Tuesday, 30 August 2016

 शिवलिंग क्या है, 
और… परमाणु बम का वो सूत्र था…..
e / c = m c {e=mc^2}
अब ध्यान दें कि …. ये सूत्र एक सिद्धांत है …. जिसके अनुसार पदार्थ को पूर्णतया ऊर्जा में बदला जा सकता है …..अर्थात, अर्थात….. पदार्थ और उर्जा … दो अलग-अलग चीज नहीं… बल्कि , एक ही चीज हैं….. परन्तु…. वे दो अलग-अलग चीज बनकर ही सृष्टि का निर्माण करते हैं….!
और….. जिस बात तो आईसटीन ने अभी बताया ….. उस रहस्य को तो …हमारे ऋषियो ने हजारो-लाखों साल पहले ही ख़ोज लिया था.
यह सर्वविदित है कि….. हमारे संतों/ऋषियों ने हमें वेदों और उपनिषदों का ज्ञान लिखित रूप में प्रदान किया है … परन्तु, उन्होंने कभी यह दावा नहीं किया कि यह उनका काम है.. बल्कि, उन्होंने हर काम के अंत में स्वीकार किया कि……. वे हमें वही बता रहे हैं…. जो, उन्हें अपने पूर्वजों द्वारा कहा गया है.
और….लगभग १३.७ खरब वर्ष पुराना …. सार्वभौमिक ज्ञान हमें तमिल और संस्कृत जैसी महान भाषाओँ में उपलब्ध होता है….. और, भावार्थ बदल जाने के कारण… इसे किसी अन्य भाषा में पूर्णतया (exact) अनुवाद नही किया जा सकता …. कम से कम अंग्रेजी जैसी कमजोर भाषा में तो बिलकुल नही ।
इसके लिए…. एक बहुत ही छोटा सा उदाहरण देना ही पर्याप्त होगा कि….. आज “”गूगल ट्रांसलेटर”” में ……लगभग सभी भाषाओँ का समावेश है …..परन्तु… संस्कृत का नही … क्योकि संस्कृत का व्याकरण विशाल तथा दुर्लभ है …!
अति मूर्ख प्राणी नासा वाली बात का सबूत यहाँ देख सकते हैं…. : http://hindi.ibtl.in/news/
international/1978/article.ibtl
हुआ दरअसल कुछ ऐसा है कि……….. जब कालांतर में ज्ञान के स्तर में गिरावट आई तब पाश्चात्य वैज्ञानिको ने वेदों / उपनिषदों तथा पुराणो आदि को समझने में मूर्खता की …क्योकि, उनकी बुद्धिमत्ता वेदों में निहित प्रकाश से साक्षात्कार करने योग्य नही थी ।
और…. ऐसा उदहारण तो हम हमारे दैनिक जीवन में भी हमेशा देखते ही रहते हैं कि….देखते है जैसे परीक्षा के दिनों में अध्ययन करते समय जब कोई टॉपिक हमें समझ न आये तो हम कह दिया करते है कि ये टॉपिक तो बेकार है …..जबकि, असल में वह टॉपिक बेकार नही…. अपितु , उस टॉपिक में निहित ज्ञान का प्रकाश हमारी बुद्धिमत्ता से अधिक है ।
इसे ज्यादा सरल भाषा में ….इस तरह भी समझ सकते है कि,….. बैटरी चालित 12 वोल्ट धारण कर सकने वाले विद्युत् बल्ब में.., अगर घरों में आने वाले वोल्ट (240) प्रवाहित कर दिया जाये तो उस बल्ब की क्या दुर्गति होगी ??????
जाहिर सी बात है कि…. उसका फिलामेंट तत्क्षण अविलम्ब उड़ जायेगा ।
यही उन बेचारे वैज्ञानिकों के साथ हुआ … और, वेद जैसे गूढ़ ग्रन्थ पढ़कर …. उनका भी फिलामेंट उड़ गया और….. मैक्स मूलर जैसे गधे के औलदॊन तो ….. वेदों को काल्पनिक तक बता दिया !
खैर….. हम फिर शिवलिंग पर आते हैं…..
शिवलिंग का प्रकृति में बनना.. हम अपने दैनिक जीवन में भी देख सकते है जब कि ……
किसी स्थान पर अकस्मात् उर्जा का उत्सर्जन होता है …..तो , उर्जा का फैलाव अपने मूल स्थान के चारों ओर एक वृताकार पथ में तथा उपर व नीचे की ओर अग्रसर होता है अर्थात दशोदिशाओं (आठों दिशों की प्रत्येक डिग्री (360 डिग्री)+ऊपर व नीचे ) होता है.. जिसके फलस्वरूप एक क्षणिक शिवलिंग आकृति की प्राप्ति होती है
उसी प्रकार…. बम विस्फोट से प्राप्त उर्जा का प्रतिरूप… एवं, शांत जल में कंकर फेंकने पर प्राप्त तरंग (उर्जा) का प्रतिरूप …. भी शिवलिंग का निर्माण करते हैं….!
दरअसल…. सृष्टि के आरम्भ में महाविस्फोट के पश्चात् उर्जा का प्रवाह वृत्ताकार पथ में तथा ऊपर व नीचे की ओर हुआ फलस्वरूप एक महाशिवलिंग का प्राकट्य हुआ….. जिसका वर्णन हमें लिंगपुराण, शिवमहापुराण, स्कन्द पुराण आदि में इस प्रकार मिलता है कि …….. आरम्भ में निर्मित शिवलिंग इतना विशाल (अनंत) तथा की देवता आदि मिल कर भी उस लिंग के आदि और अंत का छोर या शाश्वत अंत न पा सके ।
हमारे पुराणो में कहा गया है कि…… प्रत्येक महायुग के पश्चात समस्त संसार….. इसी शिवलिंग में समाहित (लय) होता है तथा इसी से पुनः सृजन होता है ।
इस तरह……….. सामान्य भाषा में कहा जाए तो….उसी आदि शक्ति के आदि स्वरुप (शिवलिंग ) से इस समस्त संसार की उत्पति हुई तथा उसका यह गोलाकार/
सर्पिलाकार स्वरुप प्रत्यक्ष अथवा प्ररोक्ष तथा प्राकृतिक अथवा कृत्रिम रूप से हमारे चारों और स्थित है ….
और, शिवलिंग का प्रतिरूप ब्रह्माण्ड के हर जगह मौजूद है…. जैसे कि….
1. हमारी आकाश गंगा , हमारी पडोसी अन्य आकाश गंगाएँ (पांच -सात -दस नही, अनंत है) , ग्रहों, उल्काओं आदि की गति (पथ), ब्लैक होल की रचना , संपूर्ण पृथ्वी पर पाए गये सर्पिलाकार चिन्ह ( जो अभी तक रहस्य बने हए है.. और, हजारों की संख्या में है.. तथा , जिनमे से अधिकतर पिरामिडों से भी पुराने है । ), समुद्री तूफान , मानव डीएनए, परमाणु की संरचना … इत्यादि…

Monday, 29 August 2016

Hardik Savani
ऑटोरिक्षा ड्राइवर ने निशानेबाज बेटी को सपने साकार करने के लिए 5 लाख की राइफल दी .. !

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अहमदाबाद शहर के ऑटोरिक्षा ड्राइवर मनीलाल गोहली (50 वर्ष) ने अपनी राष्ट्रीय स्तर की निशानेबाज बेटी मित्तल (27) को जर्मनी की 5 लाख रूपये की राइफल भेंट की।

गोहली ने कहा, ‘मित्तल ने जब से 2012 में शौक के तौर पर निशानेबाजी में हाथ आजमाये, तभी से विभिन्न चैम्पियनशिप में भाग लेना शुरू कर दिया। हम राइफल का खर्चा नहीं उठा सकते थे तो वह अन्य निशानेबाजों और राइफल क्लब से उधार लेती थी। लेकिन मैंने महसूस किया कि उसे राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की चैम्पियनशिप में पदक हासिल करने के लिये शीर्ष स्तर की राइफल की जरूरत है।’
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गोहली ने कहा, ‘हर पिता की तरह मैं भी मित्तल की शादी के लिये पैसा बचाता था। लेकिन मैंने महसूस किया कि उसे बेहतर प्रदर्शन करने के लिये राइफल की जरूरत है। इसलिये मैंने अपनी बचत राशि का इस्तेमाल 50 मीटर की रेंज की जर्मनी में बनी राइफल खरीदने में किया जो पांच लाख रूपये की है। पिता के तौर पर यह सुनिश्चित करना मेरा कर्तव्य है कि मेरी बेटी को अपने जुनून को पूरा करने में किसी तरह की मुश्किल का सामना नहीं करना पड़े।’ 

Sunday, 28 August 2016

बच्चों को कोटा भेजने वाले मम्मी-पापा कलैक्टर का ये लेटर जरूर पढ़ें

पिछले कुछ महिनों में कोटा में बढ़े सुसाइड के केस को देखते हुए कोटा के जिला कलैक्टर ने अभिवावकों के नाम खुला पत्र लिखा है. जिसे हर मम्मी-पापा को जरूर पढ़ना चाहिए

