बुतशिकन यानी मूर्तिभंजक होना कुछ ही शताब्दी पहले तक उपाधि हुआ करती थी। इसी उपाधि को धारण करने के लिए कश्मीर का मार्तंड मंदिर भी तोड़ा गया था। वहां कोई खजाना नहीं दबा था, लेकिन मंदिर परिसर में इतनी मूर्तियाँ थीं कि उन्हें तोड़ने में दो साल के लगभग का वक्त लग गया था। जिन्होंने इस मंदिर का नाम नहीं सुना होगा उन्हें बता दें कि “हैदर” फिल्म में मुख्य कलाकार इसी मंदिर के अवशेषों में शैतानी नृत्य करता दिखाया जाता है।
आधुनिक भारत के पिछले सौ साल का इतिहास पलटें तो क्रांतिकारियों के नाम पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस का नाम भी याद आ ही जाता है। मई 1939 में उन्होंने कांग्रेस के अन्दर ही “फॉरवर्ड ब्लाक” की स्थापना कर ली थी और इसी साल सितम्बर में ब्रिटिश उपनिवेशवादियों की जर्मनी की समाजवादी, मजदूरों की पार्टी वाली सरकार यानि नाजियों से युद्ध की खबर भी आ गई थी। कायर कांग्रेसियों की राय से इतर, नेताजी बोस ने तय किया कि ये ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का शासन उखाड़ फेंकने का सही मौका है।
लिहाजा उनकी “यूथ ब्रिगेड” ने अपना आन्दोलन शुरू भी कर दिया। जुलाई 1940 में बोस के अनुयायियों ने ब्रिटिश उपनिवेशवादियों के विजय का प्रतीक कलकत्ता स्थित हालवेट स्तम्भ नेस्तोनाबूद कर दिया। मंदिर ध्वंस के औरंगजेबी तरीके इस्तेमाल करते हुए सुभाष के स्वयंसेवक उसकी नींव की एक-एक ईंट उखाड़ ले गये। दोबारा अपने अवशेषों से उसे फिर से बनाया जा सके इसकी भी कोई संभावना नहीं छोड़ी गई थी। उस दौर के कलकत्ता में शुरू हो चुका ये प्रतीकों के ध्वंस का काम कभी रुका भी नहीं।
कॉमरेड इसे लगातार जारी रखे रहे। नक्सली चारु मजुमदार के नाम पर मनाये जाने वाले “चारु मजूमदार पखवाड़े” में कॉमरेड जोर शोर से मूर्तियाँ तोड़ने का काम करते हैं। अक्सर इसमें सर कलम करने के प्रतीक जैसा, मूर्ती का सर तोड़ दिया जाता है (आई.एस.आई.एस. से साम्य?)। इस क्रम में ईश्वरचंद विद्यासागर जैसों की मूर्ती तोड़ी गई है और सुरक्षा के लिहाज से श्यामबाजार की नेताजी की मूर्ती और दक्षिण कोलकाता की बाघा जतिन की मूर्तियाँ भी संवेदनशील मानी जाती हैं।
कोलकाता पुलिस ऐसी मूर्तियों की कॉमरेडों से लगातार सुरक्षा करती है। इंडिया टुडे की एक खबर के मुताबिक 2015 में एक मूर्ती की सुरक्षा पर कोलकाता पुलिस के पैंतीस सौ (3500) रुपये प्रति माह का खर्च आ रहा था। सालान ये खर्च 42000 हो जाता है। कॉमरेडों के निशाने पर ऐसी कुल 56 तोड़ी जा सकने वाली मूर्तियाँ सिर्फ कोलकाता में हैं यानि तेईस लाख बावन हज़ार का सालाना खर्च इसपर 2015 में हो रहा था। गाँधी की मूर्तियों को तोड़ने का कॉमरेडों का इतिहास रामचंद्र गुहा ने “इंडिया आफ्टर गाँधी” की प्रस्तावना में ही लिख रखा है।
बाकी एक लेनिन की मूर्ती टूटने पर जो कुहर्रम मच रहा है उसे सुनकर हमें नारा भी कॉमरेडिया ही याद आ रहा है ! एक धक्का और दो, सिर्फ लेनिन की मूर्तियाँ ही नहीं, सरकारों की लेनिनवादी नीतियों को भी धकेल कर गड्ढे में गिरा दो!
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