Friday 9 February 2018

स्वाभाविक कर-नीति और कर-ढाँचे से इतना डर क्यों?
-प्रो. कुुसुमलता केडिया
इस सन्दर्भ में कतिपय तथ्यों को याद कर लेना उचित होगा। अभी जो करों का ढाँचा है, वह दुनियाभर में 100 साल पुराना है। भारत में इंग्लैंड द्वारा भारत में बनाए गए कानूनों की निरंतरता में अधिकांश नीतियाँ जारी रखी गई हैं। यद्यपि ये नीतियाँ इंग्लैंड द्वारा स्वयं अपने देश इंग्लैंड में बनाए गए कानूनों से अत्यधिक भिन्न हैं। यदि भारत में केवल वे कानून ही बना दिए जाते, जो इंग्लैंड में उनके अपने देश इंग्लैंड के लिए बने हैं, तो स्थिति अभी से बहुत अच्छी होती। परन्तु सत्ता हस्तांतरण के जरिए जो लोग सत्ता में बैठे, वे या तो बुद्धि से कमजोर थे या मन से कमजोर थे, जिसके कारण उन्होंने सभी क्षेत्रों में वे कानून जारी रहने दिए, जो अंग्रेजों ने भारत के संसाधनों का एकतरफा हस्तांतरण इंग्लैंड के लिए करने की दृष्टि से बनाए थे। अब वे संसाधन इंग्लैंड नहीं जाने वाले थे या यूरोपीय देशों और अमेरिका को थोड़ा छिपकर ही जाने वाले थे, इसलिए उन संसाधनों को अफसरशाही और नेताशाही की सेवा के लिए नियोजित कर दिया गया। इसके लिए भारत के पुराने इतिहास के विषय में घोर अज्ञान फैलाया गया, जिससे कि भारतीयों के समक्ष तुलना के लिए कुछ भी न रहे और वे केवल एक अभूतपूर्व राष्ट्र राज्य के निर्माण की कल्पनाओं से अभिभूत रहें।
पुराने इंग्लैंड में 200 साल पहले कोई एक राज्य नहीं था और कोई एक राजकीय नीति नहीं थी। सम्पत्ति सम्बन्धी कानून भी अलग-अलग और मनमाने थे और जलवायु की प्रतिकूलता तथा भौगोलिक प्रतिकूलता के कारण आबादी भी कम थी और उस कम आबादी को भी जीवन के संसाधन अत्यन्त दुर्लभ थे। इसलिए टैक्स लगाने आदि की कोई कल्पना ही नहीं थी। 17वीं शताब्दी ईस्वी में पहली बार ऊन के मुनाफे पर कुछ कर लगाया गया। इसके बाद 18वीं शताब्दी ईस्वी में शहरों में मकान आदि पर भी नाममात्र के कुछ कर लगाए गए। 18वीं शताब्दी ईस्वी के अंत में नेपोलियन से युद्ध के मुकाबले के लिए सम्पन्न लोगों से कुछ रकम की जबरन वसूली हुई। ताकि हथियार खरीदे जा सकें। उन्हें भी टैक्स ही कहा गया। आगे चलकर उसका भी विरोध हुआ। इस प्रकार वस्तुत: 19वीं शताब्दी ईस्वी के मध्य से कुछ टैक्स लगाए जा सके और 20वीं शताब्दी ईस्वी के प्रारम्भ में ही वहाँ पहली बार एक व्यवस्थित कर नीति बनी। वह भी लगातार बदलती रही है।
19वीं शताब्दी ईस्वी तक तो नियम यही था कि लूट के माल में इंग्लैंड के लुटेरे और डकैत, (जिन्हें उनके चाटुकार विदेशी दलाल लोग व्यापारी कहते हैं, परन्तु जिन्हें स्वयं यूरोपीय विद्वान लेखक समुद्री डकैत और दस्यु दल कहते हैं,) लूट का एक हिस्सा इंग्लैंड की महारानी को तथा कुछ हिस्सा अन्य सम्पन्न लोगों को देते थे। उसे लूट में हिस्सा ही कहा जाएगा, टैक्स नहीं। 20वीं शताब्दी ईस्वी में जब वैसी खुली लूट सम्भव नहीं रही और दुनिया में अपने लूट के विस्तार को सुरक्षित रखने के लिए कानून की आड़ में लफ्फाजी और जबर्दस्ती के तरीकों और कायदों का सहारा लिया गया, तब से प्रजा की कमाई से अधिक से अधिक अंश हड़पने की चालों को टैक्स पॉलिसी नाम दिया गया। पहले एक सीमा से अधिक आमदनी पर कम्पनियों पर टैक्स लगाया गया, फिर देश के भीतर भी सेवाओं और उद्योगों पर टैक्स के लिए नीतियाँ बनाई गईं।
