"सच्चर" पर दिल्ली उच्च न्यायालय का कड़ा रुख, केन्द्र को फटकारते हुए पूछा-
0 क्या अल्पसंख्यक का मतलब सिर्फ मुसलमान? 0 गरीबी क्या किसी एक मजहब में होती है? 0 "सच्चर रिपोर्ट" संविधान विरोधी - आलोक गोस्वामी
"सच्चर" पर सरकार को अदालत ने जो कड़ी फटकार लगाई है उसको किसी भी सूरत में हल्के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए। "सच्चर" के जरिए अदालत ने यूपीए सरकार की देश में विभिन्न समुदायों के बीच दीवारें खड़ी करने की षडंत्री मानसिकता की तीखी भत्र्सना ही की है। इस मुद्दे को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। अदालत ने केन्द्र सरकार से साफ-साफ पूछा है कि "सच्चर" के जरिए केवल मुस्लिम समुदाय का "भला" करने की बात क्यों सोची गई है? दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों को इसके दायरे से बाहर क्यों रखा गया है? अदालत के इन सवालों का इशारा सोनिया पार्टी सरकार की वोट बैंक राजनीति और मुस्लिम तुष्टीकरण की मानसिकता की ओर नहीं था तो किस ओर था?
12 मई को दिल्ली उच्च न्यायालय ने उक्त टिप्पणियां स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा की ओर से दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान की थीं। याचिका में कहा गया था कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट और उस पर सरकारी कार्रवाई पूरी तरह असंवैधानिक है। सरकार ने यह कमेटी पूर्व न्यायाधीश राजिन्दर सच्चर की अध्यक्षता में मुस्लिमों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का अध्ययन करके इसे "सुधारने" के सुझाव मांगे थे। याचिका पक्ष की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री प्राणनाथ लेखी ने एक के बाद एक इस "सच्चर" के पीछे छुपी षडंत्री सोच की कलई खोलकर रख दी। उन्होंने पूछा कि क्या सच्चर कमेटी रिपोर्ट ने मुस्लिमों को दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों से किए जा रहे व्यवहार से अलग हटकर नहीं देखा है? याचिका में ये सवाल भी खड़ा किया गया है कि क्या ये रिपोर्ट नस्लीय वर्गीकरण और समुदायवाद से प्रभावित नहीं दिखती? क्या यह संविधान के विरुद्ध जाते हुए भारत में इस्लाम के राजनीतिक स्वरूप को बढ़ावा देने की मंशा नहीं रखती और क्या इस प्रायद्वीप पर "शासन" कर चुके मुस्लिमों को अल्पसंख्यक के तौर पर देखा जा सकता है? अधिवक्ता लेखी ने इससे भी एक कदम आगे जाते हुए कहा कि अगर मुस्लिमों को एक मजहबी अल्पसंख्यक के तौर पर इसी तरह उकसाया जाता रहा तो ये प्रवृत्ति संविधान में संकल्पित पंथनिरपेक्ष राजनय को तार-तार कर देगी और इसलिए ये इसके मौलिक स्वरूप के विरुद्ध है। उन्होंने न्यायमूर्ति टी.एस.ठाकुर और न्यायमूर्ति सिद्वार्थ मृदुल की खंडपीठ के सामने कहा कि याचिका के अंतर्गत ये जानने की इच्छा जताई गई है कि क्या सच्चर कमेटी के निदेशक तत्व (टम्र्स आफ रेफरेंस) 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में रखे गए पाकिस्तान के प्रस्ताव का ही विस्तार नहीं हैं? लेखी ने कहा कि सच्चर कमेटी रिपोर्ट पंथनिरपेक्षता के संबंध में अब तक आए सर्वोच्च न्यायालय के सभी निर्णयों के विरुद्ध है। उन्होंने कहा कि ये रिपोर्ट वास्तव में बेतुकी है क्योंकि सच्चर कमेटी ने ही कहा है कि भारत के 9 राज्यों में मुस्लिम दूसरे समुदायों से शिक्षा के क्षेत्र में आगे हैं। उन्होंने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक कानून का उल्लेख करते हुए कहा कि जब ये कानून बनाया गया था तब इसमें मुस्लिम, सिख, पारसी, बौद्ध व ईसाई पंथों को शामिल किया गया था मगर अब सरकार ने केवल मुस्लिमों के लिए ही नया कानून बनाया है। ये सरकार की वोट बैंक नीति है। पूरी बहस सुनने के बाद न्यायमूर्ति ठाकुर और न्यायमूर्ति मृदुल ने कहा कि गरीबी सबकी साझी दुश्मन है और ये किसी खास मजहब में ही नहीं होती। सरकार का ये (सच्चर कमेटी) कदम पूरी तरह असंवैधानिक है। अदालत का रुख सच्चर कमेटी को लेकर गंभीर दिखाई देता है। शायद वो सरकार की एक मजहब विशेष की ही चिंता करने की राजनीति को पहचान रही है। उसका ये कहना महत्वपूर्ण है कि सभी मत-पंथों को मानने वाले भारत के नागरिक समान हैं इसलिए सबके आगे बढ़ने की चिंता करनी चाहिए।
मगर केन्द्र सरकार की ओर से प्रस्तुत वकीलों ने इसे बहुत हल्के तरीके से लेते हुए कहा कि चूंकि ये राजनीति से जुड़ा विषय है इसलिए अदालत इसमें दखल नहीं दे सकती है। इस पर दोनों न्यायमूर्तियों ने रोषपूर्ण टिप्पणी की कि क्या ये अदालत डाकघर है? यह बहुत गंभीर मुद्दा है, अदालत इसमें हस्तक्षेप क्यों नहीं कर सकती? अदालत ने दो टूक शब्दों में कहा है कि केन्द्र सरकार अगली सुनवाई तक अपना जवाब दायर करे। अदालत ने बहुत गंभीरता से ये भी टिप्पणी की कि क्यों न इस सच्चर कमेटी पर रोक ही लगा दी जाए?
