Tuesday 27 March 2018

sanskar-may



आजाद हिन्द फौज की जासूस नीरा आर्या की आत्मकथा का एक अंश

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‘‘मैं जब कोलकाता जेल में थी, तो हमारे रहने का स्थान वे ही कोठरियाँ थीं, जिनमें अन्य महिला राजनैतिक अपराधी रही थी अथवा रहती थी। हमें रात के 10 बजे कोठरियों में बंद कर दिया गया और चटाई, कंबल आदि का नाम भी नहीं सुनाई पड़ा। मन में चिंता होती थी कि क्या इसी प्रकार की स्वतंत्राता गहरे समुद्र में अज्ञात द्वीप में मिलेगी कि अभी से ओढ़नी अथवा बिछाने का ध्यान छोड़ने की आवश्यकता आ पड़ी है? जैसे-तैसे जमीन पर ही लोट लगाई और नींद भी आ गई। लगभग 12 बजे एक पहरेदार दो कम्बल लेकर आया और बिना बोले-चाले ही ऊपर फेंककर चला गया। कंबलों का गिरना और नींद का टूटना भी एक साथ ही हुआ। बुरा तो लगा, परंतु कंबलों को पाकर संतोष भी आ ही गया। अब केवल वही एक लोहे के बंधन का कष्ट और रह-रहकर भारत माता से जुदा होने का ध्यान साथ में था।12
‘‘सूर्य निकलते ही मुझको खिचड़ी मिली और लुहार भी आ गया। हाथ की सांकल काटते समय थोड़ा-सा चमड़ा भी काटा, परंतु पैरों में से आड़ी बेड़ी काटते समय, केवल दो-तीन बार हथौड़ी से पैरों की हड्डी को जाँचा कि कितनी पुष्ट है। मैंने एक बार दुःखी होकर कहा, ‘‘क्या अंधा है, जो पैर में मारता है?’’
‘‘पैर क्या हम तो दिल में भी मार देंगे, क्या कर लोगी?’’ उसने मुझे कहा था।
‘‘बंधन में हूँ तुम्हारे कर भी क्या सकती हूँ...’’ फिर मैंने उनके ऊपर थूक दिया था, ‘‘औरतों की इज्जत करना सीखो?’’
जेलर भी साथ थे, तो उसने कड़क आवाज में कहा, ‘‘तुम्हें छोड़ दिया जाएगा, यदि तुम बता दोगी कि तुम्हारे नेताजी सुभाष कहाँ हैं?’’
‘‘वे तो हवाई दुर्घटना में चल बसे,’’ मैंने जवाब दिया, ‘‘सारी दुनिया जानती है।’’
‘‘नेताजी जिंदा हैं....झूठ बोलती हो तुम कि वे हवाई दुर्घटना में मर गए?’’ जेलर ने कहा।
‘‘हाँ नेताजी जिंदा हैं।’’
‘‘तो कहाँ हैं...।’’
‘‘मेरे दिल में जिंदा हैं वे।’’ जैसे ही मैंने कहा तो जेलर को गुस्सा आ गया था और बोले, ‘‘तो तुम्हारे दिल से हम नेताजी को निकाल देंगे।’’
और फिर उन्होंने मेरे आँचल पर ही हाथ डाल दिया और मेरी आँगी को फाड़ते हुए फिर लुहार की ओर संकेत किया...लुहार ने एक बड़ा सा जंबूड़ औजार जैसा फुलवारी में इधर-उधर बढ़ी हुई पत्तियाँ काटने के काम आता है, उस ब्रेस्ट रिपर को उठा लिया और मेरे दाएँ उरोज को उसमें दबाकर काटने चला था...लेकिन उसमें धार नहीं थी, ठूँठा था और उरोजों (स्तनों) को दबाकर असहनीय पीड़ा देते हुए दूसरी तरफ से जेलर ने मेरी गर्दन पकड़ते हुए कहा, ‘‘अगर फिर जबान लड़ाई तो तुम्हारे ये दोनों गुब्बारे छाती से अलग कर दिए जाएँगे...’’
उसने फिर चिमटानुमा हथियार मेरी नाक पर मारते हुए कहा, ‘‘शुक्र मानो महारानी विक्टोरिया का कि इसे आग से नहीं तपाया, आग से तपाया होता तो तुम्हारे दोनों उभार पूरी तरह उखड़ जाते।’’
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एक चित्र नीरा आर्य के वास्तविक चित्र की अनुकृति और एक उनकी आत्मकथा के आधार पर रेखांकित...एक वास्तविक फोटो में महिला जासूसी दल सुभाष को रिपोर्ट करता हुआ, जिसमें नीरा भी हैं


