Tuesday 21 May 2013

एक प्रेरक कथा :
एक थका माँदा शिल्पकार लंबी यात्रा के बाद किसी छायादार वृक्ष के नीचे विश्राम के लिये बैठ गया। अचानक उसे सामने एक पत्थर का टुकड़ा पड़ा दिखाई दिया। उसने उस सुंदर पत्थर के टुकड़े को उठा लिया, सामने रखा और औजारों के थैले से छेनी-हथौड़ी निकालकर उसे तराशने के लिए जैसे ही पहली चोट की, पत्थर जोर से चिल्ला पड़ा, "उफ मुझे मत मारो।" दूसरी बार वह रोने लगा, "मत मारो मुझे, मत मारो... मत मारो।
शिल्पकार ने उस पत्थर को छोड़ दिया, अपनी पसंद का एक अन्य टुकड़ा उठाया और उसे हथौड़ी से तराशने लगा। वह टुकड़ा चुपचाप वार सहता गया और देखते ही देखते उसमे से एक एक देवी की मूर्ती उभर आई। मूर्ती वहीं पेड़ के नीचे रख वह अपनी राह पकड़ आगे चला गया।
कुछ वर्षों बाद उस शिल्पकार को फिर से उसी पुराने रास्ते से गुजरना पड़ा, जहाँ पिछली बार विश्राम किया था। उस स्थान पर पहुँचा तो देखा कि वहाँ उस मूर्ती की पूजा अर्चना हो रही है, जो उसने बनाई थी। भीड़ है, भजन आरती हो रही है, भक्तों की पंक्तियाँ लगीं हैं, जब उसके दर्शन का समय आया, तो पास आकर देखा कि उसकी बनाई मूर्ती का कितना सत्कार हो रहा है! जो पत्थर का पहला टुकड़ा उसने,उसके रोने चिल्लाने पर फेंक दिया था वह भी एक ओर में पड़ा है और लोग उसके सिर पर नारियल फोड़ फोड़ कर मूर्ती पर चढ़ा रहे है।
शिल्पकार ने मन ही मन सोचा कि जीवन में कुछ बनपाने के लिए शुरू में अपने शिल्पकार को पहचानकर, उनका सत्कारकर कुछ कष्ट झेल लेने से जीवन बन जाता हैं।बाद में सारा विश्व उनका सत्कार करता है। जो डर जाते हैं और बचकर भागना चाहते हैं वे बाद में जीवन भर कष्ट झेलते हैं, उनका सत्कार कोई नहीं करता ।
 — with Bala Subramaniam and 3 others.

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