इस मामले पर अदालत में "सच्चर" की असलियत उजागर करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी.एन.लेखी ने पांचजन्य से बातचीत में कहा कि आजादी के बाद इससे पहले किसी भी सरकार ने समाज में विद्वेष पैदा करने वाली और अल्पसंख्यक के नाम पर केवल मुस्लिमों को ही देखने वाली कोई समिति या आयोग नहीं बनाया था। ये तो केवल कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की ही ओछी सोच थी कि सच्चर कमेटी के नाम पर मुस्लिमों को तुष्ट करने की चाल चली गई ताकि उनके वोट पाए जा सकें। श्री लेखी, हालांकि, यह भी कहते हैं कि कमोबेश हर पार्टी अपने-अपने वोट बैंक रिझाने की कवायद करती है, कोई जात के नाम पर तो कोई मजहब के नाम पर। सच्चर कमेटी को जो कार्य (टम्र्स आफ रेफरेंस) सरकार की ओर से सौंपा गया था और उसमें जो बातें की गई थीं वे पाकिस्तान निर्माण के प्रस्ताव से मेल खाती हैं। इस बारे में श्री लेखी का कहना था कि अगर आप 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में ए.के. फजलुल हक द्वारा रखे गए पाकिस्तान की मांग करने वाले प्रस्ताव का अंतिम पैराग्राफ देखें तो समझ जाएंगे कि सच्चर कमेटी की "टम्र्स आफ रेफरेंस" उसी से ली गई हैं। उस प्रस्ताव में उल्लेख था कि नए बनने वाले मुस्लिम राज्य यानी पाकिस्तान के संविधान में खासतौर पर मुस्लिमों के संरक्षण का प्रावधान किया जाएगा। उनकी शिक्षा, सामाजिक-आर्थिक स्थिति की बेहतरी की कोशिशें की जाएंगी। ये ही सब तो है "सच्चर" के निदेशक तत्वों में। 1933 में कैम्ब्रिज में पढ़ने वाले एक मुस्लिम छात्र रहमत अली ने तो उस वक्त गोलमेज बैठकों के दौरान एक पर्चा निकाला था जिस पर बड़ा-बड़ा लिखा था-"नाऊ और नेवर" (अभी नहीं, तो कभी नहीं), जिसमें उसने "पाकिस्तान" नाम पहली बार पेश किया था। मगर दुर्भाग्य से न तो किसी पत्रकार, स्तंभकार के पास और न ही किसी राजनीतिज्ञ के पास अपने हाल के इतिहास पर नजर डालने की फुर्सत है। इनके पास बयानबाजी करने की बहुत फुर्सत है। कोई तो पढ़ता उस 1940 के पाकिस्तान निर्माण के प्रस्ताव को। हमने उस प्रस्ताव के अंश अपनी इस याचिका के साथ इसलिए लगाए हैं ताकि आने वाले समय में भी इन पर लोगों की निगाहें जाएं। श्री लेखी ने रोष व्यक्त करते हुए कहा कि केन्द्र सरकार मजहब के नाम पर समाज में विद्वेष फैला रही है, उसको बांट रही है। सच्चर कमेटी के सुझावों को पढ़कर कोई भी समझदार नागरिक ये जान सकता है। उन अंशों को पढ़कर गुस्सा आता है।
आखिर याचिका दायर करने के 9 महीने बाद दिल्ली उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्तियों टी.एस.ठाकुर और सिद्वार्थ मृदुल ने इसे सुनवाई के लिए स्वीकार किया है और निश्चित ही ये साफ संकेत किया है कि सरकार को तुष्टीकरण नीति पर यूं ही नहीं बढ़ने दिया जाएगा। 21 अगस्त को इस मामले पर फिर सुनवाई होगी और तब तक केन्द्र को न्यायालय में अपना जवाब दाखिल करना होगा।