 इंजीनियर और डॉक्टर बनने का सपना लिये देश के अलग-अलग हिस्सों से महज 15 से 18 साल की उम्र के बच्चे आपको आजकल रेलवे स्टेशनों पर मिल जाएंगे. इन बच्चों में से ज्यादातर छात्रों का कारवां राजस्थान के कोटा के लिए रुख करता दिखेगा. इनके साथ चल रहे बच्चों के मां-बाप के चैहरे पर तब एक अजीब सा शुकून दिखता है जब उनके बच्चों का दाखिला कोटा के किसी कोचिंग में हो जाता है. दरअसल कोटा में चल रहे कोचिंग इंस्टीट्यूट के प्रति भरोसा उन्हे यहां खींच लाता है. यहां के कोचिंग सेंटर में पढ़कर कई छात्र आईआईटी जैसे संस्थानों नें दाखिला पाने में सफल होते हैं. और जो सफल नहीं हो पाते वो इस तरह टूट जाते हैं कि जिंदगी की जंग में हार मानने को राजी हो जाते हैं. पिछले कुछ महिनों में कोटा में बढ़े सुसाइड के केस को देखते हुए कोटा के जिला कलैक्टर ने अभिवावकों के नाम खुला पत्र लिखा है. जिसे हर मम्मी-पापा को जरूर पढ़ना चाहिए
जिला कलेक्टर की खुला पत्र बच्चों के माता पिता के नाम
प्रिय अभिभावकगण,
कोटा शहर की ओर से मुझे आपके बच्चों का इस शिक्षा नगरी में स्वागत करने का अवसर मिला है। ये शहर इस देश के युवा मस्तिष्क को आधुनिक भारत का निर्माता बनाने में ऊर्जा देने का कार्य करता है । इस पत्र को आरंभ करने से पूर्व मेरा अभिभावकों से निवेदन है कि वे इसे पर्याप्त समय देकर संयमपूर्वक पढ़ें, तथा उपयुक्त होगा कि अभिभावक अर्थात माता – पिता साथ साथ पढ़ें। प्रत्येक माता – पिता का सपना होता है कि उनका बच्चा सफलता के उस मुकाम तक पहुंचे जहां कुछ लोग ही पहुंच पाते हैं । इसके लिए माता – पिता अपने बच्चे के मस्तिष्क में एक बीजारोपण करते हैं तथा उसका सही पोषण ही सफलता का आधार है ।
माता-पिता के लिए ये अत्यंत कठीन स्थिति होती है कि वे अपने बच्चे को ऐसी जगह छोड़ते हैं जहां वे स्वयं नहीं रहते। ये और भी मुश्किल तब हो जाता है जब बच्चे को शिक्षा के क्षेत्र में उत्कृष्ट और प्रतिबद्ध प्रयासों के लिए छोड़ा गया हो। जब माता – पिता बोर्ड/होर्डिंग/अखबारों में उन प्रतिभावान बच्चों के क्षेत्र को देखते हैं जो कि उन्होंने अपने बच्चों के लिए सोचा है तो उनका संकल्प अपने बच्चों को प्रेरित करने के लिए ओर मजबूत हो जाता है। एक अच्छे आर्थिक स्थिति और जीवन स्तर के लिए इंजिनियरिंग और चिकित्सा के क्षेत्र में अच्छा केरियर निश्चित रूप से हो सकता है, जब मैं ईमानदारी से सोचता हूं तो यही एक बड़ा कारण है जो अभिभावकों को इंजिनियरिंग और चिकित्सा के क्षेत्र में अपने बच्चों का भविष्य देखने के लिए प्रेरित करता है। तथा सीमित संसाधनों और उच्च स्तरीय प्रतियोगिता को देखते हुए समय से आगे की सोचना गलत भी नहीं हैं।
हालांकि मुझे लगता है कि हम सब इस बात से सहमत है कि दुनियां पिछले 15-20 सालों में इतनी बदल गई है कि जो सुविधाएं और सेवाएं कुछ सीमित लोगों के लिए उपलब्ध थी , वे वर्तमान में प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में भारी प्रगति के कारण अब सभी लोगों के लिए उपलब्ध है।
मनोरंजन पेशेवर खेल, साहित्य, स्वास्थ्य, पत्रकारिता, फोटोग्राफी, इवेंटमैनेजमेंट, संगीत, पर्यटन इत्यादि में बीते युग की तुलना भारी वृद्धि देखी गई है। बहुत से लोगों ने इन क्षेत्रों में नए मुकाम हासिल किए हैं जो ना कि एक सफल केरियर विकल्प के रूप में सामने लाए बल्कि इन्होंने मनुष्य की रचनात्मक क्षमता को भी बढ़ाया है।
खैर, मैं आपसे इसे एक बेहतर विकल्प के रूप में देखने के लिए नहीं कह रहा हूं । परंतु इसे भी एक विकल्प के रूप में देख सकते हैं । ये तथ्य की बात है कि आज युवा बच्चे अपने अकादमिक प्रदर्शन के संबंध में काफी दबाव का सामना कर रहे हैं इसी वजह से इनमें से कई बच्चे तनाव के विभिन्न स्तरों से गुजरते हैं।
यदि हम सोचतें हैं कि प्रतियोगिताओं की वजह से कुछ तनाव होता है तो माता-पिता का समर्थन देखभाल और परिवार का अच्छा वातावरण किसी भी कठिन परिस्थिति का सामना करने के लिए बच्चों को सक्षम बनाता है। हालांकि मौजूदा वास्तविकता ये है कि सही परिस्थिति और समर्थन की कमी की वजह से कई बच्चे आत्महत्या के निर्णय तक पहुंच जाते हैं।
मैंने अधिकतर लोगों को ऐसे कहते हुए सुना है कि बच्चों को ऐसी कई चीजें पसंद नहीं होती जो उनके लिए अच्छी है। अब आपके मन में ये प्रश्न उठ सकता है कि माता पिता को बच्चों की अपरिपक्व इच्छाओं को मानना चाहिए ।शायद आवश्यकता नहीं तो आइए, अब देखते हैं कि बच्चे किन चीजों का विरोध करते हैं शायद सही खाना, सही समय पर सोना, सही तरीके से बात करना, मर्यादित आचरण करना, सही देखना –सुनना आदि।
बच्चे वास्तव में माता –पिता का अनुगमन करते हैं न कि किसी भी चीज का अंधा अनुसरण इसके अलावा एक बात निश्चित है कि बच्चे माता-पिता को देखते हैं एवं विचार करते है कि उन्हे जो सिखाया गया है क्या वह भी उसका पालन करते है? और क्या वें उन बातों का पालन करते हुए वास्तव में स्नेहहिल, शांत एवं खुश है।
वे अपने माता-पिता की केवल उन्ही बातों को चुनते है जो उन्हे सुख और शांति प्रदान करती है। यदि, आपने परिस्थितियों को खराब कर दिया है तो हो सकता है, आपकी संतान आपको नापसंद करे।
यह काफी विचित्र और खिझाने वाली बात हो सकती है लेकिन ऐसी संभावना है कि आपकी संतान आपको नापसंद करने लगे। इसके विभिन्न रुप हो सकते है पूर्णत: पसंद न करना, आपकी कुछ आदतों को पसंद न करना, किसी अन्य की तुलना में आपको कम पसंद करना, आपकी अत्यधिक देखभाल एवं चिंता की भावना के लिए ना पसंद करना, जिसे आप प्यार समझ सकते है, परंतु हो सकता है वह आपकी संतान के लिए अति हो आदि।
तो क्या इस पत्र का उद्देश्य आपको यह अहसास कराना है कि आपकी संतान आपको नापसंद करती है।
जी नहीं… !आपका बच्चा आपको प्यार व पसंद करता है… मैं केवल इस बिंदु पर जो देना चाहता हूं कि हम अनजाने में कभी ऐसी स्थिति पैदा ना कर दे या हालात पैदा ना कर दे कि जो हमे फिर से सोचने पर मजबूर कर दे…..
बच्चे माता-पिता की जिम्मेदारी है औऱ हमे कोई अधिकार नही है कि हम अभिभावकों को उनकी जिम्मेदारियों का अहसास कराएं, ना ही हम ऐसा करना चाहते है। सभी अभिभावक, अपने बच्चों का भविष्य सुनहरा बनाना चाहते है किन्तु यहां ये विचारणीय है कि हमारे स्वप्न और ख्वाहिशे केवल मात्र हमारे अनुभवों तक ही सीमित है। सच्चाई ये भी है कि हम यह नहीं सोच सकते, या फिर अपने सपने में भी ये विचार नहीं कर सकते है कि हमारा बच्चा हमारी सोच से कई गुना ज्यादा भी प्राप्त कर सकता है। हम सभी समाज के विभिन्न वर्गो से आते है चाहे वह सामाजिक हो या आर्थिक, या फिर कोई धर्म, या कोई विचारधारा हो। किन्तु जहां तक पालन –पोषण का मूल सिद्धांत है वह सभी के लिए समान रहता है।
मैं इस विषय का कोई ज्ञाता नहीं हूं और नहीं मुझे बच्चों के सही पालन पोषण के लिए कोई विशेष योग्यता प्राप्त है। मैं यह भी मानता हूं कि हर बच्चा चूंकि अलग होता है इसलिए एक अलग प्रकार का पालन –पोषण चाहता है। मेरा आपसे अनुरोध है कि कृपया आप इन निम्न आधारभूत मौलिक बिंदुओं की तरफ ध्यान आकर्षित करें ..
अपने घर का वातावरण अपने बच्चे के लिए खुशनुमा, प्यारभरा एवं शांति प्रिय बनाएं । ऐसे वातावरण में पला, बढ़ा बालक न केवल स्वयं शांतिप्रिय एवं संतुलित रहता है बल्कि किसी भी तनाव की स्थिति का सामना करने के लिए सक्षम रहता है।
घबराएं नहीं..! आपका बच्चा पूरी तरह से सुरक्षित है आप चिंता नहीं करें। मैं किस विषय पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं, मुझे विश्वास है कि पत्र में आगे पढ़ने पर आप स्वत: ही समझ जाएंगे।