मुश्किल यह है कि भारत के शिक्षितों का एक बड़ा वर्ग वर्तमान में यह तथ्य नहीं जानता कि सम्पूर्ण यूरोप और अमेरिका में राष्ट्र-राज्य केवल 200 वर्ष पहले अस्तित्व में आए हैं और उनकी नीतियाँ सदा प्रजा से अधिकतम निचोड़ लेने के लिए ही बनाई जाती रही हैं। पहले वहाँ छोटी-छोटी हजारों जागीरों का बेतरतीब और अनियमित फैलाव मात्र था। ये राष्ट्र-राज्य मध्ययुगीन चर्च की पैशाचिक लूट की प्रतिक्रिया में से उभरे हैं और उससे अपेक्षाकृत उदार नीतियाँ अपनाने का दावा करते रहे हैं। परन्तु इन सब की मूल दृष्टि प्रजा से अधिकतम निचोड़ लेने की ही है। इसीलिए इन नीतियों का अनुसरण उन देशों में करना उचित नहीं है, जहाँ हजारों साल से प्रजापालन और लोकसेवा ही राज्य का घोषित संकल्प और लक्ष्य रही है।
परन्तु अब तो स्थिति यह है कि स्वयं यूरोपीय देशों और अमेरिका में सम्पत्ति और टैक्स की जो नीतियाँ हैं, उनका भी अनुसरण भारत में नहीं किया जा रहा है, जबकि वे पहले से उदार हुई हैं। इसकी जगह सोवियत साम्राज्यवादी दौर में राज्य की एक भयंकर पैशाचिक अवधारणा के चलते जो वित्तीय नीतियाँ अपनाई गईं थीं, उनकी ही ढोल पीटी जा रही है, उन्हें ही भारत के लिए एकमात्र सही नीतियाँ बताया जा रहा है।
परम्परागत भारतीय राज्य निरंतर राष्ट्रीय सुरक्षा और समाज कल्याण पर राजकोष का एक बड़ा अंश खर्च करते रहे हैं। इसीलिए 18वीं शताब्दी ईस्वी तक भारत दुनिया की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति था। भारतीय राज्यों की आवश्यकता दुनिया के अन्य राज्यों से कम नहीं थी। युद्ध के खर्चे भी थे। परन्तु मर्यादा के अनुशासन के कारण भयंकर लूट की नीति भारतीय राज्य कभी भी नहीं अपना सके। ऐसी लूट पर केवल कुछ मुस्लिम शासक चल सके। बाद में अंग्रेजों ने उस लूट की परम्परा को कई गुना बढ़ाया। परन्तु 1947 ईस्वी के बाद तो इस लूट को सोवियत ढाँचे की नकल के द्वारा अद्वितीय विस्तार दिया गया। सोवियत संघ ढह गया है, परन्तु भारत में लोकतन्त्र की तमाम दुहाई के पीछे सोवियत संघ जैसा राज्यतन्त्र का ढाँचा बरकरार रखा गया है। इस ढाँचे का चरमराना और ढहना अनिवार्य है।
इंग्लैंड में 1 अप्रैल 2006 से जो नई कर-नीति लागू है, उसमें 3 लाख पाउण्ड तक वार्षिक लाभ कमाने वाली कम्पनियों पर 19 प्रतिशत टैक्स लगाया जाता है। इससे आगे 15 लाख पाउण्ड तक वार्षिक लाभ पर क्रमश: कर बढ़ता है, जो अंतिम सीमा पहुँचने पर 30 प्रतिशत हो जाता है। यह अधिकतम कर सीमा है। 10 हजार पाउण्ड (लगभग 10 लाख रुपए) तक के लाभ पर कुछ भी आयकर नहीं देना पड़ता। कम्पनियों की पूँजी पर इंग्लैंड में कोई टैक्स नहीं है। कम्पनियाँ व्यापार से हुए कुल लाभ से व्यापार में लगा अपना समस्त खर्च घटाकर ही फिर उस लाभ पर टैक्स देती है। अन्य स्तरों पर भी टैक्स नीतियाँ बहुत उदार हैं।