"सच्चर" की तर्ज पर प.बंगाल और केरल की माक्र्सवादी सरकारों ने कमेटियां बनाकर मुस्लिम तुष्टीकरण की मानसिकता का बेशर्म प्रदर्शन किया है। 21 फरवरी 2008 को केरल की पलोली मोहम्मद कुट्टी समिति ने प्रदेश सरकार को रिपोर्ट सौंपकर "सच्चर के उपाय" लागू करने की सलाह तक दे दी थी। (देखें, पृष्ट 18 पर प्रकाशित रपट)। आंध्र की कांग्रेस सरकार ने तो नौकरियों में मुस्लिमों को आरक्षण देने की कमान तमाम विरोधों के बावजूद उठा रखी है। 2009 के आम चुनावों का समय जैसे-जैसे पास आता जाएगा, सोनिया पार्टी और माक्र्सवादी अल्पसंख्यकों, न न मुस्लिमों, को रिझाने की कोशिशें तमाम हदों को पार करते हुए तेज करेंगे, इसकी पूरी संभावनाएं हैं।
-----By मुकेश गोयल
..........................................................................................................
आज से 50 साल पहले तो कोई रिफाइन तेल के बारे में जानता नहीं था, ये पिछले 20 -25 वर्षों से हमारे देश में आया है | कुछ विदेशी कंपनियों और भारतीय कंपनियाँ इस धंधे में लगी हुई हैं | इन्होने चक्कर चलाया और टेलीविजन के माध्यम से जम कर प्रचार किया लेकिन लोगों ने माना नहीं इनकी बात को, तब इन्होने डोक्टरों के माध्यम से कहलवाना शुरू किया | डोक्टरों ने अपने प्रेस्क्रिप्सन में रिफाइन तेल लिखना शुरू किया कि तेल खाना तो सफोला का खाना या सनफ्लावर का खाना, ये नहीं कहते कि तेल, सरसों का खाओ या मूंगफली का खाओ, अब क्यों, आप सब समझदार हैं समझ सकते हैं |
ये रिफाइन तेल बनता कैसे हैं ? मैंने देखा है और आप भी कभी देख लें तो बात समझ जायेंगे | किसी भी तेल को रिफाइन करने में 6 से 7 केमिकल का प्रयोग किया जाता है और डबल रिफाइन करने में ये संख्या 12 -13 हो जाती है | ये सब केमिकल मनुष्य के द्वारा बनाये हुए हैं प्रयोगशाला में, भगवान का बनाया हुआ एक भी केमिकल इस्तेमाल नहीं होता, भगवान का बनाया मतलब प्रकृति का दिया हुआ जिसे हम ओरगेनिक कहते हैं | तेल को साफ़ करने के लिए जितने केमिकल इस्तेमाल किये जाते हैं सब Inorganic हैं और Inorganic केमिकल ही दुनिया में जहर बनाते हैं और उनका combination जहर के तरफ ही ले जाता है | इसलिए रिफाइन तेल, डबल रिफाइन तेल गलती से भी न खाएं | फिर आप कहेंगे कि, क्या खाएं ? तो आप शुद्ध तेल खाइए, सरसों का, मूंगफली का, तीसी का, या नारियल का | अब आप कहेंगे कि शुद्ध तेल में बास बहुत आती है और दूसरा कि शुद्ध तेल बहुत चिपचिपा होता है | हमलोगों ने जब शुद्ध तेल पर काम किया या एक तरह से कहे कि रिसर्च किया तो हमें पता चला कि तेल का चिपचिपापन उसका सबसे महत्वपूर्ण घटक है | तेल में से जैसे ही चिपचिपापन निकाला जाता है तो पता चला कि ये तो तेल ही नहीं रहा, फिर हमने देखा कि तेल में जो बास आ रही है वो उसका प्रोटीन कंटेंट है, शुद्ध तेल में प्रोटीन बहुत है, दालों में ईश्वर का दिया हुआ प्रोटीन सबसे ज्यादा है, दालों के बाद जो सबसे ज्यादा प्रोटीन है वो तेलों में ही है, तो तेलों में जो बास आप पाते हैं वो उसका Organic content है प्रोटीन के लिए | 4 -5 तरह के प्रोटीन हैं सभी तेलों में, आप जैसे ही तेल की बास निकालेंगे उसका प्रोटीन वाला घटक गायब हो जाता है और चिपचिपापन निकाल दिया तो उसका Fatty Acid गायब | अब ये दोनों ही चीजें निकल गयी तो वो तेल नहीं पानी है, जहर मिला हुआ पानी | और ऐसे रिफाइन तेल के खाने से कई प्रकार की बीमारियाँ होती हैं, घुटने दुखना, कमर दुखना, हड्डियों में दर्द, ये तो छोटी बीमारियाँ हैं, सबसे खतरनाक बीमारी है, हृदयघात (Heart Attack), पैरालिसिस, ब्रेन का डैमेज हो जाना, आदि, आदि | जिन-जिन घरों में पुरे मनोयोग से रिफाइन तेल खाया जाता है उन्ही घरों में ये समस्या आप पाएंगे, अभी तो मैंने देखा है कि जिनके यहाँ रिफाइन तेल इस्तेमाल हो रहा है उन्ही के यहाँ Heart Blockage और Heart Attack की समस्याएं हो रही है |