मैं अपने आपको बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण व्यक्ति के रूप में मानता हूं कि क्योंकि मुझे युवा प्रतिभाशाली सुंदर और अद्भूत बच्चों के लगभग 20-25 आत्महत्या नोट पढ़ने को मिले।
क्या मैं इस तरह के बच्चों के लिए इतने सारे विशेषण दे रहा हूं क्योंकि उन्होंने आत्महत्या कर ली थी ?
मुझे क्षमा करें…! मेरा जवाब नहीं है…ये वास्तव में वैसे ही थे जैसा मैंने पहले कहा कि युवा, प्रतिभाशाली सुंदर और अद्भूत बच्चे।
एक लड़की जिसने अपने पांच पन्नों के अंग्रेजी के सुसाइड नोट में व्याकरण की एक गलती नहीं की एवं लेख भी अति सुंदर था…कितनी प्रतिभावान!
उसकी मां ने उसकी परवरिश के लिए अपने केरियर का त्याग किया उसके लिए उसने अपनी मां को धन्यवाद दिया …परंतु ये बात उसे बार बार चुभ रही थी….एक अन्य लड़की चाहती थी कि उसकी दादी अगले जन्म में उसकी माता बने…उसकी इच्छा थी कि उसकी छोटी बहन वो सब करे जो वो चाहती है। ना कि जो माता-पिता चाहते हैं..एक ने लिखा कि वो विज्ञान नहीं पढ़ना चाहती पर उससे करवाया गया…बहुतों ने कुछ लाइनों में लिखा कि अपने माता-पिता की अपेक्षाओं को पूरा नही कर सकते …कुछ ने लिखा की वो सक्षम नहीं हैं वो सब करने जो उनसे कहा गया है…सभी ने यही सोचा की इस तनाव से ज्यादा शांतिदायक और प्रयासरहित तो मौत ही है। कितना दुर्भाग्यपूर्ण है….!
जैसा कि एक हिमशैल की चोटी से हम उसकी गहराई का अंदाजा नहीं लगा सकते वैसे ही आत्महत्या के मामले भले ही कम संख्या में दिखते हैं किंतु वास्तविकता में इससे कहीं अधिक वे बच्चे है जो इस चरम कदम को तो नहीं उठाते किंतु प्रदर्शन के दबाव की वजह से बहुत ज्यादा तनाव, चिंता से गुजर रहें हैं।
बहुत सारे माता पिता इस आपदा के बाद ये विश्वास नहीं कर पाते की उनके खुद के बच्चे हैं जिन्होंने इस तरह का कदम उठा लिया। मैं आगे किसी की भी भावनाओं को आहत नहीं करना चाहता किंतु वास्तविकता यह है कि बच्चे को मानसिक रूप से किसी की तलाश थी, जैसे किसी डूबते हुए आदमी के लिए तिनके का सहारा और वो तिनके का सहारा सिर्फ आपका उस बच्चे के प्रयासों की प्रशंसा करना हो सकता था। आपको सांत्वना भरे शब्दों से उसे ये बताना होगा कि अपना श्रेष्ठ दे, परिणाम जो भी रहे आपका उसकी विशिष्ठता के लिए पूर्ण प्रशंसा करना आत्मविश्वास को बढ़ाता है लेकिन इसके बदले में बच्चों को उनके प्रदर्शन को लेकर भावनात्मक दबाव बनाया जाता है। उनके पड़ोसियों, रिश्तेदारों के बच्चों आदि से उनकी तुलना की जाती है। बच्चों के प्रदर्शन को सामाजिक प्रतिष्ठा की हानि या उपलब्धि से जोड़ दिया जाता है।
हमें ये समझने की आवश्यकता है कि आंकड़ों के अनुसार वे सभी बच्चे जो अकादमिक दबाव का सामना कर रहें हैं, की तुलना में आत्महत्या करने वाले बच्चों की संख्या कम हैं, लेकिन तुलनात्मक अध्ययन ये दर्शाता है कि उनकी आशाएं एवं सपनों को कई बार आहत किया जाता है। अत:ये उचित समय है कि हम इस संदर्भ में थोड़ा विचार करें।
बच्चों की वास्तविक जरूरतों एवं क्षमताओं को पहचाने की महत्ती आवश्यकता है । इस विषय में भी दो चरम विचारधाराएं हैं -1. बच्चे को आपके अपने सपने को हकीकत में बदलने के लिए उसकी सीमाओं से परे जाकर अथक प्रयास करवाने की या दूसरी अनावश्यक रूप से जरूरत से ज्यादा लाड प्यार की। पर अफसोस दोनों ही तरीके ही कारगर नहीं हो पाते ।
हमारा ऐसा मानना है कि हमें हमेशा शिक्षक या उपदेशक का कार्य करने की बजाए बच्चों से भी कुछ सीखने का प्रयास करना चाहिए । क्योंकि प्राय: बच्चे हमें खुशी और शांति की राह ही दिखाते हैं।
बच्चों को अपने स्वयं के सरोकारों के साथ रहने दें यानि मेरा मत है कि बच्चों को प्रकृति या वातावरण के साथ जोड़े और उनकी संवाद क्षमता को संवृद्धित करें । अगर उसका आकर्षण विपरित लिंग की ओर होता है तो ये स्वाभाविक रूप से बढ़ती उम्र का लक्षण है ना कि विकृति। इस स्वाभाविक प्रक्रिया को रोकने का प्रयास न कर सही दिशा एवं सही आकार देते हुए अपनी दृष्टि उस पर बनाए रखें । अपने बच्चों के साथ समय व्यतित करिए ।
उनकों बार-बार अपने कार्य , हालात, समस्याएं या फिर परेशानियों से अवगत ना कराएं । आपके जीवन का संघर्ष आपके बच्चे के लिए प्रेरणा बनें न की बोझ। कहीं ऐसा न हो की बहुत देर हो जाए और आपके बच्चों के पास आपके साथ समय व्यतीत करने के लिए समय ही न बचे। प्रत्येक बच्चे की क्षमता की तुलना में उसके स्वयं के माता-पिता एक सीमा तक आदर्श बन सकते हैं। जबकि उस बच्चे की क्षमता अपने माता-पिता से ज्यादा अधिक है। ऐसी स्थिति में हमें उसकी पूर्ण क्षमता प्राप्त करने के लिए एक फेसिलेटर के रूप में प्रयास करने चाहिए। आखिर में मेरा आपसे यही निवेदन है कि अपना सपना साकार करवाने के लिए आप किसी भी हद तक जा सकते हैं या अपने बच्चे को अपनी पूर्ण क्षमता को हासिल करने के लिए, उसके सपनों को साकार करने के लिए सकरात्मक माहौल सृजित करना चाहते हैं।
सामूहिक परामर्श कार्यक्रम में ऐसे विषयों पर बात करने के लिए मुझे थोड़ी हिचकिचाहट इसलिए है कि प्राय: ऐसे कार्यक्रम में आप स्वयं से ज्यादा स्वयं के पड़ौसी या अन्य किसी व्यक्ति की बातों से प्रभावित होकर मूल विषय से परे हो जाते हैं। मेरे विचारों से भिन्न अभिप्राय रखना गलत नहीं है लेकिन यह आप अपनी शर्तों पर रखे तो बेहतर है न कि किसी ओर की।
अत: आपका मूल्यवान समय लेने के लिए आपका क्षमा प्रार्थी हूं कि मैंने आपको बाल प्रबंधन की ये बातें बताने की कोशिश की। जिसका मैं विशेषज्ञ नहीं हूं । मेरे विचार कोटा में मिले अनुभव का सार है एवं निश्चित रूप से गुरूजनों की प्रेरणा से ही मैं ऐसा कर पाया हूं।
दुनियां के श्रेष्ठ माता-पिता बनिए…।
मुझे पूरा विश्वास है कि इसमें कोई स्पर्धा नहीं होगी…. 
डॉ रवि कुमार
जिला कलेक्टर, कोटा

 बिना ड्राइवर चलेगी ये टैक्सी

 शुरू करने वाला पहला देश  सिंगापुर ...

ट्रांसपोर्ट के क्षेत्र में कंपनियां रोज ही कुछ ना कुछ नया इनोवेटिव आइडिया लेकर बड़ा चेंज लेकर आ रही हैं। आपने अभी तक गूगल की ड्राइवरलेस कारों के बारे में सुना होगा। इसके परीक्षण को लेकर अक्सर खबरें आया करती रही हैं। लेकिन आपको बता दें, सिंगापुर दुनिया का पहला ऐसा देश बन गया है जहां पर ड्राइवर रहित टैक्सी सर्विस शुरू कर दी गर्इ है।
- गुरुवार को nuTonomy ड्राइवरलेस टैक्सी सर्विस लॉन्च की गई।
- इसे यातायात के क्षेत्र में एक अभूतपूर्व कदम माना जा रहा है।
- nuTonomy कंपनी ने ड्राइवरलैस कार को सड़कों पर चलाना शुरू कर दिया है। इसके साथ ही इसने उबर, गूगल और टेस्ला जैसी कंपनियों को पीछे छोड़ दिया है।
- nuTonomy एक व्हीकल स्टार्टअप कंपनी है, जिसने टैक्सी सर्विस जाइंट उबर और गूगल को पछाड़ते हुए रोबो-टैक्सी सर्विस के नाम से ये सेवा शुरू की है।
- फिलहाल ये सेवा चुनिंदा बिजनेस लोकेशंस के लिए ही शुरू की गर्इ है। इस दौरान टैक्सी का दायरा करीब 2.5 स्क्वायर मील तक सीमित होगा।
- nuTonomy ने इस सेवा के लिए वन नॉर्थ बिजनेस और रेजिडेंशियल इलाका चुना है।
- यहां पर ये ड्राइवरलेस कार चुनिंदा लोकेशंस के लिए पिक एंड ड्रॉप फैसिलिटी देगी।
- कंपनी के अनुसार उन्हें काफी अच्छा रेस्पोंस मिल रहा है। पहले दिन सभी कैब्स बैटरी डाउन होने तक बुक रहीं।
- कंपनी की और से बताया गया है कि ये कारें जीपीएस तकनीक की सहायता से काम करती हैं।
जो इस कहानी से प्रभावित होगा, वही सेकेंड के हज़ारवें हिस्से की गणना करने का दम दिखाएगा...
ब्रुसली ने अपनी आत्मकथा में लिखा है कि सुबह नींद खुलते ही उसका मन सोचता था कि इस वक्त उसका प्रतिद्वंदी क्या कर रहा होगा। वो अपने मन में खुद ही सोचता कि उसका प्रतिद्वंदी इस वक्त मार्शल आर्ट का अभ्यास कर रहा होगा। ब्रुसली ऐसा सोचता और खुद लग जाता अभ्यास में। दोपहर में फिर वो सोचता कि उसका प्रतिद्वंदी इस वक्त क्या कर रहा होगा। वो फिर सोचता कि उसका प्रतिद्वंदी इस वक्त भी मार्शल आर्ट का अभ्यास कर रहा होगा। उसके मन में ये ख्याल आता और फिर वो खुद लग जाता प्रैक्टिस में।
शाम को भी वो अपने प्रतिद्वंदी के विषय में सोचता और यही सोचता कि उसका प्रतिद्वंदी इस वक्त भी अभ्यास कर रहा होगा। वो ऐसा सोचता और खुद अभ्यास में लग जाता। दिन में कई बार खेल का अभ्यास करने के बाद जब देर रात ब्रुसली बिस्तर पर सोने जाता तो आसमान में टिमटिमाते सितारों को देख कर उसके मन में फिर यही ख्याल आता कि उसका प्रतिद्वंदी इस वक्त क्या कर रहा होगा। वो लेटे हुए सोचता कि उसका प्रतिद्वंदी इतनी रात को सो गया होगा।
ब्रुसली जैसे ही सोचता कि उसका प्रतिद्वंदी अब सो गया होगा, वो उछल कर बिस्तर से उठता और खुद से कहता कि ब्रुसली, तुम्हारा प्रतिद्वंदी इस वक्त सो रहा है। यही वो समय है जब तुम्हारा किया अभ्यास फलीभूत होगा। और इस तरह ब्रुसली रोज देर रात में उठ कर और अभ्यास करता।  बोल्ट ने ब्रुसली ये कहानी सुनी होगी। वो इस कहानी से प्रभावित रहा होगा

 संस्कृत बोलने वाले इस गांव में

 हर परिवार में सॉफ्टवेयर इंजीनियर..!

स्थित मत्तूर गांव के किसी घर में आप दाखिल होंगे, तो आपको ‘भवतः नाम किम’ (आपका नाम क्या है?)
 ‘कथम अस्ति’ (आप कैसे हैं?) 
और ‘कॉफ़ी व चायं किम इच्छति’ (आप क्या लेना पसंद करेंगे, चाय या कॉफी)
 जैसे संस्कृत शब्द सुनाई देंगे. क्योंकि ये इकलौता ऐसा गांव है जहां वैदिक समय से लेकर आज 21वीं सदी तक संस्कृत भाषा का प्रयोग बातचीत के लिए किया जा रहा है. आप यहां बुज़ुर्गों, युवाओं और महिलाओं को इसी भाषा में वार्तालाप करते पाएंगे.

600 साल पहले जब केरल के ब्राह्मण मत्तूर में आकर बसे, तो वे संस्कृत के साथ-साथ संकेथी में भी संवाद करते थे. संकेथी संस्कृत, तमिल, कन्नड़ और तेलगू का मिश्रण है. इस भाषा की कोई पांडुलिपी नहीं है, इसीलिए इसे देवनागरी में ही लिखा और पढ़ा जाता है.
इस गांव के निवासी वैदिक लाइफस्टाइल को जीते हैं. 1981 में ‘संस्कृत भारती’ नाम के संगठन ने इस प्राचीन भाषा को ज़िंदा रखने के लिए 10 दिन की संस्कृत वर्कशॉप गांव में आयोजित की थी. 

