ये उस ज़माने की बात है जब पर्शिया को इरान बनाया जा रहा था. सभी वाड्राओं-वढ़ेराओं-वाडियाओं के पास खुमैनी-खान बन जाने या मृत्यु को प्राप्त हो जाने का विकल्प ही शेष बचा था. शान्ति के मज़हब वाले अंततः उस समूचे देश में 'शान्ति' स्थापित करने में सफल रहे थे. सूर्य की उपासना करने वाले लोग अब चांद के शागिर्द हो गए थे. लेकिन कुछ लोग ऐसे भी थे जिन्होंने एक अलग विकल्प चुना था. वे भाग चले पूरब की ओर जहां उनके देवता सबसे पहले उगते हैं. पर्शिया से सूरत पहुचे वे. वहां के तब के महाराजा के दरबार में शरण मांगने पर महाराजा ने असमर्थता व्यक्त की. उन्होंने कहा कि हमारे छोटे से राज्य में जनसान्खिकीय और सांस्कृतिक असंतुलन हो सकता है. पारसी समूह के मुखिया ने राजा से एक गिलास पानी और ज़रा शक्कर की भी मांग की. पानी में शक्कर घोल दिया और राजा से कहा कि जिस तरह मुट्ठी भर शक्कर से पानी का कुछ नहीं बिगड़ा और वो मीठा भी हो गया वैसे ही हम आपके जनसमूह में घुल-मिल जायेंगे. राजा मान गए.
पारसी समाज ने अपनी मान्यताओं को कायम रखते हुए भी खुद को भारत की संस्कृति के साथ एकाकार कर लिया. इस समाज के मुट्ठी भर लोग अपनी इसी शक्कराना और शुकराना प्रवृति के कारण आज भारत के सबसे अमीरों की जमात में शामिल हैं. कभी भी किसी माटी पुत्र को कोई दिक्कत इनसे हुई हो (नेस-प्रीती के बारे में यहां मत बात कीजिएगा, यह पोस्ट उसके सन्दर्भ में नहीं है) ऐसा कहीं देखने में नहीं आया. हां साहब... हिन्द महासागर की उत्ताल तरंगें आज भी ऐसे 'शक्करों' के लिए बाहें फैलाए खड़ी है. आइये और घुल मिल जाइए. बस शर्त ये कि भारत को भारत बने रहने देने में मदद करना होगा. उसे पकिस्तान-इरान नहीं बनाने दिया जाएगा. सही कह रहा हूं न?
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