जब हमने सफोला का तेल लेबोरेटरी में टेस्ट किया, सूरजमुखी का तेल, अलग-अलग ब्रांड का टेस्ट किया तो AIIMS के भी कई डोक्टरों की रूचि इसमें पैदा हुई तो उन्होंने भी इसपर काम किया और उन डोक्टरों ने जो कुछ भी बताया उसको मैं एक लाइन में बताता हूँ क्योंकि वो रिपोर्ट काफी मोटी है और सब का जिक्र करना मुश्किल है, उन्होंने कहा "तेल में से जैसे ही आप चिपचिपापन निकालेंगे, बास को निकालेंगे तो वो तेल ही नहीं रहता, तेल के सारे महत्वपूर्ण घटक निकल जाते हैं और डबल रिफाइन में कुछ भी नहीं रहता, वो छूँछ बच जाता है, और उसी को हम खा रहे हैं तो तेल के माध्यम से जो कुछ पौष्टिकता हमें मिलनी चाहिए वो मिल नहीं रहा है |" आप बोलेंगे कि तेल के माध्यम से हमें क्या मिल रहा ? मैं बता दूँ कि हमको शुद्ध तेल से मिलता है HDL (High Density Lipoprotein), ये तेलों से ही आता है हमारे शरीर में, वैसे तो ये लीवर में बनता है लेकिन शुद्ध तेल खाएं तब | तो आप शुद्ध तेल खाएं तो आपका HDL अच्छा रहेगा और जीवन भर ह्रदय रोगों की सम्भावना से आप दूर रहेंगे |
अभी भारत के बाजार में सबसे ज्यादा विदेशी तेल बिक रहा है | मलेशिया नामक एक छोटा सा देश है हमारे पड़ोस में, वहां का एक तेल है जिसे पामोलिन तेल कहा जाता है, हम उसे पाम तेल के नाम से जानते हैं, वो अभी भारत के बाजार में सबसे ज्यादा बिक रहा है, एक-दो टन नहीं, लाखो-करोड़ों टन भारत आ रहा है और अन्य तेलों में मिलावट कर के भारत के बाजार में बेचा जा रहा है | 7 -8 वर्ष पहले भारत में ऐसा कानून था कि पाम तेल किसी दुसरे तेल में मिला के नहीं बेचा जा सकता था लेकिन GATT समझौता और WTO के दबाव में अब कानून ऐसा है कि पाम तेल किसी भी तेल में मिला के बेचा जा सकता है | भारत के बाजार से आप किसी भी नाम का डब्बा बंद तेल ले आइये, रिफाइन तेल और डबल रिफाइन तेल के नाम से जो भी तेल बाजार में मिल रहा है वो पामोलिन तेल है | और जो पाम तेल खायेगा, मैं स्टाम्प पेपर पर लिख कर देने को तैयार हूँ कि वो ह्रदय सम्बन्धी बिमारियों से मरेगा | क्योंकि पाम तेल के बारे में सारी दुनिया के रिसर्च बताते हैं कि पाम तेल में सबसे ज्यादा ट्रांस-फैट है और ट्रांस-फैट वो फैट हैं जो शरीर में कभी dissolve नहीं होते हैं, किसी भी तापमान पर dissolve नहीं होते और ट्रांस फैट जब शरीर में dissolve नहीं होता है तो वो बढ़ता जाता है और तभी हृदयघात होता है, ब्रेन हैमरेज होता है और आदमी पैरालिसिस का शिकार होता है, डाईबिटिज होता है, ब्लड प्रेशर की शिकायत होती है |
आप सरसो, तिल, मूंगफ़ली आदि का तेल ही इस्तेमाल करे
अगर आप पूरी पोस्ट नही पड़ सकते तो यहाँ क्लिक करें :
http://www.youtube.com/ watch?
