Wednesday, 30 May 2018

इसे कहते है असली महिला सस्क्तिकर्ण हमे अपने देश में एसी महिलायों की जरुरत है , प्रियंका चोपरा जेसी दलाल महिलाओ की नहीं
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अमेरिका से नौकरी छोड़ गांव आई, सरपंच बनी और
देश की 100 प्रभावशाली महिलाओं में बनाई जगह #भक्ति_शर्मा
मध्य प्रदेश के भोपाल जिला मुख्यालय से 20 किलोमीटर दूर बरखेड़ी अब्दुल्ला ग्राम पंचायत है। इस पंचायत की सरपंच है 28 वर्षीय भक्ति शर्मा। भक्ति के सरपंच बनने की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है। ये अमेरिका के टेक्सास मे अच्छी खासी नौकरी कर रही थी, जब गांव आई तो वहां सरपंच के चुनावो की तैयारी चल रही थी। चूंकि सीट महिला के लिए आरक्षित थी तो लोगों ने अपनी सबसे ज्यादा पढ़ी लिखी गांव की बेटी भक्ति को सरपंच बनाने के लिए भक्ति व उनके पिता से इस बारे मे बात की। और चुनाव जीतकर भक्ति ने भी खुद को साबित कर दिया।
अपने काम की बदौलत 2016 मे भक्ति देश की 100 लोकप्रिय महिलाओं मे शामिल की गई तथा देश के तत्कालीन राष्ट्रपति श्री प्रणब मुखर्जी ने उन्हें यह सम्मान प्रदान किया। भक्ति वर्तमान मे मध्य प्रदेश राज्य मे यूथ आइकन का प्रमुख चेहरा है।
सरपंच बनते ही सबसे पहला काम उन्होंने गांव में हर बेटी के जन्म पर 10 पौधे लगाना और उनकी माँ को अपनी दो महीने की तनख्वाह देने का फैसला लेकर किया।
भक्ति के सरपंच बनने के बाद ग्राम पंचायत बरखेड़ी के हर किसान को उसका मुआवजा मिला। साथ ही हर ग्रामीण का राशनकार्ड, बैंक अकाउंट, मृदा स्वास्थ्य कार्ड बनवाया तथा गांव मे 113 लोगों की पेंशन भी शुरू करवाई। इस समय पंचायत का कोई भी बच्चा कुपोषित नहीं है। महीने में दो से तीन बार फ्री में हेल्थ कैम्प लगता है।
सबकी राय से तय होते है विकास के काम
ग्राम पंचायत का कोई भी काम भक्ति अपनी मर्जी से नहीं करती हैं। गांव के विकास का खाका ग्राम सभा मे सबकी राय लेकर तैयार होता है। जब ये सरपंच बनी थीं तो इस पंचायत में महज नौ शौचालय थे अभी ये पंचायत ओडीएफ यानि खुले में शौच से मुक्त हो चुकी है।
महिलाओ पर ख़ास ध्यान
पंचायत की हर महिला निडर होकर रात के 12 बजे भी अपनी पंचायत में निकल सके भक्ति शर्मा की ऐसी कोशिश है। भक्ति का कहना है कि पंचायत की हर बैठक में महिलाएं ज्यादा शामिल हों ये मैंने पहली बैठक से ही शुरू किया। मिड डे मील समिति में आठ महिलाएं है। महिलाओं की भागीदारी पंचायत के कामों में ज्यादा से ज्यादा रहे जिससे उनकी जानकारी बढ़े और वो अपने आप को सशक्त महसूस करें
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जय श्री परशुराम

