदरणीय #JayendraSaraswathi जी 82 वर्ष की अवस्था में आज परलोक सिधार गये। उन्हें कोटि-कोटि श्रद्धांजलि।

पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने आत्मकथा में लिखा था कि किस तरह से कांग्रेस की तत्कालीन ‘मनमोहनी सरकार’ ने दिवाली की रात उन्हें गिरफ्तार कराया था। प्रणव ने इसका विरोध किया था और पूछा था कि क्या किसी और मजहब/रिलीजन के धर्म गुरू को उसके त्यौहार वाले दिन सरकार ऐसे गिरफ्तार करने की हिम्मत रखती है? प्रणव ने एक तरह से अपनी किताब के माध्यम से यह दर्शाया कि सोनिया गांधी हिंदुओं से नफरत करती थी!

वास्तव में दक्षिण भारत में बड़े पैमाने पर चल रहे धर्मांतरण को रोकने में जयंत सरस्वती जी बड़ी भूमिका निभा रहे थे, इसीलिए ईसाई मिशनरियों के निशाने पर वो हमेशा से थे। ईसाई ( जेविमर मोरो की पुस्तक रेड साड़ी के अनुसार सोनिया गांधी अभी भी कैथोलिक है।) सोनिया गांधी के समय धर्मांतरण का धंधा भारत में सबसे तेजी से फला-फूला। हिंदुओं का सबसे अधिक अपमान यूपीए के इसी कार्यकाल के दौरान हुआ। इसीलिए सत्ता में आते ही उसी साल झूठे केस में कांचि कामकोटि के इस 69 वें शंकराचार्य को नवंबर 2004 में गिरफ्तार कर लिया गया। इसमें तमिलनाडु की तत्कालीन मुख्यमंत्री जयललिता की भी बड़ी भूमिका थी! आखिर ईसाईयों के वोट बैंक का सवाल था! बाद में अदालत से जयेंद्र सरस्वती जी को बरी कर दिया गया, जिससे यह साबित हुआ कि उन्हें झूठे केस में फंसाया गया था।दक्षिण भारत में ईसाईयों की बड़ी संख्या है और यह सब दलितों को कन्वर्ट करके बना है। 80 के दशक में मीनाक्षीपुरम में बड़ी संख्या में दलितों का एक साथ कन्वर्जन हुआ था, जिसके विरोध में उप्र के वर्तमान मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के गुरू महंत अवेद्यनाथ ने तब संसद से इस्तीफा तक दे दिया था।

वर्तमान में सुपरस्टार रजनीकांत के राजनीति में आने की काट के लिए दक्षिण भारत के चर्चों ने फिल्म स्टार कमल हसन को अपना मोहरा बनाया है। डॉ सुब्रहमण्यम स्वामी ने ट्वीट कर बताया है कि ‘कमल हसन विदेशी क्रिश्चियन मिशनरियों का प्रतानिधि है। करण थापर को दिए एक पुराने साक्षात्कार में कमल हसन ने कहा दा कि वह ईसा के संदेश का प्रचार करना चाहता है।’

रजनीकांत राष्ट्रवादी और हिंदू धर्म को लेकर राजनीति में आगे बढ़ सकते हैं, जिसे रोकने की कोशिश विदेशी ईसाई मिशनरीज व चर्च कमल हसन-सोनिया गांधी को लेकर करेंगे। ऐसे नाजुक समय में शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती का जाना पूरे हिंदू समाज के लिए अपूरणीय क्षति है।

