Wednesday 7 February 2018

यह_शिक्षा_तो_बेरोजगारी_पैदा_करेगी_ही_इसे_बदलना_होगा!

श्रेष्ठ 100 विश्वविद्यालयों की सूची में भारत का एक भी नाम शामिल नहीं हो सका है।

बच्चे कौनसे विषय पढ़ते हैं ?
इतिहास, राजनीति शास्त्र और हिंदी साहित्य.
और इन विषयों के ज्ञान की आज के राजस्थानी समाज और बाजार में मांग नहीं है. और जब मांग नहीं है तो इस ज्ञान को अर्जित किये बच्चे बेरोजगार ही रहेंगे न. सीधा गणित है. केवल सरकारी सेवाओं या निजी शिक्षण संस्थाओं में ऐसे कितने युवाओं को हम प्रवेश दे सकते हैं. नतीजा यह होता है कि बड़ी संख्या में ये युवा बेरोजगारी का कलंक लिए घूमते हैं. कहने को पढ़े लिखे हैं और मजदूरी अब करना उन्हें रास नहीं आता है पर ज्ञान के बाजार में उनको कोई योग्यतानुसार काम देने वाला नहीं है. युवाओं को पूछना चाहिए कि जब इस ज्ञान से कोई काम या रोजगार नहीं मिल सकता तो इन्हें पढ़ाकर हमारा समय और ऊर्जा क्यों खराब की.

गलती किसकी है ? गलती युवाओं की नहीं है, न शिक्षकों की. गलती है समाज की, इसके शासन की, जिसने अपने बच्चों के लिए ‘उचित’ शिक्षा व्यवस्था की रचना ही नहीं की है. मेकाले की उन्नीसवीं सदी में रचित व्यवस्था को हम आज भी ढो रहे हैं. उनको दोष भी दे रहे हैं. परन्तु सत्तर वर्षों की देशी सत्ता ने आज तक इस व्यवस्था को बदलने का कोई गंभीर प्रयास नहीं किया है. केवल लीपापोती चल रही है, यह पाठ हटा दो, यह जोड़ दो, यह परीक्षा यूं ले लो, यूं ले लो. इससे ज्यादा कभी कुछ नहीं हुआ है. मैंने सभी नीतियां गहराई से पढ़ी हैं. सब रद्दी में फेंकने वाले कागजों से भरी पड़ी हैं. सत्ता में जमे ‘राजनेता’ तो ‘राज’ के मजे और नशे से बाहर नहीं निकला रहे हैं, नीतियां और योजनाएं बनाने का समय किसके पास हैं. ऐसे में कुछ अफसर कभी कभार अनमने भाव से कुछ कागज घिस लेते हैं, जिन्हें नई नीति कहकर कुछ साल काम चलाया जाता है.

ऐसे में अभिनव राजस्थान के लिए हमने एक व्यापक नई शिक्षा व्यवस्था की रचना की है. इस व्यवस्था में पढ़ा युवा इतने आत्मविश्वास से भरा होगा, अपने ज्ञान के दम पर, की वह बेरोजगारी शब्द से ही परहेज करेगा. वह कॉलेज से निकलते ही कोई कोई न उपक्रम शुरू करने में लग जायेगा. तभी तो राजस्थान का असली विकास शुरू होगा. राजस्थान में एक नए युग का सूत्रपात होगा. बिना युवा की सक्रिय भागीदारी के कोई भी समाज या देश कैसे समृद्ध हो सकता है ?

हमारी नई शिक्षा व्यवस्था में स्कूलों और कॉलेजों की रचना नए ढंग से है, पाठ्यक्रम नए समय के अनुसार है. सब कुछ व्यवहारिक, व्यापक अध्ययन, अनुभव और चर्चा के बाद. हवाई जुमले नहीं. साथ ही नई शिक्षा के द्वारा रचित ज्ञान के अनुसार खेती, उद्योग, बाजार की रचना भी अभिनव राजस्थान में होगी. हम मानते हैं कि समाज के सभी क्षेत्रों की tuning बिठाये बगौर सार्थक और स्थाई परिवर्तन नहीं आते हैं. शिक्षा के क्षेत्र में परिवर्तन हो और खेती, उद्योग व बाजार उसके अनुकूल न हो तो फिर निराशा होती है क्योंकि फिर ज्ञान और उसके उपयोग में समन्वय नहीं हो पाता है.।

दिल्ली के जवाहर लाल नेहरु विश्वविद्यालय की इस घटना के बाद एक बार फिर से भारतीय शिक्षा नीति के बारे में अध्ययन करने की आवश्यकता है। शिक्षा ग्रहण को प्राय: दो भागों में बांटा जा सकता है। पहली किताबी शिक्षा तो दूसरी व्यावहारिक शिक्षा। किताबी शिक्षा के लिए आज भारत के शिक्षालय समर्पित दिखाई देते हैं।

देश का हर निजी विद्यालय लगभग विदेशी शिक्षा से प्रभावित होकर अपने संस्थान में विदेश से प्रेरित शिक्षा देने का कार्य कर रहे हैं। जिसमें अंगे्रजी भाषा की प्रधानता तो है ही साथ ही अंगे्रजी संस्कारों की भी बहुलता का दर्शन कराया जाता है। कौन नहीं जानता देश के ईसाई शिक्षा संस्थानों को, जिनमें प्राय: बच्चों को भारतीयता से दूर रखने का प्रयास किया जाता है। कई शिक्षा संस्थानों में इस बात के भी प्रमाण मिले हैं कि छात्रों को केवल ईसाई धर्म ही श्रेष्ठ है, इस प्रकार की शिक्षा दी जाती है। इन संस्थानों में प्रमुख पदों पर केवल ईसाई ही रहते हैं। चर्च के रूप में संचालित किए जाने वाले ये ईसाई शिक्षा केन्द्र आज भारत को नकारने जैसे ही कार्य करते दिखाई देते हैं। वहां भारत माता की जय बोलने पर प्रतिबंध है। कई बार छात्रों को भारत माता की जय बोलने पर दण्डित किया जाता है। जिस शिक्षा के संस्थानों में उस देश के संस्कार नहीं होते, उस संस्थान की शिक्षा उस देश के विरोध में की गई कार्यवाही का ही हिस्सा माना जा सकता है।

