Monday, 3 August 2015

फिल्म उद्योग के ज्यादातर दिग्गज बाहुबली पर मुंह सिले हुए हैं


बॉलीवुड या कहिये हिन्दी सिनेमा उद्योग बरसों से ऐसी फिल्में बनाता आ रहा है, जिसमें वह सहज है और ठहाका मार कर ये भी कहने से बाज नहीं आता कि लोग ऐसी ही फिल्में देखना पसंद करते हैं। अभी दो हफ्ते पहले आयी फिल्म बाहुबली ने वाकई सबको चौंकाने वाला काम किया है।
तमाम फिल्मकार मानते रहे हैं कि इतने बड़े पैमाने पर वही फिल्म प्रसिद्धि पा सकती है, जिसमें मानवीय पहलुओं पर बेहद बारीकी से ध्यान दिया गया हो। हजारों साल पहले की एक पौराणिक कथा में ऐसा कैसे संभव को सकता है? लेकिन दक्षिण भारतीय निर्देशक एस़ एस़ राजामौली ने ऐसा कर दिखाया है।
इधर, बॉलीवुड इस फिल्म की सफलता को शायद सहजता से पचा नहीं पा रहा है। कोई तहेदिल से इसकी तारीफ भी नहीं कर पा रहा है।  क्या यह खान तिकड़ी और तथाकथित सेकुलर समीक्षकों की घेराबंदी नहीं है कि इस फिल्म की व्यापक चर्चा तक नहीं हो रही है? बानगी देखिये, बाहुबली की रिलीज से पांच दिन बाद दिल्ली में फिल्म बजरंगी भाईजान को लेकर एक प्रेस कांफ्रेंस थी। इस कांफ्रेंस में सलमान खान से बाहुबली की सफलता और उससे मिलने वाली संभावित टक्कर को लेकर एक सवाल पूछा गया। आप विश्वास करेंगे कि सलमान के मुंह से जवाब नहीं निकला।
दरअसल, बॉलीवुड में फिल्मों की रिलीज को लेकर एक तरह की दादागिरी का माहौल है। खास मौके (नया साल, क्रिसमस, दीपावली, ईद, 15 अगस्त, 26 जनवरी आदि) पर खान तिकड़ी का कब्जा है। इनके बाद कुमार और देवगन बैठे हैं। बड़े बैनर की फिल्म हुई तो सैफ की चल पड़ती है। ऐसे ही एक विवाद की बानगी 2013 में दीपावली के मौके पर अजय देवगन की फिल्म 'सन ऑफ सरदार' और शाहरुख खान की फिल्म 'जब तक है जान' को लेकर देखी जा चुकी है। इस संबंध में अजय देवगन अदालत तक का दरवाजा खटखटा चुके थे। ताजा उदाहरण शाहरुख खान हैं जो अगले साल ईद की 'बुकिंग' अभी से कर बैठे हैं। अगले साल ईद पर उनकी फिल्म 'रईस' प्रदर्शित होगी, ये तय माना जा रहा है। इस फिल्म की निर्माता एक्सेल एंटरटेन्मेंट है। यह कंपनी फरहान अख्तर और रितेश सिधवानी की है। मामला साफ है, बड़े लीडर बड़ा खेल। ऐसे में आप सिर्फ कमाई की कामना कर सकते हैं, फिल्म की गुणवत्ता की नहीं। किसी खास मौके पर रिलीज हुई फिल्म को पहले से हुए एक करार के तहत 4 से 5 हजार प्रदर्शन तक मिल जाते हैं। छुट्टी का दिन होने की वजह से पहले दिन ही धमाकेदार शुरुआत होती है। कमाई का पैमाना 35 से 40 या फिर अब तो 45 से 50 करोड़ के बीच भी आने लगा है। ऊपर से मीडिया ऐसी किसी फिल्म की ये कहकर बढ़ाई करने से नहीं चूकता कि फलां फिल्म ने जैसे कोई कारनामा कर दिखाया है।
दूसरे और तीसरे दिन तक का खेल जब तक जनता की समझ में आता है तब तक फिल्म 100 से 150 करोड़ बटोर डालती है। 100 करोड़ या इससे कम में बनी कोई फिल्म अगर अपनी रिलीज के हफ्ते-दस दिन में 150 करोड़ बटोर ले तो मुनाफे की आप कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसे में 'पब्लिक कनेक्शन' कहां हुआ? बाहुबली के साथ जो हो रहा है वह कारोबारी दिग्गजों के अनुमान से कहीं अधिक है। अब सबको डर है कि बाहुबली के अगले भाग से कैसे करिश्मा होगा।
 बाहुबली के संबंध में कहने वाली बात ये है कि एक फिल्म, जिसमें हमारे ग्रंथों, संस्कृति, लोक-कथाओं, कौशल, धर्म-शक्ति आदि की झलक दिखाई देती है, उसकी तहेदिल से तारीफ करने में आखिर कंजूसी क्यों? आमिर खान और बच्चन साहब कहां हैं? आमिर को अगर फिल्म के 'कंटेंट' से कोई परहेज है तो वह उसकी तकनीक की तो तारीफ कर ही सकते थे। वे तो तकनीक के हिमायती रहे हैं। तकनीक के हिमायती तो शाहरुख भी हैं। यह फिल्म तो बुल्गारिया में भी प्रदर्शित हुई है, जहां वह इन दिनों शूटिंग कर रहे हैं। शेखर कपूर ने बाहुबली को अपने ट्वीट से बहुत मान दिया। उन्होंने फिल्म की तकनीक और कौशल दोनों की तारीफ की। कहीं इनमें से किसी को ये डर तो नहीं कि बेशक दक्षिण की वजह से ही सही, कहीं ऐसी फिल्मों का दौर शुरू हो गया तो इनकी फूहड़ फिल्मों की पूछ कम न हो जाए।
