ब्रह्मांड के कई ग्रहों पर मौजूद है एलियंस, पुराणों में छिपा है रहस्य
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नासा के खलोगशास्त्री केविन हैंड कहते हैं- अगले 20 वर्षों में हम यह पता लेंगे कि ब्रह्मांड में हम अकेले नहीं हैं। 2018 में पृथ्वी-सूर्य के बीच एल-2 प्वाइंट पर शक्तिशाली टेलिस्कोप स्थापित किया जाना है, जो दूसरे सूर्यों-ग्रहों की तस्वीर देगा। अमेरिका में एलियन या बिगफुट को लेकर वैज्ञानिक अध्ययन के लिए कई केंद्र काम कर रहे हैं।
ब्रह्माण्डा बहवा: सन्ति, ब्रह्माद्या अपि तत्रगा: अर्थात् ब्रह्माण्ड अनेक हैं और उन-उन ब्रह्माण्डों के ब्रह्मा आदि देवता भी अनेक हैं। देवी पुराण (63.23) के इस वाक्य से सिद्ध है कि ब्रह्माण्डों की संख्या कम नहीं है। इसलिए जैसी हमारी धरती है, जैसे इस धरती के जीव हैं, वैसे अन्यत्र भी सम्भावना है। हमारा दर्शन कहता है कि जब ईश्वर सृष्टि करना चाहता है तो परमाणुओं में क्रिया उत्पन्न हो जाती है, दो परमाणु मिलकर द्वयणुक की तथा उन दोनों से त्र्यणुक की उत्पत्ति होते-होते-असंख्य परमाणुओं के मेल से पृथ्वी की रचना होती है। स्पष्ट है, अरबों-खरबों आकाशगंगाओं के बीच महाविस्फोट वाली घटनाएं होती रही होंगी और समानान्तर ब्रह्माण्डों का निर्माण भी होता रहा होगा।
जब अनेक ब्रह्माण्ड होंगे तो हमारे जैसे जीव भी वहां होंगे ही। हां, वातावरण भौगोलिक संरचनाएं समान होने से साम्य हो, पर यह कैसे कहा जा सकता है कि जिस ब्रह्माण्ड के हम एक अंग हैं, दूसरे ब्रह्माण्ड के वासी हम से कम या अधिक विकसित हैं। जैसे हम अन्य ग्रहों के बारे में खोज कर रहे हैं, वे भी करते होंगे, लेकिन देवी पुराण के अनुसार महाकाली ने जब कहा कि पता लगाओ कि किस ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इन्द्र मेरे लोक में दर्शनार्थ आए हैं तो वे देव चकरा गए। तो हमारी क्या स्थिति होगी।
हमारे यहां धरती से लेकर सत्य तक सात लोक तथा सात पाताल- इन चौदह भुवनों की कल्पना है। सत्यलोक, ब्रह्मलोक है तो उससे ऊपर भी शिव, विष्णु के लोक हैं तथा जहां-जहां जो-जो लोक बताए गए हैं, वहां-वहां के शासक और शासित की भी बात है। फिर तो आज के विज्ञान की सम्भावनाओं को पूर्णत: नकारा हीं जा सकता या यों कहे कि आधुनिक विज्ञान की खोज भारतीय भावनाओं के करीब ही है।
सोचें, यदि पर ग्रहवासी हमसे मिल जाएं तो कितना आश्चर्य होगा, अगर वे दूसरे ग्रह के हमारे जैसे प्रबुद्ध मानव ही निकलें तो हम दोनों का सम्बन्ध स्थापित करने में कितनी कठिनाई होगी। भाव, भाषा, भोजन, रहन-सहन सबसे विलग फिर भी जैसे एकाएक कोई व्यक्ति विश्व के किसी ऐसे कोने में पहुंच जाए, जहां उसकी बात को कोई नहीं समझने वाला हो तो क्या धीरे-धीरे आपसी मेल विचारों का आदान-प्रदान नहीं हो सकता? हो सकता है, क्योंकि हमारा धर्म तो यह मानता है कि जड़-चेतन सबसे हमारा सम्बन्ध है।
चूंकि सभी ईश्वरीय रचना के अंग है, इसलिए तर्पणीय है- 'अाब्रह्म-स्तम्भ-पर्यन्तम्' अर्थात सूक्ष्म से स्थूल तक सबके अंग हम हैं और वे हमारे अंग हैं, एेसे में तथाकथित एलियन ही सही, हमारे बीच आएं और साथ रहना शुरू कर दें तो दोनों में सांस्कृतिक आदान-प्रदान और भ्रातृत्व का विकास संभव है।
पहले अमेरिका हमसे बहुत दूर था। विज्ञान ने एेसा जोड़ा कि कहां कौन क्या कर रहा है, सब जान लेते हैं। वस्तुत: 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' की भारतीय अवधारणा प्रत्येक पिण्ड में ही ब्रह्माण्ड का साक्षात्कार करती है, इसलिए हमारे अंदर भी महाविस्फोट, सृष्टि, विकास की क्रिया चलती रहती है। देव-दानवों का युद्ध, अनेक प्रतिकृतियों की उत्पत्ति भी होती रहती है। समन्वयवादी हमारी संस्कृति दुराव नहीं, लगाव को स्वीकार करती है।
ऐसे में अनेक ब्रह्माडों और परग्रहवासियों से परिचय प्राप्त हो जाए तो हमारा विकास कार्य और गतिमान हो जाएगा। फिर तो जो आज के दूर देश है, वे कल के पड़ोसी और अन्य ब्रह्माण्डीय देश अमेरिका-इंग्लैण्ड जैसे दूरस्थ हो जाएंगे, परन्तु दूरी-दूरी नहीं होती। दूरस्थोअपिन दूरस्थो यो यस्य हृदये स्थित:।