Tuesday, 27 February 2018

तमिल भाषा का संस्कृत से सम्बन्ध ....
डॉ विवेक आर्य
आईआईटी मद्रास में संपन्न हुए एक कार्यक्रम में संस्कृत गीत द्वारा गणेश वंदना प्रस्तुत की गई। इस कार्यक्रम में दो केंद्रीय मंत्रियों के साथ संस्थान के निदेशक भी उपस्थित थे। इसी बात को लेकर तमिलनाडु की द्रविड़ पार्टी के नेता वाइको ने इसे तमिलनाडु पर संस्कृत और हिंदी थोपन करार दिया। वाइको के अतिरिक्त कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी इसका विरोध किया है। जब भारत ने अपना पहला उपग्रह आर्यभट्ट के नाम से छोड़ा था तब भी तमिलनाडु के राजनेताओं ने अपनी राजनीति चमकाने के लिए उसका विरोध किया था।
जानने योग्य बात यह है कि आईआईटी मद्रास में कुछ वर्षों पहले स्थापित हुए अम्बेडकर पेरियार स्टडी सर्किल के सदस्यों ने भी इस कदम का विरोध किया। इस संगठन के लोगों को यह भी नहीं मालूम कि डॉ अम्बेडकर ने संस्कृत भाषा को भारत की राष्ट्रभाषा बनाने का प्रस्ताव दिया था। जिसका विरोध कांग्रेस और कम्युनिस्ट दोनों पार्टियों ने किया था। ये लोग उन्हीं डॉ अम्बेडकर का नाम लेकर लोगों को केवल भड़काने का काया करते है। उनकी मान्यताओं को अपनी सहूलियत के अनुसार प्रयोग करना इनकी आदत है।
सभी जानते है कि तमिलनाडु आर्य-द्रविड़ की विभाजनकारी मानसिकता का केंद्र रहा है। वहां के राजनेता जनता को द्रविड़ संस्कृति के नाम पर भड़काते हैं। वे कहते है कि द्रविड़ संस्कृति, तमिल भाषा हमारी मूल पहचान है। विदेशी आर्यों ने अपनी संस्कृति हमारे ऊपर थोपी है। उनका यह भी कहना है कि तमिल भाषा एक स्वतंत्र भाषा है एवं उसका संस्कृत से कोई सम्बन्ध नहीं है। संस्कृत आर्यों की भाषा है जिसे द्रविड़ों पर थोपा गया है।
एक सामान्य शंका मेरे मस्तिष्क में सदा रहती है कि तमिल राजनेता हिंदी/संस्कृत का विदेशी भाषा कहकर विरोध करते है परन्तु इसके विपरीत अंग्रेजी का समर्थन करते है। क्या अंग्रेजी भाषा की उत्पत्ति तमिलनाडु के किसी गाँव में हुई थी ? नहीं। फिर यह केवल एक प्रकार की जिद है। तमिलनाडु में हिंदी विरोध कैसे प्रारम्भ हुआ? इस शंका के समाधान के लिए हमें तमिलनाडु के इतिहास को जानना होगा। रोबर्ट कालद्वेल्ल (Robert Caldwell -1814 -1891 ) के नाम से ईसाई मिश्नरी को इस मतभेद का जनक माना जाता है। रोबर्ट कालद्वेल्ल ने भारत आकर तमिल भाषा पर व्याप्त अधिकार कर किया और उनकी पुस्तक A Comparative Grammar of the Dravidian or South Indian Family of Languages, Harrison: London, 1856 में प्रकाशित हुई थी। इस पुस्तक का उद्देश्य तमिलनाडु का गैर ब्राह्मण जनता को ब्राह्मण विरोधी, संस्कृत विरोधी, हिंदी विरोधी, वेद विरोधी एवं उत्तर भारतीय विरोधी बनाना था। जिससे उन्हें भड़का कर आसानी से ईसाई मत में परिवर्तित किया जा सके और इस कार्य में रोबर्ट कालद्वेल्ल को सफलता भी मिली। पूर्व मुख्य मंत्री करूणानिधि के अनुसार इस पुस्तक में लिखा है कि संस्कृत भाषा के 20 शब्द तमिल भाषा में पहले से ही मिलते है। जिससे यह सिद्ध होता हैं की तमिल भाषा संस्कृत से पहले विद्यमान थी। तमिलनाडु की राजनीती ब्राह्मण और गैर-ब्राह्मण धुरों पर लड़ी जाती रही हैं। इसीलिए इस पुस्तक को आधार बनाकर हिंदी विरोधी आंदोलन चलाये गए। विडंबना देखिये कि भाई भाई में भेद डालने वाले रोबर्ट कालद्वेल्ल की मूर्ति को मद्रास के मरीना बीच पर स्थापित किया गया है। उसकी स्मृति में एक डाक टिकट भी जारी किया गया था।
जहाँ तक तमिल और संस्कृत भाषा में सम्बन्ध का प्रश्न है तो संस्कृत और तमिल में वैसा ही सम्बन्ध है जैसा एक माँ और बेटे में होता है। जैसा सम्बन्ध संस्कृत और विश्व की अन्य भाषाओँ में हैं। संस्कृत जैसे विश्व की अन्य भाषाओं की जननी है वैसे ही तमिल की भी जननी है। अनुसन्धान करने पर हमें मालूम चलता है कि प्राचीन तमिल ग्रंथों में विशेष रूप से तमिल काव्य में बहुत से संस्कृत के शब्द प्रयुक्त किये गए है। यहाँ तक कि तमिल की बोलचाल की भाषा तो संस्कृत-शब्दों से भरी पड़ी है। कम्ब रामायण में भी अपभ्रंश रूप से अनेक संस्कृत शब्द मिल जायेंगे। तमिल भाषा की लिपि में अक्षर कम होने के कारण संस्कृत के शब्द स्पष्ट रूप से नहीं लिखे जाते। इसलिए अलग लिपि बन गई।
“तमिल स्वयं शिक्षक” से तमिल, संस्कृत,हिंदी के कुछ शब्दों में समानता
तमिल संस्कृत हिंदी
1. वार्ते वार्ता बात
2. ग्रामम् ग्राम: गांव
3. जलम् जलम् जल
4. दूरम् दूरम् दूर
5. मात्रम् मात्रम् मात्र
6. शीग्रम शीघ्रम शीघ्र
7. समाचारम समाचार: समाचार
इस प्रकार के अनेक उदहारण तमिल, संस्कृत और हिंदी में “तमिल स्वयं शिक्षक” से समानता के दिए जा सकते हैं।
इसी प्रकार से "तमिल लैक्सिकान" के नाम से तमिल के प्रामाणिक कोष को देखने से भी यही ज्ञात होता है कि तमिल भाषा में संस्कृत के अनेक शब्द विद्यमान है। तमिल वेद के नाम से प्रसिद्द त्रिक्कुरल , संत तिरुवल्लुवार द्वारा प्रणीत ग्रन्थ के हिंदी संस्करण की भूमिका में माननीय चक्रबर्ती राजगोपालाचारी लिखते है कि ‘इस पुस्तक को पढ़कर उत्तर भारतवासी जानेंगे की उत्तरी सभ्यता और संस्कृति का तमिल जाति से कितना घनिष्ठ सम्बन्ध और तादात्म्य हैं’। इस ग्रन्थ में अनेक वाक्य वेदों के उपदेश का स्पष्ट अनुवाद प्रतीत होते है। तमिल के प्रसिद्द कवि भारतियार की काव्य में भी संस्कृत शब्द प्रचुर मात्रा में मिलते हैं। तमिलनाडु के प्रसिद्द संगम काल के साहित्य में संस्कृत के प्राचीन ग्रंथों प्रभाव स्पष्ट रूप से मिलता हैं।
एक अन्य उदहारण देखिये। तिरुक्कुल को तमिल वेद भी कहा जाता है। इसके लेखक तिरुवल्लुवर को ऋषि कह कर सम्मानित किया जाता है।
इसे पढ़ कर लगा कि तिरुक्कुल और मनुस्मृति आदि वैदिक ग्रन्थों में बहुत अधिक समानता है। तिरुक्कुल का रचनाकाल 300 इस्वी पूर्व (300 BC) माना जाता है। कुछ लोग इसका समय इतना पुराना नहीं मानते। परन्तु इस बात पर सभी सहमत हैं कि यह तमिल की प्राचीनतम रचनाओं में से एक है। मनु स्मृति इससे भी बहुत प्राचीन है। आश्चर्य है वेद की तरह इसमें भी कोई पाठभेद नहीं है।
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मनु स्मृति और तिरुक्कुल की तुलना (कोष्ठक में संख्या तुरुक्कुल के पद्य की संख्या है)
1-
संन्यास और ब्राह्मण
तिरुक्कुल- सदाचार पर चलकर संन्यास ग्रहण करना सर्वश्रेष्ठ है. (21 ) मुक्ति के लिए संन्यास ग्रहण करे (22)
मनुस्मृति - सन्यासी का धर्म है कि मुक्ति के लिए इन्द्रियों को दुराचार से रोक कर सभी जीवों पर दया करे।
2- गृहस्थ
तिरुक्कुल- गृहस्थ अन्य 3 आश्रमों के धर्माकुल जीवन जीने में सहायक होता है। (41) धन करते समय पाप से बचे और खर्च करते समय बाँट कर प्रयोग करे। (44) नियमानुसार गृहस्थ जीवन जीने वाला सभी आश्रमों से श्रेष्ठ है। (46)
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मनुस्मृति- जिसके दान से 3 आश्रमों का जीवन चलता है वह गृहस्थ आश्रम सबसे बड़ा है। जैसे सभी वायु के आश्रित होते हैं वैसे ही सभी आश्रम गृहस्थ के आश्रित है। गृहस्थ धर्मानुकुल धन का संचय करे।
यह केवल दिग्दर्शन मात्र है। इस विषय पर पूरी पुस्तक लिखी जा सकती है।
इतिहास के अनुसार पूर्वकाल में दक्षिण भारत से जावा, सुमात्रा, मलेशिया, इंडोनेशिया आदि पूर्व के देशों में व्यापारिक, राजनीतिक, संस्कृति एवं धार्मिक सम्बन्ध थे। भारतीय संस्कृति का प्रभाव आज भी उन देशों की संस्कृति में स्पष्ट रूप से दीखता है। तमिलनाडु से न केवल व्यापारी उन देशों में जाते थे। अपितु संस्कृति का प्रचार बी होता था। इस सम्बन्ध के लिए प्रयोग होने वाली भाषा कोई अन्य नहीं अपितु संस्कृत ही थी। इस प्रमाण जावा देश में 1768 तक मनुस्मृति के आधार पर प्रचलित विधि-विधान से मिलता है।(सन्दर्भ- Arnold Thomas, the Preaching of Islam, p.385)। मनुस्मृति संस्कृत में है। इससे यही सिद्ध हुआ कि उस काल में तमिलनाडु में धार्मिक कार्यों में संस्कृत भाषा का व्यापक रूप में प्रचलन था।
संस्कृत भाषा और विश्व की अन्य में सम्बन्ध को सिद्ध करने के लिए पूर्व में कुछ पुस्तकें प्रकाशित हुई है जैसे पंडित धर्मदेव विद्यामार्तंड द्वारा रचित वेदों का यथार्थ स्वरुप, Sanskrit-The Mother of all World Languages, पंडित भगवददृत्त जी द्वारा लिखित भाषा का इतिहास अदि। संस्कृत को विश्व की समस्त भाषाओं की जननी सिद्ध करने के लिए अनुसन्धान कार्य को आगे बढ़ाने की आवश्यकता है। फुट डालो और राज करो की विभाजनकारी मानसिकता का प्रतिउत्तर सम्पूर्ण देश को हिंदी भाषा के सूत्र से जोड़ना ही है। यही स्वामी दयानंद की मनोकामना थी। आर्यसमाज को भाषा वैज्ञानिकों की सहायता से रोबर्ट कालद्वेल्ल की पुस्तक की तर्कपूर्ण समीक्षा छपवा कर उसे तमिलनाडु में प्रचारित करवाना चाहिए। ऐसा मेरा व्यक्तिगत मानना है।
(लेखक ने हिंदी भाषी होते हुए अपने जीवन के 6 वर्ष तमिलनाडु में व्यतीत किये हैं एवं तमिल भाषा से परिचित है।)
यूरोप खण्ड का वैदिक अतीत जो आज भी नाम, वर्ण, पूजा आदि में पाया जाता है ...
यूरोप में वैदिक संस्कृति के प्रमाण
यूरोप के भूगोल के सम्बन्ध में एक ध्यान देने योग्य बात यह है कि इस खण्ड के अन्तरगत कई देशों के नामो का अन्त्यपद “ईय” है, जिसे Russia यानी ऋषिय, Prussia जो प्र-ऋषय शब्द है । Siberia का उच्चारण रहिया के निवासी ‘शिविर’ ही करते है । यह नाम पड़ने का कारण यही है कि वहां बहुत हिमपात और गतिमान अतिशीत वायु होने से पक्क्ति बस्ती नहीं होती थी । किसी कार्य हेतु जाने वाले व्यक्ति सीमित समय तक वहां शिविर बनाकर रहते और लौट जाते थे । Rumaina उर्फ़ Romania रमणीय शब्द ही है । बल्गारिया (Bulgaria) हो सकता हैं बालिगिरिया शब्द हो जिसका अपभ्रंश बालिगिरिय बनकर बल्गारिया बन गया, क्योनी यूरोप में रामायण का प्रभाव रहा है । स्पेन और फ़्रांस को मिलाकर वर्तमान युग में इबेरिया (Iberia) कहते है । जो ‘इबिरीय’ शब्द है । कभी सारे यूरोप को ही ‘ईबेरिया’ अर्थात् ईबरीय कहते थे ऐसा जान पड़ता है । एथिओपिया (Ethiopia) एथिओपिय देश है । Austria अस्त्रीय (अस्त्रों का देश) है । Scandinavia स्कंदनाविय देश है । अर्मेनिया (Armenia) अर्मनीय नाम है । Albania अल्बनीय नाम है । विचार करने पर और भी ऐसे कई नाम यह लगभग सारे ही नाम ऐसे मिलेंगे जो वहां को प्राचीन वैदिक सभ्यता के द्योतक है ।
प्राचीन यूरोपीय समाज के चार वर्ण
स्ट्र्बो नाम के एक प्राचीन ग्रीक विद्वान् ने भूगोल का एक ग्रन्थ लिखा है । इस ग्रन्थ के द्वितीय खण्ड में पृष्ठ २३० से २३४ पर उल्लेख है कि “इबेरिया (उर्फ़ ईबरीय) के अधिकांश बहग में अच्छी खासी एक बस्ती है । उस प्रदेश के कुछ भाग काकेशिय पर्वत श्रंखला से घिरे हुए है । इस प्रदेश के निवसियों के भी चार वर्ण यानी वर्ग है । प्रथम श्रेणी के वे है जिनमें से राज लोग नियुक्त होते है । दूसरा वर्ग पुरोहित का है । तीसरा वर्ग किसान और सैनिकों का । चौथे में अन्य जन सम्मिलित है । उनके पूज्य देवता है सूर्य, बृहस्पति तथा चन्द्र । इबेरिया के समीप एक चन्द्र मंदिर है । राज के पश्चात पुरोहितों का सम्मान होता था । अल्बनीय जन वयोवृद्धो का बड़ा आदर करते है । माता-पिता और अन्य सारे ही गुरुजनों को अल्बनीय लोग पूज्य मानते है ।
ऊपर उद्धृत किये स्टबोकृत वर्णन से यह अनुमान निकलता है कि शिबिरीय, इबिरीय अदि नाम सारे यूरोप का निर्देश करते थे । किन्तु आजकल यूरोप के नैकहल्प के स्पेन पुर्तगाल-फ़्रांस वाले कोने को ही इबेरीय पेनिनसुला कहते है । इबेरिया नाम ही बिगड़कर यूरोप उर्फ़ ‘ईरूप’ यानी Europe बना, ऐसा प्रतिट होता है । विद्वान् मनीषि व वाचक इस पर विचार संशोधन करें ।
प्राचीन वैदिक डाक-व्यवस्था
आंग्लभाषा में एक कहावत है ‘History repeats itself’ यानी मानवी इतिहास में एक जैसी घटनाएं बार-बार होती है । वर्तमान युग में ‘शासन द्वारा डाक व्यवस्था चलाई जाती है’ । आम लोग यह समझ बैठे है कि इसे यूरोपीय लोगों ने ही सर्वप्रथम चलाया, किन्तु यह कल्पना सहीं नहीं है । प्राचीन वैदिक सभ्यता में भी डाक-व्यवस्था थी । एक मध्य युगीन यूरोपीय लेखक का कहना है कि डाक-व्यवस्था तो सर्वप्रथम भारतियों द्वारा ही चलाई गई थी ।
A Voyage to East Indies नाम का एक ग्रन्थ है, इसके लेखक है Fra Paoline da Tan Bartolomeo । वे रोमा उर्फ़ रोम नगर की Academy of Valetri के सदस्य थे और Propaganda यानी प्रचार संस्था में प्राच्य भाषाओँ के प्राध्यापक थे । उन्होंने प्राच्य द्वीपों का जो प्रवास किया उसका उन्होंने वर्णन लिखा है । उस ग्रन्थ के पृष्ठ १४७ पर दी टिप्पणी में फार्स्टर लिखते है “भारत में डाक-व्यवस्था चालू है । उस डाक-सेवा का नाम है ‘अंजला’ । प्राचीनकाल में इराण में भी एक प्रकार कि डाक-व्यवस्था उपलब्ध थी । उसे ‘अंगरस’ कहा करते थे । उसमें और अंजला में कुछ समानता दिखती है । सम्भावना ऐसी लगती है कि ईरानी डाक-सेवा, भारतीय डाक-सेवा का अनुकरण रूप हो ।”
Census संख्या शब्द है
आधुनिक युग में प्रत्येक देश में कितने लोग रहते है ? उनकी संख्या, उनके कामधंधे आदि का ब्यौरा प्रति दस वर्ष इक्कट्ठा कर संकलित तथा प्रकाशित किया जाता है । इसे ‘सेन्सस’ (Census) कहा जाता है । यह आंग्ल शब्द है । वास्तव में यह ‘संख्यस’ यानी संख्या संकलन’ इस अर्थ का संस्कृत शब्द है । इसे ऐसे कई प्रमाणों से जाना जा सकता है कि राष्ट्रीय या प्रादेशिक संख्या गणना की प्रथा वैदिक समाज व्यवस्था में अंतर्भूत थी । उपरोक्त बार्टोलोमिओ के ग्रन्थ में उस प्रथा का उल्लेख है । John Philip Wasdin ऑस्ट्रिया देश का निवासी था । वह वगैर जूतों के नग्न पैरों से ही चला करता था । साधु बनकर उसने Bartolomeo नाम धारण किया था जो संस्कृत ‘व्रतावलम्बी’ शब्द का ईसाई अपभ्रंश है । उस व्यक्ति का जन्म होस ग्राम में सन १७४८ में हुआ था । उसके प्रवास वर्णन के पृष्ठ २५७ पर उल्लेख है कि “भारत में कोई महिला प्रसूत होने पर पति को स्थानीय सरकारी अधिकारी को अपत्यजनक की वार्ता लिखवानी पड़ती थी ताकि उस विशिष्ट जमात को जनसँख्या सदैव पूर्णरूपेण ज्ञात हो सके ।” इसी प्रकार सम्बंधित विभागीय अधिकारी जन्म-मृत्यु की वार्ता और संख्या राजा तक पहुंचाते थे । भारतीय राजों के शासन की जनसँख्या का पूरा हिसाब-किताब रखने की यह प्रणाली इतनी प्राचीन है कि स्ट्बो नाम के प्राचीन ग्रीक ग्रंथकार ने भी उसका उल्लेख किया है । इसी प्रकार प्रकार मंदिर के पुरोहित भी अपने क्षेत्र के लोगों की जन्म-मृत्यु की सूची रखा करते थे ।
प्रत्येक शिशु के जन्म के समय होने वाली विधि के लिए ब्राह्मण बुलाया जाता था । मंदिरों के ब्राह्मणों का कर्तव्य होता है कि निजी विभाग में जन्म, मृत्यु, विवाह तथा प्रत्येक जात-पांत, आदि में होने वाली प्रत्येक महत्वपूर्ण घटना का ब्यौरा रखें । अत: उन ‘वारियर’ यानी वार्तावहियों से यानी सामाजिक खाता-बहियों से प्रत्येक घर और कुल के विवाह-सम्बन्ध, नात-गोत, व्यवसाय, जीवन-व्यवहार, साम्पत्तिक सामाजिक तथा शारीरिक परिस्थिति आदि की बारीकियों सहित परिपूर्ण जानकारी उपलब्ध रखना बड़े आश्चर्य की बात थी ।”
डायोसीस (Diocese) यानी देवाशीश
कृस्ती पंथ परम्परा में बिशप नामक धर्मगुरु के कार्य प्रदेश को डायसीस कहते है जो स्पष्टतया वैदिक प्रणाली का देवाशीश शब्द है । प्राचीन वैदिक प्रथा में प्रत्येक मंदिर के पुरोहित की निगरानी के विभाग को उस प्रदेश के देवता का आशीष या कृपाछत्र उर्फ़ दयादृष्टि प्राप्य है ऐसा माना जाता था । अत: ऐसे प्रदेश को देवाशीश कहने की वैदिक परम्परा अभी भी है । प्रत्येक विभाग की स्नेहपूर्ण देखभाल और जानकारी परमात्मा के प्रतिनिधि के रूप में प्रत्येक मंदिर का विद्वान वेदज्ञ पण्डित रखा करे, इससे और परिपूर्ण तथा उत्तम व्यवस्था क्या हो सकती है । कृस्ती पंथ में भी यही प्रथा प्रचलित है ।
वैदिक शिक्षा पद्धति
बार्तोलोमिओ ने भारत में प्रचलित जो वैदिक शिक्षा- पद्धति देखी लगभग वाही सारे विश्व में कृतयुग से महाभारतीय युद्ध तक व्यवहार में थी । महाभारतीय युद्ध से जो सर्वनाश हुआ उससे वैदिक विश्व साम्राज्य भंग होने से वैदिक शिक्षा प्रणाली का यकायक अंत हो गया । किन्तु उस वैदिक संस्कृति की जड़े भारत में गहरी गढ़ी होने के कारण वह प्राचीन वैदिक संस्कृति छिन्न-भिन्न अवस्था में ही क्यों न हो, भारत में टिकी रही । इस महान वैदिक शिक्षा वृक्ष की विश्व में फैली हुई शाखाएं वैदिक विश्व साम्राज्य नष्ट होने के कारण सुखकर कट गई । सारे विश्व में वैदिक गुरुकुल शिक्षा ही प्रसृत थी । इसका एक सशक्त प्रमाण वर्तमान शिक्षा प्रणाली की प्रचलित परिभाषा में ही पाया जाता है । वर्तमान यूरोपीय शिक्षा-प्रणाली में प्रयोग होने वाली वह परिभाषा पूर्णतया वैदिक संस्कृत है ।
अठारहवीं शताब्दी में जो गुरुकुल भारत में विद्यमान थे उनका प्रचलन कैसा था उसका वर्णन बार्तोलोमिओ ने लिखा है । उस समय तक ईसाई पथ और इस्लाम, इन दोनों ने मिलकर यूरोप, अफ्रीका आदि विश्व के अन्यान्य प्रदेशों से वैदिक शिक्षा-प्रणाली को नष्ट कर दिया था ।
अमेरिका
RELIGIOUS/HISTORY23 FEB, 2018