भारत में टैक्स नीतियाँ भयंकर हैं। यहाँ 5 से 10 लाख रुपए वार्षिक आय पर ही 20 प्रतिशत और 10 लाख से ऊपर 30 प्रतिशत आयकर है। इसके अतिरिक्त अप्रत्यक्ष करों की भरमार है। आबकारी और चुंगी ड्यूटी ही 38 प्रतिशत से ज्यादा है। लगभग 12 प्रतिशत अन्य इसी प्रकार के परोक्ष कर हैं। इस प्रकार वस्तुत: भारतीय नागरिकों पर गरीब से गरीब व्यक्ति की आय पर परोक्ष रूप से 50 प्रतिशत तक कर भारत में लगता है, जोकि गरीब व्यक्तियों द्वारा किए गए व्यय पर लगने वाला कर है, क्योंकि यह गरीबों के द्वारा खरीदी गई रोजाना इस्तेमाल की वस्तुओं- रोजाना के खाने-पीने, पहनने और रहने से जुड़ी चीजों पर लगने वाला परोक्ष कर है। इसके अतिरिक्त मध्यम वर्ग की आय और व्यय पर (व्यय पर कर से अर्थ है- खरीदी गई चीजों पर लगने वाला परोक्ष कर) अन्य अनेक प्रकार के कर हैं, जैसे- भवन रूपी सम्पत्ति के मूल्यांकन के आधार पर 30 प्रतिशत सम्पत्ति कर, व्यापार से होने वाले लाभों पर 25 से 75 प्रतिशत तक कर, राज्यों द्वारा कृषि आय के क्षेत्र में चाय, कॉफी आदि पर 50 से 75 प्रतिशत तक कर, वेतनभोगी कर्मचारियों पर 10 से 30 प्रतिशत तक कर, राज्यों द्वारा लगाए गए अनेक प्रकार के कर तथा स्थानीय स्वायत्त शासन द्वारा वसूले जाने वाले चुंगी आदि के कर लगाए गए हैं। कृषि आय के अतिरिक्त अन्य सभी प्रकार की आय पर टैक्स, कस्टम ड्यूटी, निर्यात ड्यूटी, तम्बाकू, चाय-कॉफी और अन्य वस्तुओं पर कर, कार्पोरेशन टैक्स, सम्पदा कर, कम्पनियों की पूँजी पर कर, सम्पत्ति की वसीयत आदि सभी प्रकार की अनिवार्य रजिस्ट्री पर कर, जलमार्ग, वायु मार्ग और सड़क तथा रेल मार्ग से लगने वाला भाड़ा एवं किराया, स्टाम्प ड्यूटी, अखबारों की बिक्री और विज्ञापन पर कर, अन्य खरीदी एवं बिक्री पर कर सहित सभी प्रकार के व्यापार एवं विक्रय तथा क्रय पर टैक्स हैं। इसके अतिरिक्त राज्य सरकारों द्वारा भूमि-राजस्व, कृषि आय पर कर, कृषि आय के हस्तांतरण आदि पर कर, कृषि आय पर सम्पदा कर, भवन और भूमि पर कर, खदानों सम्बन्धी समस्त क्रियाकलापों पर कर, शराब, अफीम एवं अन्य नशीले द्रव्यों की खरीदी और बिक्री पर कर, किसी भी वस्तु के बाजार में प्रवेश और बिक्री पर कर, बिजली की खपत और बिक्री पर कर, विज्ञापनों पर कर, सड़क, रेल या जलमार्ग से किये जाने वाले परिवहन पर कर, वाहनों पर कर, पशुओं पर कर, नौकाओं पर कर, चुंगी कर, सभी प्रकार के कार्यों, व्यवसायों, व्यापारों, उद्यमों और रोजगार पर कर, कैपिटेशन टैक्स, सुख-सुविधा की वस्तुओं पर कर, मनोरंजन कर, स्टाम्प ड्यूटी कर आदि सैकड़ों प्रकार के कर वसूले जाते हैं। किसी भी प्रकार के वेतन से आमदनी पर कर तो है ही। उसमें एक न्यूनतम सीमा तक छूट भी है। स्थानीय स्वायत्त संस्थाएँ और निगम आदि भी अनेक प्रकार के टैक्स वसूलते हैं।