patra vishesh

आज मोदी के सत्ता संभालने के चार साल बाद जब पढ़े लिखे लोग पंचर बनाने वालों जैसी बातें करते है , तो वाकई देश की शिक्षा व्यवस्था पर दुःख होता है ।
पेट्रोल की बढ़ती कीमतों की तुलना वो मनमोहन सिंह के कार्यकाल से करते है ।
जब सरकार सब्सिडी देकर तेल के दाम नियंत्रित करती थी ।
उन्हें इससे फ़र्क़ नही पड़ता कि चीन ने देश की सीमा तक एक्सप्रेसवे बना डाले है ।
उन्हें तो सोशल मीडिया से एक उड़ती हुई तस्वीर मिली , और वो लग गए खुद को अर्थशास्त्री साबित करने में ।
देश की सीमाओं पर ये सरकार क्या काम करवा रही है , इससे उन्हें कोई राब्ता नही ।
आज अरुणाचल तक सड़को का जाल बिछा कर सरकार ने जवानों की कितनी बड़ी समस्या का हल कर दिया , ये स्वप्न में कल्पना नही की जा सकती ।
पहले इन्ही पहाड़ियों पर जवान अपने कंधों पर अपनी आर्टिलरी ढो कर चढ़ते थे ।
सेना को हाई एरियाज में #fortunar और #endeavor जैसी गाड़िया उपलब्ध करवाई जा रही है ।
मगर कुछ लोगो को तो बस 15 लाख चाहिए ।
कांग्रेस के इस देश पर शाशन करने में देश की जनता की मूढ़ता का बड़ा योगदान रहा है ।
देश की आज़ादी के 14 साल बाद 1960 में चीन अक्साई चिन के बीचोबीच से सड़क बना लेता है , और इसकी जानकारी नेहरू को चीन के प्रकाशित मानचित्र से होती है ।
और विडंबना देखिए वो फिर भी जनता को मूर्ख समझते हुए संसद में बेशर्मी से बयान देते है कि जिस जमीन पर चीन ने कब्जा किया है ,वहां तो घास का एक तिनका भी नही उगता ।
आज मोदी को शाषन के टिप्स देने वाले मनमोहन सिंह , को #पाकिस्तानी_प्रधानमंत्री#नवाज शरीफ ने सार्वजनिक रूप से देहाती औरत तक कह दिया था ।
मोदी को विरासत में वो भारत मिला था ,जिसको उसके टुटपुँजिये पड़ोसी भी अपंग समझते थे ।
#बांग्लादेश भारत के #bsf जवानों को मारकर उनकी लाश बांस में लटका कर भारत को सुपुर्द करता था ।
मगर सरकार की तरफ से bsf को संयम बरतने के निर्देश दिए जाते थे ।
आये दिन होते बम धमाके और उनमें जान गवाते लोगो की खबरे तो इतनी आम हो चुकी थी ,कि टीवी पर चलते ऐसे समाचारो में मरने वालों की संख्या ही जानने की उत्सुकता आम आदमी में बची थी ।
सरकार मुआवजा देकर अगले धमाकों के इंतज़ार करती थी ।
राज्य सरकारें केंद्र पर और केंद्र राज्यो पर जिम्मेदारी का ठीकरा फोड़ते दिखते थे ।
और सरकारे कितनी जन हितैषी थी , इसका अंदाजा #मुम्बई बम धमाकों के समय को याद करके लगा लीजियेगा ,
जब #गृहमंत्री दो घंटे में चार बार मीडिया के सामने आए और हर बार सूट बदल बदल कर ।
इस दौरान उनके साथ #रामगोपाल_वर्मा भी दिखे , जैसे ये कोई आतंकी घटना न होकर किसी फिल्म की शूटिंग लोकेशन हो ।
देश को लड़ने लायक बनाने में रातो दिन जुटे एक श्रमजीवी का सहयोग करिये , बिना आंतरिक कमियों को पूरा किये देश अपराजेय नही बन सकता ।
मैं ये नही कह रहा हूँ कि इस दौरान सब कुछ हो ही रहा है , पिछली सरकार के समय शुरू किए गए बहुत से प्रोजेक्ट बन्द भी हुए है । जिसमे निवेशकों के करोड़ो फंस गए है ।
#Ngo के माध्यम से गांव देहात के गरीब लोगों को #ईसाई बना कर उनके जीवन स्तर को सुधारने का एक #बहुउद्देश्यीय मिशन इस सरकार के कारण पूरी तरह से ठप पड़ गया है ।
और मोदी जी के रहते , रमज़ान के पाक महीने में आने वाले #जाकिर_नाइक के वो परोपकार की भावना से ओत प्रोत वीडियो देखने को नही मिले ,
जिसमे एक कम उम्र की हिन्दू लड़की कहती थी ....
मेरा नाम पूजा अग्रवाल है ,
मैं #बीएससी में #श्री_राम_कॉलेज , की छात्रा हूँ ....
मेरी सहेलिया मुझे #रमज़ान के बारे में बताती है ...क्या मैं अपनी मर्जी से इस्लाम कुबूल कर सकती हूं ...
और मंच पर लार टपकाता जाकिर नाइक कहता था .....इस्लाम तुम्हारा खैर मकदम करता है बीबी ।
साभार: #Kshiti_Pandey
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Priyanka Moradiya
मोदी से क्यूं इतनी "नफरत" क्यों ?? देखिए ..
1. नया आधार लिंक कराने से महाराष्ट्र में 1 करोड़ फर्जी गरीब गायब हो गए!
2. उत्तराखण्ड में भी कई लाख फ़र्ज़ी BPL कार्ड धारी गरीब ख़त्म हो गए !
3. तीन करोड़ (30000000) से ज्यादा फ़र्ज़ी LPG कनेक्शन ख़त्म हो गए !
4. मदरसों से वज़ीफ़ा पाने वाले 1,95,00,000 फर्ज़ी बच्चे गायब हो गए!
5. डेढ़ करोड़ (15000000 ) से ऊपर फ़र्ज़ी राशन कार्ड धारी गायब हो गए!
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मोदी से नाराज कौन कौन हो रहे है ?? देखिए ..
1) कंपनी के MD : मोदी ने 3 लाख से ज्यादा फर्जी कम्पनियां बन्द कर दी !
2) राशऩ डीलर नाराज़ हो गये!
3) PROPERTY DEALER नाराज़ हो गये!
4) ऑनलाइन सिस्टम बनने से दलाल नाराज़ हो गये है!
5) 40,000 फर्जी NGO बन्द हो गये है, इसलिए इन NGO के मालिक भी नाराज़ हो गये !
6) NO 2 की INCOME से PROPERTY खरीद ने वाले नाराज़ हो गये!
7) E - TENDER होने से कुछ ठेकेदार भी नाराज़ हो गये!
8) गैस कंपनी वाले नाराज़ हो गये!
9) अब तक जो 12 करोड लोग INCOME TAX के दायरे मै आ चुके हैं, वह लोग नाराज़ हो गये!
10) GST सिस्टम लागू होने से ब्यापारी लोग नाराज़ हो गये, क्यों कि वो लोग AUTOMATIC सिस्टम मै आ गये है!
11) वो 2 नम्बर के काम बाले लोग फलना फूलना बन्द हो गये है!
13) BLACK को WHITE करने का सिस्टम एक दम से लुंज सा हो गया है।
14) आलसी सरकरी लोकसेवक नाराज हो गये, क्यों कि समय पर जाकर काम करना पड रहा हैं !
15) वो लोग नाराज हो गये, जो समय पर काम नही करते थे और रिश्वत देकर काम करने मे विश्वास करते है।
दु:ख होना लाज़मी है, देश बदलाव की कहानी लिखी जा रही है, जिसे समझ आ रही है बदल रहा है जिसे नही आ रही है वो मंद बुध्दि युवराज के मानसिक गुलाम हमे अंध भक्त कह कह कर छाती कूट रहे है।
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आज से 2,500 साल पहले "चाणक्य" ने कहा था,
"जब गद्दारों की टोली में हाहाकार हो तो समझ लो देश का 'राजा चरित्रवान और प्रतिभा संपन्न' है और 'राष्ट्र' प्रगति पथ पर अग्रसर है।"
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राजनीति में प्रचारित झूठों का मोटा स्वरूप
शिक्षा और संचार माध्यम शासन के अधीन होने के कारण और शासन समाज से उदासीन होने के कारण पढ़े लिखे लोगों में भारत में राज्य और समाज से उसके संबंध के विषय में निम्नांकित झूठ मोटे तौर पर फैले हुए हैं:
1. पहला झूठ यह फैला हुआ है कि शासन हम चला रहे हैं अर्थात नागरिक चला रहे हैं यानी जनता चला रही है अर्थात समाज चला रहा है यानी मुख्यता हिंदू समाज चला रहा है।
यह इतना बड़ा झूठ है जो एक गहरी चिंता जगाता है कि शिक्षित समाज में कैसा भयंकर और व्यापक अज्ञान फैला हुआ है।
2. वोट देने का अधिकार शासन का अधिकार नहीं है ,यह मोटी सी बात जो लोग नहीं जानत,े उनसे आगे राजनीति की और क्या बात की जा सकती है परंतु अपने ही लोग हैं इसलिए बारंबार बात करने को मेरे जैसे लोग विवश हैं और यह हमारा कर्तव्य भी है।
मैंने तो देखा कि बड़े-बड़े स्वामीजी लोग, संत लोग योग्य योग साधना कर रहे लोग इस मोटी बात को नहीं जानते कि वोट देना सरकार चुनने का माध्यम नहीं है
वोट देकर आप मौजूदा दलों में से किसी एक दल के आदमी को या खड़े हुए उम्मीदवारों में से अपेक्षाकृत अनुकूल दिख रहे उम्मीदवार को विधायिका में भेजते हैं। बस।
इसमें कई पेच हैं जिनकी और लोगों का ध्यान नहीं जाता। पहली बात, शासन के तीन मुख्य अंग है कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका ।इनमें से कार्यपालिका और न्यायपालिका का जो स्वरूप है उसमें समाज को विशेषत: हिंदू समाज को अपना कोई भी प्रतिनिधि भेजने का कोई अधिकार प्राप्त नहीं है।
न्यायपालिका मुख्यत: इंग्लैंड के प्रोटेस्टेंट ईसाईयत और मोटे तौर पर ईसाइयत से तथा उसके द्वारा मान्य न्याय के नियमों से संचालित है। हिंदू धर्म भारतीय संस्कृति और भारत की लाखों वर्ष पुरानी महान न्यायिक परंपरा सेइस न्यायपालिका का दूर-दूर तक कोई भी संबंध नहीं है।
ये हिंदू धर्म पर अंग्रेजो और यूरोपियों की लिखी पुस्तकों को ही पढ़ते हैं जो कि ईसाईयों के दृष्टिकोण से भारत के बारे में अधकचरी जानकारी और हास्यास्पद ज्ञान पर आधारित पुस्तकें हैं।
कार्यपालिका इंग्लैंड के ईसाई राज्य की संरचना के अनुरूप गठित है। इसका यह अर्थ नहीं कि कार्यपालिका में कोई अंतर निहित बुराई है।नहीं । ऐसा बिल्कुल भी नहीं है ।
इसमें बड़ी-बड़ी प्रतिभाएं जाती हैं समाज के मेधावी लोग जाते हैं और वे कार्यकुशल लोग हैं परंतु कार्यपालिका का स्वरूप हिंदू धर्म और भारतीय संस्कृति से नहीं अपितु ईसाईयत से प्रेरित है .भारतीय कार्यपालिका को इससे नितांत भिन्न स्वरूप वाला होना चाहिए.
विधायिका राज्य की ईसाई रचना के अनुरूप ही गठित है, जिस पर विस्तार से हम अलग से बात करेंगे।
इस प्रकार राज्य का ढांचा थोड़े से लोगों ने मुख्यतः ईसाईयत की प्रेरणा से बने बनाए ढांचे में थोड़ा फेरबदल कर अपनाया और इसमें विधायिका का स्वरूप भी उसी संरचना के अनुरूप है। इस तरह वोट के द्वारा हम कुछ लोगों के द्वारा तय कर दी गई विधायिका के प्रति निष्ठावान समूहों की अलग अलग धाराओं में से किसी एक धारा के उम्मीदवार को या किसी स्वतंत्र उम्मीदवार को चुनते हैं
इस प्रकार वोट के द्वारा कोई शासन को हम नहीं चुनते। शासन के संचालन के विषय में समाज से कोई भी राय आज तक 1947 से किसी भी पार्टी ने नहीं ली है।
3. तीसरा जो सबसे भयंकर झूठ है वह यह है कि एक और तो हम इस संविधान से प्रेरित हैं इसमें नागरिकों को हथियार रखने की सुविधा भी शासन की मर्जी से और शासकीय अधिकारियों की स्वीकृति प्राप्त होती है और इसमें विधायिका के लिए चुने जाने के लिए खड़े उम्मीदवारों और उन उम्मीदवारों को खड़ा कर रही पार्टियों के बीच किसी युद्ध की तो कोई कल्पना दूर दूर तक है ही नहीं।
दूसरी और हम लफंगे और बदमाश कम्युनिस्टों के द्वारा प्रचारित झूठे युद्ध के नौटंकीबाज मुहावरों के असर से चुनाव में वोट देने को किसी युद्ध का कोई अंग मानते या बताते हैं, इससे बड़ा हास्यास्पद झूठ और क्या हो सकता है?
4. यह सब बकवास कर रहे लोगों को यह तथ्य भी नहीं पता कि संविधान में तो पार्टी नामक किसी बात का कोई जिक्र ही नहींहै।
चुना गया प्रतिनिधि संपूर्ण क्षेत्र के समस्त मतदाताओं का प्रतिनिधि होता है वह किसी विचारधारा का प्रतिनिधि होने का विधिक रुप से दावा ही नहीं कर सकता
इस तथ्य को सारे नेता जानते हैं।
परंतु कम्युनिस्ट बुद्धिजीवियों और उनके संरक्षक कांग्रेसी एवं अन्य पार्टियों के नेताओं ने समाज में यह झूठ फैला दिया है ताकि नागरिक और समाज इन नेताओं की वास्तविक नीतियों, व्यवहार, आचरण और समाज पर उसके परिणामों की, धर्म और अधर्म ,पुण्य और पाप की चर्चा करने के स्थान पर किसी एक काल्पनिक विचारधारा नामक लड़ाई की कल्पना में उलझा रहे। इस तरह स्वयं को हिंदूवादी या हिंदुत्वनिष्ठ या प्रचंड हिंदू कह रहे अधिकांश लोग दयनीय रूप से कम्युनिस्ट हैं और वे वोट देने जैसी सामान्य क्रिया को कोई विचारधारा की लड़ाई या धर्म और अधर्म की, भारतीयता और अभारतीयता की लड़ाई मानतेहैं।
रामेश्वर मिश्र पंकज






