Sunday 11 January 2015



क्या है संस्कृति, धर्म एवं कर्म ? और क्यों है "हिंदुत्व" सर्वश्रेष्ठ ?
(1) मानव द्वारा प्रश्नों के उत्तर को खोजने के क्रम में, कुछ ऐसे शब्दों का उद्भव हुआ जिनका स्पष्ट अर्थ क्या है, ये अभी भी स्पष्ट होना शेष ही है । जिन शब्दों में संस्कृति, धर्म एवं कर्म तीन ऐसे प्रमुख शब्द हैं जिनका तो, अर्थ के आभाव में अस्तित्व ही संकट में पड़ गया है । कहने का तात्पर्य, यदि इन तीनों शब्दों का स्पष्ट एवं एकमात्र अर्थ, हमारे समक्ष ठोस रूप में प्रस्तुत होता तो क्या, हमारे समक्ष प्रस्तुत तथाकथित विभिन्न प्रकार के संस्कृति, धर्म और कर्मों का विशाल अम्बार होता ? और क्या अर्थ के अभाव में आपसी खींचा-तानी के कारण, इन तीनों का अस्तित्व संकट में होता ? ये एक सोचने का विषय है । मेरे अनुसार तो कदापि नहीं होता । आपके अनुसार ?
अतः एक सामान्य दृष्टि के आधार पर, इन तीनों ही शब्दों के ठोस अर्थ को खोजने के क्रम में, आपके समक्ष प्रस्तुत है, एक तर्क पूर्ण नवीनतम शोध । जिसके माध्यम से मात्र इन तीनों शब्दों का अर्थ ही स्पष्ट नहीं होगा, अपितु “हिंदुत्व ही सर्वश्रेष्ठ है”, ये भी निर्विवाद रूप से प्रमाणित होगा । जो इस प्रकार है :-
(2) हममें क्रमशः चेतना और ज्ञान आने के उपरांत, हमारे जीवन का सबसे चुनौतीपूर्ण एवं सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न यदि कोई हैं तो वो है -
“मैं कौन हूँ या हम कौन हैं और हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है” ।
क्योंकि ये वही अनुत्तरित प्रश्न हैं, जिनसे टकरा- टकराकर ही हम, क्रमानुसार पहले अकर्ता से कर्ता बने और फिर कर्ता से सर्वश्रेष्ठ कर्ता अर्थात जीवों में श्रेष्ठ जीव मानव बने ।
अतः इन्हीं अनुत्तरित प्रश्नों को शोध का आधार बनाते हुए, एक समीकरण के रूप में, प्रथम बार प्रस्तुत है संस्कृति, धर्म एवं कर्म का वास्तविक अर्थ । जो निम्नांकित है -
संस्कृति (अर्थात संस्कार में मिला वो ज्ञान, जिसके आधार पर हम, जीवन में आगे की ओर सोचना आरम्भ करते हैं), जहाँ 'स्वयं के अस्तित्व’ को समझने का उत्तरोत्तर (लगातार) किया गया "प्रयास” है (क्योंकि, किसी भी विषय पर सोचना प्रयास ही है) तो वहीं, धर्म उस प्रयास को सफल बनाने की “विधि” है (जिसे जानना अभी भी शेष है), और उस विधि को खोजने हेतु किया गया अनुसन्धान (प्रयोग एवं शोध) ही, “कर्म” है ।
(3) अतः उपरोक्त “समीकरण” के आधार पर -
यदि हिन्दू, मुस्लिम, ईसाई, आदि समस्त संस्कृतियों की आपस में सूक्ष्म एवं निरपेक्ष रूप से तुलना की जाये तो, प्रमाण के आधार पर निष्कर्ष रूप में यही स्पष्ट होकर हमारे समक्ष आता है कि, इन सभी संस्कृतियों में यदि कोई सर्वश्रेष्ठ संस्कृति है तो वो है हिन्दू संस्कृति, नाकि कोई अन्य ।
क्योंकि, हिन्दू संस्कृति ही एकमात्र ऐसी विशिष्ट संस्कृति है जिसने, “मैं कौन हूँ या हम कौन हैं और हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है” प्रश्न का स्पष्ट उत्तर प्राप्त करने के लिए सर्वप्रथम विधिवत अनुसन्धान (कर्म) *आरम्भ* किया । *आरम्भ* शब्द का प्रयोग यहाँ इसलिए किया गया है क्योंकि, अन्य कर्म तो मात्र प्राकृतिक एवं जीवन को व्यतीत करने वाले कर्म हैं, नाकि 'स्वयं के अस्तित्व' को समझने से सम्बन्धी कर्म ।