पूँजी बनाने पर कर, सम्पत्ति या सम्पदा के संचय और स्वामित्व पर कर, व्यापार पर कर, लाभ पर कर, जीवन के समस्त क्रियाकलापों पर कर की यह विराट व्यवस्था है। गरीब से गरीब आदमी के द्वारा सरकार को टैक्स दिया जाता है, क्योंकि भोजन, निवास, वस्त्र, भोजन जुटाने और पकाने तथा बीड़ी-सिगरेट, माचिस, मनोरंजन आदि सभी क्रियाकलापों से जुड़ी वस्तुओं पर कर है, जो भी व्यक्ति कुछ भी खाता या पीता है, पहनता और पहनाता है, मनोरंजन करता या अंत्येष्टि आदि करता है, उस सब से सरकार कर वसूलती है। इन वसूले गए करों के द्वारा जो कार्य किए जाते हैं, उन्हें ही समाज के कल्याण के कार्य बताया जाता है।
कुल मिलाकर जैसे आमदनी प्राप्त करना यानी कमाना स्वयं में एक ऐसा काम है, जिस पर कमाने वाले को हमेशा संकुचित और दबा हुआ रहना चाहिए तथा शासन को कमाई का काफी बड़ा हिस्सा देते रहना चाहिए। वस्तुत: टैक्स की यह भयंकर नीति देश की समस्त सम्पत्ति को मूलत: राज्य की सम्पत्ति मानने की कम्युनिस्ट अवधारणा का विस्तार है। साम्राज्यवादी दौर में अंग्रेजों ने भी यही प्रयास किया था परन्तु उन्हें केवल आधे भारत में आंशिक सफलता मिली थी। 1947 ईस्वी के बाद भारतीय समाज का स्नेह प्राप्त करते हुए और उसे धोखे में रखते हुए सत्ता हस्तांतरण से शासक बने लोगों ने सम्पत्ति की वह भयंकर और अनैतिक अवधारणा सारे देश में लाद दी और उसमें सोवियत संघ की पैशाचिकता का समन्वय कर दिया। यह तो भारत के पुरुषार्थी लोगों का कमाल है कि कहीं राज्यतन्त्र से कुछ छिपाकर और कहीं खूब मेहनत और कौशल से अधिकाधिक कमाकर उन्होंने ऐसी भयंकर आर्थिक नीतियों और कर नीतियों के बावजूद भारत को सोवियत संघ और चीन की तरह कंगाल नहीं होने दिया तथा 1947 ईस्वी से सन् 2000 ईस्वी तक सरकारों द्वारा लगातार देश की गरीबी और कंगाली की दुहाई देते रहने के बावजूद यह चमत्कार कर दिखाया कि अब वे ही राज्यकर्ता लोग भारत को आर्थिक महाशक्ति बनते देख और बता रहे हैं। यह राज्यतन्त्र के कारण नहीं, राज्यतन्त्र के बावजूद हुआ है। 1947ईस्वी से 2000 ईस्वी तक कभी भी किसी भी शासकीय घोषणाओं में यह नहीं कहा गया कि हम कोई आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहे हैं या हमारी समृद्धि विश्व में अद्वितीय रूप में बढ़ रही है, अपितु निरंतर गरीबी और बेरोजगारी तथा कंगाली का रोना रोते रहना ही राज्यकर्ताओं का मुख्य लक्षण बन गया और इस गरीबी और बेरोजगारी को मिटाने के नाम पर ही उन्होंने सारी नीतियाँ बनाईं, जबकि वस्तुत: ये नीतियाँ राष्ट्रीय सम्पत्ति का हरण करने वाली थीं और राष्ट्रीय समृद्धि को बाधित करने के लिए बनाई गई थीं। ताकि इस सम्पत्ति का बड़ा हिस्सा कल्याणकारी कार्यों के लिए संग्रहीत टैक्स के नाम पर शासकों और प्रशासकों तथा उनके सेवकों (जिन्हें झूठे अनुवाद द्वारा लोकसेवक कहा गया है, जबकि वे पब्लिक सर्वेन्ट अर्थात् राजसेवक हैं।) के लिए वेतन,भत्तों, सुख-सुविधाओं और विलासिताओं का प्रबन्ध किया जाता रहा है।
इन टैक्सों की वसूली के लिए जो अधिकारी और कर्मचारी हैं, उनके वेतन और भत्तों तथा प्रबन्ध सम्बन्धी व्ययों पर वसूले गए टैक्स का लगभग एक तिहाई हिस्सा खर्च हो जाता है। इस प्रकार उनके सभी सुखों और सुविधाओं के लिए भारतीय नागरिक को टैक्स देना होता है। यदि कर-नीति सरल हो और मूल स्रोत में कटौती तथा बैंक ट्रांजेक्शन टैक्स का नियम लागू होता है, तो यह सभी रकम जो कर वसूलने वाले पूरे तन्त्र पर खर्च होती है, खर्च नहीं होगी।