prachin bharat

करीब दो सौ साल पहले अरुणांचल प्रदेश में आई.ब्लाक नाम के खोजी को एक किले के खंडहर मिल गए थे। सन 1848 में मिले इन खंडहरों पर काफी बाद में (1965-70) में खुदाई करके पुरातत्व विभाग ने निष्कर्ष निकाला था कि ये कम से कम दूसरी शताब्दी के काल के तो हैं ही। दो हजार साल से ज्यादा पुराने ये अवसेष जिस इलाके में हैं उसे भीष्मकनगर कहा जाता है। राजा भीष्मक का नाम ऐसे याद आना थोड़ा मुश्किल होगा, इनके सुपुत्र उन दो महारथियों में से एक थे, जो महाभारत के युद्ध में नहीं लड़े थे।
राजा भीष्मक के पुत्र थे रुक्मी, श्री कृष्ण के सम्बन्धी होने के कारण दुर्योधन ने उन्हें अपने पक्ष में नहीं लिया था और रुक्मी पहले दुर्योधन के पक्ष में शामिल होने गए थे, तो श्री कृष्ण ने उन्हें पांडवों के पक्ष में भी लेने से मना कर दिया। भारत के पश्चिमी सिरे पर कहीं माने जाने वाले द्वारिका के द्वारिकाधीश की पत्नी रुक्मिणी आज के अरुणांचल माने जाने वाले पूर्वी कोने के राजा भीष्मक की पुत्री थी। रुक्मिणी और भीष्मक का जिक्र महाभारत के आदि पर्व में सड़सठवें अध्याय में मिल जाएगा। इसके पास के ही एक दुसरे राज्य मेघालय के लिए मान्यता थी कि उसपर पार्वती का शाप था। शाप के कारण यहाँ की युवतियों को विवाह के लिए पुरुष नहीं मिलते।
इस शाप का मोचन अर्जुन के इस क्षेत्र में आने पर होना था। महाभारत काल में चूँकि जमीन या सत्ता हथियाने की लड़ाई तो थी नहीं इसलिए महाभारत के 18 दिन वाले धर्मयुद्ध में भी किसी हारे हुए राजा का राज्य नहीं हड़पा गया था। चक्रवर्ती के तौर पर युधिष्ठिर को स्थापित करने के लिए अश्वमेध यज्ञ के दौरान जब अर्जुन मेघालय के क्षेत्र में पहुंचे तब इस शाप का विमोचन हुआ था। इसका जिक्र महाभारत में प्रमिला के रूप में आता है और यहाँ की राजकुमारी प्रमिला का विवाह अर्जुन से हुआ था। राजकुमारी प्रमिला, चित्रांगदा या उलूपी की तरह अपने राज्य में ही नहीं रहती थीं, वो हस्तिनापुर अर्जुन के पास चली गई थीं।
ये कहानी जैमिनी महाभारत के अश्वमेध पर्व में मिलती है और दर्शन के लिहाज से भी महत्वपूर्ण हो जाती है। देखने की तीन अवस्थाओं को उनमीलन, निमीलन, और प्रमिलन कहते हैं। जब आँखें बंद हों और केवल कल्पना से मस्तिष्क प्रारूप बना ले, वो पलक बंद की अवस्था उनमीलन, थोड़ी खुली पलकों से सिर्फ उतना ही देखना जितना आप चाहते हैं, या जो पसंद है उसे निमीलन कहते हैं और पूरी तरह खुली आँखों से देखने को प्रमिलन। श्री कृष्ण के साथ ना होने पर जैसे अर्जुन का बल और गांडीव की क्षमता क्षीण होने के लिए एक गोपियों का प्रसंग आता है वैसे ही ये हिस्सा भी कभी कभी सुनाया जाता है। श्रीकृष्ण के बिना उसकी क्षमता कुछ नहीं, ये समझने में “आँखें खुलना” यानि प्रमिला की कहानी। हाँ, हो सकता है कि प्रमिला आज के मेघालय की थी ये ना बताते हों।
असम को पहले प्रागज्योतिषपुर के नाम से जाना जाता था और यहाँ के कामख्या मंदिर को जाने वाली अधूरी बनी सीढ़ियों की कहानी नरकासुर से जोड़ी जाती है। नरकासुर का बेटा उसके बाद यहाँ से शासन करता था। कलिकापुराण और विष्णुपुराण में यही जगह कामरूप नाम से जानी जाने लगती है। महाभारत में नरकासुर के बेटे का जिक्र आता है, उसका नाम भगदत्त था और हाथियों की सेना के साथ वो कौरवों के पक्ष से लड़ा था। नरकासुर हमेशा से दुष्ट नहीं था, माना जाता है कि वो बाणासुर की संगत में बिगड़ गया था। बाणासुर की राजधानी गौहाटी से थोड़ी दूर तेजपुर के इलाके में है।
इस क्षेत्र को शोणितपुर कहा जाता था और बाणासुर यहीं से शासन करता था। उसकी पुत्री उषा को श्रीकृष्ण के पोते अनिरुद्ध से प्रेम था। मान्यतों के हिसाब से जहाँ उषा-अनिरुद्ध मिला करते थे, वो जगह भी तेजपुर में ही है। बाणासुर शिव का बड़ा भक्त था और उषा से मिलने आये अनिरुद्ध को उसने पकड़ लिया था। जब उसे छुड़ाने श्रीकृष्ण आये तो बाणासुर को बचाने शिव आये। जिस प्रसिद्ध से हरी-हर संग्राम का कभी कभी जिक्र सुना होगा, वो इसी वजह से हुआ था। श्री हरी विष्णु के पूर्णावतार श्री कृष्ण और हर अर्थात शिव के इस संग्राम को रोकने के लिए ब्रह्मा को बीच-बचाव करना पड़ा था।
श्री कृष्ण पांडवों और कौरवों से जुड़ी इतनी कहानियों में अभी हमने इरावन, बभ्रुवाहन, उलूपी और चित्रांगदा की कहानियां नहीं जोड़ी हैं। वो थोड़ी ज्यादा प्रसिद्ध हैं, इसलिए हम मान लेते हैं कि उन्हें ज्यादातर लोगों ने सुना होगा। भीम की पत्नी हिडिम्बा की कथाओं को भी इसी क्षेत्र से जोड़ा जाता है। महाभारत काल तक ये क्षेत्र किरात और नागों का क्षेत्र माना जाता था। परशुराम के इस क्षेत्र में जाने-रहने का जिक्र है। जैसे दक्षिण भारत के कलारिपयाट्टू का प्रवर्तक परशुराम को माना जाता है वैसे ही इस क्षेत्र की शस्त्र-कलाओं से भी उनकी किम्वदंतियां जुड़ी मिल सकती हैं।
आज जरूर हाथी दक्षिण भारत के मंदिरों से जुड़े महसूस होते हों लेकिन लम्बे समय तक हाथियों की पीठ पर से लड़ने के लिए पूर्वोत्तर का क्षेत्र ही जाना जाता रहा है। हाल के अमीश त्रिपाठी के मिथकीय उपन्यासों में भी ऐसा ही जिक्र आता है। जीवों का अध्ययन करने वाले मानते हैं कि पहले भारत में सिर्फ शेर होते थे। बाद में पूर्वोत्तर की ओर से ही भारत में बाघ आये। इस सिलसिले में ये भी गौर करने लायक होगा कि महाभारत में दुर्योधन की उपमा के तौर पर नरव्याघ्र भी सुनाई देता है। दिनकर की रश्मिरथी में भी एक वाक्य है “क्षमा, दया, तप त्याग मनोबल सबका लिया सहारा, पर नरव्याघ्र सुयोधन तुमसे, कहो कहाँ कब हारा?”
महाभारत पढ़ते समय आप इसपर भी अचंभित हो सकते हैं कि जब लगातार विद्रोह होते रहे, लड़ाइयाँ लगातार चलती रहीं, तो भारतीय विदेशी हमलावरों के गुलाम कब और क्यों माने गए? आखिर पूरी तरह हम हारे कब थे? और हाँ, प्रतिरोध की सबसे लम्बी परम्परा होने; पूर्व की ओर बढ़ते रेगिस्तानी लुटेरों, उपनिवेशवादियों, मजहबों को राजनैतिक विचारधारा का नकाब पहनाये आक्रमणकारियों के खिलाफ सबसे लम्बी आजादी की लड़ाई जारी रखने वाली गौरवशाली सभ्यता होने पर गर्व करना तो बनता ही है!
लिखने का तरीका क्या होता है ? सीधा सा है, पहले आप अपनी सारी बात को ऐसी ही भाषा में टाइप कर डालते हैं जिस भाषा में आप बात करते हैं | लगातार बिना रुके एक बार में | फिर उसे दोबारा पढ़ते हैं, जहाँ भाषा या व्याकरण की गलती दिखती है वहां सुधार करते हैं | फिर फेसबुक पर पोस्ट चेप देते हैं | ऐसा ही ज्यादातर email और application (आवेदन वाला) में भी | एक flow में सोचा और फिर सुधारा |
अब अगर कहीं सोचने और लिखने वाले दो अलग अलग लोग हों तो क्या होगा ? महाभारत होगी जाहिर है ! जी हां महाभारत में भी ऐसा ही हुआ था | वेद व्यास सोचने के लिए जिम्मेदार थे और भगवान गणेश को बिठा लिया लिखने के लिए | भगवान गणेश को पहले ही पता था की कितना लम्बा ग्रन्थ ऋषिवर लिखवाने वाले हैं तो उन्होंने पहले ही शर्त रख दी | कहा की आप लगातार बोलते रहेंगे तो मैं लिखता हूँ, लेकिन जहाँ आपने बोलना बंद किया और मेरी कलम रुकी तो मैं दोबारा लिखना नहीं शुरू करने वाला |
वेद व्यास भी कम चतुर नहीं थे | उन्होंने कहा की आप मेरी बात समझे बिना उसे लिखेंगे नहीं | पहले पूरा अर्थ समझेंगे तभी लिखेंगे | अब जितनी देर में सोच सोच के भगवान गणेश लिखते उठने में वेद व्यास अगला श्लोक सोच लेते थे | ना वेद व्यास का क्रम टूटा न गणेश का और महाभारत लिख दी गई |
लेकिन महाभारत तो संस्कृत ग्रन्थ है | इसका नाम सुनते ही कुछ समय पहले तक सेक्युलर लोगों को शर्म आ जाती थी | सुना है इसका एक हिस्सा भगवत गीता भी कहलाता है | उसमे कुछ वर्ण व्यवस्था की बात भी है, लेकिन काव्य की सन्दर्भ सहित व्याख्या की जाती है ये बताना लोग भूल गए | इसके नाम से भी लोगों को शर्म आ जाती थी थोड़े दिन पहले तक | अब कोई कोई defend करने भी आ जाता है | इसके अलावा महाभारत में ढेर सारी रानियों राजकुमारियों का जिक्र है | मणिपुर की चित्रांगदा के परिवार / राज्य में स्त्रिओं से ही वंश आगे चलता था आज भी उत्तर पूर्व की ओर कई जगह ऐसा चलता है लेकिन उत्तर पूर्व की बात करते तो शर्म आ जाती होगी लोगों को | पूजा पाठ की पद्दतियां, भाषा, संस्कृति, किस बात पर शर्म नहीं आई ? चम्मच से खाने से लेकर पानी से धोने तक पर ?
अब प्रधानमंत्री ने कह दी यही बात तो फिर से मूंह छुपाना जारी है | जारी रखो महाभारत भाई, वो भी 18 दिन में ख़त्म नहीं हुआ था, लम्बा किस्सा है | ये भी जारी ही रहेगा |
✍🏻
आनन्द कुमार
 कुछ भी न बताने की लगभग सौगंध उठा ली गई है। यह एक षड्यंत्र है जो इस देश में 1947 की 15 अगस्त को ही प्रारंभ हो गया था। जब इस देश का पहला शिक्षा मंत्री पंडित नेहरु जी ने मौलाना अबुल कलाम आजाद को बनाया था। जी हां, यह वही मौलाना अबुल कलाम आजाद थे जिन्हें रामपुर से पराजित हो जाने के उपरांत भी हिंदू महासभा के विशन सेठ जी के सामने नेहरू जी द्वारा विजयी घोषित कराया गया था। जबकि सच यह था विशन सेठ जी को उक्त सीट से विजयी भी घोषित किया जा चुका था। नेहरू जी को चिंता थी कि यदि मौलाना आजाद संसद में नहीं पहुंच सके तो देश को मुगलिस्तान बनाने का उनका सपना साकार नहीं हो पाएगा, इसलिए मौलाना आजाद को संसद में लाया गया। इन मौलाना आजाद ने देश के इतिहास के साथ गंभीर छेड़छाड़ करनी आरंभ की। जिसमें उन्हें सहयोग मिला कम्युनिस्ट इतिहासकारों का। जिन्होंने भारत, भारतीयता और भारत की संस्कृति को मिटाने का हर संभव प्रयास किया है। यह लोग आर्य, आर्यभाषा और आर्यावर्त के या भारत, भारतीय और भारती के विरोधी हैं। इसलिए इन्हें इन सब को बोलने में अपराध सा जान पड़ता है। जबकि हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान कहने में इन्हें सांप्रदायिकता दिखाई देती है।
यहां पर यह भी उल्लेखनीय है कि अकबर के साम्राज्य में कितने ही विद्रोह होते रहे और वह आजीवन हिंदी, हिंदू और हिंदुस्तान का विरोध ही रहा और इन्हें मिटाने का प्रयास करता रहा। जबकि हमारे मौर्य कालीन शासक या उससे पूर्व के आर्य राजा सदा इस देश के लिए और इस देश की संस्कृति के लिए काम करते रहे। यह खेद का विषय है कि हमारे शोधार्थी पीएचडी की डिग्री लेने के लिए अपने इन महान शासकों पर शोध करते नहीं पाए जाते। उन्हे शोध का विषय अकबर की राजपूत नीति और दूसरे मुगलिया तुर्क शासकों या ब्रिटिश शासकों की भारत विरोधी नीतियों को भारत के हितों के अनुकूल सिद्ध करने के लिए दे दिए जाते हैं। जिससे विदेशी सत्ताधीश और उनका शासन भारत के हितों के अनुकूल जान पड़े। यही कारण है कि हमारे देश का युवा अपने अतीत से कटकर इन्हीं इतिहासकारों की भूल भुलाइयों में भटकता जा रहा है, जो कि चिंता का विषय है। हमें अपने अतीत के लिए और भारत को विश्व गुरु बनाने के लिए जागरूक होना होगा और अपने आप को मिटाने के चल रहे षड्यंत्रों के प्रति आंख खोलकर चलने के लिए कृतसंकल्प होना होगा। यदि अभी नहीं जगे तो कभी नहीं जाग पाएंगे। षड्यंत्रों को समझो और भारत को विश्व गुरु बनाने के लिए वैचारिक क्रांति के हमारे संकल्प के साथ जुड़ने का संकल्प लीजिए यह समय की आवश्यकता है। यदि समय हाथ से निकल गया तो फिर हाथ नहीं आएगा।
आपका
राकेश आर्य
संपादक उगता भारत
Swami Punya Dev HaridwarBhoop Sing Lakharwal के साथ है.
ानदार रिज़ल्ट रहा है यह इतिहास में पहली बार हुआ है की किसी नये विद्यालय से प्रथम वैच में ही इतने सारे विद्यार्थी श्रेष्ठ प्रदर्शन करे।
आयुष शर्मा 99•2% उत्तराखण्ड में दूसरा स्थान
युवराज आर्य 97•8%
तेजस्वनी-97.8%
हेमंत मोदी- 97%
सोनाली - 97%
आकांशा -96.6%
ध्रुव -96.4%
दीप्ति - 96.2%
हिमांशी 96.2%
लोकेन्द्र -96%
शुभम -95.6%
स्वीटी- 95.4%
अनुभव -94.8%
दर्पित- 94.8%
प्रियंका -94.8%
दान कौर -94.4%
काव्या- 94.4%
नम्रता -94.4%
हर्षवर्धन -94.2%
90% से 93% - कुल 13 विद्यार्थी
80% से 90% - कुल 26 विद्यार्थी
आधुनिक शिक्षा के साथ इन विद्यार्थियों ने गीता।वेद उपनिषद ।चाणक्य नीति कण्ठस्थ की है। सभी एक कुशल योगाचार्य भी हैं
सभी को शुभकामनाएं