अमेरिका खंडो में वैदिक सभ्यता के प्रमाण आज भी मौजूद है कैसे ?
भारतीय छात्रों को जो अन्य विषय पढाए जाते है वे है छन्दशास्त्र. आत्मरक्षण, वनस्पतिशास्त्र. वैद्यकशास्त्र. नौकायन विद्या, भाला फेंकना, कन्दूक क्रीड़ा, शतरंज, ज्योतिष, नीतिशास्त्र, स्वाध्याय, पांच वर्ष तक बिना कोई प्रश्न पूछे कही हुई पढ़ाई चुपचाप ग्रहण करते रहने की शिस्त छात्रों को लगाईं जाती है । अन्य देशों में सबको एक ही समान कर्तव्य करना होगा ऐसा समझकर एक ही प्रकार की समान शिक्षा सब छात्रों को दी जाती है । भारत में ऐसा नहीं है । प्रत्येक विशिष्ट जाती के अनुसार जिस भारतीय को जो व्यवसाय करना पड़ेगा और जो कर्तव्य निभाना पड़ेगा उसे ध्यान में रखकर हर एक की शिक्षा भिन्न प्रकार की होती है । तथापि इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि जब से भारतीय राजाओं को विदेशी आक्रामकों ने परास्त किया तब से भारतीय शास्त्र और विद्याओं का स्तर गिर गया है और प्रान्त के प्रान्त लूटपाट के शिकार बन गए है । अनेक व्यवसायों की मिलावट हो गई है । पराए आक्रमणों के पूर्व भारतीय लोग धनि और सुखी होते थे । नीति-नियमों का पालन हुआ कतरा और न्याय तथा शांति का वातावरण हुआ करता था । आप सभी ने देखा भी होगा की त्रावणकोर नरेश राम वर्मा की संतानों को उसी तरह से शिक्षा दी जाती थी जैसे शूद्रों को ।”
बर्तोलोमिओ के प्रवास-वर्णन के अनुवादक ने टिप्पणी में लिखा है कि ग्रीक दर्शनशास्त्री ने निजी शिक्षा भारत में ही पाई होगी क्योंकि उसके शिष्यों पर भी पांच वर्ष तक कोई प्रश्न नहीं पूछने का बंधन लागू था ।
यह आवश्यक नहीं कि पाइथोगोरस की शिक्षा भारत में हुई हो । वह भारत में भले ही आया हो या पढ़ा भी हो किन्तु कहने का तात्पर्य यह है की किसी की शिक्षा चाहे प्रदेश में हुई हो, यत्र-तत्र-सर्वत्र प्राचीन काल में वैदिक संस्कृति होने के कारण वैदिक शिक्षा ही दी जाती थी जैसे कि वर्तमान युग में चाहे कहीं पढ़ो, पाश्चात्य यूरोपीय शिक्षा प्रणाली प्रचलित है।
विद्वानों का प्रमाद
जब प्राचीन विश्व के इतिहास में भारतीय और अन्य प्रदेशों के व्यवहार या परिभाषा में कोई समानता पाई जाती है तो वर्तमान विद्वज्जन तर्क-वितर्क करते रहते है कि या तो पश्चिमी लोगों ने भारत का अनुकरण किया होगा या भारत ने उनका । यह दोनों अनुमान गलत है । समझने की बात यह है की विश्व के निर्माण से कृस्तपन्थ के प्रसार तक सारे विश्व में वैदिक संस्कृति ही चलती रही । महाभारतीय युद्ध के पश्चात वह वैदिक संस्कृति टूटी-फूटी लंगड़ी-लूली अवस्था में बसर करने लगी । अन्य प्रदेशों की अपेक्षा भारत में वैदिक संस्कृति की अवस्था अच्छी थी किन्तु फिर भी वह इतिनी अच्छी या शुद्ध नहीं रही जितनी कि महाभारतीय युद्ध के पूर्व थी ।
संस्कृत विश्वभाषा थी
संस्कृत भाषा के प्रति जर्मन विद्वानों को बड़ी श्रद्धा, आदर और प्रेम होता है । उदाहरणार्थ आकाशवाणी द्वारा संस्कृत में कार्यक्रम आधुनिक युग में भारत से भी पूर्व जर्मन देश द्वारा आरम्भ किया गया । जर्मन भाषा का ढांचा संस्कृत जैसा ही होता है जैसा की प्रथमा से संबोधन तक की विभक्तियाँ, संस्कृत जैसी जर्मन भाषा में भी होती है । ऐसा क्यों ? वह इसलिए कि जर्मनी में प्राचीनकाल में संस्कृत का प्रचलन होने से उस भाषा के प्रति उनका जन्मजात लगाव रहा है । यद्यपि उस अतीत का वर्तमान युग में किसी को ठीक ज्ञान या स्मरण नहीं रहा तथापि पंद्रह सौ वर्षो के ईसाई प्रचार से जर्मन लोगों को उनके कृस्तपूर्व इतिहास की विस्मृति करा दी गई है ?
जर्मनी में संस्कृत का अध्ययन
आधुनिक युग में जर्मनी और अन्य यूरोपीय देशों में संस्कृत का अध्ययन ईसाई पादरियों ने आरम्भ किया । उस अध्ययन में संस्कृत के प्रति प्रेम, यह उद्देश्य न होकर कृस्त धर्म प्रसार के हेतु संस्कृत के अध्ययन को एक साधन बनाना यह मूल उद्देश्य था ताकि संस्कृत के धर्मग्रन्थ पढ़कर उनकी किसी प्रकार निंदा कर भारत की कर्मठ हिन्दू जनता के मन में हिन्दू धर्म के प्रति घृणा पैदा की जा सके और उन हिन्दुओं को ईसाई बनाया जा सके ।
Schlegel कुल के तीन भाई वह नाटक पढ़कर बड़े प्रभावित हुए । उनेमं से दो भाइयों ने आधुनिककाल में जर्मन देश में संस्कृत भाषा के अध्ययन का आरम्भ किया ।
सन १८१८ में W. Von Schlegel बान विश्वविद्यालय में संस्कृत का प्राध्यापक बना । उसने सन १८२३ में भगवद्गीता और सन १८२९ में रामायण के जर्मन अनुवाद प्रकाशित किये ।
मदरसा
REAL INDIAN HISTORY22 FEB, 2018
मदरसा हिन्दू ‘शाला’ का इस्लामी अनुवाद है
वैदिक सोमलता
कई लोग अज्ञानवश “वैदिक काल-वैदिक काल” ऐसा उल्लेख करते रहते हैं । इस उद्गार में अनजाने उनकी यह अस्पष्ट धारणा प्रकट होती है कि मानव द्वारा किसी विशिष्ट समय में वेद काव्य रचा गया । यह बड़ी भूल है । वैदिककाल वही होगा जो सृष्टि या मानव की उत्पत्ति का प्रथम दिन था । क्योंकि मानव का निर्माण करते ही इस भवसागर में उसके मार्ग-दर्शन के लिए जो ईश्वरीय ज्ञान-ग्रन्थ मानव को दिया गया उसका नाम है ‘वेद” ।
वेदों में सूचित क्रियाकर्मो में सोमरस के अनेक गुणों का तथा सोमरस देवताओं को अर्पण करने का उल्लेख बार-बार आता है । सोमरस को पान या तैयार करना बड़ा महत्व रखता था । ऋग्वेद का नौवा मण्डल सोमरस से ही सम्बंधित है । उस सोमरस के अनेक उपयोग उस मण्डल में अलंकारिक भाषा में वर्णित है ।
ऋग्वेद के अनुसार ‘सोम’ का बूटा अति प्राचीनकाल में श्येन के राजिक प्रदेश के पार से स्वलोक के ‘द्यु’ प्रदेश में लाया गया था । वह पहाड़ी में पाया जाता है । सुशोमा नदी घाटी के शर्यणवट भाग के ARFIKIAN प्रदेश में पाई जाने वाली सोम वनस्पति बड़ी गुणकारी कही जाती है । वह राजिक प्रदेश, कश्मीर उत्तर में हिमालय की पहाड़ियों के पार है ।
वैमानिक शास्त्र में विमान से सम्बंधित चौकाने वाले रहस्य
कुछ हरे-पीले ऐसे सोमवल्ली के पत्ते होते हैं । उन पत्तों पर मृदु तंतुओं का आवरण होता है । उन पत्तो का आकार मोरपंख जैसा होता है । बहते जल में उन पत्तो को धोकर पत्थर से कूटा जाता, उन पत्तों की चटनी में जल मिलाकर उस मिश्रण को कपड़े में से छाना जाता, उस रस को गौदुग्ध या मधु से मिलाकर उसके भिन्न-भिन्न गुणकारी रसायन बनाये जाते है ।
सोमवल्ली के शक्ति और तेजप्रदायी गुणों के कारण उसकी टहनियाँ या पत्ते वैदिक समारोहों में मण्डप में लागाये जाते । कृस्तपंथी लोग क्रिसमस त्यौहारों में निजी घरो में Holly या Mistletor नामक वनस्पति की टहनियों या पत्तों को शुभ मानकर को प्रदर्शित करते है वह प्राचीन लुप्त सोमवल्ली का ही अर्वाचीन प्रतिक है ।
प्राचीन ‘चोल’ साम्राज्य
भाषा परीक्षा में जैसे किसी टूटे-फूटे, आधे-अधूरे वाक्य में सोच समझकर योग्य शब्द बार कर वाक्य को पूरा और सार्थक बनाना पड़ता है, उसी प्रकार खण्डित इतिहास के अवशेषों का निरिक्षण कर अज्ञात कड़ियों को जोड़ना पड़ता है । ऐसी ही एक कड़ी ‘चोल’ नाम से मिलती है ।
प्राचीन भारतीय राजघरानों में ‘चोल वंश’ का नाम प्रसिद्द है । हाल में इसे अनेक राजवंशो में से एक गिना जाता है । किन्तु हो सकता है कि महाभारतीय युद्ध के पश्चात जिन अनेक छोटे-मोटे राजवंशो का नाम आता है उनमें चोल वंश का साम्राज्य सबसे विशाल रहा हो, क्योंकि उसके चिन्ह एक विस्तीर्ण प्रदेश का और उसमें रहने वाले लोगों का पड़ा ।
चरक द्वारा लिखित “चरक संहिता” आज भी प्रख्यात क्यों है ?
धरती और धरती पर जीव सृष्टि का मूल आधार सूर्य ही है । धरती पर हवा, वर्षा आदि का कर्ता-धर्ता भी सूर्य ही है । इस दृष्टि से सूर्य एक प्रकार से नित्य दर्शन देने वाला प्रत्यक्ष भगवान है ।
अत: वैदिक संस्कृति में रथसप्तमी एक ऐसा त्यौहार होता है जिसमें सूर्य की रथ पर आरूढ़ प्रतिमा दिवार पर या भूमि पर खींचकर उसकी पूजा की जाती है । प्राचीन यूरोप में भी यही प्रथा थी । या प्राचीन यूरोप की वैदिक संस्कृति का ठोस प्रमाण है । वैसे सूर्य रथ की लगभग 1500 वर्ष कृस्तपूर्व की एक प्रतिमा नीचे के चित्र में प्रदर्शित है । यूरोप के डेन्मार्क देश में Trundholm नाम के गांव के एक दलदल से सन १९०२ में यह सूर्य रथ का ढांचा पाया गया । हो सकता है कि इस रथ के सात अश्वों में से जो गोलाकार थाली-सी रथ पर आरूढ़ हा वह है सुवर्ण रंग की चमकीली सूर्य प्रतिमा । सूर्य के उत्तरायण के स्वागत के रूप में रथसप्तमी का पर्व लगभग जनवरी मास के अंत में पड़ता है ।
पुरुषोत्तम नागेश ओक
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हरियाणा का गांव
वॉल पेंटिंग से कमा रहा है पैसा...