भारत एक प्राचीनकाल से निरंतर चला आ रहा समाज है और इसीलिए राज्य की व्यवस्था की परम्परा भी यहाँ हजारों वर्षों पुरानी है। ऐसी स्थिति में भारत के राज्यों की क्या कर नीति रही है, इस पर अध्ययन एवं सार्वजनिक विमर्श होना आवश्यक है। उसके बिना वर्तमान राज्य की टैक्स-नीति पर कोई भी चर्चा सार्थक नहीं हो सकेगी।
स्मरणीय है कि भारतीय मेधा अर्थ के क्षेत्र में हजारों वर्षों से दुनिया की सबसे तीक्ष्ण, सटीक, प्रभावी और शक्तिशाली मेधा रही है। तभी तो ज्ञात ऐतिहासिक काल में भारत सदा से दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ व्यवस्था रहा है। भारत एक तरफ था और शेष विश्व दूसरी तरफ। इस विषय पर अनेक अध्ययन हो चुके हैं और यह एक विश्व मान्य तथ्य है।
भारतीय मेधा राष्ट्र जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के विषय में प्राप्त बौद्धिक विरासत के अनुकूल सदा श्रेष्ठ चिंतन करती रही है। परन्तु सत्ता हस्तांतरण से शक्तिशाली बने समूहों ने भारतीय मेधा की इस परम्परा को भारत के सार्वजनिक विमर्श के केन्द्र से बाहर कर दिया। उसे फिर से सार्वजनिक केन्द्र में लाने का श्रेय भारत के स्वाभिमान की जीवन्त मूर्ति स्वामी रामदेवजी महाराज को है। इसलिए यह अत्यन्त आवश्यक है कि कर ढाँचे को स्वाभाविक बनाने और एक स्वस्थ्य कर-नीति बनाने के विषय में स्वामीजी के द्वारा प्रस्तावित उपायों पर गहरा मंथन समाज में चले। इस मंथन के द्वारा सरकार पर दबाव बनेगा, तो आशा है कि भारत के आर्थिक पुरुषार्थ के गले में डाला गया मौजूदा कर-नीति का फंदा कटेगा।
अभी जो लोग इन प्रस्तावों के विरुद्ध शोर मचा रहे हैं, उन्हें न तो भारत के आर्थिक गौरव और शक्ति के इतिहास की कोई जानकारी है और न ही आधुनिक दुनिया का कोई ज्ञान है। स्वयं भारत के भीतर 1947 ईस्वी तक आधे से अधिक भारत में देशी कर-संरचनाएँ चल रहीं थीं। अंग्रेजी कर-नीतियाँ केवल ब्रिटिश आधिपत्य वाले भारत में थीं। परन्तु कांग्रेस ने पूरे देश में वे ही पैशाचिक साम्राज्यवादी लूट की नीतियाँ लाद दीं। यह तो राष्ट्रभक्ति का लक्षण नहीं नजर आता। पैशाचिक नीतियों की निरंतरता हर क्षेत्र में लादी गई। अब उसे हर क्षेत्र से हटाना होगा। इसका प्रारम्भ कर ढाँचे को स्वाभाविक बनाने और सही कर-नीतियाँ बनाने से ही होगा। भारत का राज्य भारतीय समाज की एक शीर्ष संस्था है। उसे भारत का पोषण और संरक्षण करना चाहिए, जिसका अर्थ है- भारतीय नागरिकों के जीवन, सम्पत्ति, अर्थ परम्परा और विद्या परम्परा तथा व्यवस्था-बुद्धि, पारम्परिक हुनर और कौशल, प्रबन्धन के पारम्परिक ज्ञान तथा पुरुषार्थ रूपों का संरक्षण। वर्तमान कर-ढाँचा तो यूरोपीय देशों की वर्तमान स्थिति की नकल भी नहीं है। वह केवल साम्राज्यवादी लूट की निरंतरता में चल रहा ढाँचा है। इसे बदलना और विवेकपूर्ण तथा सुसंगत बनाना प्रत्येक राष्ट्रभक्त का कत्र्तव्य है।
कार्यकारी निदेशक,
गांधी विद्या संस्थान, राजघाट, वाराणसी

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