तपस्वी राजमाता अहल्याबाई होल्कर 
भारत में जिन महिलाओं का जीवन आदर्श, वीरता, त्याग तथा देशभक्ति के लिए सदा याद किया जाता है, उनमें रानी अहल्याबाई होल्कर का नाम प्रमुख है। उनका जन्म 31 मई, 1725 को ग्राम छौंदी (अहमदनगर, महाराष्ट्र) में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री मनकोजी राव शिन्दे परम शिवभक्त थे। अतः यही संस्कार बालिका अहल्या पर भी पड़े।
एक बार इन्दौर के राजा मल्हारराव होल्कर ने वहां से जाते हुए मन्दिर में हो रही आरती का मधुर स्वर सुना। वहां पुजारी के साथ एक बालिका भी पूर्ण मनोयोग से आरती कर रही थी। उन्होंने उसके पिता को बुलवाकर उस बालिका को अपनी पुत्रवधू बनाने का प्रस्ताव रखा। मनकोजी राव भला क्या कहते; उन्होंने सिर झुका दिया। इस प्रकार वह आठ वर्षीय बालिका इन्दौर के राजकुंवर खांडेराव की पत्नी बनकर राजमहलों में आ गयी।
इन्दौर में आकर भी अहल्या पूजा एवं आराधना में रत रहती। कालान्तर में उन्हें दो पुत्री तथा एक पुत्र की प्राप्ति हुई। 1754 में उनके पति खांडेराव एक युद्ध में मारे गये। 1766 में उनके ससुर मल्हार राव का भी देहांत हो गया। इस संकट काल में रानी ने तपस्वी की भांति श्वेत वस्त्र धारण कर राजकाज चलाया; पर कुछ समय बाद उनके पुत्र, पुत्री तथा पुत्रवधू भी चल बसे। इस वज्राघात के बाद भी रानी अविचलित रहते हुए अपने कर्तव्यमार्ग पर डटी रहीं।
*ऐसे में पड़ोसी राजा पेशवा राघोबा ने इन्दौर के दीवान गंगाधर यशवन्त चन्द्रचूड़ से मिलकर अचानक हमला बोल दिया। रानी ने धैर्य न खोते हुए पेशवा को एक मार्मिक पत्र लिखा। रानी ने लिखा कि यदि युद्ध में आप जीतते हैं, तो एक विधवा को जीतकर आपकी कीर्ति नहीं बढ़ेगी। और यदि हार गये, तो आपके मुख पर सदा को कालिख पुत जाएगी। मैं मृत्यु या युद्ध से नहीं डरती। मुझे राज्य का लोभ नहीं है, फिर भी मैं अन्तिम क्षण तक युद्ध करूंगी।*
इस पत्र को पाकर पेशवा राघोबा चकित रह गया। इसमें जहां एक ओर रानी अहल्याबाई ने उस पर कूटनीतिक चोट की थी, वहीं दूसरी ओर अपनी कठोर संकल्पशक्ति का परिचय भी दिया था।
*रानी ने देशभक्ति का परिचय देते हुए उन्हें अंगे्रजों के षड्यन्त्र से भी सावधान किया था। अतः उसका मस्तक रानी के प्रति श्रद्धा से झुक गया और वह बिना युद्ध किये ही पीछे हट गया।*
रानी के जीवन का लक्ष्य राज्यभोग नहीं था। वे प्रजा को अपनी सन्तान समझती थीं। वे घोड़े पर सवार होकर स्वयं जनता से मिलती थीं। उन्होंने जीवन का प्रत्येक क्षण राज्य और धर्म के उत्थान में लगाया।
*एक बार गलती करने पर उन्होंने अपने एक मात्र पुत्र को भी हाथी के पैरों से कुचलने का आदेश दे दिया था; पर फिर जनता के अनुरोध पर उसे कोड़े मार कर ही छोड़ दिया।*
धर्मप्रेमी होने के कारण रानी ने अपने राज्य के साथ-साथ देश के अन्य तीर्थों में भी मंदिर, कुएं, बावड़ी, धर्मशालाएं आदि बनवाईं।
*काशी का वर्तमान काशी विश्वनाथ मंदिर 1780 में उन्होंने ही बनवाया था।*
उनके राज्य में कला, संस्कृति, शिक्षा, व्यापार, कृषि आदि सभी क्षेत्रों का विकास हुआ।
13 अगस्त, 1795 ई0 को 70 वर्ष की आयु में उनका देहान्त हुआ। उनका जीवन धैर्य, साहस, सेवा, त्याग और कर्तव्यपालन का पे्ररक उदाहरण है। इसीलिए एकात्मता स्तोत्र के 11वें श्लोक में उन्हें झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, चन्नम्मा, रुद्रमाम्बा जैसी वीर नारियों के साथ याद किया जाता है।
(संदर्भ : राष्ट्रधर्म मासिक, मई 2011)
जीसस मार्केटिंग एजेंट यीशु के लिए दरवाजे पर जा रहे हैं 2019 pm 2019