0 क्या अल्पसंख्यक का मतलब सिर्फ मुसलमान? 0 गरीबी क्या किसी एक मजहब में होती है? 0 "सच्चर रिपोर्ट" संविधान विरोधी - आलोक गोस्वामी
"सच्चर" पर सरकार को अदालत ने जो कड़ी फटकार लगाई है उसको किसी भी सूरत में हल्के तौर पर नहीं लिया जाना चाहिए। "सच्चर" के जरिए अदालत ने यूपीए सरकार की देश में विभिन्न समुदायों के बीच दीवारें खड़ी करने की षडंत्री मानसिकता की तीखी भत्र्सना ही की है। इस मुद्दे को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए। अदालत ने केन्द्र सरकार से साफ-साफ पूछा है कि "सच्चर" के जरिए केवल मुस्लिम समुदाय का "भला" करने की बात क्यों सोची गई है? दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों को इसके दायरे से बाहर क्यों रखा गया है? अदालत के इन सवालों का इशारा सोनिया पार्टी सरकार की वोट बैंक राजनीति और मुस्लिम तुष्टीकरण की मानसिकता की ओर नहीं था तो किस ओर था?
12 मई को दिल्ली उच्च न्यायालय ने उक्त टिप्पणियां स्वयंसेवी संगठन राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा की ओर से दायर जनहित याचिका पर सुनवाई के दौरान की थीं। याचिका में कहा गया था कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट और उस पर सरकारी कार्रवाई पूरी तरह असंवैधानिक है। सरकार ने यह कमेटी पूर्व न्यायाधीश राजिन्दर सच्चर की अध्यक्षता में मुस्लिमों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक स्थिति का अध्ययन करके इसे "सुधारने" के सुझाव मांगे थे। याचिका पक्ष की ओर से वरिष्ठ अधिवक्ता श्री प्राणनाथ लेखी ने एक के बाद एक इस "सच्चर" के पीछे छुपी षडंत्री सोच की कलई खोलकर रख दी। उन्होंने पूछा कि क्या सच्चर कमेटी रिपोर्ट ने मुस्लिमों को दूसरे अल्पसंख्यक समुदायों से किए जा रहे व्यवहार से अलग हटकर नहीं देखा है? याचिका में ये सवाल भी खड़ा किया गया है कि क्या ये रिपोर्ट नस्लीय वर्गीकरण और समुदायवाद से प्रभावित नहीं दिखती? क्या यह संविधान के विरुद्ध जाते हुए भारत में इस्लाम के राजनीतिक स्वरूप को बढ़ावा देने की मंशा नहीं रखती और क्या इस प्रायद्वीप पर "शासन" कर चुके मुस्लिमों को अल्पसंख्यक के तौर पर देखा जा सकता है? अधिवक्ता लेखी ने इससे भी एक कदम आगे जाते हुए कहा कि अगर मुस्लिमों को एक मजहबी अल्पसंख्यक के तौर पर इसी तरह उकसाया जाता रहा तो ये प्रवृत्ति संविधान में संकल्पित पंथनिरपेक्ष राजनय को तार-तार कर देगी और इसलिए ये इसके मौलिक स्वरूप के विरुद्ध है। उन्होंने न्यायमूर्ति टी.एस.ठाकुर और न्यायमूर्ति सिद्वार्थ मृदुल की खंडपीठ के सामने कहा कि याचिका के अंतर्गत ये जानने की इच्छा जताई गई है कि क्या सच्चर कमेटी के निदेशक तत्व (टम्र्स आफ रेफरेंस) 1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में रखे गए पाकिस्तान के प्रस्ताव का ही विस्तार नहीं हैं? लेखी ने कहा कि सच्चर कमेटी रिपोर्ट पंथनिरपेक्षता के संबंध में अब तक आए सर्वोच्च न्यायालय के सभी निर्णयों के विरुद्ध है। उन्होंने कहा कि ये रिपोर्ट वास्तव में बेतुकी है क्योंकि सच्चर कमेटी ने ही कहा है कि भारत के 9 राज्यों में मुस्लिम दूसरे समुदायों से शिक्षा के क्षेत्र में आगे हैं। उन्होंने राष्ट्रीय अल्पसंख्यक कानून का उल्लेख करते हुए कहा कि जब ये कानून बनाया गया था तब इसमें मुस्लिम, सिख, पारसी, बौद्ध व ईसाई पंथों को शामिल किया गया था मगर अब सरकार ने केवल मुस्लिमों के लिए ही नया कानून बनाया है। ये सरकार की वोट बैंक नीति है। पूरी बहस सुनने के बाद न्यायमूर्ति ठाकुर और न्यायमूर्ति मृदुल ने कहा कि गरीबी सबकी साझी दुश्मन है और ये किसी खास मजहब में ही नहीं होती। सरकार का ये (सच्चर कमेटी) कदम पूरी तरह असंवैधानिक है। अदालत का रुख सच्चर कमेटी को लेकर गंभीर दिखाई देता है। शायद वो सरकार की एक मजहब विशेष की ही चिंता करने की राजनीति को पहचान रही है। उसका ये कहना महत्वपूर्ण है कि सभी मत-पंथों को मानने वाले भारत के नागरिक समान हैं इसलिए सबके आगे बढ़ने की चिंता करनी चाहिए।
मगर केन्द्र सरकार की ओर से प्रस्तुत वकीलों ने इसे बहुत हल्के तरीके से लेते हुए कहा कि चूंकि ये राजनीति से जुड़ा विषय है इसलिए अदालत इसमें दखल नहीं दे सकती है। इस पर दोनों न्यायमूर्तियों ने रोषपूर्ण टिप्पणी की कि क्या ये अदालत डाकघर है? यह बहुत गंभीर मुद्दा है, अदालत इसमें हस्तक्षेप क्यों नहीं कर सकती? अदालत ने दो टूक शब्दों में कहा है कि केन्द्र सरकार अगली सुनवाई तक अपना जवाब दायर करे। अदालत ने बहुत गंभीरता से ये भी टिप्पणी की कि क्यों न इस सच्चर कमेटी पर रोक ही लगा दी जाए?