. छात्रों को बेहद बारीकी के साथ पांच सालों तक इस पाठ्यक्रम को पढ़ाया जाता है, ताकि छात्र बेहतर तरीके से अपनी परंपरा और भाषा को जान सकें.
 यहां
 वेदों को पारंपरिक रूप से पढ़ाया जाता है 
यहां के छात्र आम लोगों की सुविधा के लिए पाठशाला में ही ताड़ के पत्तों पर लिखित संस्कृत के दुलर्भ और नष्ट होते लेखों को सुधारते हैं. कई छात्र विदेशों से आकर पाठशाला में संस्कृत भाषा सीखते हैं.
मत्तूर में रहने वाला हर व्यक्ति चाहे वो सब्जी विक्रेता हो या पुजारी, सभी संस्कृत समझते हैं. अधिकतर लोग इस भाषा को बेहद सरलता के साथ बोलते हैं. यहां आपको मोबाइल पर बात करते हुए, बाइक चलाते हुए या पैदल चलते हुए लोग संस्कृत में बात करते मिल जाएंगे. इतना ही नहीं, बच्चे क्रिकेट खलेते हुए भी इसी भाषा में बातचीत करते हैं. इस गांव के घरों की दीवारों पर संस्कृत में ‘मार्गे स्वच्छताय विराजते, ग्राम सूजनः विराजते’ कोट्स लिखे दिखाई देंगे. साथ ही कुछ घरों के दरवाज़ों पर लिखा दिखाई देगा कि ‘आप इस घर में संस्कृत में ही बात करें’.
मत्तूर के स्कूलों का अकादमिक रिकॉर्ड जिले में सबसे अव्वल है. अध्यापकों के अनुसार संस्कृत सीखने से छात्र की तर्कशक्ति, गणित और कौशल में वृद्धि होती है. मत्तूर के कई छात्र विदेश में इंजीनियरिंग और मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं. आपको ये जानकर हैरानी होगी कि इस गांव के हर परिवार से एक बच्चा सॉफ्टवेयर इंजीनियर है. मत्तूर के 30 व्यक्ति संस्कृत के प्रोफेसर के तौर पर कुवेम्पु, बेंगलुरु, मैसूर और मंगलौर के विश्वविद्यालयों में पढ़ाते हैं. 

Friday, 26 August 2016

"निर्बल ही असुरक्षित होते हैं क्योंकि आत्मबल की शक्ति ही सबल की सुरक्षा का आश्वासन, ऐसे में, अगर समाज को वैचारिक रूप से निर्बल बना दिया जाए तो वह स्वतः ही असुरक्षित महसूस करने लगेगी , और तब, समय की आवश्यकताओं को भी समस्या और भय का पर्याय मान लिया जाएगा और जीवन संघर्ष की चुनौतियों को टालने और अपनी सहुलयतों के लिए परिस्थितियों से समझौता करना सीख जाएगा ; यही वर्तमान की स्थिति है।
हमें राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त हुए लगभग सत्तर वर्ष हो गए फिर भी अगर हम एक राष्ट्र के रूप में विकसित होने के लिए अब तक संघर्षरत हैं तो केवल इसीलिए क्योंकि शताब्दियों की पराधीनता ने हमसे हमारी वास्तविकता छीन ली है; आत्मबोध, आत्मज्ञान और आत्मविश्वास के आभाव में हम अपने समाज में लोगों को फिर चाहे जितना भी शिक्षित क्यों न कर लें, जीवन की सफलता के आधार पर हम जीवन की सार्थकता नहीं सिद्ध कर सकते।
 अतीत हमारे इस वर्तमान के लिए जो कुछ भी कर सकता था, उसने किया, चूँकि आज हम वर्त्तमान हैं इसलिए यह हमारा दायित्व है की हम बेहतर भविष्य के लिए अपने जीवन काल में जो भी कर सकते हैं, करें! 
 क्यों न हम अपने वर्तमान के प्रयास से एक ऐसी पीढ़ी का निर्माण करें जो आत्मबोध, आत्मज्ञान और आत्मविश्वास से परिपूर्ण हो, जनमें असंभव को भी संभव बनाने का सामर्थ हो ;ऐसा किया जा सकता है और हमें करना भी पड़ेगा, पर यह तभी संभव है जब हम यथार्थ में ऐसे उदाहरण प्रस्तुत करें जो व्यवहारिकता की पुनर्व्याख्या कर सके,,
Mohan Bhagwat ji
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नासा में लगती है 15 दिन की संस्कृत क्लास ! हर विज्ञानिक को अनिवार्य !

अमरीकी अंतरीक्ष एजेंसी नासा (नेशनल एकेडमी फॉर स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन) में भर्ती होने वाले वैज्ञानिक के प्रशिक्षण काल में 15 दिन की संस्कृत की कक्षा लगती है। इसमें आर्यभट्ट, वराहमिहिर जैसे भारत के विद्वानों की ओर से दिए गए वैज्ञानिक सिद्धांत के अलावा मय दानव का दिया सूर्य सिद्धांत पढ़ाया जाता है। सूर्य सिद्धांत में ढाई हजार वर्ष पहले सौरमण्डल के सम्बंध में दिए गए तथ्य और आज के वैज्ञानिक तथ्यों का तुलनात्मक अध्ययन होता है।
नासा के अतिथि वैज्ञानिक, दिल्ली के डॉ. ओमप्रकाश पाण्डेय ने जोधपुर प्रवास के दौरान पत्रिका से विशेष बातचीत में बताया कि भारत का खगोल विज्ञान इतना अधिक समृद्ध था कि उसे अब वेद और वेदांग के जरिए वैज्ञानिक सीख रहे हैं। मय दानव ने 500 बीसी में सूर्य सिद्धांत के जरिए बताया कि पृथ्वी अपनी धुरी के साथ सूर्य के चारों और भी चक्कर लगाती है।
मय दानव ने एक साल की अवधि 365.24 दिन बताई। वर्तमान वैज्ञानिक सिद्धांत के अनुसार इसमें केवल 1.4 सैकेण्ड की ही त्रुटि है। मय दानव ने बुध से लेकर सभी ग्रहों और पृथ्वी के अपने अक्ष पर झुके होने की जानकारी दी थी। मय दानव का सिद्धांत आर्यभट्ट और वराहमिहिर की लिखी पुस्तकों में भी है।
चिकित्सा विज्ञान ने भी समझी संस्कृत की महत्ता : अब डॉक्टर भी लेंगे संस्कृत ज्ञान
हाल ही में पटना स्थित अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान यानी एम्स पटना में संस्कृत की पढ़ाई शुरू की गई है, जिसे लेकर मेडिकल छात्र बहुत उत्साहित दिख रहे हैं। नौ महीने के इस कोर्स के लिए केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय ने एक संस्कृत शिक्षक नियुक्त किया है।
इस दौरान संस्कृत की पढ़ाई करने वालों को परीक्षा के बाद सर्टिफ़िकेट भी मिलेगा। सीट उपलब्धता के बाद चिकित्सक और अन्य कर्मचारी भी संस्कृत की पढ़ाई कर पाएंगे। फ़िलहाल अनिवार्य विषय न होने के कारण इसे पढ़ने वालों को हफ़्ते में छह घंटे की क्लास करनी होगी।
एम्स में अंतिम वर्ष के छात्र उत्तर प्रदेश के पीलीभीत के सावन पांडेय, संस्कृत की पढ़ाई पर कहते हैं कि – ” अभी हम फ़ायदे-नुकसान के हिसाब से नहीं सोच रहे लेकिन बहुत सारे छात्र इसमें रुचि दिखा रहे हैं। यह भाषा सीखने के बाद हम इसमें उपलब्ध साम्रगी को जान पाएंगे। ”उत्तर प्रदेश के ही पुनीत शर्मा भी कुछ दूसरे छात्रों की तरह संस्कृत पढ़ाने की शुरुआत को एक अच्छी पहल मानते हैं।
छात्रों कि तरह संस्कृत की पढ़ाई को लेकर यहां के डॉक्टर भी उत्साहित हैं। यहाँ कार्यकर्त प्लास्टिक सर्जन वीणा कुमार का कहना है कि – ” संस्कृत पढ़ना स्कूल के पुराने दिनों में लौटने जैसा होगा। बहुत से पुराने ग्रंथ तो सिर्फ़ संस्कृत में ही उपलब्ध हैं। महर्षि सुश्रुत प्लास्टिक सर्जरी के पिता माने जाते हैं। उनकी भी बहुत सारी किताबें संस्कृत में हैं। ”
एम्स पटना में संस्कृत पढ़ाने की जिम्मेदारी उत्तर प्रदेश के अमेठी के विमलेश मिश्रा के कंधों पर है।संस्कृत की महत्ता व् पढ़ाने के तरीकों के बारे में विमलेश बताते हैं – ” शुरुआत हम संस्कृत की बुनियादी चीजों से चलकर ऋषि-मुनियों, महापुरुषों की जीवनी को छोटे-छोटे वाक्यों के ज़रिए बताकर भी पढ़ाया जाएगा। इस सूची में वेद व्यास, विवेकानंद, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद जैसे नाम शामिल हैं। ”
भगवाकरण के सवाल पर निदेशक का मुस्कुराता जवाब
  संस्कृत के बहाने शिक्षा के भगवाकरण को बढ़ावा दिए जाने के आरोपों पर एम्स निदेशक फ़िल्म अमर-प्रेम का गीत “कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना” गुनगुना कर अपना जवाब सामने रखते हैं।
निदेशक बताते हैं कि – ” इस भाषा के ज्ञान से डॉक्टर्स को ‘ह्यूमन बीईंग’ बनने में बड़ा लाभ होगा। आयुर्वेद और आयुष में ज़्यादातर मैटिरियल संस्कृत में ही है। संस्कृत में मानसिक शांति पर भी बहुत सामग्री उपलब्ध है। ”
संस्कृत की महत्ता समझाते हुए खुद पटना एम्स के निदेशक डाक्टर गिरीश कुमार सिंह कहते हैं कि यह कोर्स डाक्टरों के लिए बहुत उपयोगी है।

Wednesday, 24 August 2016

 कश्मीर में कुछ मुठ्ठीभर अलगाववादी ऐसे ही हिंसा नहीं कर रहे हैं, उन्हें पैसे देकर उनसे हिंसा करवाई जा रही है,  पैसे देकर पत्थर फेंकवाये जा रहे हैं, कश्मीर में हिंसा फैलाने, आतंक फैलाने और जिहाद फैलाने के लिए पाकिस्तान के अलावा खाड़ी देशों से भी पैसे भेजे जा रहे हैं, हाल ही में इसका खुलासा हुआ है।
राष्ट्रीय जांच एजेंसी ने कश्मीर हिंसा की जांच शुरू कर दी है, प्राथमिक जांच में पाया गया है कि हिंसा भड़काने के लिए विदेशों से फंडिंग की जा रही है, कश्मीर में रहने वाले 8 लोगों के खाते में पिछले कुछ हफ़्तों में 4-5 करोड़ रुपये आये हैं जबकि इतने पैसे रखने की इनकी हैसियत ही नहीं है।