प्रकाशक

सागर प्रकाशन

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कुमाऊं रेजिमेंट: ‘परमवीर चक्र’ जीतने वाली पहली सैन्य टुकड़ी!


यूं तो भारत में अनन्य साहस और वीरता की कई मिसाल हैं, लेकिन जब बात हमारे सैनिकों की आती है तो हमारा सीना गर्व से चौड़ा हो जाता है.

भारतीय सैनिकों ने अपनी ताकत का परिचय पाकिस्तान को कई बार कराया है और शायद वह अब इस बात को जान चुके हैं कि भारत के सैनिकों से जीतना नामुमकिन है, इसलिए पीठ पीछे से आतंकवादियों, बच्चों और औरतों के दम पर हमारे देश में घुसपैठ करते हैं.

खैर, केवल पाकिस्तान ही ऐसा देश नहीं, जिसने हार का स्वाद चखा. इसके अलावा भी कई ऐसे देश हैं, जहां भारतीय सैनिकों ने अपनी सेवाएं दी हैं.

स्वतंत्रता से पहले भी भारतीय सैनिकों ने कई महत्वपूर्ण युद्ध लड़े हैं, फिर वो प्रथम विश्व युद्ध ही क्यूं न हो या फिर द्वितीय विश्व युद्ध, मिस्र, बर्मा, मलय, हांगकांग, कोरिया, जापान और यूरोप, फिलिस्तीन या इजरायल के हाइफा शहर का युद्ध, जिसमें सेना और उनकी रेजिमेंट ने दुश्मनों को घुटनों पर ला दिया.

ऐसे ही भारतीय सेना के अधिकारी और जवान अलग-अलग रेजिमेंट्स से आते हैं. कोई गोरखा रेजिमेंट से आता है तो कोई मद्रास रेजिमेंट से, लेकिन सभी रेजिमेंट्स के जवानों का लक्ष्य एक ही होता है कि सभी दुश्मनों को भारतीय सरहदों से दूर रखना और देश को सुरक्षित बनाना.

इसी कड़ी में आज हम आपको उत्तराखंड की ‘कुमाऊं रेजिमेंट’ के बारे में बताने जा रहे हैं, जो अपनी निडरता और बहादुरी के लिए प्रसिद्ध है. तो आईये लगभग दो सौ साल पहले स्थापित हुई इस रेजिमेंट के बारे में जानने की कोशिश करते हैं –
18वीं शताब्दी में हुई स्थापना

भारतीय सेना की कुमाऊं रेजिमेंट की बुनियाद ब्रिटिश काल के दौरान 18वीं शताब्दी में पड़ी. यह वह समय था, जब भारत में अंग्रेजों ने अपने पांव जमा रखे थे और कुमांयू पर हमला किया गया था. इस तरह एक ब्रिटिश निवासी सर हेनरी रसेल को 19वीं हैदराबाद रेजिमेंट बनाने का श्रेय दिया जाता है.

कुमाऊं रेजिमेंट की जड़ें हैदराबाद से जुड़ी हुई हैं, हालांकि इसका इतिहास 1788 ई. से बतौर हैदराबाद के नवाब सलावत खां की रेजीमेंट से शुरू होता है.

माना जाता है कि सन 1794 ई. में इसका नाम रेमंट कोर था. करीब बीस साल तक कुमाऊं रेजिमेंट हैदराबाद रेजिमेंट का हिस्सा रही और निज़ाम की 19 हैदराबाद रेजिमेंट के साथ संयुक्त रूप से मिलकर कई अहम लड़ाइयां भी लड़ीं.