इस मामले पर अदालत में "सच्चर" की असलियत उजागर करने वाले वरिष्ठ अधिवक्ता श्री पी.एन.लेखी ने पांचजन्य से बातचीत में कहा कि आजादी के बाद इससे पहले किसी भी सरकार ने समाज में विद्वेष पैदा करने वाली और अल्पसंख्यक के नाम पर केवल मुस्लिमों को ही देखने वाली कोई समिति या आयोग नहीं बनाया था। ये तो केवल कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार की ही ओछी सोच थी कि सच्चर कमेटी के नाम पर मुस्लिमों को तुष्ट करने की चाल चली गई ताकि उनके वोट पाए जा सकें। श्री लेखी, हालांकि, यह भी कहते हैं कि कमोबेश हर पार्टी अपने-अपने वोट बैंक रिझाने की कवायद करती है, कोई जात के नाम पर तो कोई मजहब के नाम पर। सच्चर कमेटी को जो कार्य (टम्र्स आफ रेफरेंस) सरकार की ओर से सौंपा गया था और उसमें जो बातें की गई थीं वे पाकिस्तान निर्माण के प्रस्ताव से मेल खाती हैं। इस बारे में श्री लेखी का कहना था कि अगर आप 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में ए.के. फजलुल हक द्वारा रखे गए पाकिस्तान की मांग करने वाले प्रस्ताव का अंतिम पैराग्राफ देखें तो समझ जाएंगे कि सच्चर कमेटी की "टम्र्स आफ रेफरेंस" उसी से ली गई हैं। उस प्रस्ताव में उल्लेख था कि नए बनने वाले मुस्लिम राज्य यानी पाकिस्तान के संविधान में खासतौर पर मुस्लिमों के संरक्षण का प्रावधान किया जाएगा। उनकी शिक्षा, सामाजिक-आर्थिक स्थिति की बेहतरी की कोशिशें की जाएंगी। ये ही सब तो है "सच्चर" के निदेशक तत्वों में। 1933 में कैम्ब्रिज में पढ़ने वाले एक मुस्लिम छात्र रहमत अली ने तो उस वक्त गोलमेज बैठकों के दौरान एक पर्चा निकाला था जिस पर बड़ा-बड़ा लिखा था-"नाऊ और नेवर" (अभी नहीं, तो कभी नहीं), जिसमें उसने "पाकिस्तान" नाम पहली बार पेश किया था। मगर दुर्भाग्य से न तो किसी पत्रकार, स्तंभकार के पास और न ही किसी राजनीतिज्ञ के पास अपने हाल के इतिहास पर नजर डालने की फुर्सत है। इनके पास बयानबाजी करने की बहुत फुर्सत है। कोई तो पढ़ता उस 1940 के पाकिस्तान निर्माण के प्रस्ताव को। हमने उस प्रस्ताव के अंश अपनी इस याचिका के साथ इसलिए लगाए हैं ताकि आने वाले समय में भी इन पर लोगों की निगाहें जाएं। श्री लेखी ने रोष व्यक्त करते हुए कहा कि केन्द्र सरकार मजहब के नाम पर समाज में विद्वेष फैला रही है, उसको बांट रही है। सच्चर कमेटी के सुझावों को पढ़कर कोई भी समझदार नागरिक ये जान सकता है। उन अंशों को पढ़कर गुस्सा आता है।
आखिर याचिका दायर करने के 9 महीने बाद दिल्ली उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्तियों टी.एस.ठाकुर और सिद्वार्थ मृदुल ने इसे सुनवाई के लिए स्वीकार किया है और निश्चित ही ये साफ संकेत किया है कि सरकार को तुष्टीकरण नीति पर यूं ही नहीं बढ़ने दिया जाएगा। 21 अगस्त को इस मामले पर फिर सुनवाई होगी और तब तक केन्द्र को न्यायालय में अपना जवाब दाखिल करना होगा।
