Thursday 11 July 2013

सेना के अध्यक्ष को अपमानित करके

सेना के अध्यक्ष को अपमानित करके देश की सेना को कमजोर किया गया.....

आई बी के अधिकारियों को निशाने पर ले कर देश की खुफियातंत्र को ध्वस्त् इया गया....

देश के प्रमाणित सर्वश्रेष्ठ सामाजिक संगठन राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ को आतंक वादी बता कर देश की सामाजिक व्यवस्था में असंतोष पैदा किया गया......

देश के उद्योग धंधों को चौपट करने के लिए एफ डी आई आमंत्रण जैसे षड्यंत्र रचे गए.....

आखिर ये सब कुकर्म करने के पीछे देश की सत्ता का मकसद क्या है ??

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देश की सबसे बड़ी न्यूज मैगजीन 'इंडिया टुडे' की रिपोर्ट:-
शहीदों का मजहब देखकर मिलता है मुआवजा प्रतापगढ़ की तहसील कुंडा में बदमाशों के हाथों मारे गए ...
डिप्टी एसपी जिया उल हक के परिवारको मिला मुआवजा=50 लाख रु, इलाहाबाद के बारा थाना प्रभारी 38 वर्षीय आर.पी.द्विवेदी की बदमाशों द्वारा गोलीमारकर हत्या. मुआवजा =10 लाख रु......

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दीक्षांत समारोह की पहचान बन चुका काले रंग का लबादा (रोब) अब आईआईटी-बीएचयू में नहीं दिखायी देगा. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) परिसर में मौजूद इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्‍नोलॉजी (आइआइटी) बुधवार 10 जुलाई को होने वाले दीक्षांत समारोह में एक नई शुरुआत करने जा रहा है.

आइआइटी प्रशासन ने दीक्षांत समारोह को पूरी तरह से इंडियन लुक देने के लिए डिग्री लेने वाले सभी छात्रों के लिए एक खास ड्रेस कोड तय किया है. इसके मुताबिक छात्र सफेद रंग की धोती या पायजामे के साथ क्रीम रंग का कुर्ता पहनेंगे. वहीं दूसरी ओर छात्राएं सफेद रंग की सलवार के साथ क्रीम रंग का कुर्ता पहनेंगी. यही नहीं आईआईटी प्रशासन डिग्री लेने वाले सभी छात्र-छात्राओं के लिए अंगवस्त्रम की भी व्यवस्था करेगा.

अंगवस्त्रम को ही आईआईटी-बीएचयू ने अपना नये लोगों में भी शामिल किया है. दीक्षांत समारोह के मुख्य अतिथि पूर्व राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम हैं. 2009 में लखनऊ के अंबेडकर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में डॉ. कलाम ने दीक्षांत समारोहों में काला लबादा ओढक़र डिग्री लेने की परंपरा को गुलामी का प्रतीक बताया था.

आईआईटी-बीएचयू के निदेशक प्रो. राजीव सेंगल बताते हैं, ‘दीक्षांत समारोह में भारतीय संस्कृति की झलक दिखाने के लिए नया ड्रेस कोड लागू किया गया है. इससे छात्रों में यह संदेश भी जाएगा कि उनकी उपलब्धि चाहे कितनी ही बड़ी क्यों न हो, उन्हें अपनी संस्कृति का साथ नहीं छोडना चाहिए.

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घटना है वर्ष १९६० की। स्थान था यूरोप का भव्य ऐतिहासिक नगर तथा इटली की राजधानी रोम। सारे विश्व की निगाहें २५ अगस्त से ११ सितंबर तक होने वाले ओलंपिक खेलों पर टिकी हुई थीं। इन्हीं ओलंपिक खेलों में एक बीस वर्षीय अश्वेत बालिका भी भाग ले रही थी। वह इतनी तेज़ दौड़ी, इतनी तेज़ दौड़ी कि १९६० के ओलंपिक मुक़ाबलों में तीन स्वर्ण पदक जीत कर दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बन गई।

रोम ओलंपिक में लोग ८३ देशों के ५३४६ खिलाड़ियों में इस बीस वर्षीय बालिका का असाधारण पराक्रम देखने के लिए इसलिए उत्सुक नहीं थे कि विल्मा रुडोल्फ नामक यह बालिका अश्वेत थी अपितु यह वह बालिका थी जिसे चार वर्ष की आयु में डबल निमोनिया और काला बुखार होने से पोलियो हो गया और फलस्वरूप उसे पैरों में ब्रेस पहननी पड़ी। विल्मा रुडोल्फ़ ग्यारह वर्ष की उम्र तक चल-फिर भी नहीं सकती थी लेकिन उसने एक सपना पाल रखा था कि उसे दुनिया की सबसे तेज़ धाविका बनना है। उस सपने को यथार्थ में परिवर्तित होता देखने वे लिए ही इतने उत्सुक थे पूरी दुनिया वे लोग और खेल-प्रेमी।

डॉक्टर के मना करने के बावजूद विल्मा रुडोल्फ़ ने अपने पैरों की ब्रेस उतार फेंकी और स्वयं को मानसिक रूप से तैयार कर अभ्यास में जुट गई। अपने सपने को मन में प्रगाढ़ किए हुए वह निरंतर अभ्यास करती रही। उसने अपने आत्मविश्वास को इतना ऊँचा कर लिया कि असंभव-सी बात पूरी कर दिखलाई। एक साथ तीन स्वर्ण पदक हासिल कर दिखाए। सच यदि व्यक्ति में पूर्ण आत्मविश्वास है तो शारीरिक विकलांगता भी उसकी राह में बाधा नहीं बन सकती।

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