पूरे के पूरे एक गांव में लोगों ने कला को रोजगार बना लिया हो। लोग गांव भी सजा रहे हैं और पैसे भी कमा रहे हैं...
हरियाणा के नूह तहसील के एक गांव के लोग वॉल पेंटिंग से रोजगार बना रहे हैं, साथ ही अपने गांव को स्वच्छ और सुंदर बना रहे हैं। खेरला गांव की दीवारें अब जीवंत रंगों का अनुभव करती हैं और इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की कहानियों को बताती हैं।

ये कितने कमाल की बात लगती है न, किसी पूरे के पूरे एक गांव में लोगों ने कला को रोजगार बना लिया हो। लोग गांव भी सजा रहे हैं और पैसे भी कमा रहे हैं। ये किसी परीकथा सरीखी बात मालूम होती है, लेकिन ये सच में हो रहा है। हरियाणा के नूह तहसील के एक गांव के लोग वॉल पेंटिंग से रोजगार का स्रोत तलाश रहे हैं। खेरला गांव की दीवारें अब जीवंत रंगों का अनुभव करती हैं और इस क्षेत्र में रहने वाले लोगों की कहानियों को बताती हैं। सुस्त और निराश गांव वालों में इससे नई आशा का संचार हो रहा है। कुछ दीवारों को चमकीले रंगों में सितारों से सजाया गया है, एक दीवार पर एक लड़की झूले में ऊंची उड़ान भरती दिख रही है,जिसका अर्थ है,"लड़कियों को अपने सपनों के लिए उड़ान भरने को प्रोत्साहित करना। ऐसे ही एक दीवार पर पक्षियों को पिंजरों से आजाद करते हुए दिखाया गया है, ये एक स्केच लोगों को सीमाओं को तोड़ने के लिए प्रेरित करना चाहता है।यह परियोजना गुड़गांव स्थित एनजीओ डोनेट एन ऑवर में काम कर रहे कार्यकर्ताओं की दिमागी उपज है। ये एनजीओ शिक्षा पर केंद्रित प्रोजेक्ट्स पर काम करता है। डोनेट एन ऑवर की संस्थापक मीनाक्षी सिंह ने इंडियन एक्सप्रेस से बातचीत में बताया, हमें शिक्षा के स्तर में सुधार के लिए अधिकारियों द्वारा गांवों को बुलाया गया था। जब हम वहां गए, हमने महसूस किया कि गांव के लोग गरीब थे, शिक्षा की कमी के कारण, लेकिन अवसरों की कमी के कारण। इसलिए, एनजीओ ने गांव की पूरी जनसंख्या को प्रेरित कर वॉल पेंटिंग का उपयोग करके पर्यटन स्थल के रूप में गांव को बढ़ावा देने का फैसला किया। हम पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए स्थानीय कला और शिल्प को बढ़ावा देना चाहते हैं। हम इसे लोगों के लिए वन डे डेस्टिनेशन बनाना चाहते हैं। टूरिस्ट यहां पर आकर स्थानीय भोजन, संगमरमर और अन्य स्थानीय खेलों का मजा ले सकते हैं। साथ ही कुछ ऐतिहासिक स्मारकों पर भी जा सकते हैं।दीवारों पर ये चित्र गांव के निवासियों द्वारा ही बनाए गए हैं। गांव के प्रत्येक परिवार ने अपना रंग खरीद लिया है। इस मुहिम में एनजीओ के वॉलयंटियरों क साथ ही साथ कुछ युवाओं ने भी दीवारों को रंगाने में असमर्थ लोगों की मदद की। हालांकिगांव के निवासी शुरू में इस परियोजना के बारे में अनिच्छुक थे। गांव में रहने वाले एक ट्रांसपोर्टर फकरू के मुताबिक, बहुत से लोग पहले से जुड़ने में संकोच करते थे। ये ऐसे लोग हैं, जिनके पास बहुत अधिक पैसा नहीं है और केवल सजावट के लिए नकद में डाल करने का विचार उन लोगों ने आसानी से नहीं लिया। हालांकि, एक बार उन्हें लंबे समय तक लाभ का एहसास हुआ, तो वे भी शामिल होने लगे। गांव के रहने वाले 17 वर्षीय वेद प्रकाश के मुताबिक, हम सड़क के किनारों की दुकान लगा लेते हैं और टूरिस्टों को घर की बनाई हुई वस्तुओं और भोजन बेचने के लिए तत्पर रहते हैं।