"सच्चर" की तर्ज पर प.बंगाल और केरल की माक्र्सवादी सरकारों ने कमेटियां बनाकर मुस्लिम तुष्टीकरण की मानसिकता का बेशर्म प्रदर्शन किया है। 21 फरवरी 2008 को केरल की पलोली मोहम्मद कुट्टी समिति ने प्रदेश सरकार को रिपोर्ट सौंपकर "सच्चर के उपाय" लागू करने की सलाह तक दे दी थी। (देखें, पृष्ट 18 पर प्रकाशित रपट)। आंध्र की कांग्रेस सरकार ने तो नौकरियों में मुस्लिमों को आरक्षण देने की कमान तमाम विरोधों के बावजूद उठा रखी है। 2009 के आम चुनावों का समय जैसे-जैसे पास आता जाएगा, सोनिया पार्टी और माक्र्सवादी अल्पसंख्यकों, न न मुस्लिमों, को रिझाने की कोशिशें तमाम हदों को पार करते हुए तेज करेंगे, इसकी पूरी संभावनाएं हैं।
-----By मुकेश गोयल
..........................................................................................................
आज से 50 साल पहले तो कोई रिफाइन तेल के बारे में जानता नहीं था, ये पिछले 20 -25 वर्षों से हमारे देश में आया है | कुछ विदेशी कंपनियों और भारतीय कंपनियाँ इस धंधे में लगी हुई हैं | इन्होने चक्कर चलाया और टेलीविजन के माध्यम से जम कर प्रचार किया लेकिन लोगों ने माना नहीं इनकी बात को, तब इन्होने डोक्टरों के माध्यम से कहलवाना शुरू किया | डोक्टरों ने अपने प्रेस्क्रिप्सन में रिफाइन तेल लिखना शुरू किया कि तेल खाना तो सफोला का खाना या सनफ्लावर का खाना, ये नहीं कहते कि तेल, सरसों का खाओ या मूंगफली का खाओ, अब क्यों, आप सब समझदार हैं समझ सकते हैं |
ये रिफाइन तेल बनता कैसे हैं ? मैंने देखा है और आप भी कभी देख लें तो बात समझ जायेंगे | किसी भी तेल को रिफाइन करने में 6 से 7 केमिकल का प्रयोग किया जाता है और डबल रिफाइन करने में ये संख्या 12 -13 हो जाती है | ये सब केमिकल मनुष्य के द्वारा बनाये हुए हैं प्रयोगशाला में, भगवान का बनाया हुआ एक भी केमिकल इस्तेमाल नहीं होता, भगवान का बनाया मतलब प्रकृति का दिया हुआ जिसे हम ओरगेनिक कहते हैं | तेल को साफ़ करने के लिए जितने केमिकल इस्तेमाल किये जाते हैं सब Inorganic हैं और Inorganic केमिकल ही दुनिया में जहर बनाते हैं और उनका combination जहर के तरफ ही ले जाता है | इसलिए रिफाइन तेल, डबल रिफाइन तेल गलती से भी न खाएं | फिर आप कहेंगे कि, क्या खाएं ? तो आप शुद्ध तेल खाइए, सरसों का, मूंगफली का, तीसी का, या नारियल का | अब आप कहेंगे कि शुद्ध तेल में बास बहुत आती है और दूसरा कि शुद्ध तेल बहुत चिपचिपा होता है | हमलोगों ने जब शुद्ध तेल पर काम किया या एक तरह से कहे कि रिसर्च किया तो हमें पता चला कि तेल का चिपचिपापन उसका सबसे महत्वपूर्ण घटक है | तेल में से जैसे ही चिपचिपापन निकाला जाता है तो पता चला कि ये तो तेल ही नहीं रहा, फिर हमने देखा कि तेल में जो बास आ रही है वो उसका प्रोटीन कंटेंट है, शुद्ध तेल में प्रोटीन बहुत है, दालों में ईश्वर का दिया हुआ प्रोटीन सबसे ज्यादा है, दालों के बाद जो सबसे ज्यादा प्रोटीन है वो तेलों में ही है, तो तेलों में जो बास आप पाते हैं वो उसका Organic content है प्रोटीन के लिए | 4 -5 तरह के प्रोटीन हैं सभी तेलों में, आप जैसे ही तेल की बास निकालेंगे उसका प्रोटीन वाला घटक गायब हो जाता है और चिपचिपापन निकाल दिया तो उसका Fatty Acid गायब | अब ये दोनों ही चीजें निकल गयी तो वो तेल नहीं पानी है, जहर मिला हुआ पानी | और ऐसे रिफाइन तेल के खाने से कई प्रकार की बीमारियाँ होती हैं, घुटने दुखना, कमर दुखना, हड्डियों में दर्द, ये तो छोटी बीमारियाँ हैं, सबसे खतरनाक बीमारी है, हृदयघात (Heart Attack), पैरालिसिस, ब्रेन का डैमेज हो जाना, आदि, आदि | जिन-जिन घरों में पुरे मनोयोग से रिफाइन तेल खाया जाता है उन्ही घरों में ये समस्या आप पाएंगे, अभी तो मैंने देखा है कि जिनके यहाँ रिफाइन तेल इस्तेमाल हो रहा है उन्ही के यहाँ Heart Blockage और Heart Attack की समस्याएं हो रही है |