sanskar

Jitendra Pratap Singh
विश्व के एकमात्र तीन सगे भाई जो अपने देश की आजादी के लिए 12 सालों से ज्यादा समय तक जेल में रहे ....उस मां को नमन जिसने ऐसे 3 महान सपूतों को जन्म दिया ...नारायण राव सावरकर ...गणेश राव सावरकर... विनायक दामोदर सावरकर
सावरकर विश्व के एकमात्र व्यक्ति थे जिन्होंने बैरिस्टर की पूरी पढ़ाई करने के बाद पूरा एग्जाम देने के बाद भी अंग्रेजों ने उन्हें बैरिस्टर की डिग्री नहीं दी... सोचिए अंग्रेजो ने जवाहरलाल नेहरू से लेकर सबको बैरिस्टर की डिग्री दी सिर्फ विनायक दामोदर सावरकर को बैरिस्टर की डिग्री नहीं दिया गया
विनायक दामोदर सावरकर विश्व के एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें ब्रिटिश सरकार ने बकायदा राजपत्र निकाल कर उन्हें ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे खतरनाक दुश्मन घोषित किया था विनायक दामोदर सावरकर विश्व के एकमात्र ऐसे व्यक्ति थे जिनकी किताब जो 1857 की क्रांति पर लिखी थी उसे पूरा लिखने व प्रकाशित होने के पहले ही अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था और हां विनायक दामोदर सावरकर विश्व के एकमात्र ऐसे क्रांतिकारी थे जिन्होंने अपने देश की आजादी के लिए सर्वोच्च निछावर करने और 14 वर्षों तक काले पानी की सजा भुगतने के बाद भी आजादी के बाद उन्हें आजाद देश की सरकार ने ना कोई सम्मान दिया बल्कि उन्हें आजादी के बाद भी जेल में जाना पड़ा
महाभारत मछुआरे ने लिखा और रामायण भंगी ने।
गीता को अहीर ने सुनाया और पुराण को खटिक ने।
मनुस्मृति को क्षत्रिय ने लिखा और आदि शंकराचार्य को ज्ञान दिया डोम ने।
मौर्या ने साम्राज्य फैलाया, गुप्त ने स्वर्ण काल लाया...
तो इस देश का सारा इतिहास, विरासत, सभ्यता, संस्कृति, बौद्धिक संपदा बनाने में जब दलितों का महान योगदान है तो आखिर वो कौन है जो इन बौद्धिक संपदा पर से दलितों का अधिकार छीनना चाहता है??
मान लिया दलितों को कुछ तथाकथित ब्राहमणों ने हजार साल बेवकूफ बना दिया तो कम से कम आज तो तुम्हें अधिकार मिला है।
अपनी बौद्धिक संपदा, ज्ञान, दर्शन, इतिहास, विरासत पर कम से कम अपना अधिकार तो जताओ।
वो कौन है जो इन सभी को ब्राह्मण का बौद्धिक संपदा घोषित कर रहा है?
वह कौन है जो दलितों को अपने इतिहास, पूर्वज, बौद्धिक संपदा, मां बाप सब पर शर्म और हीन भाव महसूस करा रहे हैं??
ध्यान रखिए केवल अपराधी और वेश्या पुत्र अपने मां बाप पूर्वज इतिहास उनके लङाई पर शर्म करते हैं और कोई नहीं..
तो वो कौन है जो इन दलितों के स्तर को इतना नीचा गिरा रहे हैं??
क्यों नहीं कहते की यह हिन्दु धर्म किसी और के बाप का नहीं है हमारे बाप का है.. और हम अपने बाप की सम्पत्ति छोङकर नहीं भाग सकते.. हम कायर नहीं..
यह इतिहास संस्कृति सभ्यता हमारा है किसी और के अधिकार जमा लेने से, उसमें हेर फेर कर देने भर से हम भागने वाले नहीं... किसी ने मूर्ख बना दिया तो हम मुर्ख बनने वाले नहीं...
क्या दलित चिंतक खुद दलितों के दुश्मन बन गये हैं?
या फिर जातिवादी ब्राह्मणों और दलित चिंतकों में साठ गाठ है??
आखिर क्यों हर कम्युनिस्ट मुख्यमंत्री सवर्ण ही होता है??
आखिर क्यों आज तक पालित ब्युरों का एक भी सदस्य दलित नहीं बन पाया??
आखिर क्यों दलितों के नाम पर गला फाङने वाले कभी रवीश कुमार पांडे होते हैं या फिर अभय दुबे..
या फिर कन्हैया कुमार राय होते हैं या फिर अरुंधति राय...
सोचिये... लेकिन इसलिये नहीं की मैं ही सत्य हूं बल्कि इसलिये की क्या सत्य क्या है ?
Bhupendra Singh

mediya

दुनिया के 12 सबसे धनी नेताओं में सोनिया गांधी, कुल संपत्ति 2 अरब डॉलर मतलब 1 खरब रूपये से भी ज्यादा, बाद में कांग्रेस के दबाब में आकर सोनिया का नाम लिस्ट से हटाया गया!
हम देश में ऐसे नेता को पलने देते हैं, ये दुःख की बात है