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नासा के खलोगशास्त्री केविन हैंड कहते हैं- अगले 20 वर्षों में हम यह पता लेंगे कि ब्रह्मांड में हम अकेले नहीं हैं। 2018 में पृथ्वी-सूर्य के बीच एल-2 प्वाइंट पर शक्तिशाली टेलिस्कोप स्थापित किया जाना है, जो दूसरे सूर्यों-ग्रहों की तस्वीर देगा। अमेरिका में एलियन या बिगफुट को लेकर वैज्ञानिक अध्ययन के लिए कई केंद्र काम कर रहे हैं।
ब्रह्माण्डा बहवा: सन्ति, ब्रह्माद्या अपि तत्रगा: अर्थात् ब्रह्माण्ड अनेक हैं और उन-उन ब्रह्माण्डों के ब्रह्मा आदि देवता भी अनेक हैं। देवी पुराण (63.23) के इस वाक्य से सिद्ध है कि ब्रह्माण्डों की संख्या कम नहीं है। इसलिए जैसी हमारी धरती है, जैसे इस धरती के जीव हैं, वैसे अन्यत्र भी सम्भावना है। हमारा दर्शन कहता है कि जब ईश्वर सृष्टि करना चाहता है तो परमाणुओं में क्रिया उत्पन्न हो जाती है, दो परमाणु मिलकर द्वयणुक की तथा उन दोनों से त्र्यणुक की उत्पत्ति होते-होते-असंख्य परमाणुओं के मेल से पृथ्वी की रचना होती है। स्पष्ट है, अरबों-खरबों आकाशगंगाओं के बीच महाविस्फोट वाली घटनाएं होती रही होंगी और समानान्तर ब्रह्माण्डों का निर्माण भी होता रहा होगा।
जब अनेक ब्रह्माण्ड होंगे तो हमारे जैसे जीव भी वहां होंगे ही। हां, वातावरण भौगोलिक संरचनाएं समान होने से साम्य हो, पर यह कैसे कहा जा सकता है कि जिस ब्रह्माण्ड के हम एक अंग हैं, दूसरे ब्रह्माण्ड के वासी हम से कम या अधिक विकसित हैं। जैसे हम अन्य ग्रहों के बारे में खोज कर रहे हैं, वे भी करते होंगे, लेकिन देवी पुराण के अनुसार महाकाली ने जब कहा कि पता लगाओ कि किस ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इन्द्र मेरे लोक में दर्शनार्थ आए हैं तो वे देव चकरा गए। तो हमारी क्या स्थिति होगी।
हमारे यहां धरती से लेकर सत्य तक सात लोक तथा सात पाताल- इन चौदह भुवनों की कल्पना है। सत्यलोक, ब्रह्मलोक है तो उससे ऊपर भी शिव, विष्णु के लोक हैं तथा जहां-जहां जो-जो लोक बताए गए हैं, वहां-वहां के शासक और शासित की भी बात है। फिर तो आज के विज्ञान की सम्भावनाओं को पूर्णत: नकारा हीं जा सकता या यों कहे कि आधुनिक विज्ञान की खोज भारतीय भावनाओं के करीब ही है।
सोचें, यदि पर ग्रहवासी हमसे मिल जाएं तो कितना आश्चर्य होगा, अगर वे दूसरे ग्रह के हमारे जैसे प्रबुद्ध मानव ही निकलें तो हम दोनों का सम्बन्ध स्थापित करने में कितनी कठिनाई होगी। भाव, भाषा, भोजन, रहन-सहन सबसे विलग फिर भी जैसे एकाएक कोई व्यक्ति विश्व के किसी ऐसे कोने में पहुंच जाए, जहां उसकी बात को कोई नहीं समझने वाला हो तो क्या धीरे-धीरे आपसी मेल विचारों का आदान-प्रदान नहीं हो सकता? हो सकता है, क्योंकि हमारा धर्म तो यह मानता है कि जड़-चेतन सबसे हमारा सम्बन्ध है।
चूंकि सभी ईश्वरीय रचना के अंग है, इसलिए तर्पणीय है- 'अाब्रह्म-स्तम्भ-पर्यन्तम्' अर्थात सूक्ष्म से स्थूल तक सबके अंग हम हैं और वे हमारे अंग हैं, एेसे में तथाकथित एलियन ही सही, हमारे बीच आएं और साथ रहना शुरू कर दें तो दोनों में सांस्कृतिक आदान-प्रदान और भ्रातृत्व का विकास संभव है।
पहले अमेरिका हमसे बहुत दूर था। विज्ञान ने एेसा जोड़ा कि कहां कौन क्या कर रहा है, सब जान लेते हैं। वस्तुत: 'यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे' की भारतीय अवधारणा प्रत्येक पिण्ड में ही ब्रह्माण्ड का साक्षात्कार करती है, इसलिए हमारे अंदर भी महाविस्फोट, सृष्टि, विकास की क्रिया चलती रहती है। देव-दानवों का युद्ध, अनेक प्रतिकृतियों की उत्पत्ति भी होती रहती है। समन्वयवादी हमारी संस्कृति दुराव नहीं, लगाव को स्वीकार करती है।
ऐसे में अनेक ब्रह्माडों और परग्रहवासियों से परिचय प्राप्त हो जाए तो हमारा विकास कार्य और गतिमान हो जाएगा। फिर तो जो आज के दूर देश है, वे कल के पड़ोसी और अन्य ब्रह्माण्डीय देश अमेरिका-इंग्लैण्ड जैसे दूरस्थ हो जाएंगे, परन्तु दूरी-दूरी नहीं होती। दूरस्थोअपिन दूरस्थो यो यस्य हृदये स्थित:।
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