बाहुबली ने दुनियाभर के फिल्म जगत में भारत के फिल्म कौशल की ऐसी धाक जमायी है कि बड़े-बड़े निर्माता-निर्देशक अचम्भित हैं। वर्षों बाद भारतवासी एक अद्भुत-अनूठी फि ल्म देखने के लिए परिवारों के साथ पहुंच रहे हैं, यह भारतीय फिल्म उद्योग के लिए नि:संदेह गर्व की बात है।
राजामौली ने एक ऐसा सपना देखा, जो संभवत: देश का हर बच्चा अपने बालपन में देखा करता है। पौराणिक कथा-कहानियां सुन कर बड़े हुए बच्चों में एक उत्सुकता होती है कि ये सब कैसे हुआ होगा? वह समय कैसा रहा होगा? ऐसे पराक्रमी वीर क्या सच में हुआ करते थे? राजामौली की प्रेरणा बनी अमर चित्र कथाएं, जिन्हें आजकल के बच्चे आर्चीज और रियेलिटी शोज के जमाने में भुला बैठे हैं, वे किशोर, जो मिल्स एंड बून्स पढ़ कर बड़े हो रहे हैं, अमर चित्र कथा उनके लिए शायद किसी दूसरी दुनिया की चीज है। राजामौली ने करीब 250 से अधिक अमर चित्र कथाओं के अधिकार खरीदे और बाहुबली का सपना देखना शुरू किया। क्योंकि उनकी फिल्म का नायक शिवा (प्रभास) ऐसी ही कहानियां सुन कर बड़ा हुआ है। उसने ये कहानियां अपनी मां से सुनी हैं। ऐसी कहानियां जो उत्सुकता जगाती हैं। एक ऐसी ही कहानी शिवा ने भी सुनी थी। उसके गांव में एक बड़ा विशाल झरना है, जिसके बारे में कहा जाता है कि उसके पीछे अनजान लोगों की दुनिया है। वहां भूत-प्रेत रहते हैं।
फिल्म में इस झरने का फिल्मांकन सन्न कर देने वाला है। वह तमाम प्राकृतिक वर्णन हालांकि 'स्पेशल इफेक्ट्स' की देन है, लेकिन यह सब इतने विश्वसनीय ढंग से पेश किया गया है कि आप सच में किसी और ही दुनिया में पहुंच जाते हैं। हालांकि फिल्म की शुरुआत एक भव्य स्तर पर फिल्माए गये एक बेहद रोचक युद्ध से की गयी है, लेकिन जल्द ही फिल्मकार आपको एक ऐसे संसार में ले जाता है, जहां मासूमियत अपने पंख पसार लेती है। बड़े होने पर शिवा का पराक्रम उस समय सामने आता है, जब वह एक विशालकाय शिवलिंग को उस झरने के नीचे स्थापित कर देता है, जिसकी कहानियां सुन कर वह बड़ा हुआ है। बस यहीं से शुरू होती है बाहुबली की एक विचित्र यात्रा।
दरअसल, राजामौली किसी अविश्वसनीय कहानी को बेहद असरदार ढंग से कहे जाने के लिए ही जाने जाते हैं। मामूली से मामूली दृश्य को भी वह इतना भव्य बना देते हैं कि दर्शक तथ्यों और तर्कों को भूल जाता है। उनकी पिछली फिल्में एग्गा (इस फिल्म को हिन्दी में मक्खी के नाम से जाना जाता है) और मगधीरा में यह सब परखा जा चुका है। यही वजह है कि जब शिवा, अवंतिका के मकसद को अपना लेता है तो लगता है कि धर्मेन्द्र ने अपनी किसी हीरोइन की लड़ाई को अपना बना लिया है। लेकिन ये कोई आम मसाला बॉलीवुडिया फिल्म नहीं है, जहां फार्मूलों की चाशनी में किरदार गढ़े और बयां किये जाते हैं। किसी को नहीं पता कि अवंतिका का मकसद असल में शिवा को उसकी पिछली जिंदगी के सिरे से मिलाने वाला है। देखते ही देखते कहानी में एक समूचा राज्य दिखाई देने लगता है।
सच मानिये, अगर बाहुबली के अलावा कोई और फिल्म होती तो शायद दर्शक ऐसा अंत देख कर सिनेमाघर में आग लगा देते। लेकिन यह अंत फिल्म के दूसरे भाग की सूचना के साथ आता है। इसलिए खलता नहीं है। राजामौली पहले ही कह चुके थे कि इस फिल्म के उन्होंने दो भाग बनाए हैं। दूसरा भाग अगले साल प्रदर्शित होगा।
 by Panchjanya

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