Tuesday, 29 May 2018

 वीर विनायक दामोदर सावरकर .... बरसों तक उनके योगदान को इतिहास की किताबों और नई पीढ़ी की नजरों से छिपाकर रखा गया। लेकिन समय का फेर कुछ ऐसा रहा कि जवाहरलाल नेहरू और उनके इतिहासकार तमाम कोशिश के बावजूद वीर सावरकर की जीवनगाथा को जनता की नजरों से छिपा नहीं पाए। कांग्रेसी और वामपंथी जमकर ये प्रचार करते हैं कि सावरकर ने अंग्रेजों के आगे घुटने टेक दिए थे और माफी मांग ली थी। जबकि सच्चाई कुछ और ही है। 
-- उस दौर के तमाम बड़े लोगों की तरह वीर सावरकर ने भी इंग्लैंड में बैरिस्टर का इम्तिहान पास किया था। लेकिन वहां के नियमों के मुताबिक बैरिस्टर बनने के लिए एक शपथ लेनी होती थी, जिसके तहत लिखना होता था कि मैं हमेशा ब्रिटिश साम्राज्य के लिए वफादार रहूंगा। वीर सावरकर ने जब इस शपथ की लाइनें पढ़ीं तो उन्होंने इस पर दस्तखत से मना कर दिया। इसी कारण उन्हें कभी बैरिस्टर की डिग्री नहीं मिली। महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू भी इंग्लैंड से ही डिग्रीधारी बैरिस्टर थे। मतलब ये हुआ कि उन्होंने डिग्री के लिए ये शपथ ली थी कि वो ब्रिटिश साम्राज्य के लिए हमेशा वफादार रहेंगे।
 -- आखिर क्या बात थी कि गांधी और नेहरू को लेकर अंग्रेजों का रवैया हमेशा बेहद नरम रहा। इस लड़ाई में लाखों लोग शामिल थे। लेकिन गांधी और नेहरू जब भी जेल गए उनको बाकायदा अच्छा नाश्ता और खाना, अखबार और यहां तक कि लोगों से मिलने-जुलने की इजाज़त दी जाती थी। जेलों में उनकी दिनचर्या के दस्तावेज आज भी मौजूद हैं। इसके उलट वीर सावरकर को अंडमान की जेल जिसे काला पानी कहा जाता था वहां भेज दिया गया था। उन्हें 2-2 आजीवन कारावास की सजा मिली। जेल में दिन भर उन्हें कोल्हू में बैल की जगह जुतकर तेल पेरना, पत्थर की चक्की चलाना, बांस कूटना, नारियल के छिलके उतारना, रस्सी बुनना और कोड़ों की मार सहने की सजा मिलती थी। इसके अलावा अपने बैरक में उन्हें हाथ-पैर में बेड़ी बांधकर रखा जाता था।
--  दस्तावेजों में यह साफ है कि सावरकर की बढ़ती लोकप्रियता से अंग्रेज परेशान थे। इसी के चलते उन्हें काला पानी भेज दिया गया, जहां उन्हें भयानक यातनाएं दी गईं। अंग्रेज और उस वक्त कांग्रेस के तमाम बड़े नेता भी यही चाहते थे कि वीर सावरकर की मृत्यु उधर ही हो जाए। भयानक शारीरिक, मानसिक यातनाओं और जानवरों की तरह बेड़ी में जकड़कर रखे जाने के कारण वीर सावरकर को कई बीमारियों ने जकड़ना शुरू कर दिया था। इसी दौरान काला पानी जेल के डॉक्टर ने 1913 में ब्रिटिश हुकूमत को रिपोर्ट भेजी कि वीर सावरकर की सेहत बहुत खराब है और वो थोड़े दिन के ही मेहमान हैं। इस रिपोर्ट पर जनता में भारी गुस्सा भड़क उठा। दबाव में आकर गवर्नर जनरल ने रेजिनॉल्ड क्रेडॉक को अपना प्रतिनिधि बनाकर पोर्ट ब्लेयर भेजा। उन्हें डर था कि अगर वीर सावरकर को कुछ हुआ तो इससे अंग्रेजी राज की बदनामी होगी और आजादी की लड़ाई इतनी तेज हो जाएगी कि उसे काबू करना आसान नहीं होगा। वीर सावरकर भी इस तरह से जेल में तिल-तिलकर मरने के बजाय आजादी की लड़ाई को आगे बढ़ाना चाहते थे। लिहाजा अंग्रेजों और वीर सावरकर के बीच एक बीच का फॉर्मूला निकला। इसके तहत एक करार पत्र तैयार किया गया। इसमें लिखा गया था कि:
“मैं (….कैदी का नाम…) आगे चलकर पुनः (….) अवधि न तो राजनीति में भाग लूंगा न ही राज्यक्रांति में। यदि पुनः मुझ पर राजद्रोह का आरोप साबित हुआ तो आजीवन कारावास भुगतने को तैयार हूँ।”
ऐसे ही करारनामे पर दस्तखत करवाकर वीर सावरकर ने उस वक्त अपने जैसे कई और कैदियों को काले पानी से आजादी दिलवाई थी। उनके नाम और दस्तावेज भी अंडमान की सेलुलर जेल में उपलब्ध हैं। अंग्रेजों के चंगुल से निकलने के लिए, ऐसा ही एक माफीनामा फैजाबाद की जेल में बंद शहीद अशफाकउल्ला खां ने भी लिखा था। वो काकोरी ट्रेन लूट कांड के आरोपी थे। अशफाकउल्ला से अंग्रेज इतना डरे हुए थे कि उन्हें फाँसी दे दी। तो क्या अशफाक को भी अंग्रेजों का वफादार, देश का गद्दार मान लिया जाए? कांग्रेसी और वामपंथी इसी दस्तावेज को माफीनामा कहते हैं, जबकि ये माफीनामा नहीं, बल्कि एक तरह का सुलहनामा था। छत्रपति शिवाजी को अपना आदर्श मानने वाले वीर सावरकर के लिए ये सुलहनामा उन्हीं के आदर्शों के मुताबिक था।
इस सुलहनामे के बावजूद अंग्रेजों को वीर सावरकर पर रत्ती भर भरोसा नहीं था। उनकी रिहाई आने वाली मुसीबत से बचने के लिए जरूरी थी। लेकिन अंग्रेज मानकर चल रहे थे कि वो फिर से लड़ाई तेज़ करेंगे। गवर्नर के प्रतिनिधि रेजिनॉल्ड क्रेडोक ने सावरकर के सुलहनामे पर अपनी गोपनीय टिप्पणी में लिखा है कि- “इस शख्स को अपने किए पर जरा भी पछतावा या खेद नहीं है और वह अपने ह्रदय-परिवर्तन का ढोंग कर रहा है। सावरकर सबसे खतरनाक कैदी है। भारत और यूरोप के क्रांतिकारी उसके नाम की कसमें खाते हैं और अगर उसे भारत भेज दिया गया तो वो पक्के तौर पर भारतीय जेल तोड़कर उसे छुड़ा ले जाऍंगे।” इस रिपोर्ट के बाद कुछ अन्य कैदियों को तो रिहा किया गया मगर डर के मारे अंग्रेजों ने वीर सावरकर को जेल में ही रखा। इस दौरान उनका इलाज शुरू हो गया था। करीब 11 साल काला पानी जेल में बिताने के बाद 1921 में वीर सावरकर रिहा हुए। ये वो वक्त था जब आजादी की लड़ाई को नेहरू और गांधी की चौकड़ी ने पूरी तरह कब्जे में ले लिया था। वीर सावरकर इस दौरान लगातार सक्रिय रहे।
1921 में घर लौटने के बाद उन्हें फिर से 3 साल जेल भेज दिया गया था। जेल में उन्होंने हिंदुत्व पर काफी कुछ लिखा। यहां से छूटने के बाद भी वो हिंदुत्व की विचारधारा को लेकर सक्रिय रहे। 1925 में वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक डॉ हेडगेवार के संपर्क में आए। 1931 में उन्होंने मुंबई (तब बंबई) में पतित पावन मंदिर की स्थापना की, जो हिंदुओं में छुआछूत की बुराई को खत्म करने की नीयत से था। इसके बाद उन्होंने बंहई प्रेसीडेंसी में हुए अस्पृश्यता उन्मूलन सम्मेलन की अध्यक्षता की। उनका कहना था कि भारत की एकता के लिए हिंदुओं की एकता जरूरी है और इसके लिए जाति-पाति और छुआछूत का खात्मा जरूरी है। 1937 में वो अहमदाबाद में हिंदू महासभा के अध्यक्ष चुने गए। 22 जून 1941 को वीर सावरकर और नेताजी सुभाष चंद्र बोस की मुलाकात बेहद खास मानी जाती है। ये वो वक्त था जब उनके लिखे साहित्य पर प्रतिबंध था। उनके कहीं भी आने-जाने पर अंग्रेजी सरकार का कड़ा पहरा रहता था। वो भारत के बंटवारे के सख्त खिलाफ थे। यही कारण है कि कांग्रेसी सरकार ने उनका नाम महात्मा गांधी की हत्या में भी लपेटने की कोशिश की। उनके कहीं भी आने-जाने और लोगों से मिलने जुलने पर पाबंदियां आजादी के बाद भी बनी रहीं। हालांकि इस दौरान उन्हें पुणे विश्वविद्यालय ने डीलिट की मानद उपाधि दी। 1966 में उनकी तबीयत बिगड़नी शुरू हुई। इसके बाद उन्होंने मृत्युपर्यंत उपवास का निर्णय लिया और अपनी इच्छा से 26 फरवरी 1966 को बंबई में प्राणों का त्याग कर दिया।
वीर सावरकर के निधन के बाद उनके खिलाफ दुष्प्रचार का अभियान शुरू हो गया। कांग्रेसी और वामपंथी इतिहासकारों ने सुलहनामे के आधार पर कहना शुरू कर दिया कि वो अंग्रेजों को माफी की चिट्ठी लिखा करते थे। जबकि सच्चाई इसके उलट थी। इसी दुष्प्रचार का नतीजा है कि आज कई लोग इस झूठ पर यकीन भी करने लग गए हैं।
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एक कल्पना कीजिए... तीस वर्ष का पति जेल की सलाखों के भीतर खड़ा है और बाहर उसकी वह युवा पत्नी खड़ी है, जिसका बच्चा हाल ही में मृत हुआ है...
इस बात की पूरी संभावना है कि अब शायद इस जन्म में इन पति-पत्नी की भेंट न हो. ऐसे कठिन समय पर इन दोनों ने क्या बातचीत की होगी. कल्पना मात्र से आप सिहर उठे ना?? जी हाँ!!!
मैं बात कर रहा हूँ भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के सबसे चमकते सितारे विनायक दामोदर सावरकर की. यह परिस्थिति उनके जीवन में आई थी, जब अंग्रेजों ने उन्हें कालापानी (Andaman Cellular Jail) की कठोरतम सजा के लिए अंडमान जेल भेजने का निर्णय लिया और उनकी पत्नी उनसे मिलने जेल में आईं.
मजबूत ह्रदय वाले वीर सावरकर (Vinayak Damodar Savarkar) ने अपनी पत्नी से एक ही बात कही... – “तिनके-तीलियाँ बीनना और बटोरना तथा उससे एक घर बनाकर उसमें बाल-बच्चों का पालन-पोषण करना... यदि इसी को परिवार और कर्तव्य कहते हैं तो ऐसा संसार तो कौए और चिड़िया भी बसाते हैं. अपने घर-परिवार-बच्चों के लिए तो सभी काम करते हैं. मैंने अपने देश को अपना परिवार माना है, इसका गर्व कीजिए. इस दुनिया में कुछ भी बोए बिना कुछ उगता नहीं है. धरती से ज्वार की फसल उगानी हो तो उसके कुछ दानों को जमीन में गड़ना ही होता है. वह बीच जमीन में, खेत में जाकर मिलते हैं तभी अगली ज्वार की फसल आती है. यदि हिन्दुस्तान में अच्छे घर निर्माण करना है तो हमें अपना घर कुर्बान करना चाहिए. कोई न कोई मकान ध्वस्त होकर मिट्टी में न मिलेगा, तब तक नए मकान का नवनिर्माण कैसे होगा...”. कल्पना करो कि हमने अपने ही हाथों अपने घर के चूल्हे फोड़ दिए हैं, अपने घर में आग लगा दी है. परन्तु आज का यही धुआँ कल भारत के प्रत्येक घर से स्वर्ण का धुआँ बनकर निकलेगा. यमुनाबाई, बुरा न मानें, मैंने तुम्हें एक ही जन्म में इतना कष्ट दिया है कि “यही पति मुझे जन्म-जन्मांतर तक मिले” ऐसा कैसे कह सकती हो...” यदि अगला जन्म मिला, तो हमारी भेंट होगी... अन्यथा यहीं से विदा लेता हूँ.... (उन दिनों यही माना जाता था, कि जिसे कालापानी की भयंकर सजा मिली वह वहाँ से जीवित वापस नहीं आएगा).
अब सोचिये, इस भीषण परिस्थिति में मात्र 25-26 वर्ष की उस युवा स्त्री ने अपने पति यानी वीर सावरकर से क्या कहा होगा?? यमुनाबाई (अर्थात भाऊराव चिपलूनकर की पुत्री) धीरे से नीचे बैठीं, और जाली में से अपने हाथ अंदर करके उन्होंने सावरकर के पैरों को स्पर्श किया. उन चरणों की धूल अपने मस्तक पर लगाई. सावरकर भी चौंक गए, अंदर से हिल गए... उन्होंने पूछा.... ये क्या करती हो?? अमर क्रांतिकारी की पत्नी ने कहा... “मैं यह चरण अपनी आँखों में बसा लेना चाहती हूँ, ताकि अगले जन्म में कहीं मुझसे चूक न हो जाए. अपने परिवार का पोषण और चिंता करने वाले मैंने बहुत देखे हैं, लेकिन समूचे भारतवर्ष को अपना परिवार मानने वाला व्यक्ति मेरा पति है... इसमें बुरा मानने वाली बात ही क्या है. यदि आप सत्यवान हैं, तो मैं सावित्री हूँ. मेरी तपस्या में इतना बल है, कि मैं यमराज से आपको वापस छीन लाऊँगी. आप चिंता न करें... अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखें... हम इसी स्थान पर आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं...”.
क्या जबरदस्त ताकत है... उस युवावस्था में पति को कालापानी की सजा पर ले जाते समय, कितना हिम्मत भरा वार्तालाप है... सचमुच, क्रान्ति की भावना कुछ स्वर्ग से तय होती है, कुछ संस्कारों से. यह हर किसी को नहीं मिलती.
वीर सावरकर को 50 साल की सजा देकर भी अंग्रेज नहीं मिटा सके, लेकिन कांग्रेस व मार्क्सहवादियों ने उन्हें मिटाने की पूरी कोशिश की.. 26 फरवरी 1966 को वह इस दुनिया से प्रस्थाान कर गए। लेकिन इससे केवल 56 वर्ष व दो दिन पहले 24 फरवरी 1910 को उन्हें ब्रिटिश सरकार ने एक नहीं, बल्कि दो-दो जन्मोंो के कारावास की सजा सुनाई थी। उन्हें1 50 वर्ष की सजा सुनाई गई थी। वीर सावरकर भारतीय इतिहास में प्रथम क्रांतिकारी हैं, जिन पर हेग स्थित अंतरराष्ट्री य न्या्यालय में मुकदमा चलाया गया था। उन्हें काले पानी की सजा मिली। कागज व लेखनी से वंचित कर दिए जाने पर उन्हों ने अंडमान जेल की दीवारों को ही कागज और अपने नाखूनों, कीलों व कांटों को अपना पेन बना लिया था, जिसके कारण वह सच्चा ई दबने से बच गई, जिसे न केवल ब्रिटिश, बल्कि आजादी के बाद तथाकथित इतिहासकारों ने भी दबाने का प्रयास किया।
पहले ब्रिटिश ने और बाद में कांग्रेसी-वामपंथी इतिहासकारों ने हमारे इतिहास के साथ जो खिलवाड़ किया, उससे पूरे इतिहास में वीर सावरकर अकेले मुठभेड़ करते नजर आते हैं।
भारत का दुर्भाग्यय देखिए, भारत की युवा पीढ़ी यह तक नहीं जानती कि वीर सावरकर को आखिर दो जन्मों के कालापानी की सजा क्यों मिली थी, जबकि हमारे इतिहास की पुस्त कों में तो आजादी की पूरी लड़ाई गांधी-नेहरू के नाम कर दी गई है। तो फिर आपने कभी सोचा कि जब देश को आजाद कराने की पूरी लड़ाई गांधी-नेहरू ने लड़ी तो विनायक दामोदर सावरकर को कालेपानी की सजा क्यों दी गई। उन्होंलने तो भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और उनके अन्यग क्रांतिकारी साथियों की तरह बम-बंदूक से भी अंग्रेजों पर हमला नहीं किया था तो फिर क्यों उन्हें 50 वर्ष की सजा सुनाई गई थी।
वीर सावरकर की गलती यह थी कि उन्होंंने कलम उठा लिया था और अंग्रेजों के उस झूठ का पर्दाफाश कर दिया, जिसे दबाए रखने में न केवल अंग्रेजों का, बल्कि केवल गांधी-नेहरू को ही असली स्वजतंत्रता सेनानी मानने वालों का भी भला हो रहा था। अंग्रेजों ने 1857 की क्रांति को केवल एक सैनिक विद्रोह करार दिया था, जिसे आज तक वामपंथी इतिहासकार ढो रहे हैं। 1857 की क्रांति की सच्चा्ई को दबाने और फिर कभी ऐसी क्रांति उत्पकन्ना न हो इसके लिए ही अंग्रेजों ने अपने एक अधिकारी ए.ओ.हयूम से 1885 में कांग्रेस की स्थांपना करवाई थी। 1857 की क्रांति को कुचलने की जयंती उस वक्तस ब्रिटेन में हर साल मनाई जाती थी और क्रांतिकारी नाना साहब, रानी लक्ष्मीतबाई, तात्याज टोपे आदि को हत्याथरा व उपद्रवी बताया जाता था।
1857 की 50 वीं वर्षगांठ 1907 ईस्वीो में भी ब्रिटेन में विजय दिवस के रूप मे मनाया जा रहा था, जहां वीर सावरकर 1906 में वकालत की पढ़ाई करने के लिए पहुंचे थे।
सावरकर को रानी लक्ष्मीक बाई, नाना साहब, तात्याा टोपे का अपमान करता नाटक इतना चुभ गया कि उन्होंकने उस क्रांति की सच्चासई तक पहुंचने के लिए भारत संबंधी ब्रिटिश दस्ताोवेजों के भंडार 'इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी' और 'ब्रिटिश म्यूतजियम लाइब्रेरी' में प्रवेश पा लिया और लगातार डेढ़ वर्ष तक ब्रिटिश दस्ता वेज व लेखन की खाक छानते रहे। उन दस्तारवेजों के खंघालने के बाद उन्हें पता चला कि 1857 का विद्रोह एक सैनिक विद्रोह नहीं, बल्कि देश का पहला स्वलतंत्रता संग्राम था। इसे उन्हों ने मराठी भाषा में लिखना शुरू किया।
10 मई 1908 को जब फिर से ब्रिटिश 1857 की क्रांति की वर्षगांठ पर लंदन में विजय दिवस मना रहे थे तो वीर सावरकर ने वहां चार पन्ने1 का एक पंपलेट बंटवाया, जिसका शीर्षक था 'ओ मार्टर्स' अर्थात 'ऐ शहीदों'। इपने पंपलेट द्वारा सावरकर ने 1857 को मामूली सैनिक क्रांति बताने वाले अंग्रेजों के उस झूठ से पर्दा हटा दिया, जिसे लगातार 50 वर्षों से जारी रखा गया था। अंग्रेजों की कोशिश थी कि भारतीयों को कभी 1857 की पूरी सच्चारई का पता नहीं चले, अन्यशथा उनमें खुद के लिए गर्व और अंग्रेजों के प्रति घृणा का भाव जग जाएगा।
1910 में सावरकर को लंदन में ही गिरफतार कर लिया गया। सावरकर ने समुद्री सफर से बीच ही भागने की कोशिश की, लेकिन फ्रांस की सीमा में पकड़े गए। इसके कारण उन पर हेग स्थित अंतरराष्ट्रींय अदालत में मुकदमा चला। ब्रिटिश सरकार ने उन पर राष्ट्रअद्रोह का मुकदमा चलाया और कई झूठे आरोप उन पर लाद दिए गए, लेकिन सजा देते वक्तद न्या याधीश ने उनके पंपलेट 'ए शहीदों' का जिक्र भी किया था, जिससे यह साबित होता है कि अंग्रेजों ने उन्हेंन असली सजा उनकी लेखनी के कारण ही दिया था। देशद्रोह के अन्ये आरोप केवल मुकदमे को मजबूत करने के लिए वीर सावरकर पर लादे गए थे।
वीर सावरकर की पुस्ततक '1857 का स्वायतंत्र समर' छपने से पहले की 1909 में प्रतिबंधित कर दी गई। पूरी दुनिया के इतिहास में यह पहली बार था कि कोई पुस्तबक छपने से पहले की बैन कर दी गई हो। पूरी ब्रिटिश खुफिया एजेंसी इसे भारत में पहुंचने से रोकने में जुट गई, लेकिन उसे सफलता नहीं मिल रही थी। इसका पहला संस्केरण हॉलैंड में छपा और वहां से पेरिस होता हुए भारत पहुंचा। इस पुस्ताक से प्रतिबंध 1947 में हटा, लेकिन 1909 में प्रतिबंधित होने से लेकर 1947 में भारत की आजादी मिलने तक अधिकांश भाषाओं में इस पुस्तुक के इतने गुप्ते संस्कदरण निकले कि अंग्रेज थर्रा उठे।
भारत, ब्रिटेन, अमेरिका, फ्रांस, जापान, जर्मनी, पूरा यूरोप अचानक से इस पुस्ताकों के गुप्त, संस्कंरण से जैसे पट गया। एक फ्रांसीसी पत्रकार ई.पिरियोन ने लिखा, ''यह एक महाकाव्यक है, दैवी मंत्रोच्चांर है, देशभक्ति का दिशाबोध है। यह पुस्त क हिंदू-मुस्लिम एकता का संदेश देती है, क्योंचकि महमूद गजनवी के बाद 1857 में ही हिंदुओं और मुसलमानों ने मिलकर समान शत्रु के विरुद्ध युद्ध लड़ा। यह सही अर्थों में राष्ट्रीाय क्रांति थी। इसने सिद्ध कर दिया कि यूरोप के महान राष्ट्रोंद के समान भारत भी राष्ट्रीरय चेतना प्रकट कर सकता है।''
आपको आश्च र्य होगा कि इस पुस्त क पर लेखक का नाम नहीं था..।
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जिसने अपनी सारी जवानी जेल में कोल्हू चलाते - चलाते गुजार दी , जिसकी जिजीविषा कारागृह के पत्थरों पर " अंकित " हो गयी , जिसके नाम से ही पृथ्वी की सर्वाधिक शक्तिशाली ब्रिटिश सरकार भी घबराती थी , जिसका नाम ही देशभक्ति का पर्याय है उस महावीर सावरकर को बारंबार श्रद्धांजलि ......अंडमान जेल की दीवारों पर उकेरी गयी आपकी भावनायें हमें हर पल याद दिलायेंगी कि क्यों हमारे ' वर्तमान ' के लिये आपने तिल तिल कर मौत सही ।
...आपके शरीर पर ढायी गई यातनाओं के चिन्ह और भारत विभाजन से आपकी आत्मा पर बने यातना चिन्हों को हम हर पल याद रखेंगे ..
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Monday, 28 May 2018