जब हमने सफोला का तेल लेबोरेटरी में टेस्ट किया, सूरजमुखी का तेल, अलग-अलग ब्रांड का टेस्ट किया तो AIIMS के भी कई डोक्टरों की रूचि इसमें पैदा हुई तो उन्होंने भी इसपर काम किया और उन डोक्टरों ने जो कुछ भी बताया उसको मैं एक लाइन में बताता हूँ क्योंकि वो रिपोर्ट काफी मोटी है और सब का जिक्र करना मुश्किल है, उन्होंने कहा "तेल में से जैसे ही आप चिपचिपापन निकालेंगे, बास को निकालेंगे तो वो तेल ही नहीं रहता, तेल के सारे महत्वपूर्ण घटक निकल जाते हैं और डबल रिफाइन में कुछ भी नहीं रहता, वो छूँछ बच जाता है, और उसी को हम खा रहे हैं तो तेल के माध्यम से जो कुछ पौष्टिकता हमें मिलनी चाहिए वो मिल नहीं रहा है |" आप बोलेंगे कि तेल के माध्यम से हमें क्या मिल रहा ? मैं बता दूँ कि हमको शुद्ध तेल से मिलता है HDL (High Density Lipoprotein), ये तेलों से ही आता है हमारे शरीर में, वैसे तो ये लीवर में बनता है लेकिन शुद्ध तेल खाएं तब | तो आप शुद्ध तेल खाएं तो आपका HDL अच्छा रहेगा और जीवन भर ह्रदय रोगों की सम्भावना से आप दूर रहेंगे |
अभी भारत के बाजार में सबसे ज्यादा विदेशी तेल बिक रहा है | मलेशिया नामक एक छोटा सा देश है हमारे पड़ोस में, वहां का एक तेल है जिसे पामोलिन तेल कहा जाता है, हम उसे पाम तेल के नाम से जानते हैं, वो अभी भारत के बाजार में सबसे ज्यादा बिक रहा है, एक-दो टन नहीं, लाखो-करोड़ों टन भारत आ रहा है और अन्य तेलों में मिलावट कर के भारत के बाजार में बेचा जा रहा है | 7 -8 वर्ष पहले भारत में ऐसा कानून था कि पाम तेल किसी दुसरे तेल में मिला के नहीं बेचा जा सकता था लेकिन GATT समझौता और WTO के दबाव में अब कानून ऐसा है कि पाम तेल किसी भी तेल में मिला के बेचा जा सकता है | भारत के बाजार से आप किसी भी नाम का डब्बा बंद तेल ले आइये, रिफाइन तेल और डबल रिफाइन तेल के नाम से जो भी तेल बाजार में मिल रहा है वो पामोलिन तेल है | और जो पाम तेल खायेगा, मैं स्टाम्प पेपर पर लिख कर देने को तैयार हूँ कि वो ह्रदय सम्बन्धी बिमारियों से मरेगा | क्योंकि पाम तेल के बारे में सारी दुनिया के रिसर्च बताते हैं कि पाम तेल में सबसे ज्यादा ट्रांस-फैट है और ट्रांस-फैट वो फैट हैं जो शरीर में कभी dissolve नहीं होते हैं, किसी भी तापमान पर dissolve नहीं होते और ट्रांस फैट जब शरीर में dissolve नहीं होता है तो वो बढ़ता जाता है और तभी हृदयघात होता है, ब्रेन हैमरेज होता है और आदमी पैरालिसिस का शिकार होता है, डाईबिटिज होता है, ब्लड प्रेशर की शिकायत होती है |
आप सरसो, तिल, मूंगफ़ली आदि का तेल ही इस्तेमाल करे
अगर आप पूरी पोस्ट नही पड़ सकते तो यहाँ क्लिक करें :
http://www.youtube.com/
No comments:
Post a Comment