NIA की चार सदस्यीय टीम जांच के लिए कश्मीर घाटी में डेरा डाल चुकी है, जांच में पाया गया है कि 8 लोगों के खाते में 3-3 लाख करके करीब 4-5 करोड़ की रकम भेजी गयी। इन मामले में अज्ञात लोगों पर मामला भी दर्ज कर लिया गया है, ज्यतादर पैसा खाड़ी देशों से भेजा गया है। विदेशों से पैसा आने के बाद 10-10 हजार के चेक से इन पैसों को निकाला गया। जिन लोगों के खाते में पैसे आये हैं उन्होंने कभी भी इनकम टैक्स नहीं भरा है। NIA को इस मामले में कोई बड़ा खेल होने की आशंका है।
भगवान श्रीकृष्ण से सीखें यें 10 सक्सेस टिप्स
भगवान श्री कृष्ण की सिखाई गई बातें आज भी युवाओं के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी उस समय अर्जुन के लिए थीं।
श्रीमद्भगवदगीता में भगवान श्री कृष्ण की सिखाई गई बातें आज भी युवाओं के लिए उतनी ही महत्वपूर्ण हैं जितनी उस समय अर्जुन के लिए थीं। श्री कृष्ण की वो बातें आज के इस युग में किसी के लिये भी सक्सेस मंत्र से कम नही हैं। आइये जानते हैं क्या है श्री कृष्णा की ये सक्सेस टिप्स-
1. भगवान श्री कृष्ण के अनुसार हमें अच्छे कर्म करते रहना चाहिये और व्यर्थ की बातों में अपना समय नष्टï नही करना चाहिये और न ही किसी से डरना चाहिये।
2. भगवान कृष्ण ने मुश्किल घड़ी में पांडवों का साथ देकर ये साबित कर दिया कि दोस्त वही अच्छे होते हैं जो कठिन से कठिन परिस्थिति में आपका साथ देते हैं। दोस्ती में शर्तों के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए आपको भी ऐसे ही दोस्त अपने आस-पास रखने चाहिए जो हर मुश्किल परिस्थिति में आपका संबल बनें।
3. महान योद्धा अर्जुन ने न केवल अपने गुरु से सीख ली बल्कि अपने अनुभवों से भी बहुत कुछ सीखा। इससे ये शिक्षा मिलती है कि हमें अपने शिक्षक के अलावा अपनी गलतियों और असफलताओं से भी सीखना चाहिये।
4. अगर पांडवों के पास भगवान श्री कृष्ण की स्ट्रैटजी न होती तो उनका युद्ध में जीतना असंभव था, इसलिये किसी भी प्रतियोगिता से पहले स्ट्रैटजी बनाना आवश्यक होता है।
5. श्रीकृष्ण हर मोर्चे पर क्रांतिकारी विचारों के धनी रहे हैं। वे कभी किसी बंधी-बंधाई लीक पर नहीं चले, मौके के अुनसार उन्होंने अपनी भूमिका बदली और अर्जुन के सारथी बनने से भी परहेज नही किया।
6. इंसान को दूरदर्शी होने के साथ-साथ हर परिस्थिति का आंकलन करना आना चाहिये।
7. श्रीकृष्ण का कहना है कि हमें मुसीबत के समय या सफलता न मिलने पर हिम्मत नहीं हारनी चाहिए। इसकी बजाय हार की वजहों को जानकर आगे बढऩा चाहिए। समस्याओं का सामना कर अगर डर को पार कर लिया जाये तो सफलता निश्चित है।
8. मैनेजमेंट के सबसे बड़े गुरु हैं भगवान कृष्ण. उन्होंने अनुशासन में जीने, व्यर्थ चिंता न करने और भविष्य की बजाय वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करने का मंत्र दिया।
9. भगवान श्री कृष्ण ने जिस प्रकार अपने गरीब मित्र सुदामा की मदद कर उसकी झोपड़ी को महल बना दिया उसी प्रकार दोस्ती में कभी अमीरी गरीबी को नही देखना चाहिये। सच्चाई और ईमानदारी से दोस्ती निभानी चाहिये।
10. श्री कृष्ण के अनुसार जब हमारे विरोधियों का पलड़ा भारी हो तो हमें कूटनीति का रास्ता अपनाना चाहिये क्योंकि तब सीधे रास्ते से विजय नही मिल सकती। इसलिये श्री कृष्ण को एक महान कूटनीतिज्ञ भी कहा जाता है।
साभार -www. jagran. com

ये है राजपूतों का गांव..!

 44 जवान हो चुके शहीद और 550 जवान अब भी सीमा पर करते हैं देश की रखवाली...


राजपूत इस देश से इतनी मोहब्बत करते हैं कि वो न जान देने से गुरेज़ करते हैं, और न लेने से. इतिहास उठा कर देख लीजिए, जब-जब मातृभूमि पर दुश्मनों ने नापाक़ नज़रें उठाई हैं, राजपूतों ने अपनी ताक़त से उसे वहीं रोक दिया. हालांकि, अब समय पूरी तरह से बदल चुका है. अब देश में लोकतंत्र की बहाली हो चुकी है, मगर राजपूतों के राष्ट्रप्रेम में कोई कमी नहीं आई है. लोकतंत्र में विश्वास रखते हुए राजपूत अपना राज-पाट त्याग, देश सेवा में लग गए.
देश में कभी भी विपदा आती है, तो सबसे पहले राजपूताना राइफल्स को याद किया जाता है. अगर आपको इनकी देशभक्ति का जज़्बा देखना हो तो उत्तर प्रदेश के मौधा गांव में ज़रूर आइए. इस गांव के हर घर में एक सैनिक रहता है, जो देश के लिए बलिदान देने को तैयार रहता है. आज़ादी के बाद से इस गांव में अब तक 44 जवान शहीद हो चुके हैं. ये हैं देश के सच्चे सपूत, असली राजपूत!
Source: Rajnathsingh
"वीर सपूतों की धरती 'मौधा' पर उत्तर प्रदेश ही नहीं पूरे देश को नाज़ है. मौधा के शहीदों ने भारत माता के स्वाभिमान की रक्षा के लिए अपने को बलिदान कर दिया. मैं यहां के भाई-बहनों को अपना शीश झुका कर नमन करता हूं. प्रथम विश्व युद्ध हो या द्वितीय, हिटलर के नाजीवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई हो या फ़िर 1971 और कारगिल का युद्ध, यहां के सैनिकों ने भारत मां के सम्मान पर चोट नहीं पहुंचने दी."
मौधा गांव में घुसते ही आपको अहसास हो जाएगा कि आप वीरों के गांव में प्रवेश कर रहे हैं. यहां की मिट्टी आपको अहसास करा देगी कि आप एक ऐतिहासिक गांव में हैं. सड़क पर दौड़ते युवा और गांव में ही बने शहीद स्मारक को देख कर आप ख़ुद समझ जाएंगे कि इस मिट्टी में कुछ बात तो है!

प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से शुरू हुई थी कहानी

यहां के जवान प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से ही देश की रक्षा करने में लगे हुए हैं. आज़ादी के समय इस गांव के जवानों ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. पाकिस्तान युद्ध, चीन युद्ध व 1987 के श्रीलंका गृह युद्ध में भी यहां के जवानों ने भाग लिया था.
Source: Army

शहीद होने पर मां मुस्कुराती है

आप इस गांव के बारे में इस बात से अंदाज़ा लगा सकते हैं कि जब देश की सीमा पर बेटे के शहीद होने की ख़बर आती है, तो मौधा में मातम नहीं मनाया जाता, बल्कि मां अपने दूसरे बेटे को भी उसी रास्ते पर चलने के लिए भेज देती है.

550 जवानों का है ये गांव

इस छोटे से गांव में 800 वयस्क जवान हैं, जिनमें 350 से ज़्यादा जवान देश के कई रेजिमेंटों में रह कर देश की सीमाओं की रक्षा कर रहे हैं. 200 से ज़्यादा पूर्व सैनिक इस गांव में रह रहे हैं.

शहीद होने का सिलसिला अभी भी बरकरार है

आज़ादी की लड़ाई के दिनों से भारत माता की आन-बान-शान के लिए मौधा गांव के रहने वाले सैनिकों के शहीद होने का जो सिलसिला शुरू हुआ, वह स्वतंत्रता के बाद आज तक कायम है.

मौधा क्षत्रियों का गांव है, जिसमें मुख्यत: राठौड़ क्षत्रिय निवास करते हैं. यहां के ग्रामीणों के लिए धर्म और कर्म राष्ट्र है. उत्साह और जोश यहां की पहचान है. मानवता और राष्ट्रप्रेम से प्रेरित यह गांव अपने आप में एक 'देश' है. ऐसे गांव को हमारा सलाम!








महायोगी गुरु गोरखनाथ 

भारत संतो की भूमि है, यहां पर संतो की बात जब भी की जाती है तो उनकी दयालुता और करूणा याद आती है। सिद्ध पुरूषों की धरा पर भगवान का हमेशा ही आशीर्वाद बना रहता है। महापुरूश ज्ञान देते हैं, भगवान का स्मरण करवाते हैं और मानवों को उनके जीवन का ध्येय समझाकर उनका कल्याण करते हैं। आज हम एक ऐसे ही सिद्ध महायोगी की बात कर रहे हैं जिन्हें गुरु गोरखनाथ और उनके नाम से ही उत्तर प्रदेश में एक जिले का नाम गोरखपुर है। आईये जानते हैं – 