वर्तमान में हमारे देश के सरकारी शिक्षण संस्थानों की हालत का अध्ययन करने से पता चलता है कि इन संस्थानों में छात्रों की उपस्थिति लगातार गिरती जा रही है। इसके पीछे का मूल कारण हमारी वर्तमान शिक्षा नीति है। उत्तरप्रदेश के एक सरकारी विद्यालय से निजी विद्यालय में प्रवेश लेने वाले एक छात्र का कहना है कि सरकारी विद्यालय में जो गणवेश है वह ठीक नहीं है। खाकी गणवेश पहनना हमें अच्छा नहीं लगता, इसलिए ही हमने अच्छे विद्यालय में प्रवेश लिया है। इसके अलावा सरकारी विद्यालयों में पढ़ाने वाले शिक्षक कितने समय उपस्थित रहते हैं, इस बात ने भी सरकारी शिक्षण संस्थानों की साख पर सवाल उपस्थित किए हैं। वास्तव में शिक्षा के स्वरूप में बदलाव की आवश्यकता आज महसूस की जाने लगी है। समूचे देश में शिक्षा का भारतीयकरण होना चाहिए। यह भारत देश का दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि शिक्षा के भारतीयकरण को भगवाकरण का नाम दे दिया जाता है। वास्तव में भारतीयकरण और भगवाकरण में बहुत अंतर है। भारतीयकरण शिक्षा का वास्तविक अर्थ यही है कि भारत से जुड़ी शिक्षा छात्रों को प्रदान की जाए। भारतीय मूल्यों के साथ रोजगार परक शिक्षा सभी को देना होगी, तभी देश से बेरोजगारी जैसी समस्या का भी निर्मूलन हो सकेगा, साथ में अन्य क्षेत्रों में भी विकास तेजी से नजर आएगा। हमें पहले यह समझना होगा कि शिक्षा किसलिए जरूरी है, क्या केवल साक्षर होने या नौकरी के लिए पढ़ाई की जानी चाहिए अथवा इसके और भी गहरे मायने हैं? विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय वह केंद्र होते हैं जहां विद्यार्थी को वैचारिक स्तर पर गढऩे का कार्य किया जाता है। सही बात यही है कि यदि प्रत्येक शिक्षण संस्थान के सभी प्रमुख अंग शिक्षक, शिक्षार्थी और गैर शैक्षणिक कर्मचारी अपने दायित्वों का निर्वहन सही तरीके से ईमानदार होकर करने लगें, तो भारत में शिक्षा की साख पर उत्पन्न होते खतरे से आसानी से निपटा जा सकता है। इन तीनों का संपूर्ण समर्पण समाज और सरकार दोनों को प्रेरित करने के साथ जहां जरूरत होगी, वहां बाध्य भी करेगा कि क्यों न इस बदहाल तस्वीर को बदला जाए, जितना संभव हो उतना अधिक आर्थिक व अन्य सहयोग देश की शिक्षण संस्थाओं को दिया जाए। अगर सही शिक्षा नीति अमल में लाई गई तो सरकारी और निजी संस्थानों के बीच की दूरी कम होगी। विद्यार्थी सरकारी तंत्र की व्यवस्था में ही विश्व स्तर की शिक्षा ग्रहण कर सकेंगे। पुरातन कालीन भारत देश में शिक्षा के स्तर की बात की जाए तो प्राय: यह चित्र दिखाई देता है कि भारत वर्ष की शिक्षा के प्रति विश्व के सभी देशों में एक आदर भाव था। विश्व के कई देशों के नागरिक भारत के शिक्षालयों में उच्च शिक्षा ग्रहण करने के लिए आते थे। लेकिन आज के भारत के युवा विदेश में पढ़ाई करने के लिए उतावले होते जा रहे हैं, इसे हमारी शिक्षा नीति का दुष्परिणाम ही कहा जाएगा। इस सब का परिणाम यह है कि भारतीय छात्रों का उत्तम किस्म की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए विदेशों के प्रति आकर्षण निरंतर बढ़ता जा रहा है।

शिक्षा में सुधार की जिम्मेवारी केवल सरकार ही नहीं, बल्कि समाज की भी है। समाज यदि शिक्षकों को सम्मान देगा तो निश्चित रूप से बच्चे संस्कारित होंगे। इसके अलावा भारत के शिक्षकों से भी इसी प्रकार की अपेक्षा की जाती रही है कि वे भी भारत के भविष्य को सुंदर और सुखमय बनाने के नजरिए से ही शिक्षा प्रदान करने की ओर प्रवृत हों। हमारे देश में शिक्षकों के बारे में बहुत ही सुंदर अवधारणा है कि शिक्षक ही संस्कारित और सभ्य समाज का निर्माण कर सकता है। इसलिए शिक्षकों को अपनी भूमिका में सुधार करना होगा और भारत के उत्थान के रास्ते पर छात्रों को लक जाने का मार्ग तैयार करना होगा।
साभार
Ashok Kumar Chaudhary

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