इस मुहिम में शामिल एक वॉलंटियर अमित सिंह ने एचटी को बताया, ग्रामीणों को पर्यटकों को आकर्षित करने के लिए आवश्यक स्वच्छता के बारे में भी बताया गया। इसी के साथ उन्होंने अपने लेन को साफ करना शुरू कर दिया है। अगर सब कुछ प्लानिंग के अनुरूप हुआ तो पर्यटकों को विलेज टूर, गोबर के साथ खिलौने बनाने, सजाए गए साइकिल वाले वाहन और पारंपरिक कपड़ों के साथ सवारी और ट्रेकिंग जैसी गतिविधियों का आनंद ले सकेंगे। ग्रामीणों को बाजरा रोटी, सफेद मक्खन, चटनी और लस्सी जैसे समृद्ध व्यंजनों की पेशकश करके परंपरा को जीवित रखने और रोजगार हासिल करने का मौका मिलेगा। एनजीओ ग्रामीणों को एडवेंचर ट्रेनर गाइड के रूप में प्रशिक्षित भी कर रही है।

बेंगलुरु में महिलाओं की सोच
हो रहा कूड़े-कचरे का ‘सही’ इस्तेमाल...

बेंगलुरु शहर से सिर्फ 25 किलोमीटर दूर स्थित मंदूर नाम का गांव, कूड़े के ढेर में परिवर्तित हो गया था। बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका (बीबीएमपी) रोजाना 1,800 टन तक कूड़ा-कचरा मंडूर में जमा कर देती थी। कूड़े के ढेर से बायो-मीथेन गैस बनती है, जिससे वायु प्रदूषण तेजी से बढ़ने लगा और साथ ही, ढेर में आग लगने का खतरा भी बढ़ने लगा। इलाके की मिट्टी और पानी भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुए। मंदूर गांव से प्रदूषण का प्रभाव बेंगलुरु शहर तक पहुंचने लगा। इन हालात को देखकर, शहर के बेलंदूर इलाके की महिलाओं ने कूड़े की व्यवस्था का जिम्मा खुद के हाथों में लेने का फैसला लिया।
“शुरूआत में लोग काफी बहाना बताते थे और उनके बीच, कौन सा कूड़ा कहां डालना है, इस संबंध में काफी असमंजस भी रहता था, लेकिन धीरे-धीरे ये उनकी दिनचर्या का हिस्सा बन गया


अपने आस-पास के पर्यावरण को साफ रखने के लिए प्रशासन पर निर्भर रहना एक आम बात है, लेकिन बेंगलुरु की कुछ महिलाओं द्वारा 5 साल पहले शुरू हुई इस मुहिम से सबक मिलता है कि हमें अपनी जिम्मेदारियों को भी समझना चाहिए। प्रधानमंत्री मोदी के ‘स्वच्छ भारत मिशन’ से भी पहले इन महिलाओं ने जागरूकता का उदाहरण पेश करते हुए शहर में कूड़े-कचरे से छुटकारा पाने की एक सटीक और कारगर व्यवस्था शुरू की और शहर के वातावरण को बचाने के लिए अपने घरों से शुरूआत की।

2013 बेंगलुरु से सिर्फ 25 किलोमीटर दूर स्थित मंदूर नाम का गांव, कूड़े के ढेर में परिवर्तित हो गया था। बृहत बेंगलुरु महानगर पालिका (बीबीएमपी) रोजाना 1,800 टन तक कूड़ा-कचरा मंडूर में जमा कर देती थी। कूड़े के ढेर से बायो-मीथेन गैस बनती है, जिससे वायु प्रदूषण तेजी से बढ़ने लगा और साथ ही, ढेर में आग लगने का खतरा भी बढ़ने लगा। इलाके की मिट्टी और पानी भी इससे बुरी तरह प्रभावित हुए। मंदूर गांव से प्रदूषण का प्रभाव बेंगलुरु शहर तक पहुंचने लगा। इन हालात को देखकर, शहर के बेलंदूर इलाके की महिलाओं ने कूड़े की व्यवस्था का जिम्मा खुद के हाथों में लेने का फैसला लिया।हालात इतने बिगड़ चुके थे कि एक स्थाई उपाय की जरूरत थी, जो पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए भी उपयुक्त हो। बेलंदूर की महिलाओं ने तय किया कि गीले और सूखे कचड़े को अलग करके और फिर उसके ट्रीटमेंट से ही बात बनेगी। इस सोच ने ही ‘2 बिन 1 बैग’ के कॉन्सेप्ट को जन्म दिया। पूरे शहर में कूड़ा-कचरा डालने की एक जैसी व्यवस्था हो और लोगों में गीले और सूखे कचड़े को अलग-अलग रखने के संबंध में कोई दुविधा न हो, इसलिए महिलाओं ने एक सरल कलर-कोड का सहारा लिया। उन्होंने लोगों को बताया कि गीला कचरा (जैसे किचन या गार्डन में जमा होने कचरा आदि) हरे रंग के डस्टबिन में डाला जाए। सूखा कचरा और ऐसी चीजें, जिन्हें रीसाइकल किया जा सकता हो (प्लास्टिक, पेपर, ग्लास, मेटल आदि), उन्हें लाल रंग के कूड़ेदान में डालने को कहा गया।इस कॉन्सेप्ट को तैयार करने और अमल में लाने वाली महिलाओं में से एक, ललिता मोंदरेती ने कहा, “शुरूआत में लोग काफी बहाना बताते थे और उनके बीच, कौन सा कूड़ा कहां डालना है, इस संबंध में काफी असमंजस भी रहता था। इसलिए हमने तय कि हम एक थम्ब रूल या एक तरह की मानक प्रक्रिया पर ही काम करेंगे ताकि सभी जगहों पर एक जैसी व्यवस्था संभव हो सके।”

इन महिलाओं ने शुरूआत अपने अपार्टमेंट्स से की और इसके बाद धीरे-धीरे आस-पास के रहवासियों तक अपनी मुहिम को पहुंचाया। गीले और सूखे कचरे को अलग-अलग रखना कितना जरूरी है, इन महिलाओं ने लोगों को समझाया। घर से निकलने वाली गंदगी की व्यवस्था कैसे करनी चाहिए, इसके बारे में भी लोगों को जानकारी दी गई। बेलंदूर इलाके से शुरू हुई महिलाओं की यह मुहिम, कुछ ही महीनों में 25,000 से भी ज्यादा लोगों तक पहुंच गई और वे इसका हिस्सा बन गए। इस सफलता को देखते हुए, समूह की दो महिलाओं को सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट राउंड टेबल-2014 में हिस्सा लेने का मौका भी मिला। यह एक ऐसा प्लेटफॉर्म है, जहां पर वेस्ट मैनेजमेंट में काम कर रहे संगठन इत्यादि हिस्सा लेते हैं और अपने विचार साझा करते हैं। इसके अलावा बेंगलुरु के सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट के लिए एक कॉमन अजेंडे पर अपनी सहमति बनाते हैं।
‘स्वच्छ गृह’ मुहिम

आमतौर पर लोगों को यह पता नहीं होता कि उनके घर के निकलने के बाद कूड़े का क्या होता है? जागरूकता की कमी की वजह से लोगों के अंदर पर्यावरण को लेकर जिम्मेदारी का अभाव है और इन वजहों से समाज में कूड़ा-कचरा उठाने वालों को उपेक्षा भरी नजरों से देखा जाता है। ललिता ने एक बार, कूड़ा उठाने वालों को खाली प्लॉट्स पर जमा कचरे के ढेर को साफ करते देखा और इस दृश्य ने उनकी सोच को झकझोरा और उन्हें प्रेरणा मिली। उन्होंने तय कर लिया कि अब वह अपना कूड़ा-कचरा बाहर इस तरह नहीं जाने देंगी। ललिता ने अपने दोस्तों से भी ऐसा करने के लिए कहा।जल्द ही लोगों को इस बात का एहसास हुआ कि कूड़े को अलग-अलग तो कर लिया जा रहा है, लेकिन इसे समय पर उठाया नहीं जा रहा है। कई लोगों को पता ही नहीं था कि इस संबंध में क्या किया जाना चाहिए। 2015 में, ललिता और सॉलिड वेस्ट मैनेजमेंट राउंड टेबल के सदस्यों ने मिलकर ‘स्वच्छ गृह’ नाम से मुहिम की शुरूआत की। इस मुहिम के जरिए लोगों को अपने घरों में ही ग्रीन स्पॉट बनाने के लिए प्रेरित किया जाने लगा।

गीले कचरे को कम्पोजिटिंग के माध्यम से घर ही पर ही खाद में बदला जा सकता है, जिसकी मदद से आप घर में सब्जी वगैरह उगा सकते हैं। ‘स्वच्छ गृह’ मिशन का लक्ष्य था कि बेंगलुरु के लाखों घरों में ग्रीन स्पॉट बनवाए जा सकें। टीम फिलहाल बीबीएमपी के साथ मिलकर काम कर रही है। लोगों को ‘स्वच्छ गृह’ चैलेंज लेने के लिए कहा गया, जिसके तहत उन्हें घर के एक हफ्ते के कचरे को कम्पोजिट करना था। इससे जुड़कर लगभग 50,000 शहरवासियों ने कम्पोजिटिंग के चैलेंज को स्वीकार किया।
बढ़ता गया प्रभाव, जुड़ते गए लोग

ललिता ने इस मुहिम को बढ़ावा देने के लिए रमाकांत और अलमित्रा पटेल को खासतौर पर धन्यवाद दिया। उन्होंने कहा कि पूरे बेंगलुरु शहर में कई समहू कूड़े-कचरे की व्यवस्था को लेकर बेहद सकारात्मक काम कर रहे हैं। उन्होंने आगे कहा, “हमारा प्रयास है कि शहर के हर व्यक्ति तक यह संदेश पहुंचे और सब साथ मिलकर काम करें। हम एक-दूसरे से अपने अनुभव और आइडिया साझा करें। इससे हमारी मुहिम को और भी ज्याद ताकत मिलेगी।”