कांग्रेस की गलत नीतियों से ही भारत में नक्सलवाद की शुरुआत हुई.. याद कीजिये जब चारू मजूमदार को कांग्रेस ने बातचीत करने के बहाने गोली मार दिया था ... कोडापल्ली सीतारमैया को नक्सली बताकर कांग्रेस सरकार ने गोलियों ने भुन दिया था ... कानू सान्याल को आत्महत्या करने पर मजबूर कर दिया .. और भीषण बीमार नागभूषण पटनायक को अस्पताल में भी उनके पैरो से बेड़िया नही खोली गयी थी और नही उनके हाथो की हथकड़ी खोली गयी थी ...
जब ये नक्सल आदोलन बहुत छोटा था और नक्सली नेता इंदिरा गाँधी से बातचीत करके आदिवासीयो से जुड़े मुद्दों को सुलझाना चाहते थे तब इंदिरा गाँधी ने कहा था की मै किसी आतंकवादी से बात नही करूंगी मेरी पुलिस और सेना की बंदूकें बात करेंगी ... इंदिरा गाँधी ने अपने दमन से इस आन्दोलन को एक जनांदोलन बना दिया क्योकि केरल, आंध्रप्रदेश, एमपी और महाराष्ट्र की तत्कालीन कांग्रेसी सरकारों के कांग्रेसी नेता बकायदा किसी के भी हत्या की सुपारी लेते थे और फिर पुलिस से उसे गोली मरवाकर नक्सली बता देते थे ... ऐसे ही एक मामले में केरल में इंजिनियरिंग के छात्र की १९७४ में हत्या हुई थी ..सिर्फ इसलिए क्योकि वो कोलेज में टॉप करता था और एक कांग्रेसी नेता का पुत्र सेकेण्ड आता था फिर कांग्रेसी नेता के ईशारे पर पुलिस ने उसे नक्सली बताकर गोलियों से भून दिया था .. ये मामला सुप्रीमकोर्ट तक गया और आठ पुलिस वालो को आजीवन कैद हुई थी ...
इंदिरा गाँधी एक तरह से तानाशाह थी ... नागालैंड के असंतुष्ट नेता आइजक और टी मुइवा बैंकाक में राजनितिक शरण लेकर रह थे थे ..इंदिरा गाँधी ने उन्हें बातचीत के लिए बुलाया और हवाईअड्डे पर ही गिरफ्तार करवा दिया था ..फिर तो दस सालो तक नागालैंड सुलगता रहा और हजारो सुरक्षाकर्मियोंकी मौत हुई थी...
अरून शुक्ला