 जीवन परिचय 

गुरु गोरखनाथ को गोरक्षनाथ भी कहा जाता है। इनके नाम पर एक नगर का नाम गोरखपुर है। गोरखनाथ नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखपंथी साहित्य के अनुसार आदिनाथ स्वयं भगवान शिव को माना जाता है। शिव की परम्परा को सही रूप में आगे बढ़ाने वाले गुरु मत्स्येन्द्रनाथ हुए। ऐसा नाथ सम्प्रदाय में माना जाता है।
गोरक्षनाथ के जन्मकाल पर विद्वानों में मतभेद हैं। राहुल सांकृत्यायन इनका जन्मकाल 845 ई. की 13वीं सदी का मानते हैं। नाथ परम्परा की शुरुआत बहुत प्राचीन रही है, किंतु गोरखनाथ से इस परम्परा को सुव्यवस्थित विस्तार मिला। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ थे। दोनों को चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है।
गोरखनाथ से पहले अनेक सम्प्रदाय थे, जिनका नाथ सम्प्रदाय में विलय हो गया। शैव एवं शाक्तों के अतिरिक्त बौद्ध, जैन तथा वैष्णव योग मार्गी भी उनके सम्प्रदाय में आ मिले थे।
गोरखनाथ ने अपनी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणीधान को अधिक महत्व दिया है। इनके माध्‍यम से ही उन्होंने हठयोग का उपदेश दिया। गोरखनाथ शरीर और मन के साथ नए-नए प्रयोग करते थे।
जनश्रुति अनुसार उन्होंने कई कठ‍िन (आड़े-त‍िरछे) आसनों का आविष्कार भी किया। उनके अजूबे आसनों को देख लोग अ‍चम्भित हो जाते थे। आगे चलकर कई कहावतें प्रचलन में आईं। जब भी कोई उल्टे-सीधे कार्य करता है तो कहा जाता है कि ‘यह क्या गोरखधंधा लगा रखा है।’
गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
महायोगी गोरखनाथ मध्ययुग (11वीं शताब्दी अनुमानित) के एक विशिष्ट महापुरुष थे। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येन्द्रनाथ (मछंदरनाथ) थे। इन दोनों ने नाथ सम्प्रदाय को सुव्यवस्थित कर इसका विस्तार किया। इस सम्प्रदाय के साधक लोगों को योगी, अवधूत, सिद्ध, औघड़ कहा जाता है।
गुरु गोरखनाथ हठयोग के आचार्य थे। कहा जाता है कि एक बार गोरखनाथ समाधि में लीन थे। इन्हें गहन समाधि में देखकर माँ पार्वती ने भगवान शिव से उनके बारे में पूछा। शिवजी बोले, लोगों को योग शिक्षा देने के लिए ही उन्होंने गोरखनाथ के रूप में अवतार लिया है। इसलिए गोरखनाथ को शिव का अवतार भी माना जाता है। इन्हें चौरासी सिद्धों में प्रमुख माना जाता है। इनके उपदेशों में योग और शैव तंत्रों का सामंजस्य है। ये नाथ साहित्य के आरम्भकर्ता माने जाते हैं। गोरखनाथ की लिखी गद्य-पद्य की चालीस रचनाओं का परिचय प्राप्त है। 
इनकी रचनाओं तथा साधना में योग के अंग क्रिया-योग अर्थात् तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान को अधिक महत्व दिया है। गोरखनाथ का मानना था कि सिद्धियों के पार जाकर शून्य समाधि में स्थित होना ही योगी का परम लक्ष्य होना चाहिए। शून्य समाधि अर्थात् समाधि से मुक्त हो जाना और उस परम शिव के समान स्वयं को स्थापित कर ब्रह्मलीन हो जाना, जहाँ पर परम शक्ति का अनुभव होता है। हठयोगी कुदरत को चुनौती देकर कुदरत के सारे नियमों से मुक्त हो जाता है और जो अदृश्य कुदरत है, उसे भी लाँघकर परम शुद्ध प्रकाश हो जाता है।
वर्तमान मान्यता के अनुसार मत्स्येंद्रनाथ को श्री गोरक्षनाथ जी का गुरू कहा जाता है। कबीर गोरक्षनाथ की ‘गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी ‘ में उन्होनें अपने आपको मत्स्येंद्रनाथ से पूर्ववर्ती योगी थे, किन्तु अब उन्हें और शिव को एक ही माना जाता है और इस नाम का प्रयोग भगवान शिव अर्थात् सर्वश्रेष्ठ योगी के संप्रदाय को उद्गम के संधान की कोशिश के अंतर्गत किया जाता है।
संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे। इनके उपदेशों से गुरुनानक भी लाभान्वित हुए थे। संत कबीर को भी गोरक्षनाथ जी का समकालीन माना जाता हैं। “गोरक्षनाथ जी की गोष्ठी ” में कबीर और गोरक्षनाथ के शास्त्रार्थ का भी वर्णन है। इस आधार पर इतिहासकर विल्सन गोरक्षनाथ जी को पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं।
पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा रसालु और उनके सौतेले भाई पुरान भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पूर्ण भगत  पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे। ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पुरान तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस कुँए के पास पुरान वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे।
बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से पंजाब में गोपीचंद, रानी पिंगला और भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के विक्रमादित्य (चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथी बन गये थे।

 एक रोचक कथा -

एक राजा की प्रिय रानी का स्वर्गवास हो गया। शोक के मारे राजा का बुरा हाल था। जीने की उसकी इच्छा ही समाप्त हो गई। वह भी रानी की चिता में जलने की तैयारी करने लगा। लोग समझा-बुझाकर थक गए पर वह किसी की बात सुनने को तैयार नहीं था। इतने में वहां गुरु गोरखनाथ आए। आते ही उन्होंने अपनी हांडी नीचे पटक दी और जोर-जोर से रोने लग गए। राजा को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने सोचा कि वह तो अपनी रानी के लिए रो रहा है, पर गोरखनाथ जी क्यों रो रहे हैं। उसने गोरखनाथ के पास आकर पूछा, ‘महाराज, आप क्यों रो रहे हैं?’ गोरखनाथ ने उसी तरह रोते हुए कहा, ‘क्या करूं? मेरा सर्वनाश हो गया। मेरी हांडी टूट गई है। मैं इसी में भिक्षा मांगकर खाता था। हांडी रे हांडी।’ इस पर राजा ने कहा, ‘हांडी टूट गई तो इसमें रोने की क्या बात है? ये तो मिट्टी के बर्तन हैं। साधु होकर आप इसकी इतनी चिंता करते हैं।’ गोरखनाथ बोले, ‘तुम मुझे समझा रहे हो। मैं तो रोकर काम चला रहा हूं तुम तो मरने के लिए तैयार बैठे हो।’ गोरखनाथ की बात का आशय समझकर राजा ने जान देने का विचार त्याग दिया।
कहा जाता है कि राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल हैं। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर शहर का नाम गोरखनाथ जी के नाम पर ही पड़ा है। यहाँ पर स्थित गोरखनाथ जी का मंदिर दर्शनीय है। साभार –मनीष कौशल

मोदी की हुंकार के बाद हिल गया पाक, PoK के गिलगित और बालटिस्तान में जबरदस्त विद्रोह...

 प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि पीओके यानी पाकिस्तान के कब्जे वाला कश्मीर भी हमारा है. आज वहां से तस्वीरें आई हैं कि पाकिस्तान के खिलाफ वहां रह रहे लोग गुस्से में हैं. पाकिस्तान के खिलाफ लोगों ने नारे लगाये हैं. बीते कई दिनों से वहां हंगामा चल रहा है .. पाकिस्तान ने गिलगित-पाकिस्तान में 1947 में गैरकानूनी ढंग से कब्जा कर लिया था। तब से इस इलाके में स्थानीय लोग आम सुविधाओं के लिए भी संघर्ष कर रहे हैं।
मुजफ्फरबाद से भी तस्वीरें आई थी. वहां भी नारे लगे थे. 500 से ज्यादा युवकों को हिरासत में ले लिया था. यह विरोध प्रदर्शन उस क्षेत्र में हो रहा है जहां शिया लोग ज्यादा है जबकि पाकिस्तान में सुन्नी लोगों की संख्या ज्यादा है.
पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (PoK) के गिलगित-बालिस्तान में लोगों के बीच पाकिस्तान और चीन के हस्तक्षेप को लेकर गुस्सा बढ़ रहा है। इन दोनों देशों द्वारा अपने फायदे के लिए यहां के संसाधनों का मनमाना दोहन करने को लेकर स्थानीय लोगों में रोष है।
स्थानीय लोग 3000 किमी लंबे चीन-पाकिस्तान इकनॉमिक कॉरिडोर (CPEC) का भी व्यापक विरोध कर रहे हैं। लोगों का कहना है कि उन्हें इसका कोई फायदा नहीं मिलने जा रहा है। इससे पश्चिमी चीन और दक्षिणी पाकिस्तान आपस में रोड नेटवर्क, रेलवे लाइन और पाइपलाइंस के जरिए जुड़ जाएंगे।  पर स्थानीय लोगों की नाराजगी इस बात को लेकर है कि इस बारे में सभी हितधारकों से संपर्क नहीं किया गया।
स्थानीय निवासी अब्दुल रहमान बुखारी का कहना है, ‘लोग  नाराज हैं कि कम से कम उन्हें इस बारे में बताना चाहिए था, भरोसे में लेना चाहिए था। अगर हम सिर्फ चीन से आने वाले ट्रक गिनते रहेंगे तो इससे तो कोई फायदा नहीं होगा।’
कश्मीर नैशनल पार्टी के नेता मोहम्मद नईम खान ने कहा, ‘वे CPEC प्रॉजेक्ट में 60 इकनॉमिक जोन बना रहे हैं, लेकिन इनमें से कोई भी गिलगित-बालिस्तान या पीओके में नहीं है। चीन अपने फायदे के लिए यहां पर डैम, हाइवे और पोर्ट बना रहा है।
गिलगित-बालिस्तान नैशनल कांग्रेस के डायरेक्टर एस.एच. सेरिंग का कहना है, ‘जब पाक सेना चीन से लगा हुआ कराकोरम हाइवे बना रही थी, प्रभावित लोगों को कोई मुआवजा नहीं दिया गया। अब जबरन CPEC बनाया जा रहा है। लोगों की मर्जी के बिना गिलगित-बालिस्तान की सरकार और पाक सेना उनकी पुश्तैनी जमीन ले रही है।’
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पाक के बलुचिस्तान में लोगो ने मोदी की फोटो और तिरंगे फहराएं.. 

बलुचिस्तान को हर हाल में पाक से आजादी चाहिए और इसके लिए उनको मोदी से मदद चाहिए !
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क्या मोदी को दखल करके बलुच को आजाद कराने में मदद करनी चाहिए ?
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कश्मीर में पाकिस्तान ने अपने घुसपैठिये आतंकी भेजकर, दंगे करा कर अस्थिरता फ़ैलाने में कोई कसर नहीं छोड़ी! लेकिन अब पाकिस्तान के हथकंडे का भारत, मुंहतोड़ जवाब देने लग गया है ! बलोचिस्तान में, पाकिस्तानी हुकूमत और सेना ने वैसे ही हाहाकार मचा रखा है! इस खत्म होती कौम की रक्षा करना हमारा धर्म भी है और उनकी मदद करना, एक अच्छी रक्षा-निति भी है! ये पूर्णत: न्यायसंगत है, नीतिसंगत है! 
पाकिस्तान को क्या लगा कि वो भारत में जब चाहे अशांति फ़ैलाने की कोशिश करेगा, और भारत चुप रहेगा! नहीं, बल्कि भारत उनकी जुबां में ही उन्हें मुहतोड़ जवाब देगा! भारत ने भी अब पाकिस्तान को ईंट का जवाब ईंट से ही देने की योजना बना ली है! 
भारतीय खुफिया एजेंसी RAW ने बलूचिस्तान के अलगाववादी नेता मज़ादिक दिलशाद और उसकी पत्नी को बातचीत के लिए भारत बुलाया है! उन्हें यहां बुलाकर दुनिया भर के सभी बलूच अलगाववादियों को एकत्रित करने के लिए कहाकहा गया है।  पाकिस्तानी मीडिया रो रही है कि उन्हें सैन्य ट्रेनिंग दी जाएगी ताकि वो बलोचिस्तान में हल्ला बोल सकें ! ताकि बलूचिस्तान में आजादी की जंग को मजबूत किया जा सके। दिलशाद और उसकी पत्नी ने पाकिस्तान के बारे में रॉ को अहम जानकारियां दी हैं।
गौरतलब है कि बलूच के कार्यकर्ता RAW के एजेंट कहलाने में बेहद गर्व महसूस करते हैं! वो पाकिस्तान के कब्ज़े से आज़ादी पाने के लिए कब से संघर्ष कर रहे हैं ! बलूच के लोगों को पाकिस्तान की सेना के ज़ुल्मों से आज़ादी मिलेगी और पाक के अवैध कब्ज़े से एक राज्य भी जाएगा! हम उम्मीद करते हैं की, भारत की ख़ुफ़िया एजेंसी के इस ‘बलोचिस्तान ऑपरेशनसेल’ वाली खबरें सही होंगी! हालाँकि, हम इसकी पुष्टि नहीं कर सकते, लेकिन, एक RAW ही है, जो पाकिस्तान को अन्दर से ख़त्म कर सकती है! 