शहर के निवासियों द्वारा शुरू हुई यह मुहिम अब एक नीतिगत बदलाव में तब्दील हो चुकी है। 2014 में नगरपालिका ने कूड़े-कचरे को अलग-अलग रखने के लिए दिशा-निर्देश जारी किए लोगों से कहा कि इसका पालन न करके पर उनपर फाइन भी लगाया जाएगा। पिछले चार सालों से पूरे शहर में अलग-अलग समूहों द्वारा इस मुहिम को आगे बढ़ाया जा रहा है। नगरपालिका की रिपोर्ट के मुताबिक, पूरे साल में शहर का 80-90 प्रतिशत वेस्ट, अलग-अलग किया जा रहा है। इन कैंपेन की सफलता को देखते हुए 15 शहरों के लोगों ने ‘2 बिन 1 बैग’ की टीम से संपर्क कर, अपने यहां भी ऐसी व्यवस्था को शुरू करने के लिए कहा। ‘स्वच्छ गृह’ की टीम अभी तक बेंगलुरु नगरपालिका के साथ मिलकर 22 कम्पोजिटिंग प्रोग्राम आयोजित करा चुकी है। आने वाले वक्त में इस तरह के और भी कार्यक्रम आयोजित कराने की योजना है।

गुड़ बनाने के लिए मशहूर है गांव
हर घर में होता है उत्पादन...
तमिलनाडु का एक गांव, नीक्करापट्टी। इस गांव से जुड़ी ख़ास बात यह है कि यहां का लगभग हर घर गन्ने से गुड़ बनाने की अपनी ख़ुद की औद्योगिक इकाई चलाता है और व्यापार करता है। इतना ही नहीं, घर के लगभग सभी सदस्य अपने गांव के वजूद से जुड़े इस उद्योग को सहर्ष अपनाकर इसे और भी सुदृढ़ करते जा रहे हैं।नीक्करापट्टी में गन्ने की पैदावर पर्याप्त मात्रा में होती है। विकल्प के तौर पर व्यावसायिक महत्व के हिसाब से गांव वाले शक्कर (चीनी) बनाने की यूनिट्स भी लगा सकते थे, लेकिन उन्होंने अपने व्यवसाय को एक आदर्श, सकारात्मक और लोगों की भलाई की मुहिम से जोड़ा और अब यह गांव चीनी के एक बेहतर और हेल्दी विकल्प के तौर पर गुड़ का उत्पादन कर रहा है। इस गांव से जुड़ा एक रोचक तथ्य यह भी है कि ब्रिटिश काल में यहां के लोग मुख्य रूप से पशु-पालन का व्यवसाय करते थे और ब्रिटिश आबादी को घर का बना दूध और घी पहुंचाते थे। अब इस गांव ने अपनी पहचान बदल ली है। हाल में इस गांव में रह रहे लोगों से बात करने पर पता चलता है कि ये लोग लंबे समय से इस व्यवसाय से जुड़े हैं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी इसे आगे बढ़ा रहे हैं।
घर पर ही कर रहे बड़ी मात्रा में उत्पादन

यहां पर ज़्यादातर लोग अपने घरों के ही एक हिस्से में यूनिट्स चला रहे हैं और कुछ लोग ऐसे हैं, जो किराए की ज़मीन पर यह व्यवसाय कर रहे हैं। आमतौर पर गांव में गन्ने की पैदावार अच्छी ही होती है, लेकिन मौसम की अनियमितता जैसे की कम बारिश से मौसम में पैदावार पर असर पड़ता है तो किसी दूसरे प्रदेश के गांवों से गन्ने मंगाए जाते हैं। नीक्करापट्टी में लगभग 75 गुण बनाने की यूनिट्स लगी हुई हैं।
यह काम नहीं आसान

नीक्करापट्टी में इस व्यवसाय से जुड़े लोगों ने जानकारी दी कि यह बेहद धैर्य और मेहनत मांगता है। सुबह 2 बजे से लेकर शाम के 4 बजे तक लगातार काम चलता है। गन्ने के रस को बड़े स्टील के बर्तनों में निकालकर गर्म किया जाता है। गांव वाले ईंधन के संरक्षण के बारे में भी सोचते हैं और गर्म करने की प्रक्रिया के लिए रस निकालने के बाद बचे सूखे गन्ने को ईंधन के रूप में इस्तेमाल कर लिया जाता है। इस तरह गंदगी फैलाने से भी बचा जाता है।गर्म करने की प्रक्रिया 3 घंटों तक चलती है, जिस दौरान घोल को लगातार चलाना भी पड़ता है। इसके बाद घोल को लकड़ी के सांचों में डालकर ठंडा होने के लिए पानी में रख दिया जाता है। अब जो गुड़ बनकर तैयार होता है, वह सांचे के आकार का होता है और इनके अलग-अलग नाम भी होते हैं जैसे कि अच्चु वेलम और मंडई वेलम। पूरी प्रक्रिया में लगभग 5 घंटों का समय लगता है और दिनभर में औसतन ऐसे 7 बैच तैयार किए जाते हैं। बाज़ार में इस गुड़ को 30 किलो के पैक में बेचा जाता है। इसका भी एक ख़़ास नाम होता है, 'सिप्पम'। अनुपात की जानकारी देते हुए ग्रामीणों ने बताया कि 1.75 टन गन्ने के रस से 210 पैक तैयार किए जा सकते हैं। एक यूनिट एकबार में लगभग 15 बैग तैयार करती है।

नीक्करापट्टी में गुड़ की बिक्री या नीलामी के लिए 5 केंद्र बनाए गए हैं। तमिलनाडु के विभिन्न हिस्सों से गुण यहां की मंडियों में लाया जाता है। नीक्करापट्टी के अलावा इरोड, करूर, सेलम, तंजावुर, गोबी और सत्यमंगलम गांवों में भी गुड़ का उत्पादन प्रमुख है। इन केंद्रों में गुड़ की बिक्री का दाम 1200-1500 रुपए प्रति बैग तक होता है। लोगों से मिली जानकारी के मुताबिक, तमिलनाडु के अलावा केरल में भी गुड़ की पर्याप्त खपत है। मौसम और त्योहारों के हिसाब से दोनों जगह पर मांग में इज़ाफ़ा होता है और गुड़ के दाम भी बढ़ते हैं। तमिलनाडु में पोंगल के दौरान और केरल में सबरीमाला तीर्थ यात्रा के दौरान गुड़ की मांग बढ़ती है।
गांव वालों की अपनी अलग दुनिया

नीक्करापट्टी के स्थानीय लोगों से बात करने पर पता चलता है कि यहां के लोग अपनी दुनिया और काम में मस्त हैं। उन्हें इस बात का पता है कि पैसा कमाने के लिए सही दिशा में ईमानदारी से मेहनत करने के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है और वे इस सिद्धांत पर ही चलते हैं। लोगों ने बताया कि आमतौर पर सिर्फ़ बिक्री के सीज़न में ही वे बाहरी लोगों से मुलाक़ात करते हैं। अंग्रेज़ी वेबसाइट 'विलेज स्कवेयर' (villagesquare.in) ने यहां के लोगों से बात कर, रहवासियों की जीवनशैली को जानने की कोशिश और उनके मारफ़त मिली जानकारी के हिसाब से यहां के लोग अपने व्यवसाय और जीवनशैली से बेहद संतुष्ट भी हैं।

दिलचस्प बात है कि ज़्यादातर घरों में रोज़ खाना नहीं बनता। महिलाएं एक दिन खाना बनाती हैं और फिर उसे आने वाले 2-3 दिनों तक चलाया जाता है। समय बचाकर महिलाएं गुड़ के उत्पादन में हाथ बंटाती हैं। लंबे समय से इस व्यवसाय से जुड़े ग्रामीण मानते हैं कि आज की पीढ़ी को एक सरल और आरामदायक जीवनशैली की ज़रूरत लगती है और इसलिए वे शहरों की ओर भागते हैं।

कसाब को फांसी की सजा दिलवाने वाली गवाह बच्ची की हालत सुनकर भीग जाएंगी आपकी आंखें

देविका रोटवानी उस बहादुर लड़की का नाम है, जिसने नौ साल की उम्र में ही आतंकवाद के खिलाफ एक अलग तरह की बहादुरी की मिसाल कायम कर दी थीं लेकिन आज मुंबई में 10वीं क्लास में पढ़ रही उस लड़की के पास पहनने के लिए सिर्फ एक स्कूल ड्रेस और दो पेंट, दो टीशर्ट हैं। पिछले दिनो तपोवन प्रन्यास के अध्यक्ष महेश पेड़ीवाल ने जब उसकी बहादुरी सलाम करते हुए उसे दो लाख रुपए की बख्शीश दी तो खुशी से उसकी आंखें भीग गईं।देविका मूलतः राजस्थान के जिला श्रीगंगानगर की रहने वाली है। वह अपने बीमार अपाहिज भाई जयेश और पिता नटवरलाल के साथ मुंबई की झुग्गी बस्ती में रह रही है। देविका की बहादुरी किसी भी देशवासी को रोमांच से भर देती है। उसने मुंबई हमले के बाद पकड़े गए पाकिस्तान के लश्कर-ए-तैयबा के आतंकवादी अजमल कसाब को फाँसी की सजा दिलवाने में चश्मदीद गवाह बनी थी। उसी की गवाही पर कोर्ट ने कसाब को फांसी की सजा सुनाई थी।

देविका रो-रोकर बताती है कि उस वक्त तो उसे बहादुरी के तमगे मिले। उसके सामने नेताओं लंबे-लंबे भाषण बांचे लेकिन बाद में उसे सब-के-सब भूल गए। अब तो लगता है, जैसा पूरा देश ही उसे भूल गया। उसे स्कूल में एडमिशन तक नहीं मिला। मारे डर के लोग उससे कन्नी काटने लगे कि कहीं आतंकवादी उन पर भी हमला न कर दें। पिछले एक साल से तो वह टीबी की मरीज है। वह कहती है कि उसकी बहादुरी उसी के लिए मुसीबत बन गई। उसे भी भविष्य का खतरा सताने लगाजब वह पांचवीं क्लास में दाखिला लेने के लिए बांद्रा के एक स्कूल पहुंची तो उसे ये कहकर मना कर दिया गया कि उसे एडमिशन देने से स्कूल की सुरक्षा को खतरा पैदा हो सकता है। उससे बाकी छात्रों की भी सुरक्षा खतरे में पड़ सकती है। स्कूल प्रशासन के उस रवैये से उसका परिवार सकते में आ गया। उसके पिता ने सवाल किया कि जब देविका ने बिना किसी डर के कसाब को उसके अंजाम तक पहुंचा दिया तो फिर स्कूल वाले उसे एडमिशन देने में क्यों इतना डर रहे हैं। वह एडमिशन के लिए प्रवेश परीक्षा देने पर भी तैयार हो गई लेकिन स्कूल वालों ने उसकी एक नहीं सुनी, न उसकी मदद को कोई आगे आया।