फिर इसका नाम बदलकर निजाम कंटीजेंट कर दिया गया. वहीं सन 1903 ई. को इस रेजीमेंट को भारतीय सेना का अभिन्न हिस्सा बना दिया गया. हालांकि 27 अक्टूबर 1945 को इस रेजीमेंट का नाम पूरी तरह से बदलकर ‘कुमाऊं रेजीमेंट’ कर दिया गया.

कुमाऊं रेजिमेंट के आधिकारिक चिह्न पर शेर बना हुआ है, जो एक क्राॅस का निशान पकड़े हुए है. असल में शेर को सबसे निडर जानवर और जंगल का राजा माना जाता है, इसलिए कुमाऊं रेजिमेंट के आधिकारिक चिह्न पर शेर को दर्शाया गया है, जो कुमाऊं रेजिमेंट की बहादुरी और जज्बे को दर्शाता है.

भारत की आज़ादी से पहले कुमाऊं रेजिमेंट के जवानों ने कई अहम मौकों पर कुर्बानियां दीं. कुमाऊं रेजीमेंट ने आंग्ल-नेपाल युद्ध के दौरान भी गोरखा और अंग्रेजों की ओर से युद्ध लड़ा. 19वीं शताब्दी की शुरूआत में कुमाऊं रेजीमेंट ने ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए सेवाएं दीं.


The Kumaon Regiment has a Glorious Past Spanning Around 225 Years. (Pic: recruitmenthistory)
रानीखेत में है मुख्यालय

उत्तराखंड अपने पर्यटन, धार्मिक स्थल और खूबसूरती के साथ साथ भारतीय सेना को सबसे अधिक जांबाज़ देने के लिए भी मशहूर है. उत्तराखंड के पहाड़ों की रानी कहे जाने वाले रानीखेत में कुमाऊं रेजिमेंट का सैन्य मुख्यालय है.

यहीं पर कुमाऊं रेजिमेंट के जवान कड़ी ट्रेनिंग लेकर तैयार किए जाते हैं.

पहाड़ों के बीच बने इस मुख्यालय में कुमाऊं रेजिमेंट की भर्ती में शामिल होने वाले लड़कों को सरहद की सुरक्षा की बारीकियां सिखाई जाती हैं. यहां से ट्रेनिंग पूरी करने के बाद जवान देश के कोने-कोने में अपनी सेवाएं देते हैं.

कुमाऊं रेजीमेंट में रंगरुटों की भर्ती उत्तराखंड के कुमाऊं डिवीजन से होती है, वहीं हरियाणा, राजस्थान और उत्तर प्रदेश के मैदानी इलाकों से भी इसमें सैनिकों को भर्ती किया जाता है.


Kumaon Regimental Centre Museum in Ranikhet. (Pic: traveldglobe)
‘ऑपरेशन मेघदूत’ में लहराया तिरंगा

कुमाऊं रेजिमेंट भारतीय सेना की सबसे पुरानी रेजिमेंट में से एक मानी जाती है. इस रेजिमेंट के पास कई ऐसी उपलब्धियां हैं, जो भारतीय सेना के नाम को बुलंदियों तक पहुंचाती हैं.

आपको जानकर ताज्जुब होगा कि भारत को पहला परमवीर चक्र विजेता देने वाली कुमाऊं रेजीमेंट ने ही भारत को तीन बार थल सेनाध्यक्ष भी दिए हैं. 13 अप्रैल 1984 का दिन आख़िर कोई भारतीय कैसे भूल सकता है, जब भारतीय सेना ने पाकिस्तानी सेना को मात देते हुए कश्मीर के सियाचिन की बर्फीली पहाड़ी पर शान से तिरंगा फहराया था.

ऑपरेशन मेघदूत नामक इस सैन्य मिशन में भारतीय सेना ने सियाचिन की बर्फीली चोटी पर दुश्मनों के खून से जीत की ऐतिहासिक गाथा लिखी थी.