पहले अफगानिस्तान, फिर बलू‍च‍िस्तान और अब कुर्दिस्तान ने भारत से मदद की गुहार लगाई है...
 भारत एशिया महाद्वीप में संघर्ष करते लोगों के लिए बड़े भाई की भूमिका अख्तियार कर चुका है।
कुर्दों ने मांगी यह मदद...
- महिला लड़ाकू ब्रिगेड की बहादुरी के लिए जानें जाने वाले कुर्दिस्तान ने भारत से मदद की गुहार लगाई है। इन महिला फाइटर्स से ISIS के लड़ाके भी से डरते हैं क्योंकि उनकी मान्यता है कि अगर वे महिलाओं के हाथों मारे जाएंगे तो उन्हें नर्क जाना पड़ेगा।
- इराक के स्वशासित कुर्द क्षेत्र ने भारत से मांग की है कि भारत ISIS से उसकी लड़ाई में उसे मदद दे। सीरिया से भागकर कुर्दिस्तान में शरण ले चुके 18 लाख लोगों को दवा और भोजन दे पाना अकेले उसके लिए संभव नहीं है।
 इराक भारत का मित्र देश है और कुर्दो का एक बड़ा भाग इराक का हिस्सा है। लेकिन दूसरी हकीकत ये है कि भारत ने अभी हाल ही में कुर्दिस्तान की राजधानी Erbil में अपना वाणिज्य दूतावास खोला है और ISIS के चंगुल में फंसे 39 भारतीयों को छुड़ाने में उसे कुर्दों के मदद की जरूरत है। इससे पहले मोसूल में फंसी भारतीय नर्सों को ISIS के चंगुल से छुड़ाने में भी पिछले साल कुर्दों ने भारत की मदद की थी। जब से ISIS ने भारत से लड़ाके बुलाने शुरू किए हैं, तब से भारत की पश्चिम एशिया नीति में बदलाव दिखाई पड़ रहा है। Erbil में दूतावास का खोला जाना उसी बदलाव का नतीजा है। तेल की अकूत भंडार वाले कुर्दिस्तान में कट्टर धार्मिक मान्यताओं की जगह नहीं है, वो आने वाले समय में एक आजाद मुल्क बन सकता है और भारत के लिए पश्चिम एशिया में एक साथी भी।