देविका बताती है कि कसाब के पकड़े जाने के बाद जब पुलिस की गवाह बनी, उसके घर पिता के मोबाइल फोन पर कभी पाकिस्तान तो कभी हैदराबाद से धमकियां आने लगी थीं। पहले तो उसके परिवार को धमकाया जाता रहा। उनकी एक न सुनने पर गवाही से मुकर जाने के लिए उसे एक करोड़ रुपए तक ऑफर दिया गया। उन दिनो वह बस एक सावधानी बरतती रही कि हर धमकी और लालच से पुलिस को आगाह करती थी। आज जबकि देश में इतना भ्रष्टाचार है, अपनी तंगहाली से मुक्त होने के लिए वह भी इतनी बड़ी रकम के आगे झुक सकती थी लेकिन नहीं, उसके लिए देश पहले था, बाकी कुछ भी बाद में।उसने सोचा कि गरीबी तो आज है, कल नहीं भी रह सकती है, लेकिन उसके माथे पर अगर एक बार कलंक का टीका लग गया तो वह जीवन भर नहीं मिटेगा। वह झुक गई तो अपने जमीर को भी क्या जवाब देगी। कोर्ट में सुनवाई के दौरान न्यायाधीश ने जब उससे पूछा कि क्या वह गोली मारने वाले आतंकवादी को पहचान सकती है, उसने बेखौफ- कहा, 'हां'। उस समय अदालत में बारी-बारी से तीन युवकों को पेश किया गया। उसने कसाब को देखते ही पहचान लिया था। 26 नवंबर 2008 जिस रात मुंबई पर आतंकवादी अटैक हुआ था, उस वक्त को याद कर वह आज भी अंदर से थरथरा उठती है।

वह बताती है कि उस रात उसके पिता और भाई सीएसटी टर्मिनल से पुणे जाने वाले थे। जब आतंकवादियों ने रेलवे स्टेशन पर हमला किया तो कसाब ने एक गोली उसके पैर में मारी थी। वह बेहोश हो गई। वहां से उसे अस्पताल ले जाया गया। उसके कई ऑपरेशन कर पैर में रॉड डाली गई। उस समय वह नौ साल की थी। अब 18 की हो चुकी है।

देविका के सोचने में कमी भी क्या है। हमारे देश में तो लोग उन शहीद स्थलों तक को भूल चुके हैं, जहां उनको फांसी पर चढ़ाया गया था। स्वतंत्रता संग्राम की शाहदतें जिनके लिए कोई मायने न रखती हों, उनके लिए देविका की गवाही भला क्या महत्व रखती है। अभी इसी साल का ऐसा ही एक छोटा सा वाकया उत्तर प्रदेश के जिला बिजनौर का है। 'शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा'... शहीद रामप्रसाद बिस्मिल की ये पंक्तियां युवाओं में आज भी जोश पैदा करती हैं।

यहां फीना में बेलबाबा चौराहे पर बना शहीद स्मारक जरूर कारगिल के शहीद नायक अशोक कुमार की याद दिलाता है, लेकिन कारगिल विजय दिवस पर प्रशासन का कोई भी अधिकारी उन्हें श्रद्घांजलि देने नहीं पहुंचा। इसी तरह इस साल नागपुर में पिछली 23 मार्च को जीरोमाइल चौक पर बने शहीद स्मारक को भुला दिया गया। याद करना तो दूर, उसकी साफ-सफाई तक नहीं की गई। शहीदों की यादें सिर्फ सोशल मीडिया पर रह गई हैं।
क्रांतिकारी वीर सावरकार का स्थान भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपना ही एक विशेष महत्व रखता है। सावरकर जी पर लगे आरोप भी अद्वितीय थे उन्हें मिली सजा भी अद्वित्य थी। एक तरफ उन पर आरोप था कि अंग्रेज सरकार के विरुद्ध युद्ध की योजना बनाने का, बम बनाने का और विभिन्न देशों के क्रांतिकारियों से सम्पर्क करने का तो दूसरी तरफ उनको सजा मिली थी पूरे 50 वर्ष तक दो सश्रम आजीवन कारावास। इस सजा पर उनकी प्रतिक्रिया भी अद्वितीय थी कि ईसाई मत को मानने वाली अंग्रेज सरकार कब से पुनर्जन्म अर्थात दो जन्मों को मानने लगी। वीर सावरकर को 50 वर्ष की सजा देने के पीछे अंग्रेज सरकार का मंतव्य था कि उन्हें किसी भी प्रकार से भारत अथवा भारतीयों से दूर रखा जाये। जिससे वे क्रांति की अग्नि को न भड़का सके। सावरकर के लिए शिवाजी महाराज प्रेरणा स्रोत थे। जिस प्रकार औरंगजेब ने शिवाजी महाराज को आगरे में कैद कर लिया था उसी प्रकार अंग्रेज सरकार ने भी वीर सावरकर को कैद कर लिया था। जैसे शिवाजी महाराज ने औरंगजेब की कैद से छुटने के लिए अनेक पत्र लिखे उसी प्रकार से वीर सावरकर ने भी अंग्रेज सरकार को पत्र लिखे। जब उनकी अंडमान की कैद से छुटने की योजना असफल हुई, जब उसे अनसुना कर दिया गया। तब वीर शिवाजी की तरह वीर सावरकर ने भी कूटनीति का सहारा लिया क्यूंकि उनका मानना था अगर उनका सम्पूर्ण जीवन इसी प्रकार अंडमान की अँधेरी कोठरियों में निकल गया तो उनका जीवन व्यर्थ ही चला जायेगा। इसी रणनीति के तहत उन्होंने सरकार से सशर्त मुक्त होने की प्रार्थना की, जिसे सरकार द्वारा मान तो लिया गया। उन्हें रत्नागिरी में 1924 से 1937 तक राजनितिक क्षेत्र से दूर नज़रबंद रहना था। विरोधी लोग इसे वीर सावरकर का माफीनामा, अंग्रेज सरकार के आगे घुटने टेकना और देशद्रोह आदि कहकर उनकी आलोचना करते हैं जबकि यह तो आपातकालीन धर्म अर्थात कूटनीति थी।
मुस्लिम तुष्टिकरण को प्रोत्साहन देने के लिए सरकार ने अंडमान द्वीप के कीर्ति स्तम्भ से वीर सावरकर का नाम हटा दिया और संसद भवन में भी उनके चित्र को लगाने का विरोध किया। जीवन भर जिन्होंने अंग्रेजों की यातनाये सही मृत्यु के बाद उनका ऐसा अपमान करने का प्रयास किया गया। उनका विरोध करने वालों में कुछ दलित वर्ग की राजनीती करने वाले नेता भी थे। जिन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वकांशा को पूरा करने के लिए उनका विरोध किया था। दलित वर्ग के मध्य कार्य करने का वीर सावरकर का अवसर उनके रत्नागिरी प्रवास के समय मिला। 8 जनवरी 1924 को सावरकर जी रत्नागिरी में प्रविष्ट हुए तो उन्होंने घोषणा कि की वे रत्नागिरी दीर्घकाल तक आवास करने आए है और छुआछुत समाप्त करने का आन्दोलन चलाने वाले है। उन्होंने उपस्थित सज्जनों से कहाँ कि अगर कोई अछूत वहां हो तो उन्हें ले आये और अछूत महार जाति के बंधुयों को अपने साथ बैल गाड़ी में बैठा लिया। पठाकगन उस समय में फैली जातिवाद की कूप्रथा का सरलता से आंकलन कर सकते है कि जब किसी भी शुद्र को सवर्ण के घर में प्रवेश तक निषेध था। नगर पालिका के भंगी को नारियल की नरेटी में चाय डाली जाती थी। किसी भी शुद्र को नगर की सीमा में धोती के स्थान पर अंगोछा पहनने की ही अनुमति थी। रास्ते में महार की छाया पड़ जाने पर अशौच की पुकार मच जाती थी। कुछ लोग महार के स्थान पर बहार बोलते थे जैसे की महार कोई गाली हो। यदि रास्ते में महार की छाया पड़ जाती थी तो ब्रह्मण लोग दोबारा स्नान करते थे। न्यायालय में साक्षी के रूप में महार को कटघरे में खड़े होने की अनुमति न थी। इस भंयकर दमन के कारण महार समाज का मानो साहस ही समाप्त हो चूका था।
इसके लिए सावरकर जी ने दलित बस्तियों में जाने का, सामाजिक कार्यों के साथ साथ धार्मिक कार्यों में भी दलितों के भाग लेने का और सवर्ण एवं दलित दोनों के लिए पतितपावन मंदिर की स्थापना का निश्चय लिया गया। जिससे सभी एक स्थान पर साथ साथ पूजा कर सके और दोनों के मध्य दूरियों को दूर किया जा सके।
1. रत्नागिरी प्रवास के 10-15 दिनों के बाद में सावरकर जी को मढ़िया में हनुमान जी की मूर्ति की प्राण प्रतिष्ठा का निमंत्रण मिला। उस मंदिर के देवल पुजारी से सावरकर जी ने कहाँ की प्राण प्रतिष्ठा के कार्यक्रम में दलितों को भी आमंत्रित किया जाये।जिस पर वह पहले तो न करता रहा पर बाद में मान गया। श्री मोरेश्वर दामले नामक किशोर ने सावरकार जी से पूछा कि आप इतने साधारण मनुष्य से व्यर्थ इतनी चर्चा क्यूँ कर रहे थे? इस पर सावरकर जी ने कहाँ कि
“सैंकड़ों लेख या भाषणों की अपेक्षा प्रत्यक्ष रूप में किये गए कार्यों का परिणाम अधिक होता है। अबकी हनुमान जयंती के दिन तुम स्वयं देख लेना।”
2. 29 मई 1929 को रत्नागिरी में श्री सत्य नारायण कथा का आयोजन किया गया जिसमे सावरकर जी ने जातिवाद के विरुद्ध भाषण दिया जिससे की लोग प्रभावित होकर अपनी अपनी जातिगत बैठक को छोड़कर सभी महार- चमार एकत्रित होकर बैठ गए और सामान्य जलपान हुआ।
3. 1934 में मालवान में अछूत बस्ती में चायपान , भजन कीर्तन, अछूतों को यज्ञपवीत ग्रहण, विद्यालय में समस्त जाति के बच्चों को बिना किसी भेदभाव के बैठाना, सहभोज आदि हुए।
4. 1937 में रत्नागिरी से जाते समय सावरकर जी के विदाई समारोह में समस्त भोजन अछूतों द्वारा बनाया गया जिसे सभी सवर्णों- अछूतों ने एक साथ ग्रहण किया था।
5. एक बार शिरगांव में एक चमार के घर पर श्री सत्य नारायण पूजा थी जिसमे सावरकर जो को आमंत्रित किया गया था। सावरकार जी ने देखा की चमार महोदय ने किसी भी महार को आमंत्रित नहीं किया था। उन्होंने तत्काल उससे कहाँ की आप हम ब्राह्मणों के अपने घर में आने पर प्रसन्न होते हो पर में आपका आमंत्रण तभी स्वीकार करूँगा जब आप महार जाति के सदस्यों को भी आमंत्रित करेंगे। उनके कहने पर चमार महोदय ने अपने घर पर महार जाति वालों को आमंत्रित किया था।
6. 1928 में शिवभांगी में विट्टल मंदिर में अछुतों के मंदिरों में प्रवेश करने पर सावरकर जी का भाषण हुआ।
7. 1930 में पतितपावन मंदिर में शिवू भंगी के मुख से गायत्री मंत्र के उच्चारण के साथ ही गणेशजी की मूर्ति पर पुष्पांजलि अर्पित की गई।
8. 1931 में पतितपावन मंदिर का उद्घाटन स्वयं शंकराचार्य श्री कूर्तकोटि के हाथों से हुआ एवं उनकी पाद्यपूजा चमार नेता श्री राज भोज द्वारा की गयी थी। वीर सावरकर ने घोषणा करी की इस मंदिर में समस्त हिंदुओं को पूजा का अधिकार है और पुजारी पद पर गैर ब्राह्मण की नियुक्ति होगी।
इस प्रकार के अनेक उदहारण वीर सावरकर जी के जीवन से हमें मिलते है जिससे दलित उद्धार के विषय में उनके विचारों को, उनके प्रयासों को हम जान पाते हैं। सावरकर जी के बहुआयामी जीवन के विभिन्न पहलुयों में से सामाजिक सुधारक के रूप में वीर सावरकर को स्मरण करने का मूल उद्देश्य दलित समाज को विशेष रूप से सन्देश देना है। जिसने राजनीतिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए सवर्ण समाज द्वारा अछूत जाति के लिए गए सुधार कार्यों की अपेक्षा कर दी है। और उन्हें केवल विरोध का पात्र बना दिया हैं।
वीर सावरकर महान क्रांतिकारी श्याम जी कृष्ण वर्मा जी के क्रांतिकारी विचारों से लन्दन में पढ़ते हुए संपर्क में आये थे। श्यामजी कृष्ण वर्मा स्वामी दयानंद के शिष्य थे। स्वामी दयानंद के दलितों के उद्धार करने रूपी चिंतन को हम स्पष्ट रूप से वीर सावरकर के चिंतन में देखते हैं।
सलंग्न चित्र-
1. महान देशभक्त, दलित उद्धारक वीर सावरकर
2. मालवण में दलित महार जाति के बच्चों का सामूहिक यज्ञपवीत संस्कार करते हुए वीर सावरकर।
श्रृंगार शतक---- वैराग्य   शतक 

