Friday 9 February 2018



म्यंमार में फाँसी चढ़े थे क्रांतिवीर सोहनलाल पाठक ..लेकिन नहीं मिली उन्हें इतिहास में जगह


भारत की स्वतन्त्रता के लिए देश ही नहीं विदेशों में भी प्रयत्न करते हुए अनेक वीरों ने बलिदान दिये हैं। सोहनलाल पाठक इन्हीं में से एक थे। उनका जन्म पंजाब के अमृतसर जिले के पट्टी गाँव में सात जनवरी, 1883 को श्री चंदाराम के घर में हुआ था। पढ़ने में तेज होने के कारण उन्हें कक्षा पाँच से मिडिल तक छात्रवृतछात्रवृत्ति मिली थी। मिडिल उत्तीर्ण कर उन्होंने नहर विभाग में नौकरी कर ली। फिर और पढ़ने की इच्छा हुई, तो नौकरी छोड़ दी। नार्मल परीक्षा उत्तीर्ण कर वे लाहौर के डी.ए.वी. हाईस्कूल में पढ़ाने लगे।एक बार विद्यालय में जमालुद्दीन खलीफा नामक निरीक्षक आया। उसने बच्चों से कोई गीत सुनवाने को कहा। देश और धर्म के प्रेमी पाठक जी ने एक छात्र से वीर हकीकत के बलिदान वाला गीत सुनवा दिया। इससे वह बहुत नाराज हुआ। इन्हीं दिनों पाठक जी का सम्पर्क स्वतन्त्रता सेनानी लाला हरदयाल से हुआ। वे उनसे प्रायः मिलने लगेइस पर विद्यालय के प्रधानाचार्य ने उनसे कहा कि यदि वे हरदयाल जी से सम्पर्क रखेंगे, तो उन्हें निकाल दिया जाएगा। यह वातावरण देखकर उन्होंने स्वयं ही नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।जब लाला लाजपतराय जी को यह पता लगा, तो उन्होंने सोहनलाल पाठक को ब्रह्मचारी आश्रम में नियुक्ति दे दी। पाठक जी के एक मित्र सरदार ज्ञानसिंह बैंकाक में थे। उन्होंने किराया भेजकर पाठक जी को भी वहीं बुला लिया। दोनों मिलकर वहाँ भारत की स्वतन्त्रता की अलख जगाने लगे; पर वहाँ की सरकार अंग्रेजों को नाराज नहीं कनहीं करना चाहती थी, अतः पाठक जी अमरीका जाकर गदर पार्टी में काम करने लगे। इससे पूर्व वे हांगकांग गये तथा वहाँ एक विद्यालय में काम किया। विद्यालय में पढ़ाते हुए भी वे छात्रों के बीच प्रायः देश की स्वतन्त्रता की बातें करते रहते थे।हांगकांग से वे मनीला चले गये और वहाँ बन्दूक चलाना सीखा। अमरीका में वे लाला हरदयाल और भाई परमानन्द के साथ काम करते थे। एक बार दल के निर्णय के अनुसार उन्हें बर्मा होकर भारत लौटने को कहा गया। बैंकाक आकर उन्होंने सरदार बुढ्डा सिंह और बाबू अमरसिंह के साथ सैनिक छावनियों में सम्पर्क किया। वे भारतीय सैनिकोंसे कहते थे कि जान ही देनी है, तो अपने देश के लिए दो। जिन्होंने हमें गुलाम बनाया है, जो हमारे देश के नागरिकों पर अत्याचार कर रहे हैं, उनके लिए प्राण क्यों देते हो ? इससे छावनियों का वातावरण बदलने लगा।पाठक जी ने स्याम में पक्कों नामक स्थान पर एक सम्मेलन बुलाया। वहां से एक कार्यकर्ता को उन्होंने चीन के चिपिनटन नामक स्थान पर भेजा, जहाँ जर्मन अधिकारी 200 भारतीय सैनिकों को बर्मा पर आक्रमण के लिए प्रशिक्षित कर रहे थे। पाठक जी वस्तुतः किसी गुप्त एवं लम्बी योजना पर काम कर रहे थे; पर एक मुखबिर ने उन्हें पकड़वा दिया। उस समय उनके पास तीन रिवाल्वर तथा 250 कारतूस थे। उन्हें मांडले जेल भेज दिया गया। स्वाभिमानी पाठक जी जेल में बड़े से बड़े अधिकारी के आने पर भी खड़े नहीं होते थे।अत्याचारी ब्रिटिश शासन विरोधी साहित्य छापने तथा विद्रोह भड़काने के आरोप में उन पर मुकदमा चला। पाठक जी को सबसे खतरनाक समझकर 10 फरवरी, 1916 को मातृभूमि से दूर बर्मा की मांडले जेल में फाँसी दे दी गयी। आज उस अमर बलिदानी को उनके बलिदान दिवस पर सुदर्शन परिवार शत शत नमन करता है और उनकी गौरवगाथा को सदा के लसदा के लिए अमर रखने का संकल्प भी दोहराता है ....

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