आपको बता दें कि सियाचिन ग्लेशियर दुनिया का सबसे ऊंचा युद्धक्षेत्र है. 4 कुमाऊं रेजिमेंट ने ऑपरेशन मेघदूत का शुभारंभ किया और सियाचिन ग्लेशियर से पाकिस्तानी दुश्मनों को खदेड़कर उस पर दोबारा से अपना कब्जा किया.


Kumaon Regiment launched Operation Meghdoot on Siachen. (Pic: Storypick)
‘महानायक’ जिसने बढ़ाई रेजिमेंट की ‘शान’

कुमाऊं रेजिमेंट भारतीय सेना का एक चमकता सितारा है, जितनी दूर तक इसकी रोशनी जाती है, उतना ही गहरा इसका इतिहास है. मेजर सोमनाथ शर्मा भी इस रेजिमेंट के एक ऐसे ही सितारे हैं, जिन्होंने इसका नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज करा दिया.

मेजर जनरल अमरनाथ शर्मा के बेटे मेजर सोमनाथ शर्मा ने कुमाऊं रेजिमेंट में 22 अक्टूबर 1942 को कमीशन प्राप्त किया था, और रेजिमेंट में उनकी तैनाती के कुछ सालों बाद ही जम्मू-कश्मीर के बड़गाम में पाकिस्तानी सैनिकों से लड़ते हुए ये शहीद हो गए.

मेजर सोमनाथ शर्मा, 4 कुमाऊं रेजीमेंट पहला परम वीर चक्र (मरणोत्तर) प्राप्त करने वाले पहले सैनिक थे. परम वीर चक्र भारत का सर्वोच्च सैन्य पुरस्कार है, इसी के साथ कुमाऊं रेजीमेंट इस पुरस्कार को पाने वाली पहली रेजीमेंट थी. मेजर सोमनाथ शर्मा ने पाकिस्तानी सैनिकों को बड़गाम में ही रोके रखा और अपनी जान की परवाह न करते हुए दुश्मनों को मारते रहे.


Major Somnath Sharma. (Pic: Indiatimes)
बहादुरी और शौर्य की मिसाल…

इंडियन आर्मी की हर रेजिमेंट का एक अपना अधिकारिक युद्ध नारा और आदर्श वाक्य होता है, ठीक इसी तरह कुमाऊं रेजीमेंट का आदर्श-वाक्य ‘प्रक्रमो विजयते’ है, जिसका मतलब है, बहादुरी की विजय होती है. वहीं इस रेजीमेंट के चार युद्ध घोष हैं, ‘कालका माता की जय’, ‘बजरंग बली की जय’, ‘दादा किशन की जय’ और ‘जय दुर्गे नागा’.

कुमाऊं रेजीमेंट की 1948 को कश्मीर के बड़गाम से शुरू हुई वीरता की चाल और अनन्य बहादुरी ने कई पुरस्कार अपने नाम किए हैं.

इसके बाद चीन की बारी आई तो 1962 को लद्दाख और नेफा में मेजर शैतान सिंह के नेतृत्व में 13 कुमाऊं रेजीमेंट की चार्ली कंपनी ने चीनियों के दांत खट्टे कर दिए. मेजर शैतान सिंह को अपनी वीरता और शौर्य के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.

कुमाऊं रेजीमेंट को अब तक 2 परम वीर चक्र, 13 महा वीर चक्र, 82 वीर चक्र, 4 अशोक चक्र, 10 कीर्ति चक्र, 43 शौर्य चक्र, 6 युद्ध सेवा पदक, 14 से ज्यादा परम विशिष्ट सेवा पदक, 32 से ज्यादा अति विशिष्ट सेवा पदक, 69 से ज्यादा विशिष्ट सेवा पदक और एक अर्जुन पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है.

इसके अलावा इस रेजीमेंट को दो पद्म भूषण पुरस्कार भी मिल चुके हैं.


Kumaon Regiment Soldiers with US Soldiers in Training. (Pic: ndtv)

पिछले लगभग 225 सालों से देश सेवा में तत्पर कुमाऊं रेजीमेंट की 21 से अधिक बटालियन पूरे देश में अपनी सैन्य सेवाएं दे रही हैं.



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