पुराने जमाने में एक राजा हुए थे, भर्तृहरि। वे कवि भी थे।
उनकी पत्नी अत्यंत रूपवती थीं। भर्तृहरि ने स्त्री के
सौंदर्य और उसके बिना जीवन के सूनेपन पर 100 श्लोक
लिखे, जो श्रृंगार शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं।
उन्हीं के राज्य में एक ब्राह्मण भी रहता था, जिसने
अपनी नि:स्वार्थ पूजा से देवता को प्रसन्न कर लिया।
देवता ने उसे वरदान के रूप में अमर फल देते हुए
कहा कि इससे आप लंबे समय तक युवा रहोगे।
ब्राह्मण ने सोचा कि भिक्षा मांग कर जीवन बिताता हूं,
मुझे लंबे समय तक जी कर क्या करना है।
हमारा राजा बहुत अच्छा है, उसे यह फल दे देता हूं। वह लंबे
समय तक जीएगा तो प्रजा भी लंबे समय तक सुखी रहेगी।
वह राजा के पास गया और उनसे सारी बात बताते हुए वह
फल उन्हें दे आया।
राजा फल पाकर प्रसन्न हो गया। फिर मन ही मन
सोचा कि यह फल मैं अपनी पत्नी को दे देता हूं। वह
ज्यादा दिन युवा रहेगी तो ज्यादा दिनों तक उसके
साहचर्य का लाभ मिलेगा। अगर मैंने फल खाया तो वह
मुझ से पहले ही मर जाएगी और उसके वियोग में मैं
भी नहीं जी सकूंगा। उसने वह फल अपनी पत्नी को दे
दिया।
लेकिन, रानी तो नगर के कोतवाल से प्यार करती थी। वह
अत्यंत सुदर्शन, हृष्ट-पुष्ट और बातूनी था। अमर फल
उसको देते हुए रानी ने कहा कि इसे खा लेना, इससे तुम
लंबी आयु प्राप्त करोगे और मुझे सदा प्रसन्न करते रहोगे।
फल ले कर कोतवाल जब महल से बाहर निकला तो सोचने
लगा कि रानी के साथ तो मुझे धन-दौलत के लिए झूठ-मूठ
ही प्रेम का नाटक करना पड़ता है। और यह फल खाकर मैं
भी क्या करूंगा। इसे मैं अपनी परम मित्र राज
नर्तकी को दे देता हूं। वह कभी मेरी कोई बात
नहीं टालती। मैं उससे प्रेम भी करता हूं। और यदि वह
सदा युवा रहेगी, तो दूसरों को भी सुख दे पाएगी। उसने वह
फल अपनी उस नर्तकी मित्र को दे दिया।
राज नर्तकी ने कोई उत्तर नहीं दिया और चुपचाप वह अमर
फल अपने पास रख लिया। कोतवाल के जाने के बाद उसने
सोचा कि कौन मूर्ख यह पाप भरा जीवन
लंबा जीना चाहेगा। हमारे देश का राजा बहुत अच्छा है,
उसे ही लंबा जीवन जीना चाहिए। यह सोच कर उसने
किसी प्रकार से राजा से मिलने का समय लिया और एकांत
में उस फल की महिमा सुना कर उसे राजा को दे दिया। और
कहा कि महाराज, आप इसे खा लेना।
राजा फल को देखते ही पहचान गया और भौंचक रह गया।
पूछताछ करने से जब पूरी बात मालूम हुई, तो उसे वैराग्य
हो गया और वह राज-पाट छोड़ कर जंगल में चला गया।
वहीं उसने वैराग्य पर 100 श्लोक लिखे जो कि वैराग्य
शतक के नाम से प्रसिद्ध हैं। यही इस संसार
की वास्तविकता है। एक व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम
करता है और चाहता है कि वह व्यक्ति भी उसे
उतना ही प्रेम करे। परंतु विडंबना यह कि वह
दूसरा व्यक्ति किसी अन्य से प्रेम करता है।
इसका कारण यह है कि संसार व इसके सभी प्राणी अपूर्ण
हैं। सब में कुछ न कुछ कमी है। सिर्फ एक ईश्वर पूर्ण है। एक
वही है जो हर जीव से उतना ही प्रेम करता है,
जितना जीव उससे करता है। बस हमीं उसे सच्चा प्रेम
नहीं करते ।

Monday, 26 February 2018

islam men mahila

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#पलाश
पलाश को ढाक पलाश , टेसू ,खांकरा ओर संस्कृत में किंशुक भी कहते है .....शास्त्रों में #ब्रह्मा के पूजन अर्चन हेतु पवित्र माना है,इस कारण इसे ब्रह्मवृक्ष भी कहा गया है..... कम पानी और बंजर भूमि पर आसानी से पनपने वाला पलाश अब कम होता जा रहा है....कुछ वर्ष पूर्व तक इसकी पत्तलों का काफी चलन था जिसमे भोजन किया जाता था,,जिससे औषधीय गुण भी मिलते थे....पर आज प्लास्टिक सब दूर जहर बिखेर रही है ....।
बसंत के आगमन पर जब पलाश पतझड़ के पश्चात फूलों से लदते है, तब दूर से देखने पर अग्निज्वाला कि भाँती दिखाई देते हैं, इसलिए इसे जंगल कि आग भी कहते हैं।
#पलाश के औषधीय उपयोग ....नारी को गर्भ धारण करते ही अगर गाय के दूध में पलाश के कोमल पत्ते पीस कर पिलाने से शक्तिशाली बालक का जन्म होगा....वहीं इसी पलाश के बीजों को मात्र लेप करने से नारियां अनचाहे #गर्भ से बच सकती हैं......नेत्रों की ज्योति बढानी है तो पलाश के फूलों का रस निकाल कर उसमें शहद मिला लीजिये और #आँखों में काजल की तरह लगाकर सोया कीजिए। अगर रात में दिखाई न देता हो तो पलाश की जड़ का अर्क आँखों में लगाइए........#पेशाब में जलन या पेशाब रुक रुक कर आ रहा हो तो पलाश के फूलों का एक चम्मच रस निचोड़ कर दिन में 3 बार पी लीजिये काफी लाभदायक होगा .........वही इसके बीजों को नीबू के रस में पीस कर लगाने से दाद खाज #खुजली में आराम मिलता है....
पलाश के फूलो से परम्परागत #होली खेली जाती है...जिससे चर्म रोग समाप्त हो जाते है.... पिछले वर्ष नईदुनिया ख़बर में बताया था की बरसाना की विश्वप्रसिद्ध होली के लिए 10 क्विंटल टेसू के फूलों का ऑर्डर दिया गया है...... यह फूल कोलकाता, ग्वालियर और हाथरस से मंगाए जा रहे हैं....... इनसे करीब दो हजार लीटर टेसू का रंग तैयार होगा...... इस होली की खास बात यह है कि #लाडली_मंदिर में प्राकृतिक रंगों का ही इस्तेमाल किया जाता है........टेसू के फूल मिलते ही इन्हें सुखाया जाएगा.... इसके बाद इन्हें तीन दिन तक पानी में डालकर गलाया जाता है.........तीन दिन बाद और होली से एक दिन पहले बड़े-बड़े कड़ाहों में इन फूलों को गरम पानी में डालकर उबाला जाता है.......रंग केसरिया आए और उसकी पकड़ मजबूत हो, इसके लिए इसमें कुछ मात्रा में #चूना मिलाया जाता है....... इसके साथ ही सुगंध के लिए इत्र मिलाया जाता है। यह रंग चर्म रोगों में लाभ पहुंचाता है ।।