आज राष्ट्र को वीर सावरकर जैसे नेता की जरूरत है। अगर आज हमने बच्चों को वीर सावरकर जैसे क्रांतिकारियों कi इतिहास नहीं पढ़ाया तो भविष्य में कोई भी क्रांतिवीर नहीं होंगे।


क्रांतिकारियों के पितामह, क्रान्तिकारियों के मुकुटमणि, दार्शनिक, कवि, इतिहासकार, महान् विचारक एवं  राष्ट्र के प्रवर्तक महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी वीर विनायक दामोदर सावरकर जी जन्म दिवस 28 मई, सन् 1883 ई. को नासिक जिले के भगूर ग्राम में एक चितपावन ब्राह्मण वंश परिवार में हुआ था।

उनके पिताश्री श्रीदामोदर सावरकर एवं माता राधा बाई दोनों ही महान् धार्मिक तथा प्रखर हिन्दुत्वनिष्ठ विचारों से आप्‍लावित थे । विनायक सावरकर पर अपने माता-पिता के संस्कारों का गहरा असर हुआ और वह प्रारम्भ में धार्मिकता से ओतप्रोत भरे थे.

नासिक में विद्याध्ययन के समय लोकमान्य तिलक के लेखों व अंग्रेजों के अत्याचारों के समाचारों ने छात्र सावरकर के हृदय में को बिदीर्णकर दिया व उनके हृदय में विद्रोह के अंकुर पैदा कर दिये। उन्होंने अपनी कुलदेवी अष्टभुजी दुर्गा माता की प्रतिमा के सामने यह अखंड प्रतिज्ञा ली—‘‘देश की स्वाधीनता के लिए अन्तिम क्षण तक जब तक सांस है तब तक सशस्त्र क्रांति का झंडा लेकर लड़ता रहूँगा।’’

वीर सावरकर ने श्री लोकमान्य की अध्यक्षता में पूना में आयोजित एक सार्वजनिक समारोह के सबसे पहले विदेशी वस्त्रों की होली जलाकर विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार का श्रीगणेश किया कालेज से निष्कासित कर दिये जाने पर भी लोकमान्य तिलक की प्रेरणा से वह लन्दन के लिए कूच कर गये।

साम्राजयवादी गोरे अंग्रेज़ों के गढ़ लंदन में सावरकर चैन से अपने आप को नही रखा । वीर दामोदर सावरकर की प्ररेणा से ही श्री मदनलाल ढींगरा ने सर करजन वायली की हत्या करके बदला लिया। उन्होंने लन्दन से बम्ब व पिस्तौल, छिपाकर भारत भिजवाये। लन्दन में ही ‘1857 का स्वातन्त्र्य समर’ की रचना किया। अंग्रेज की साम्राज्‍यवादी गोरी सरकार सावरकर की गतिविधियों से दहल गया.

13 मार्च 1910 को सावरकरजी को लन्दन के रेलवे स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिया गया। वीर विनायक दामोदर सावरकर पर मुकदमा चलाकर मौत का ग्रास बनाने के उद्देश्‍य से जहाज में भारत लाया जा रहा था कि तभी 8 जुलाई 1910 को मार्लेस बन्दरगाह के निकट वे जहाज से समुद्र में छलांग लगा दिये। गोलियों की बौछारों के बीच काफी दूर तक तैरते हुए वे फ्रांस के किनारे जा निकले, किन्तु फिर भी पकड़ लिये गये।

भारत लाकर मुकदमे का स्‍वांग रचा गया और दो आजन्म कारावास का दण्ड देकर उनको अण्डमान के लिये रवाना कर दिया गया। अण्डमान में ही उनके बड़े भ्राताश्री भी बन्दी थे। उनके साथ देवतास्वरूप भाई परमानन्द, श्री आशुतोष लाहिड़ी, भाई हृदयरामसिंह तथा अनेक प्रमुख क्रांतिकारी देशभक्त भी बन्दी थे। उन्होंने अण्डमान में अंग्रेजों से भारी यातनाएँ सहन किया।

अनवरत 10 वर्षों तक काला-पानी में यातनाएँ सहने के बाद वे 21 जनवरी 1921 को भारत में रतनागिरि में ले जाकर नज़रबन्द कर दिए गये। रतनागिरि में ही उन्होंने ‘हिन्दुत्व’, ‘हिन्दू पद पादशाही’, ‘उशाःप’, ‘उत्तर क्रिया’ (प्रतिशोध), ‘संन्यस्त्र खड्ग’ (शस्त्र और शास्त्र) आदि राष्‍ट्रवादी ग्रन्थों की रचना की; साथ ही शुद्धि व हिन्दू संगठन के कार्य में वे तन, मन और धन से लगे रहे। जिस समय सावरकर ने देखा कि गांधीजी हिन्दू-मुस्लिम एकता के नाम पर मुस्लिम तुष्‍टीकरण की नीति अपनाकर हिन्दुत्व के साथ विश्वासघात कर रहे हैं तथा मुसलमान खुशफहमी पालकर देश को इस्लामिस्तान बनाने के गंभीर साजिश रच रहे हैं, उन्होंने हिंदू संगठन की आवश्यकता महसूस किया।

30 दिसम्बर 1937 को अहमदाबाद में हुए अखिल भारत हिन्दू महासभा के वे अधिवेशन के वे अध्यक्ष चुने गये। हिन्दू महासभा के प्रत्येक आन्दोलन का उन्होंने ओजस्विता के साथ नेतृत्व किया व उसे महान संबल प्रदान किया । भारत-विभाजन का उन्होंने डटकर पुरजोर विरोध किया।

सबसे प्रमुख बात यह कि नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने उन्हीं की प्रेरणा से आज़ाद हिन्द फौज की स्थापना की थी। वीर सावरकर ने ‘‘राजनीति का हिन्दूकरण और हिन्दू का सैनिकीकरण’’ तथा ‘‘धर्मान्त याने राष्ट्रान्तर’ यह दो उद्घोष को हिन्‍दुस्‍तान की जनता को दिये. वीर सावरकर जी को गांधीजी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया, उन पर मुकदमा चलाया गया, किन्तु वे ससम्मान बरी कर दिए गये।

26 फरवरी 1966 को इस महान आत्‍मा ने 22 दिन का उपवास करके भारत की माटी से विदा लिया। हिन्दू राष्ट्र भारत, एक असाधारण योद्धा, महान् साहित्यकार, वक्ता, विद्वान, राजनीतिज्ञ, दार्शनिक, महान क्रांतिकारी,समाज-सुधारक, हिन्दू संगठक से वंचित हो गया. यह ऐसा क्षति था जिसे आज तक भरा नही जा सका.