(4) जिसका (अनुसंधानों का) ठोस प्रमाण है कि, ‘स्वयं के अस्तित्व और हमारे जीवन का उद्देश्य क्या है’ को समझने के प्रयास में, हिन्दु वैज्ञानिकों ने (तथाकथित ऋषि, मुनि, तपस्वी, आदि ने), उत्तरोतर विधिवत अनुसन्धान करते - करते, 1 या 2 नहीं, अपितु 33 कोटि भिन्न-भिन्न देवी-देवताओं को खोज निकाला । यही नहीं, ‘स्वयं के अस्तित्व’ को समझने के प्रयास में, किसी ने परमात्मा के रूप में विष्णु को खोज निकला, तो किसी ने शिव को, तो किसी ने कृष्ण को, तो किसी ने निराकार परब्रम्ह तक को खोज निकाला । जिनके अनुसंधानों का प्रमाण हमें, नियमित जप, तप, मन्त्र, ध्यान, यज्ञ, आदि अनेक रूपों में, हिन्दू धार्मिक *पवित्र* पुस्तकों के माध्यम से विस्तारपूर्वक मिलता है । *पवित्र* इसलिए क्योंकि ये पुस्तकें हिन्दु वैज्ञानिकों द्वारा, अपनी-अपनी सोच एवं परिस्थिति के आधार पर कालान्तर में किये गए भिन्न-भिन्न अनुसंधानों का !दुर्लभ संग्रह! हैं, नाकि सामान्य पुस्तकें । और साथ ही साथ इन अनुसन्धानों का ही परिणाम है कि, आगे चलकर एक ऐसे नवीन प्रणाली का उद्भव हुआ, जिसे आज हम ‘आधुनिक विज्ञान’ कहते हैं । जिस पर कोई एक नहीं, अपितु विश्व की समस्त संस्कृतियाँ आधारित होने के लिए विवश हैं ।
(5) जबकि, अन्य किसी भी संस्कृति में, वैज्ञानिक पद्यति (विधिवत अनुसन्धान) का प्राविधान, है ही नहीं । जिसका मुख्य कारण है कि, इन संस्कृति वालों नें कभी भी ‘स्वयं के अस्तित्व’ को समझने का प्रयास किया ही नहीं । जिसका ठोस प्रमाण है इनके तथाकथित धर्म-पुस्तक, जिनमें ना तो किसी मानव अनुसंधनकर्ता का वर्णन है और नाहीं किसी भी अनुसन्धान का । जिसकी पुष्टि आप, इनके धर्म-पुस्तकों का अध्ययन करके, कर सकते हैं ।
(6) अतः निष्कर्ष रूप में देखा जाए तो हिन्दू संस्कृति उद्देश्यपूर्ण होने के साथ ही साथ, एकमात्र ऐसी संस्कृति (विचारधारा) है जिसमें, धर्म रूपी विधि को खोजने हेतु कर्म रूपी अनुसन्धान का पूर्ण रूप से समावेश है । जबकि, अन्य संस्कृतियाँ मात्र धर्म एवं कर्म से ही रहित नहीं, अपितु निरुद्देश्य होने के साथ ही साथ समाज को पूर्णतया दिग-भ्रमित करने वाली भी हैं । प्रमाण के लिए - कुरान के अनुसार, खुदा कयामत के दिन कब्र से निकाल कर सभी मुर्दों को जीवित कर देंगे, जिनकी कभी भी मृत्यु नहीं होगी और बाइबिल के अनुसार, यीशु एक दिन मृत्यु को ही मारकर सबको अमर कर देंगे ।
(7) और अंत में, हिन्दू संस्कृति का मूल-स्वभाव व्यवसायिक ना होने के कारण ही, हिन्दू समुदाय की संख्या में अनुपाततः उतनी वृद्धि नहीं हो पायी जितनी कि, अन्य संस्कृतियों में हुई । क्योंकि, हिन्दू संस्कृति (विचारधारा) ने जहाँ एक तरफ “वैज्ञानिक पद्यति” में विश्वास व्यक्त किया तो वहीं दूसरी तरफ, अन्य संस्कृतियों का स्वभाव उत्पत्ति के समय से ही उद्देश्यहीन होने के कारण, व्यवसायी के रूप में मात्र अपनी संख्या बढ़ाना, अपना वर्चस्व सिद्ध करना, किसी भी मूल्य पर जीवन व्यतीत करना और साथ ही साथ अन्य सभी संस्कृतियों को समूल नष्ट करना ही रहा है ।
जिसका दुष-परिणाम ही है कि सम्पूर्ण विश्व, विनाश की ओर निरंतर बढ़ता ही जा रहा है और हम भी उनके दुष-प्रभाव में आकर, उनको उद्देश्यपूर्ण पथ पर लाने के स्थान पर, अपनी क्षमता (संस्कृति, विचारधारा) को भूलकर, स्वयं उनके ही निरुद्देशिय जीवन-पथ पर चलने के लिए विवश हो गए हैं ।

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