Tuesday, 23 August 2016


भारत सारे विश्व को नौकाएँ बनाकर देता था
 विश्वव्यापी वैदिक संस्कृति की प्राचीन जड़ भारत में होने से वह आज केवल भारत में ही कुछ-कुछ शेष रह गयी है। जब वैदिक संस्कृति सारे विश्व में फैली थी तब सातों समुद्र पार सारे प्रदेशों से संपर्क रखने के लिए भारत में ही सब प्रकार के जहाज (नौका) बनाकर देश-प्रदेश को दिये जाते थे। भारत के संस्कृत के शब्द ‘नावि’ से ही यूरोपीयों ने Navy(नावि) शब्द रखा।
Murrays Handbook of India and Ceylon (सन १८९१ का प्रकाशन) में उल्लेख है कि सन 1735 में सूरत नगर में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के लिए (भारत में) एक नौका बनवाई गई। हालत यहाँ तक भी थी कि अंग्रेज़ भारत के पुराने पड़े जहाजों को भी अपने बने नए जहाजों से अच्छा मानकर लेते थे। लौजी कैसल (Lowji Castle) नाम का 1000 टन भर का जो व्यापारी जहाज भारत में बनाया गया था वह लगभग 75 वर्ष तक सागर पर गमनागमन करता रहा।
एक अंग्रेज़ अपनी पुस्तक में कहता है कि “बंबई में बने जहाज बड़े पक्के, टिकाऊ और सुंदर होते थे। यूरोप में बने जहाज भारतीय जहाजों से बहुत निकृष्ट होते थे। भारतीय नौकाओं की लकड़ी इतनी अच्छी होती थी कि उनसे बनी नौकाएँ 50 से 60 वर्ष तक लीलया सागर संचार करती रहती है।” (Travels in Asia and Africa, by Abraham Parsons, 1808, Longmans, London) ।
उस वैदिक व्यवस्था के अन्तर्गत जो प्रमुख युद्ध-नौकाएँ बनी वे थी –
Minden-74 (सन 1820 में), कार्नवालिस-74 जो 1775 टन वजन की थी, मालबार-74, सेरिंगपटनम (श्रीरंगपट्टनम का विकृत रूप) आदि नाम की अनेकों नौकाएँ अंग्रेज़ भारत से खरीदते रहे। ब्रिटिश ओक वृक्ष की लकड़ी से भारतीय सांगवान लकड़ी चार-पाँच गुना अधिक टिकाऊ होती है।
अत: प्रत्येक भारतीय को गर्व होना चाहिए कि हमारी वस्तुएँ बड़ी अच्छी होती है और हमारी विद्या और कार्यकुशलता जगन्मान्य थी। प्रदीर्घ परतंत्रता में भारत लूट जाने से अपना आत्मविश्वास, आत्मगौरव और कार्यकुशलता खो बैठा है। आज तो हालत यह है कि भारतीय लोग पराये माल को ही सर्वोत्तम समझते लगे है। हम क्या थे और क्या बन गए। हमको प्राचीन वैदिक आदर्श और लक्ष्य प्रत्येक भारतीय के मन में बिठाने होंगे। इतिहास ऐसे ही मार्गदर्शन के लिए पढ़ा जाता है।
समुद्र यात्रा भारतवर्ष में सनातन से प्रचलित रही है। महान महर्षि अगस्त्य स्वयं समुद्री द्वीप-द्वीपान्तरों की यात्रा करने वाले महापुरुष थे। संस्कृति के प्रचार के निमित्त या नए स्थानों पर व्यापार के निमित्त दुनिया के देशों में भारतीयों का आना-जाना था।
कौण्डिन्य समुद्र पार कर दक्षिण पूर्व एशिया पहुंचे। एस. सोनी जी ने अपने शोध में बताया है की, मैक्सिको के यूकाटान प्रांत में जवातुको नामक स्थान पर प्राप्त सूर्य मंदिर के शिलालेख में नाविक वुसुलिन के शक संवत् ८८५ में पहुंचने का उल्लेख मिलता है। गुजरात के लोथल में हुई खुदाई में ध्यान में आता है कि ई. पूर्व २४५० के आस-पास बने बंदरगाह द्वारा इजिप्त के साथ सीधा सामुद्रिक व्यापार होता था। २४५० ई.पू. से २३५० ई.पू. तक छोटी नावें इस बंदरगाह पर आती थीं। बाद में बड़े जहाजों के लिए आवश्यक रचनाएं खड़ी की गएं तथा नगर रचना भी हुई। - http://
en.wikipedia.org/wiki/Indian_Ocean_tra
de
प्राचीन काल से अर्वाचीन काल तक के नौ निर्माण कला का उल्लेख प्रख्यात बौद्ध संशोधक भिक्षु चमनलाल ने अपनी पुस्तक ‘हिन्दू अमेरिका‘ में किया है। इसी प्रकार सन् १९५० में कल्याण के हिन्दू संस्कृति अंक में गंगा शंकर मिश्र ने भी विस्तार से इस इतिहास को लिखा है। -
http://thegr8wall.wordpress.com/2013/
03/05/ancient-indian-navigators/
भारतवर्ष के प्राचीन वाङ्गमय वेद, रामायण, महाभारत, पुराण आदि में जहाजों का उल्लेख आता है। जैसे बाल्मीकि रामायण के अयोध्या कांड में ऐसी बड़ी नावों का उल्लेख आता है जिसमें सैकड़ों योद्धा सवार रहते थे।
नावां शतानां पञ्चानां कैवर्तानां शतं शतम। सन्नद्धानां तथा यूनान्तिष्ठक्त्
वत्यभ्यचोदयत्॥ - महाभारत
अर्थात - अर्थात्-सैकड़ों सन्नद्ध जवानों से भरी पांच सौ नावों को सैकड़ों धीवर प्रेरित करते हैं।
इसी प्रकार महाभारत में यंत्र-चालित नाव का वर्णन मिलता है।
सर्ववातसहां नावं यंत्रयुक्तां पताकिनीम्।
अर्थात् - यंत्र पताका युक्त नाव, जो सभी प्रकार की हवाओं को सहने वाली है।
कौटिलीय (चाणक्य के) अर्थशास्त्र में राज्य की ओर से नावों के पूरे प्रबंध के संदर्भ में जानकारी मिलती है। ५वीं सदी में हुए वारहमिहिर कृत ‘बृहत् संहिता‘ तथा ११वीं सदी के राजा भोज कृत ‘युक्ति कल्पतरु‘ में जहाज निर्माण पर प्रकाश डाला गया है। नौका विशेषज्ञ "राजा भोज" ने नौका एवं बड़े जहाजों के निर्माण का विस्तृत वर्णन किया है... बौद्ध संशोधक भिक्षु चमनलाल की ‘हिन्दू अमेरिका‘ पुस्तक के (पृष्ठ ३५७) अनुसार राजा भोज कृत ‘युक्ति कल्पतरु‘ ग्रंथ में नौका शास्त्र का विस्तार से वर्णन है। नौकाओं के प्रकार, उनका आकार, नाम आदि का विश्लेषण किया गया है।
(१) सामान्य- वे नौकाएं, जो साधारण नदियों में चल सकें।
(२) विशेष- जिनके द्वारा समुद्र यात्रा की जा सके।
उत्कृष्ट निर्माण-कल्याण (हिन्दू संस्कृति अंक - १९५०) में नौका की सजावट का सुंदर वर्णन आता है।
"चार श्रंग (मस्तूल) वाली नौका सफेद, तीन श्रृग वाली लाल, दो श्रृंग वाली पीली तथा एक श्रंग वाली को नीला रंगना चाहिए।" नौका मुख-नौका की आगे की आकृति यानी नौका का मुख सिंह, महिष, सर्प, हाथी, व्याघ्र, पक्षी, मेढ़क आदि विविध आकृतियों के आधार पर बनाने का वर्णन है।
भारत पर मुस्लिम आक्रमण ७वीं सदी में प्रारंभ हुआ। उस काल में भी भारत में बड़े-बड़े जहाज बनते थे। मार्कपोलो तेरहवीं सदी में भारत में आया। वह लिखता है ‘जहाजों में दोहरे तख्तों की जुड़ाई होती थी, लोहे की कीलों से उनको मजबूत बनाया जाता था और उनके सुराखों को एक प्रकार की गोंद में भरा जाता था। इतने बड़े जहाज होते थे कि उनमें तीन-तीन सौ मल्लाह लगते थे। एक-एक जहाज पर ३ से ४ हजार तक बोरे माल लादा जा सकता था। इनमें रहने के लिए ऊपर कई कोठरियां बनी रहती थीं, जिनमें सब तरह के आराम का प्रबंध रहता था। जब पेंदा खराब होने लगता तब उस पर लकड़ी की एक नयी तह को जड़ लिया जाता था। इस तरह कभी-कभी एक के ऊपर एक ६ तह तक लगायी जाती थी।‘
१५वीं सदी में निकोली कांटी नामक यात्री भारत आया। उसने लिखा कि ‘भारतीय जहाज हमारे जहाजों से बहुत बड़े होते हैं। इनका पेंदा तिहरे तख्तों का इस प्रकार बना होता है कि वह भयानक तूफानों का सामना कर सकता है। कुछ जहाज ऐसे बने होते हैं कि उनका एक भाग बेकार हो जाने पर बाकी से काम चल जाता है।‘
बर्थमा नामक यात्री लिखता है ‘लकड़ी के तख्तों की जुड़ाई ऐसी होती है कि उनमें जरा सा भी पानी नहीं आता। जहाजों में कभी दो पाल सूती कपड़े के लगाए जाते हैं, जिनमें हवा खूब भर सके। लंगर कभी-कभी पत्थर के होते थे। ईरान से कन्याकुमारी तक आने में आठ दिन का समय लग जाता था।‘ समुद्र के तटवर्ती राजाओं के पास जहाजों के बड़े-बड़े बेड़े रहते थे।
डा. राधा कुमुद मुकर्जी ने अपनी ‘इंडियन शिपिंग‘ नामक पुस्तक में भारतीय जहाजों का बड़ा रोचक एवं सप्रमाण इतिहास दिया है। - http://books.arshavidya.org/cgi-bin/process/shop/display/middle?type=display&subtype=cat
egory&arg=category&value=Ancient+India
अब एक हटकर उदाहरण देना चाहता हूँ आपको - अंग्रेजों ने एक भ्रम और व्याप्त किया कि वास्कोडिगामा ने समुद्र मार्ग से भारत आने का मार्ग खोजा। यह सत्य है कि वास्कोडिगामा भारत आया था, पर वह कैसे आया इसके यथार्थ को हम जानेंगे तो स्पष्ट होगा कि वास्तविकता क्या है? प्रसिद्ध पुरातत्ववेता पद्मश्री डा. विष्णु श्रीधर वाकणकर ने बताया कि मैं अभ्यास के लिए इंग्लैण्ड गया था। वहां एक संग्रहालय में मुझे वास्कोडिगामा की डायरी के संदर्भ में बताया गया। इस डायरी में वास्कोडिगामा ने वह भारत कैसे आया, इसका वर्णन किया है। वह लिखता है, जब उसका जहाज अफ्र्ीका में जंजीबार के निकट आया तो मेरे से तीन गुना बड़ा जहाज मैंने देखा। तब एक अफ्र्ीकन दुभाषिया लेकर वह उस जहाज के मालिक से मिलने गया। जहाज का मालिक चंदन नाम का एक गुजराती व्यापारी था, जो भारतवर्ष से चीड़ व सागवान की लकड़ी तथा मसाले लेकर वहां गया था और उसके बदले में हीरे लेकर वह कोचीन के बंदरगाह आकार व्यापार करता था। वास्कोडिगामा जब उससे मिलने पहुंचा तब वह चंदन नाम का व्यापारी सामान्य वेष में एक खटिया पर बैठा था। उस व्यापारी ने वास्कोडिगामा से पूछा, कहां जा रहे हो? वास्कोडिगामा ने कहा- हिन्दुस्थान घूमने जा रहा हूं। तो व्यापारी ने कहा मैं कल जा रहा हूं, मेरे पीछे-पीछे आ जाओ।‘ इस प्रकार उस व्यापारी के जहाज का अनुगमन करते हुए वास्कोडिगामा भारत पहुंचा। स्वतंत्र देश में यह यथार्थ नयी पीढ़ी को बताया जाना चाहिए था परन्तु दुर्भाग्य से यह नहीं हुआ।
अब मैकाले की संतानों के मन में उपर्युक्त वर्णन पढ़कर विचार आ सकता है, कि नौका निर्माण में भारत इतना प्रगत देश था तो फिर आगे चलकर यह विद्या लुप्त क्यों हुई?
इस दृष्टि से अंग्रेजों के भारत में आने और उनके राज्य काल में योजनापूर्वक भारतीय नौका उद्योग को नष्ट करने के इतिहास के बारे में जानना जरूरी है। उस इतिहास का वर्णन करते हुए श्री गंगा शंकर मिश्र कल्याण के हिन्दू संस्कृति अंक (१९५०) में लिखते हैं-
‘पाश्चात्यों का जब भारत से सम्पर्क हुआ तब वे यहां के जहाजों को देखकर चकित रह गए। सत्रहवीं शताब्दी तक यूरोपीय जहाज अधिक से अधिक ६ सौ टन के थे, परन्तु भारत में उन्होंने ‘गोघा‘ नामक ऐसे बड़े-बड़े जहाज देखे जो १५ सौ टन से भी अधिक के होते थे। यूरोपीय कम्पनियां इन जहाजों को काम में लाने लगीं और हिन्दुस्थानी कारीगरों द्वारा जहाज बनवाने के लिए उन्होंने कई कारखाने खोल लिए। सन् १८११ में लेफ्टिनेंट वाकर लिखता है कि ‘व्रिटिश जहाजी बेड़े के जहाजों की हर बारहवें वर्ष मरम्मत करानी पड़ती थी। परन्तु सागौन के बने हुए भारतीय जहाज पचास वर्षों से अधिक समय तक बिना किसी मरम्मत के काम देते थे।‘ ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ के पास एक ऐसा बड़ा जहाज था, जो ८७ वर्षों तक बिना किसी मरम्मत के काम देता रहा। जहाजों को बनाने में शीशम, साल और सागौन-तीनों लकड़ियां काम में लायी जाती थीं।
सन् १८११ में एक फ्रेंच यात्री वाल्टजर सालविन्स अपनी पुस्तक में लिखता है कि ‘प्राचीन समय में नौ-निर्माण कला में हिन्दू सबसे आगे थे और आज भी वे इसमें यूरोप को पाठ पढ़ा सकते हैं। अंग्रेजों ने, जो कलाओं के सीखने में बड़े चतुर होते हैं, हिन्दुओं से जहाज बनाने की कई बातें सीखीं। भारतीय जहाजों में सुन्दरता तथा उपयोगिता का बड़ा अच्छा योग है और वे हिन्दुस्थानियों की कारीगरी और उनके धैर्य के नमूने हैं।‘ बम्बई के कारखाने में १७३६ से १८६३ तक ३०० जहाज तैयार हुए, जिनमें बहुत से इंग्लैण्ड के ‘शाही बेड़े‘ में शामिल कर लिए गए। इनमें ‘एशिया‘ नामक जहाज २२८९ टन का था और उसमें ८४ तोपें लगी थीं। बंगाल में हुगली, सिल्हट, चटगांव और ढाका आदि स्थानों पर जहाज बनाने के कारखाने थे। सन् १७८१ से १८२१ तक १,२२,६९३ टन के २७२ जहाज केवल हुगली में तैयार हुए थे।
अंग्रेजों की कुटिलता-व्रिटेन के जहाजी व्यापारी भारतीय नौ-निर्माण कला का यह उत्कर्ष सहन न कर सके और वे ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ पर भारतीय जहाजों का उपयोग न करने के लिए दबाने बनाने लगे। सन् १८११ में कर्नल वाकर ने आंकड़े देकर यह सिद्ध किया कि ‘भारतीय जहाजों‘ में बहुत कम खर्च पड़ता है और वे बड़े मजबूत होते हैं। यदि व्रिटिश बेड़े में केवल भारतीय जहाज ही रखे जाएं तो बहुत बचत हो सकती है।‘ जहाज बनाने वाले अंग्रेज कारीगरों तथा व्यापारियों को यह बात बहुत खटकी। डाक्टर टेलर लिखता है कि ‘जब हिन्दुस्थानी माल से लदा हुआ हिन्दुस्थानी जहाज लंदन के बंदरगाह पर पहुंचा, तब जहाजों के अंग्रेज व्यापारियों में ऐसी घबराहट मची जैसा कि आक्रमण करने के लिए टेम्स नदी में शत्रुपक्ष के जहाजी बेड़े को देखकर भी न मचती।‘
लंदन बंदरगाह के कारीगरों ने सबसे पहले हो-हल्ला मचाया और कहा कि ‘हमारा सब काम चौपट हो जाएगा और हमारे कुटुम्ब भूखों मर जाएंगे।‘ ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी‘ के ‘बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स‘ (निदेशक-मण्डल) ने लिखा कि हिन्दुस्थानी खलासियों ने यहां आने पर जो हमारा सामाजिक जीवन देखा, उससे भारत में यूरोपीय आचरण के प्रति जो आदर और भय था, नष्ट हो गया। अपने देश लौटने पर हमारे सम्बंध में वे जो बुरी बातें फैलाएंगे, उसमें एशिया निवासियों में हमारे आचरण के प्रति जो आदर है तथा जिसके बल पर ही हम अपना प्रभुत्व जमाए बैठे हैं, नष्ट हो जाएगा और उसका प्रभाव बड़ा हानिकर होगा।‘ इस पर व्रिटिश संसद ने सर राबर्ट पील की अध्यक्षता में एक समिति नियुक्त की।
काला कानून- समिति के सदस्यों में परस्पर मतभेद होने पर भी इस रपट के आधार पर सन् १८१४ में एक कानून पास किया, जिसके अनुसार भारतीय खलासियों को व्रिटिश नाविक बनने का अधिकार नहीं रहा। व्रिटिश जहाजों पर भी कम-से कम तीन चौथाई अंग्रेज खलासी रखना अनिवार्य कर दिया गया। लंदन के बंदरगाह में किसी ऐसे जहाज को घुसने का अधिकार नहीं रहा, जिसका स्वामी कोई व्रिटिश न हो और यह नियम बना दिया गया कि इंग्लैण्ड में अंग्रेजों द्वारा बनाए हुए जहाजों में ही बाहर से माल इंग्लैण्ड आ सकेगा।‘ कई कारणों से इस कानून को कार्यान्वित करने में ढिलाई हुई, पर सन् १८६३ से इसकी पूरी पाबंदी होने लगी। भारत में भी ऐसे कायदे-कानून बनाए गए जिससे यहां की प्राचीन नौ-निर्माण कला का अन्त हो जाए। भारतीय जहाजों पर लदे हुए माल की चुंगी बढ़ा दी गई और इस तरह उनको व्यापार से अलग करने का प्रयत्न किया गया। सर विलियम डिग्वी ने लिखा है कि ‘पाश्चात्य संसार की रानी ने इस तरह प्राच्य सागर की रानी का वध कर डाला।‘ संक्षेप में भारतीय नौ-निर्माण कला को नष्ट करने की यही कहानी है।
इसी तरह से कई और भारतीय विधाओं पर अतिक्रमण कर विधर्मियों ने उन्हें नष्ट करने या अपना बताने का कुत्सित प्रयास किया है... सनातनियों का परम कर्त्तव्य है की अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को वापस पाने हेतु तन मन धन से प्रयत्न करना प्रारंभ कर देवें...